पौधों की वर्गिकी और वर्गीकरण
– थियोफ्रेस्टस (370-285 B.C.) ने पादप वर्गिकी (Plant Taxonomy) की नींव रखी। थियोफ्रेस्टस ग्रीक दर्शनशास्त्री प्लेटो व अरस्तू का विद्यार्थी था। थियोफ्रेस्टस ने पौधों की प्रकृति (Habit) के आधार पर निम्नलिखित समूहों में विभाजित किया–
1. वृक्ष
2. क्षुप
3. उपक्षुप
4. शाक
– थियोफ्रेस्टस द्वारा ‘हिस्टोरिया प्लान्टेरम’ (Historia Plantarum) नामक पुस्तक में कई प्रकार के पौधों का वर्णन तथा वर्गीकरण किया गया है।
– थियोफ्रेस्टस को ‘वनस्पति विज्ञान का जनक’ (Father of Botany) कहा जाता है।
– लिनीयस (Linnaeus) ने पौधों का ‘कृत्रिम वर्गीकरण’ (Artificial System) प्रस्तुत किया जिसमें पुष्पीय पादपों को 23 वर्गों (Classes) में प्रस्तुत किया तथा अपुष्पीय पादपों को ‘क्रिप्टोगेम्स’ (Cryptogams) वर्ग में रखा।
– लिनीयस ने पादपों की ‘द्विपद नाम पद्धति’ (Binomial Nomenclature) की स्थापना की।
– जीव विज्ञान की वह शाखा जिसके अन्तर्गत जीवों का वर्गीकरण व नामकरण का अध्ययन किया जाता है, वर्गिकी (Taxonomy) कहलाता है।
– जन्तुओं को समानताओं व असमानताओं के आधार पर छोटे-छोटे समूहों में बाँटना, वर्गीकरण (Classfication) कहलाता है।
– जन्तुओं का सही निर्धारण करके वैज्ञानिक नाम देना नामकरण (Nomenclature) कहलाता है।
– अरस्तू (Aristotle) को ‘जन्तु विज्ञान का जनक’ (Father of Zoology) कहते हैं।
द्विपद नाम पद्धति (Binomial Nomenclature):-
– वर्गिकी (Taxonomy) को नया रूप देने का श्रेय केरोलस लिनियस को जाता है। केरोलस लिनियस को ‘आधुनिक वर्गिकी का जनक’ (Father of Modern Taxonomy) व ‘द्विनाम पद्धति का जनक’ (Father of Binomial Nomenclature) कहा जाता है।
– इनके द्वारा ‘सिस्टेमा नेचुरी’ नामक पुस्तक का लेखन किया गया।
– इस पद्धति में प्रत्येक को दो नाम दिए गए-पहला नाम वंश (Genus) तथा दूसरा नाम जाति (Species)। वंश का नाम अंग्रेजी वर्णमाला के छोटे अक्षर से प्राप्त किया जाता है। वंश व जाति के नाम तिरछे (Italics) लिखे जाते हैं।
त्रिपद नाम पद्धति (Trinomeil Nomenclature):-
– त्रिपद नाम पद्धति के अनुसार प्राणी के नाम से पहले वंश, उसके बाद जाति व अंत में उपजाति (Sub species) को लिखते हैं।
– इस प्रकार तीन पद लिखने की प्रणाली को त्रिपद नाम पद्धति (Trinomeil Nomenclature) कहते हैं।
– पादप वर्गीकरण को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता है–
(i) कृत्रिम (Artificial) – उदाहरण – लिनीयस की वर्गीकरण प्रणाली।
(ii) प्राकृतिक (Natural) – उदाहरण – बेन्थम व हुकर की वर्गीकरण प्रणाली।
(iii) जातिवृत्तीय (Phylogenetic):- उदाहरण– हचिन्सन की वर्गीकरण प्रणाली।
