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चित्रकला की विभिन्न शैलियाँ
● चित्रकला के प्राचीन स्थल
● रॉक पेंटिंग – आलनिया, दर्रा एवं मुकुन्दरा, चम्बल नदी किनारे, कोटा
● बैराठ सभ्यता, जयपुर से अनेक प्राचीन चित्रों की प्राप्ति हुई है। अत: इसे ‘प्राचीन युग का चित्रशाला’ कहा गया है।
● दर (भरतपुर) से ‘पहनियों के चित्रों’ की प्राप्ति हुई है। इनकी खोज डॉ. विष्णु श्रीधर बाकणकर ने की थी।
● कालीबंगा (हनुमानगढ़) से अलंकृत ईंटों के साक्ष्य मिले हैं।
● अगस्त मुनि आश्रम, पुष्कर
● दस वैकालिका सूत्र चूर्णी एवं औध निर्युक्ति वृत्ति राजस्थान में 1060 ई. में जैसलमेर भंडार से सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ मिलें।
● चोर पंचाशिका व चावण्ड रागमाला ग्रंथों को कला इतिहासज्ञों ने राजस्थानी चित्रकला शैली के आरंभिक ग्रंथ चित्र माने हैं। जिसका समय लगभग 16वीं शताब्दी पूर्वार्द्ध माना गया है।
● राजस्थानी चित्रकला का विकास
● गुर्जर शैली → जैन शैली → गुजराती शैली → अपभ्रंश शैली → राजस्थानी शैली
● राजस्थानी चित्रकला का उद्भव 15 व 16वीं सदी के लगभग गुर्जर शैली या जैन शैली या अजंता शैल या गुजरात शैली या अपभ्रंश शैली से हुआ जिसका प्रारम्भिक केंद्र मेवाड़ रहा एवं मेवाड़ शैली को राजस्थान चित्रशैली की जननी कहते हैं।
● 17वीं सदी का युग राजस्थानी चित्रकला का स्वर्णिम काल माना जाता है।
● ‘आधुनिक भारतीय चित्रकला का पितामह’ केरल के रवि वर्मा को माना जाता है। उन्होंने महाराणा प्रताप का चित्र बनाया था।
● राजस्थानी चित्रकला के आधुनिक जनक कुंदनलाल मिस्त्री को माना जाता है।
राजस्थान की चित्रकला को विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न नामों से संबोधित किया है।
W.H. ब्राउन ने ‘राजपूत कला’ कहा। |
एन.सी. मेहता ने ‘हिन्दू चित्रकला’ कहा। |
रायकृष्णदास/ कर्नल जेम्स टॉड ने ‘राजस्थानी चित्रकला’ कहा। |
राजस्थान में चित्रकला के प्रमुख संग्रहालय
पुस्तक प्रकाश – जोधपुर |
पोथीखाना – जयपुर |
सरस्वती भण्डार – उदयपुर |
जैन ग्रंथ सूरी भण्डार – जैसलमेर |
राजस्थान में चित्रकला से संबंधित संस्थाएँ
राजस्थान ललित कला अकादमी – जयपुर |
जवाहर कला केन्द्र – जयपुर |
क्रिएटिव आर्टिस्ट ग्रुप – जयपुर |
आयाम – जयपुर |
कलावृत – जयपुर |
पैग – जयपुर |
चितेरा – जोधपुर |
धोरा – जोधपुर |
टखमण – 28 – उदयपुर |
पश्चिमी सांस्कृतिक केन्द्र – उदयपुर |
प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप – उदयपुर |
मयूर – वनस्थली (टोंक) |
भण्डार – सोनार दुर्ग (जैसलमेर) |
राजस्थानी चित्रकला का वर्गीकरण
● राजस्थानी चित्रकला का सर्वप्रथम वैज्ञानिक विभाजन वर्ष 1916 में आनंदकुमार स्वामी ने अपनी पुस्तक ‘राजपूत पेंटिंग’ में किया था।
● राजस्थानी चित्रकला को 4 मुख्य भागों में बाँटा गया है, जिन्हें ‘स्कूल्स’ कहा गया है-
राजस्थान लघु चित्र शैलियाँ
मेवाड़ स्कूल |
मारवाड़ स्कूल |
ढूँढाड़ स्कूल |
हाड़ौती स्कूल |
उदयपुर या मेवाड़ शैली |
जोधपुर शैली |
आमेर शैली |
बूँदी शैली |
नाथद्वारा शैली |
बीकानेर शैली |
जयपुर शैली |
कोटा शैली |
चावंड शैली |
किशनगढ़ शैली |
अलवर शैली |
झालावाड़ |
देवगढ़ शैली |
जैसलमेर शैली |
उणियारा शैली |
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नागौर शैली |
शेखावाटी शैली |
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अजमेर शैली |