– पादप जगत का पहला विस्तृत वर्गीकरण ए. डब्ल्यू. आइक्लर (A.W. Eichler 1883) द्वारा दिया गया जो इस प्रकार है–

– ओसवाल्ड टिप्पो (1942) द्वारा दिया गया वर्गीकरण –

– पादप जगत को थेलोफाइटा तथा एम्ब्रियोफाइटा में वर्गीकृत किया गया–
थेलोफाइटा (Thallophyta):-
(i) इन पादपों का शरीर जड़, तने एवं पत्तियों में अविभेदित अत: थैलस (Thallus) पाया जाता है।
(ii) अलैंगिक जनन एक कोशिकीय चल बीजाणुओं (Zoospores) द्वारा होता है।
(iii) लैंगिक अंग कोशिकीय किन्तु जहाँ बहु-कोशिकीय वहाँ पर प्रत्येक कोशिका जनन क्षम (Fertile) होते है।
(iv) युग्मनज (Zygote) अर्धसूत्री विभाजन (Meiosis) द्वारा विभाजित होता है।
(v) ऊतक विभेदन (Tissue Differenrtiation) अनुपस्थित होता है।
(vi) संवहन ऊतक अनुपस्थित होते हैं।
एम्ब्रियोफाइटा (Embryophyta):-
(i) ब्रायोफाइटा के अलावा सभी पादपों में शरीर जड़, तना एवं पत्तियों में विभेदित होता है।
(ii) लैंगिक अंग बहुकोशिकीय एवं बंध्य आवरण (Sterile Jacket) युक्त होते है।
(iii) युग्मनज समसूत्री विभाजन द्वारा विभाजित होकर भ्रूण निर्माण करते हैं।
(iv) ऊतक विभेदन पाया जाता है।
(v) ब्रायोफाइटा के अलावा सभी वर्गों में संवहन ऊतक उपस्थित होते हैं।
शैवाल (Algae):-
शैवाल : सामान्य लक्षण:-
– शैवाल क्लोरोफिल युक्त थैलाभ पौधों का समूह है।
– इनके थैलस की संरचना अत्यंत सरल होती है, यह स्त्रीधानीयुक्त पौधों की भाँति जड़, तने व पत्तियों में विभेदित नहीं होता है।
– शैवालों में प्रकाशसंश्लेषी वर्णक-क्लोरोफिल पाया जाता है।
– उनके जननांगों में बंध्य जैकेट कोशिकाओं का अभाव होता है।
– अधिकांश शैवाल स्वपोषित हैं परंतु कुछ शैवाल परपोषित, परजीवी अथवा प्राणिसमभोजी भी हैं।
– शैवाल सामान्यत: जलीय क्लोरोफिलयुक्त, स्वपोषित थैलाभ पौधे हैं।
– शैवालों का पादपकाय विभिन्न ऊतक तंत्रों; जैसे बाह्यत्वचीय, वल्कुटीय व संवहनी में विभेदित नहीं होता है।
– कुछ अपवादों को छोड़कर लगभग सभी शैवालों के जननांग एककोशिकीय हैं तथा उनमें बंध्य जैकेट कोशिकाओं का अभाव होता है।
– इनमें युग्मकी संलयन के पश्चात् भ्रूण का निर्माण नहीं होता है।
– इनमें स्पष्ट पीढ़ी एकान्तरण पाया जाता है।
– शैवालों के अध्ययन को फाइकोलॉजी अथवा शैवाल विज्ञान कहते हैं। फाइकोलॉजी शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के शब्द से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ समुद्री खरपतवार है।
प्रकृति एवं प्राकृतिक वास:-
– शैवाल मुख्यत: जलीय जीव हैं, जो प्राय: तालाबों, नदियों व झीलों के मीठे जल अथवा समुद्र के खारे जल में पाए जाते हैं।
– इसके अतिरिक्त कुछ शैवाल मिट्टी, लकड़ी, नम चट्टानों तथा उष्ण स्रोतों में भी पाए जाते हैं।