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घाणेराव शैली |
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राजस्थान चित्र शैलियों की प्रमुख विशेषताएँ
चित्र शैली |
प्रमुख रंग |
आँखें |
वृक्ष |
पशु |
पक्षी |
मेवाड़ |
लाल व पीला |
मृग के समान |
कदम्ब |
हाथी |
चकोर |
जोधपुर |
पीला |
बादाम के समान |
आम |
ऊँट |
कौआ व चील |
बीकानेर |
पीला |
तीर कमान के समान |
आम |
ऊँट |
कौआ व चील |
जयपुर अलवर |
हरा |
मछली के समान |
पीपल बरगद |
अश्व |
मोर |
कोटा |
नीला |
आम के समान |
खजूर |
हरिण या शेर |
बत्तख |
बूँदी |
सुनहरा |
आम के समान |
खजूर |
हरिण या शेर |
बत्तख |
किशनगढ़ |
श्वेत या गुलाबी |
खंजर के तीर कमान के समान |
केला |
गाय |
मोर, हंस, बत्तख |
नाथद्वारा |
हरा व पीला |
हरिण व गाय के समान |
केला |
गाय |
मोर |
मेवाड़ स्कूल :-
मेवाड़ या उदयपुर चित्रशैली
● मेवाड़ राजस्थानी चित्रकला का सबसे प्राचीन एवं मूल केन्द्र हैं।
● इस चित्रशैली का आरंभ 15वीं शताब्दी में महाराणा कुम्भा के शासनकाल में हुआ।
● महाराणा अमरसिंह के शासनकाल में इस चित्रशैली का अधिक विकास हुआ।
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र चूर्णी
● यह मेवाड़ चित्रशैली का सबसे प्राचीन चित्रित ग्रंथ है।
● यह ग्रंथ मेवाड़ महाराणा तेजसिंह के समय 1260-61 ई. के मध्य कमलचन्द्र नामक चित्रकार के द्वारा आहड़ (उदयपुर) में ताड़ (पत्रों) पर चित्रितसनाह चरियम (स● यह मेवाड़ चित्रशैली का दूसरा प्राचीन ग्रंथ है।
● यह ग्रंथ मेवाड़ महाराणा मोकल के शासनकाल में देवकुल पाठक, देलवाड़ा (सिरोही) में चित्रकार हीरानंद द्वारा सन् 1423 ई. चित्रित किया था।
● यह जैन व गुजराती शैली का मिश्रण है।
● स्वर्णकाल – महाराणा जगतसिंह प्रथम (1628-1652 ई.)
● चितेरों की ओवरी या तस्वीराँ रो कारखानों – महाराणा जगतसिंह प्रथम के समय स्थापित
महाराणा जगतसिंह–प्रथम के काल के प्रमुख चित्र
रागमाला, रसिकप्रिया, भगवत् पुराण, एकादशी महात्म्य मालती माधव, पृथ्वीराज री बेल, गीत गोविन्द, रामायण (मनोहर) |
● साहिबद्दीन ने 1655 ई. में ‘शूकर क्षेत्र महात्म्य‘ एवं ‘भ्रमरगीत सार‘ जैसे चित्रों की रचना की थी।
● महाराणा जयसिंह के काल में अधिक मात्रा में लघु चित्रों का निर्माण हुआ।
● महाराणा हम्मीर के काल में ‘बडे़ पन्नों’ पर चित्र बनाने की परंपरा शुरू हुई।
● महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय (1710-34 ई.) के समय प्रमुख चित्रकार नुरुद्दीन था, जिसने विष्णु शर्मा द्वारा रचित ‘पंचतंत्र’ पर अनेक चित्र बनाए।
● कलीला-दमना मेवाड़ चित्रशैली में चित्रित पंचतंत्र की कहानी के दो प्रमुख पात्र है। यह दो गीदड़ों की एक कहानी है।
प्रमुख चित्रकार
साहिबद्दीन, मनोहर,कमलचन्द, कृपाराम, शाह उमरा, जीवाराम, नासिरुद्दीन, नुरुद्दीन, गंगाराम, जगन्नाथ, हीरानंद, भैरुराम, श्योबक्स |
पुरुष चित्रण की विशेषताएँ
गठीली मूँछों से युक्त भरे चहरे, विशाल नयन, खुले हुए अधर, छोटी ग्रीवा, छोटा कद, उदयपुरी पगड़ी व लम्बा साफा, |
महिला चित्रण की विशेषताएँ –
छोटा कद, छोटी ठोड़ी, पत्तियों के समान भौंहें, मीनाकृत आँखें गरुड़नासिका उदात्त व सरल भाव लिए चेहरा |
विषय
श्रीमद् भागवत, सूरसागर, गीतगोविंद, कृष्णलीला, दरबार के दृश्य, शिकार के दृश्य |
नाथद्वारा चित्रशैली
● प्रारंभ – मेवाड़ महाराणा राजसिंह (1652-80 ई.)