– अधिकांश प्राकृतिक वासों की आहार शृंखला में शैवाल प्राथमिक उत्पादक के रूप में कार्य करते हैं।
– स्वभाव व प्राकृतिक वास के आधार पर शैवालों को निम्नलिखित तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है–
– जलीय शैवाल, स्थलीय शैवाल, असाधारण प्राकृतिक वास वाले शैवाल
जलीय शैवाल:-
– ये शैवाल नदी, तालाब, गड्ढ़ों, झील आदि के अलवण जल अथवा कम लवणीय जल में पाए जाते हैं। उदाहरण- क्लेडोफोरा, ईडोगोनियम, यूलोथ्रिक्स।
– धीमी गति से बहते हुए जल में पाए जाते हैं जबकि कुछ अन्य अलवण जलीय शैवाल, जैसे क्लैमिडोमोनास, वॉल्वॉक्स।
– समुद्र के खारे जल में पाए जाने वाले शैवाल समुद्री शैवाल कहलाते हैं। समुद्र में मुख्य रूप से फिओफाइसी वर्ग के शैवाल; जैसे एक्टोकार्पस, सारगैसम, फ्यूकस व रोडोफाइसी वर्ग के शैवाल जैसे पॉलीसाइफोनिया।
– जलीय शैवाल मुक्त प्रवाही अर्थात् जल में स्वतंत्र रूप से तैरते हुए (जैसे क्लेमिडोमोनास, वॉल्वॉक्स, स्पाइरोगायरा)
– मुक्त प्रवाही शैवाल जल की सतह पर एकत्र होकर कॉलोनी बनाते हैं जिन्हें जल प्रस्फुटन अथवा पादप प्लवक कहते हैं।
– प्लवकीय जातियों की कोशिकाओं में गैस धानियाँ अथवा तेल बिंदु पाए जाते हैं जो इन शैवालों की उत्प्लावकता को बढ़ाते हैं। अत: इनकी नीचे बैठने (अथवा डूबने) की गति अपेक्षाकृत धीमी होती है। पादप-प्लवकों की गति मुख्यत: कशाभिकाओं द्वारा होती है।
स्थलीय शैवाल:-
– शैवालों की वे जातियाँ जो मिट्टी, चट्टानों, लकड़ियों आदि पर पायी जाती हैं, स्थलीय कहलाती हैं।
– सैफोफाइट्स:– ये शैवाल पृथ्वी की सतह पर रहते हैं, जैसे वोकेरिया, बोट्रीडियम, फिश्चिएला।
– क्रिप्टोओफाइट्स:- ये शैवाल पृथ्वी के भीतर मिट्टी की सतह के नीचे उगते हैं। नील हरित शैवालों की कुछ जातियाँ (जैसे नॉस्टॉक, खेतों में मिट्टी की सतह के नीचे सामान्य रूप से पायी जाती हैं।)
असाधारण प्राकृतिक वास वाले शैवाल:-
– लवणोद्भिद शैवाल:- शैवालों की अनेक प्रमुख जातियाँ समुद्र के खारे जल में पायी जाती हैं, परंतु कुछ शैवाल अत्यधिक लवणीय जल में पाए जाते हैं। इन्हें लवणोद्भिद कहते हैं; जैसे- ड्यूनेलिएला, स्टीफेनोप्टेरा।
– अधिपादपीय शैवाल:- कुछ शैवाल विकसित पौधों अथवा आमाप के शैवालों पर उगते हैं, इन्हें अधिपादपीय शैवाल कहते हैं। उदाहरणार्थ – माइक्रोस्पोरा की जातियाँ, क्लैडोफोरा, राइजोक्लोनियम की बड़ी जातियों पर उगती हैं।
– परजीवी शैवाल:- सिफेल्यूरोस, फिल्लोसाइफॉन, क्लोरोकाइट्रियम आदि कुछ शैवाल अन्य पौधों पर परजीवी के रूप में पाए जाते हैं।
– सहजीवी शैवाल:- क्लोरोफाइसी तथा सायनोफाइसी वर्गों के अनेक एककोशिकीय शैवाल अन्य पौधों; जैसे कवक, ब्रायोफाइट्स, जिम्नोस्पर्म व ऐन्जियोस्पर्म के साथ परस्पर समानता के आधार पर जीवन (सहजीवन) व्यतीत करते हैं। सहजीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण उदाहरण लाइकेन है।