● सर्वाधिक प्रभाव – वल्लभ सम्प्रदाय
● उपनाम – वल्लभ चित्रशैली
● मुख्य विषय – श्रीकृष्ण और यशोदा
● यहाँ पर फरवरी, 1672 को श्रीनाथजी की मूर्ति स्थापित की गई थी।
● इस चित्रशैली का विकास मेवाड़ एवं ब्रज की सांस्कृतिक परम्पराओं के समन्वय से हुआ है।
प्रमुख विशेषताएँ –
● श्रीनाथजी का चित्रण, गायों का मनोरम अंकन, भित्ति चित्र, बाल ग्वाल, गोपियाँ, केले के वृक्ष।
● इस शैली की पृष्ठभूमि में सघन वनस्पति दर्शाई गई है, जिसमें केले के वृक्ष की प्रधानता है।
● पिछवाइयाँ – श्रीनाथजी के स्वरूप के पीछे, बडे़ आकार के कपडे़ के पर्दे पर बनाए गए चित्र।
प्रमुख चित्रकार
नारायण, भगवान, चम्पालाल, तुलसीराम, रामलिंग, हीरालाल, हरदेव, विट्टल, चतुर्भुज, घासीराम, उदयराम महिला चित्रकार ‘कमला एवं ईलायची’ |
महिला चित्रण की विशेषताएँ
छोटा कद,मंगलसूत्र पहने हुए, शारीरिक स्थूलता, तिरछी व चकोर के समान आँखें, प्रौढ़ता, नथ मोती, भावों में वात्सल्य की झलक |
देवगढ़ चित्रशैली
● प्रारम्भ – रावल द्वारकादास चूंडावत
● इस चित्रशैली को प्रकाश में लाने का श्रेय डॉ.श्रीधर अंधारे को जाता है।
● इस चित्रशैली पर मेवाड़, मारवाड़ व ढूँढाड़ शैलियों का प्रभाव पड़ा, जिस कारण इसे मिश्रित शैली भी कहा जाता है।
● इस शैली में हरे व पीले रंगों का प्रयोग अधिक हुआ है।
● इस शैली के भित्ति चित्र अजारा की ओवरी व मोती महल आदि में देखने को मिलते हैं।
प्रमुख विषय
वल्लभ सम्प्रदाय से संबंधित प्रश्न, हाथियों की लड़ाई राजदरबार के दृश्य, शिकार के दृश्य, शृंगार, राजसी ठाठबाट |
प्रमुख चित्रकार
बगला, कँवला, हरचंद, नंगा, चोखा, बैजनाथ |
चावण्ड चित्रशैली
● प्रारंभ – महाराणा प्रताप (1585 ई.)
● स्वर्णकाल – महाराणा अमरसिंह प्रथम (1597-1620 ई.)