– हिमोद्भिद शैवाल:- बर्फ से ढके हुए पर्वत शिखरों पर पाए जाने वाले शैवाल हिमोद्भिद कहलाते हैं। ये शैवाल पर्वतों पर जमी बर्फ को आकर्षक रंग प्रदान करते हैं। हेमैटोकोकस निवेलिस नामक शैवाल अल्पाइन आर्कटिक पर्वतों को लाल रंग प्रदान करता है।
– शैलोद्भिद शैवाल:- आर्द्र चट्टानों पर उगने वाले शैवालों की जातियाँ शैलोद्भिद कहलाती हैं। सायनोफाइसी वर्ग के अनेक वंश; जैसे नॉस्टॉक, रिवूलेरिया, ग्लिओकैप्सा आदि नम तथा छायादार चट्टानों पर पाए जाते हैं।
शैवालों का वर्गीकरण (Classification of Algae):-
– इनका प्रमुख लक्षण वर्णकों (Pigments) की विविधता है। सभी प्रकार के शैवालों में क्लोरोफ़िल पाया जाता है तथा वे स्वपोषित (autotrophic) हैं, परन्तु अनेक शैवालों में अन्य प्रकार के वर्णक क्लोरोफ़िल से अधिक मात्रा में उपस्थित होते हैं, जिनके कारण वे अन्य वर्णकों को परिलक्षित करते हैं। शैवालों का वर्गीकरण उनमें दिखायी देने वाले रंग (visible colour) के आधार पर निम्नलिखित 4 मुख्य वर्गों में किया गया-
1. मिक्सोफ़ाइसी अथवा सायनोफ़ाइसी (Myxophyceae or Cyanophyceae) नील-हरित शैवाल (blue-green algae), मुख्य वर्णक: c-फाइकोसायनिन (c-phycocyanin)।
2. क्लोरोफ़ाइसी (Chlorophyceae) अथवा हरित शैवाल (green algae), मुख्य वर्णक क्लोरोफ़िल a व क्लोरोफ़िल b।
3. फ़िओफ़ाइसी (Phaeophyceae) अथवा भूरे शैवाल (brown algae); मुख्य वर्णक: फ्यूकोज़ैन्थिन (fucoxanthin)।
4. रोडोफ़ाइसी (Rhodophyceae) अथवा लाल शैवाल (red algae), मुख्य वर्णक: r-फाइकोइरिथ्रिन (r-phycoerythrin)।
– 20वीं शताब्दी में प्रस्तुत वर्गीकरण पद्धतियाँ शैवालों के निम्नलिखित लक्षणों पर आधारित हैं-
1. शैवाल में उपस्थित विभिन्न प्रकाशसंश्लेषी वर्णकों (photosynthetic pigments) की मात्रा एवं उनका रासायनिक संगठन।
2. संचित भोज्य पदार्थ की रासायनिक प्रकृति।
3. गतिशील जननांगों (चलबीजाणुओं) में उपस्थित कशाभिकाओं की संरचना, संख्या तथा निवेशन (insertion)।
4. इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी द्वारा दिखायी देने वाले कोशिका के भौतिक व रासायनिक गुण।
– पादप नामकरण की अंतर्राष्ट्रीय संहिता (International Code of Botanical Nomenclature) ने वर्ष 1952 में शैवालों के विभिन्न वर्गकों के लिए अग्रलिखित प्रत्यय (suffix) स्वीकृत किए हैं–
डिवीजन (division) – फाइटा(phyta)
उप-डिवीजन (sub division) – फाइटिना (phytina)
वर्ग (class) – फ़ाइसी (phyceae)
उप-वर्ग (sub-class) – फाइसीडी(phycidae)
गण (order) – एलीज़ (ales)