● 1592 ई. में महाराणा प्रताप के समय निसारुदीन ने ‘ढोलामारू’ का चित्र बनाया था, जो वर्तमान में दिल्ली संग्रहालय में सुरक्षित है।
● अमरसिंह के काल में 1605 ई. में निसारुदीन ने ‘रागमाला‘ नामक ग्रंथ का चित्रण किया था।
मारवाड़ स्कूल :-
मारवाड़ या जोधपुर चित्रशैली
● आरम्भ – राव मालदेव के काल में हुआ।
● राव मालदेव ने मेहरानगढ़ दुर्ग में चोखेलाव महल का निर्माण
करवाया तथा इस महल में दो चित्र बनाए-
1. राम-रावण युद्ध का चित्र 2. सप्त सती का चित्र
● यह दोनों मारवाड़ शैली के आरम्भिक चित्र हैं।
● यहाँ मारवाड़ी साहित्य के प्रेमाख्यान पर आधारित चित्रण अधिक हुआ है। जैसे – ढोलामारू रा दूहा, वेलि क्रिसन रुक्मिणी री, वीरमदे सोनगरा री बात, चन्द्र कुँवर री बात, मृगावती रास, फूलमती री वार्ता, हंसराज बच्छराज चौपाई आदि साहित्यिक कृतियों के चरित्र मारवाड़ चित्रकला के आधार रहे हैं।
● मुगल शैली का प्रभाव – मोटाराजा उदयसिंह प्रथम
● कम्पनी शैली का प्रभाव – महाराजा तख्तसिंह
● स्वर्णकाल – महाराजा जसवन्तसिंह प्रथम
● नाथ संप्रदाय का प्रभाव – महाराजा मानसिंह (संन्यासी राजा)
19वीं शताब्दी में महाराजा मानसिंह के काल में जोधपुर शैली नाथों के मठों में विकसित हुई।
● महामंदिर व उदयमंदिर में अनेक ग्रन्थ चित्रित हुए।
● जैसे – 1623 ई. में वीरजीदास भाटी – ‘रागमाला’ ग्रन्थ चित्रित किया।
● महाराजा मानसिंह ने अपने चित्रकारों को मठों में संरक्षण दिया।
प्रमुख चित्रकार
वीरजी, नारायणदास भाटी, कालूराम, छज्जू भाटी, शंकरदास, भाटी, अमरदास, बिशनदास, शिवदास, फतेह मोहम्मद, सैफू, जीतमल, रामसिंह भाटी, रामा नाथा। |
● प्रमुख चित्रित ग्रंथ एवं विषय
नाथ चरित्र, भागवत, पंचतंत्र, ढोला मारु, सूरसागर, रसिकप्रिया, रागमाला (वीरजी), मूमलदे, निहालदे, लोकगाथाएँ |
● मारवाड़ या जोधपुर शैली की विशेषताएँ
● मरुस्थल, घोडे़, झाड़ियों आदि का चित्रण।
● पीले रंग की प्रधानता।
● बादाम के समान नेत्र
● आम का वृक्ष
● राजसी वैभव के वस्त्राभूषण।
● चित्राकृतियों में गति एवं मुद्राओं में नाटकीयता दृष्टिगोचर होती है।
बीकानेर चित्रशैली
● प्रारम्भ– महाराजा रायसिंह
● ‘भागवत पुराण’ बीकानेर शैली का प्रथम चित्रित ग्रन्थ है।
● ‘रागमाला सेट’ का चित्रण नूर मोहम्मद नामक चित्रकार ने किया, जो महाराजा रायसिंह का दरबारी चित्रकार था।
● महाराजा रायसिंह के काल में इस शैली में ‘धार्मिक चित्रों’ का सर्वाधिक चित्रण हुआ।
● स्वर्ण काल – महाराजा अनूपसिंह
● इनके काल में सर्वाधिक चित्र चित्रित हुए ।
● इनके काल में बीकानेर शैली पर द्रविड़ शैली का प्रभाव देखा गया।
● बीकानेर शैली में मुगल शैली एवं दक्कन शैली का समन्वय है।
● ‘उस्ता कला’ व ‘मथैरणा कला’ का उद्गम व विकास महाराजा अनूपसिंह के शासनकाल में हुआ।
● उस्ता कला
● ऊँट के खाल तथा कूम्पों पर सोने की नक्काशी।
● अकबर ने स्वयं अपने दरबार में उस्ता कलाकारों को सम्मानजनक स्थान प्रदान किया।
प्रमुख कलाकार
अलीरजा, साहिबद्दीन, कायम खाँ, रुक्नुद्दीन, हिसामुद्दीन उस्ता (पद्म श्री से सम्मानित)। |
● मथैरणा कला
● यह बीकानेर के स्थानीय चित्रकारों की कला है।
● इस कला के चित्रकार ‘मथैरण’ जैन समाज के लोग होते हैं।
● इस कला में देवी-देवताओं का भित्ति-चित्रण करते हैं।
प्रमुख चित्रकार
मुन्नालाल, मुकुंद, चंदुलाल |
● कम्पनी शैली का प्रभाव –महाराजा सूरतसिंह
विशेषता –
● पीले रंग की प्रधानता ।
● आरम्भ से ही मुगल शैली का प्रभाव ।
● बालू के टीलों का अंकन
● लम्बी इकहरी नायिकाएँ
● बीकानेर शैली के चित्रकार, चित्रों के साथ अपना नाम व तिथि अंकित करते थे।
किशनगढ़ चित्रशैली
● आरम्भ व स्वर्ण काल – महाराजा सावंतसिंह या नागरीदास
● प्रकाश में लाने का श्रेय – डॉ.फैय्याज अली व एरिक डिक्सन
विशेषताएँ –
● वल्लभ सम्प्रदाय का सर्वाधिक प्रभाव होने के कारण कृष्ण-लीलाओं का अधिक चित्रण हुआ।
● इस शैली में ‘कांगडा शैली’ का प्रभाव।
● नारी सौन्दर्य का चित्रण प्रमुख विशेषता।
● किशनगढ़ चित्रशैली के प्रमुख चित्रों में वृक्ष, पक्षी आदि शामिल हैं।
● प्रेम-रस पर आधारित शैली।
● उभरी हुई ठोडी, नेत्रों की खंजनाकृति बनावट, धनुषाकार भौंहें, गुलाबीअदा, सुरम्य सरोवरों का अंकन इस चित्रशैली के चित्रों की प्रमुख विशेषताएँ हैं।
प्रमुख चित्रकार
मोरध्वज निहालचंद, नानकराम, सीताराम, रामनाथ, बदनसिंह, सूरध्वज, लाडलीदास, सवाईराम अमीरचन्द, तुलसीदास। |
● रंग – श्वेत, गुलाबी व लाल।
● बणी–ठणी
● किशनगढ़ चित्रशैली का प्रमुख चित्र।
● चित्रकार – मोरध्वज निहालचंद (लियोनार्दो-द-विंची)।
● एरिक डिक्सन ने इस चित्र को ‘भारत की मोनालिसा’ कहा।
● 5 मई, 1973 को 20 पैसे का डाक टिकिट जारी किया।
● चाँदनी रात की संगोष्ठी
● चित्रकार – अमीरचंद।
जैसलमेर शैली या मांड शैली
● इस शैली पर अन्य किसी भी चित्रशैली का प्रभाव नहीं पड़ा।
● मरुस्थल, झाड़ियों और ऊँटों का चित्रण मिलता हैं।
● इस शैली के भित्ति चित्र हवेलियों पर चित्रित है – नथमल की हवेली, पटवों की हवेली और सालिम सिंह मेहता की हवेली।
● ढोलामारू का चित्रण जोधपुर शैली का मुख्य विषय था।
● मूमल का चित्रण जैसलमेर शैली का मुख्य विषय था।
अजमेर चित्रशैली
● बैंगनी रंग की प्रधानता
● मसूदा, कैकड़ी, भिनाय ठिकानों में भित्ति चित्र इसी शैली के हैं।
प्रमुख चित्रकार
चाँद, रामसिंह भाटी, जालजी, नारायण भाटी, माधोजी, अल्लाबक्स और तैय्यब महिला चित्रकार – साहिबा |
● जूनियाँ के चाँद द्वारा चित्रित राजा पाबूजी का 1698 ई. का व्यक्ति चित्र इस चित्रशैली का सुन्दर उदाहरण है।
नागौर चित्रशैली
● कलात्मक बादल महल पर भित्ति चित्र
● बुझे हुए रंगों का प्रयोग किया गया।