उप-गण (sub-order) – इनेलीज़ (inales)
कुल (family) – एसी (aceae)
उप-कुल (sub-family) – ऑइडी (oideae)
शैवालों के वर्गीकरण (Classifications of Algae):-
– फ्रिश द्वारा दिया गया वर्गीकरण (Classification proposed by Fritsch):-
– शैवालों का विस्तृत एवं आधिकारिक वर्गीकरण सर्वप्रथम – एफ० ई० फ्रिश (F. E. Fritsch) ने अपनी पुस्तक दी स्ट्रक्चर एण्ड रिप्रोडक्शन ऑफ दी ऐल्गी’ (The Structure – and Reproduction of the Algae) में दिया।
– इस वर्गीकरण वर्णक एवं कशाभिकाओं के प्रकार (types of pigment and flagella) तथा संचित भोज्य पदार्थों की प्रकृति को शामिल किया गया है। फ्रिश ने शैवालों को निम्नलिखित 11 वर्गों (classes) में विभाजित किया।
1. वर्ग–क्लोरोफ़ाइसी (Class-Chlorophyceae):- मुख्य वर्णक क्लोरोफिल a व b, संचित भोज्य पदार्थ स्टार्च (starch)
– क्लोरोफ़ाइसी वर्ग को 9 गणों (orders) में बाँटा गया है :
(i) वॉल्वोकेलीज़ (Volvocales)– उदाहरण : वॉलवॉक्स (Volvox)
(ii) क्लोरोकोकेलीज़ (Chlorococcales)- उदाहरण: क्लोरेला (Chlorella)
(iii) यूलोट्राइकेलीज़ (Ulotricales)–उदाहरण : यूलोथ्रिक्स (Ulothrix)
(iv) क्लेडोफोरेलीज़ (Cladophorales)- उदाहरण: क्लैडोफ़ोरा (Cladophora)
(v) कीटोफोरेलीज़ (Chaetophorales) उदाहरण: फ्रिश्चिएला (Fritschiella)
(vi) ईडोगोनिएलीज़ (Oedogoniales)- उदाहरण: ईडोगोनियम (Oedogonium)
(vii) कान्जूगेलीज़ (Conjugales) उदाहरण : जिग्नीमा (Zygnema)
(viii) साइफोनेलीज़ (Siphonales) उदाहरण : वौकैरिया (Vaucheria)
(ix) कैरेलीज़ (Charales) – उदाहरण : कारा (Chara)
2. वर्ग-जैन्थोफाइसी (Class-Xanthophyceae):- मुख्य वर्णक, क्लोरोफिल a व e, B कैरोटीन व जैन्थोफिल (xanthophyll), प्लास्टिड्स में पाइरीनॉइड अनुपस्थित, संचित भोज्य पदार्थ तेल (oil) तथा ल्यूकोसिन (leucosin), जैन्थोफ़ाइसी वर्ग को चार गणों (orders) में विभक्त किया गया है।
(i) हेटेरोक्लोरिडेलीज़ (Heterochloridales) हेटेरोक्लोरिस (Heterochloris), क्लोरेमीबा (Chloramoeba)
(ii) हेटेरोकोकेलीज़ (Heterococcales) उदाहरण मिक्सोक्लोरिस (Myxochloris), हेलोस्फीरा (Halosphaera)
(iii) हेटेरोट्राइकेलीज़ (Heterotrichales) – उदाहरण ट्राइबोनिमा (Tribonema), माइक्रोस्पोरा (Microspora)
(iv) हेटेरोसाइफोनेलीज़ (Heterosiphonales) उदाहरण : बोट्रीडियम (Botrydium)
3. वर्ग-क्राइसोफ़ाइसी (Class-Chrysophyceae):-
– फाइकोक्राइसिन (phycochrysin) की अधिकता के कारण भूरे-नारंगी रंग के होते हैं। क्रोमेटोफोरों में पाइरीनॉइड के समान नग्न पिण्ड होता है।
– क्राइसोफ़ाइसी वर्ग में तीन गण (orders) सम्मिलित किए गए हैं-