● पारदर्शी वेशभूषा इस शैली की विशेषता है।
घाणेराव चित्रशैली
चित्रकार – नारायण, छज्जू और कृपाराम।
ढूँढाड़ स्कूल :-
आमेर चित्रशैली
● प्रारम्भकर्ता – मिर्जा राजा मानसिंह
प्रमुख चित्रकार
पुष्पदत्त, हुक्मचंद, मुरली |
● चित्रकार पुष्पदत्त ने “आदि पुराण” नामक ग्रन्थ का चित्रण किया।
● स्वर्णकाल – मिर्जाराजा जयसिंह-प्रथम के काल में सर्वाधिक चित्र चित्रित हुए।
● चित्रकार मुरली ने ‘बिहारी सतसई’ ग्रन्थ का चित्रण किया।
● विशेषता – आरम्भ से ही मुगल शैली का प्रभाव
● प्राकृतिक रंगों का प्रयोग
जयपुर चित्रशैली
● प्रारम्भ – सवाई जयसिंह-द्वितीय के समय
● मोहम्मद शाह (सवाई जयसिंह-द्वितीय का दरबारी चित्रकार) ने ‘रज्मनामा’ ग्रन्थ चित्रित करके सवाई जयसिंह-द्वितीय को भेंट किया।
● सवाई प्रतापसिंह
● सवाई प्रतापसिंह का शासन काल जयपुर चित्रशैली का स्वर्णकाल रहा।
● इनके काल में 22 चित्रकार, 22 कवि, 22 संगीतकार , 22 विद्वानों की मंडली ‘गंधर्व बाईसी‘ थी।
● जयपुर में सवाई जयसिंह ने ‘सूरतखाना’ नामक चित्रकला का विभाग बनाया।
● प्रतापसिंह ने चित्रकारों को राजकीय संरक्षण दिया।
● सवाई जयसिंह के उत्तराधिकारी ईश्वरीसिंह के समय साहिबराम नामक प्रतिभाशाली चितेरा था, जिसने आदमकद चित्र बनाकर चित्रकला की नई परम्परा डाली।
● प्रमुख चित्र – ‘राधा-कृष्ण का नृत्य’ (साहिबराम द्वारा चित्रित), ‘सवाई प्रतापसिंह का आदिम चित्र’ (साहिबराम द्वारा चित्रित)
प्रमुख चित्रकार
रामसेवक, गोपाल, चिमना, हुकमा, लक्ष्मण, सालिगराम, लाल चन्द घासीदास, त्रिलोक, साहिबराम, मोहम्मद शाह, हीरानन्द, रामजीदास |
● सवाई रामसिंह द्वितीय
● कम्पनी शैली का प्रभाव।
● मदरसा-ए-हुनरी/राजस्थान स्कूल आर्ट एण्ड क्राफ्ट की स्थापना। (चित्रकला की स्कूल)
विषय
शाही सवारी, महफिलें, राग-रंग, शिकार, बारहमासा, गीत गोविंद, रामायण |
विशेषता –
● जयपुर शैली में व्यक्ति का चित्रण हुआ है इसे ‘सबीह’ शैली कहा जाता है।
● आदमकद चित्रण।
● भित्ति चित्रण।
● हाथियों का चित्रण।
● शहजादियों का चित्रण।
● सोना-चाँदी का प्रयोग
● पुरुष की बलिष्ठता और महिलाओं की कोमलता
● इस शैली में आरम्भ से ही मुगल शैली का सर्वाधिक प्रभाव था।
अलवर चित्रशैली
● राजगढ़ के महलों में ‘शीशमहल’ का चित्रण, राव बख्तावरसिंह के द्वारा करवाया गया, यहीं से चित्रकला की ‘अलवर शैली’ का विकास हुआ।
● महाराजा विनयसिंह का शासनकाल, अलवर चित्रशैली का स्वर्णकाल रहा।
● अलवर शैली में ‘वैश्याओं के चित्र’ सर्वाधिक चित्रित किए गए।
प्रमुख चित्रकार
डालूराम, बलदेव, नानकराम, नंदराम, मूलचंद सोनी, छोटेलाल, जमनालाल, बक्साराम |
● विनयसिंह ने शेखसादी की गुलिस्तां की पाण्डुलिपि को बलदेव से चित्रित करवाया।
● महाराजा शिवदान सिंह के समय ‘कामशास्त्र’ के आधार पर चित्रण हुआ।
● मूलचंद नामक चित्रकार ‘हाथी दाँत’ पर चित्रकारी करता था।
प्रमुख विशेषताएँ –
● अलवर शैली में ‘बॉर्डर’ को महत्त्व दिया गया।
● बार्डर को महत्त्व देने वाली शैली को ‘बैसलो शैली’ कहते हैं।
उणियारा चित्रशैली
● उणियारा, जयपुर राज्य का एक ठिकाना था, जो वर्तमान में टोंक जिले में है।
● जयपुर शैली तथा बूँदी शैली का मिश्रण
● चित्रकार – धीमा, मीरबक्श, काशी,भीम,रामलखन आदि।
● ‘राम-सीता, लक्ष्मण एवं हनुमान’ द्वारा चित्रित उणियारा शैली का उत्कृष्ट चित्र है।
शेखावाटी चित्रशैली
● यह कला स्थानीय साहूकारों, सेठों तथा जागीरदारों द्वारा हवेलियों पर चित्रण करवाकर विकसित की गई।
● यह शैली भित्ति चित्रण के लिए प्रसिद्ध है।
● इस शैली में सामान्य जनजीवन का चित्रण किया गया।
● बलखाते बालों का दोनों तरफ चित्रण इस शैली में हुआ।
● शेखावाटी शैली के भित्ति चित्र हवेलियों पर उपलब्ध है।
हाड़ौती स्कूल :-
बूँदी चित्रशैली
● शुरुआत – राव सुर्जन
● स्वर्णकाल – उम्मेदसिंह
प्रमुख चित्रकार
सुर्जन, श्रीकिशन, रामलाल, साधुराम, अहमद अली |
● प्रमुख विषय – इस शैली में पशु-पक्षियों का श्रेष्ठ चित्रण हुआ है इस लिए इसे पशु-पक्षियों की चित्रशैली भी कहा जाता है।
● विशेषता – हरे रंग की प्रधानता, सोने-चाँदी के रंगों की प्रधानता,
● मोर का चित्रण राज्य के सभी शैलियों में हुआ है लेकिन नाचते हुए मोर का चित्रण केवल बूँदी शैली में हुआ है।
● रेखाओं का सुन्दरतम अंकन किया गया।
● कार्ल खण्डेलवाल ने बूँदी शैली पर अध्ययन किया और ‘बूँदी ग्रन्थावली’ नामक ग्रन्थ लिखा।
● यहाँ के शासक राव छत्रशाल ने प्रसिद्ध रंगमहल बनवाया जो सुन्दर भित्ति चित्रों के लिए विश्व प्रसिद्ध है।
● तारागढ़ दुर्ग – बूँदी
● रणशाला/चित्रशाला महल – उम्मेदसिंह।
● भित्ति चित्रों का स्वर्ग।
● बूँदी शैली के सर्वाधिक चित्र।
कोटा चित्रशैली
● स्वतंत्र अस्तित्व – महाराव रामसिंह प्रथम
● महाराव भीमसिंह ने कोटा राज्य में कृष्ण भक्ति को विशेष महत्त्व दिया, जिसके फलस्वरूप कोटा शैली में वल्लभ संप्रदाय का पूर्ण प्रभाव दिखाई देता है।
● स्वर्णकाल – उम्मेदसिंह
● उपनाम – शिकार शैली
● इस शैली के चित्रों में प्रमुखत: शिकार दृश्यों का चित्रण किया गया जिसमें रानियों व नारियों को पुरुषों के साथ शिकार करते हुए दिखाया गया।
प्रमुख चित्रकार
डालू, लच्छीराम, रामजीराम, गोविन्दराम, रघुनाथ, नूर मोहम्मद |
● प्रमुख विषय
● आखेट या शिकार, जुलूस, युद्ध के दृश्य।
● झाला झालम सिंह की हवेली भित्ति चित्रों के लिए प्रसिद्ध है।
● डालू द्वारा 1768 ई. में सबसे बड़ा रागमाला सेट को चित्रित किया था।
● पृष्ठभूमि का रंग – नीला रंग
झालावाड़ चित्रशैली
● झालावाड़ के राजमहलों में श्रीनाथजी, राधाकृष्ण लीला, रामलीला, राजसी वैभव के जो भित्ति-चित्र मिलते हैं, उनके माध्यम से झालावाड़ शैली का निर्धारण होना अभी शेष है।