(i) क्राइसोमोनेडेलीज़ (Chrysomonadales) उदाहरण: क्राइसोडेन्ड्रान (Chrysodendron)
(ii) क्राइसोस्फेरिएलीज़ (Chrysosphaerales) उदाहरण: क्राइसोस्फेरा (Chrysosphaera)
(iii) क्राइसोट्राइकेलीज़ (Chrysotrichales)- उदाहरण: निमेटोक्राइसिस (Nematochrysis)
4. वर्ग-बेसीलेरियोफ़ाइसी (Class-Bacillariophyceae) – मुख्य वर्णक फ़्यूकोज़ैन्थिन, डायटोज़ैन्थिन व डायएडीनोर्जेन्थिन, क्रोमेटोफ़ोर में पाइरीनॉइड उपस्थित, संचित भोज्य पदार्थ वसा एवं वॉल्यूटिन
– वर्ग बेसीलेरियोफ़ाइसी में दो गण (orders) सम्मिलित किए गए हैं:
(i) सेन्ट्रलीज़ (Centrales) – उदाहरण : साइक्लोटेला (Cyclorella)
(ii) पेनेलीज़ (Pennales) – उदाहरण : पिन्यूलेरिया (Pinnularia)
5. वर्ग-क्रिप्टोफ़ाइसी (Class-Cryptophyceae):- मुख्य वर्णक जैन्थोफ़िल तथा पाइरीनॉइड सदृश्य संरचनाएँ उपस्थित होती हैं। गतिशील कोशिकाएँ दो असमान कशाभिकायुक्त इस वर्ग को दो गणों (orders) में विभक्त किया गया है-
(i) क्रिप्टोमोनेडेलीज़ (Cryptomonadales) सायनोमोनास (Cyanomonas)
(ii) क्रिप्टोकोकेलीज़ (Cryptococcales) टेट्रागोनीडियम (Tetragonidium)
6. वर्ग-डाइनोफ़ाइसी (Class-Dinophyceae Peridinieae):-
– ये शैवाल गहरे पीले अथवा भूरे रंग के होते हैं। मुख्य वर्णक कैरोटीन तथा जैन्थोफिल
– डाइनोफ़ाइसी वर्ग में छः गण (orders) सम्मिलित किए गए हैं-
(i) डेस्मोमोनेडेलीज़ (Desmomonadales) – उदाहरणः डेस्मोकेप्सा (Desmocapsa)
(ii) थीकाटेलीज़ (Thecatales) उदाहरण: प्रोरोसैन्ट्रम (Prorocentrum)
(iii) डाइनोफ़ाइसिएलीज़ (Dinophysiales)– उदाहरण: डाइनोफ़ाइसिस (Dinophysis)
(iv) डाइनोफ़्लेजीलेटा (Dinoflagellata)- ब्लास्टोडीनियम (Blastodinium), हेटेरोकैप्सा (Heterocapsa)
(v) डाइनोकोकेलीज़ (Dinococcales) – उदाहरण : सिस्टोडीनियम (Cystodinium)
(vi) डाइनोट्राइकेलीज़ (Dinotrichales) – उदाहरण : डाइनोथ्रिक्स (Dinothrix)
7. वर्ग-क्लोरोमोनैडिनी (Class-Chloromonadineae):-
– इन शैवालों का रंग चमकदार हरा (bright green) होता है। मुख्य वर्णक क्लोरोफ़िल, पाइरीनॉयडों का अभाव, संचित भोज्य पदार्थ वसा तथा तेल।
– गण–क्लोरोमोनेडेलीज़ (Chloro monadales) है। इस गण के सदस्य एककोशिकीय एवं कशाभिक हैं- उदाहरण: ट्रेन्टोनिया (Trentonia), वैक्योलेरिया (Vacuolaria)।
8. वर्ग यूग्लीनोफ़ाइसी (Class Euglenophyceae):-
– ये एककोशिकीय, हरित तथा कशाभिक हैं। मुख्य वर्णक क्लोरोफ़िल संचित भोज्य पदार्थ पारमायलम प्रायः एकल परन्तु कभी-कभी निवह रूप (colonial form)
– इस वर्ग में केवल एक गण व तीन कुल सम्मिलित हैं-
(i) यूग्लीनेसी (Euglenaceae -यूग्लीना, Euglena)
(ii) एस्टीयेसी (Astasiaceae एस्टैसिया (Astasia)
(iii) पैरानिमैसी (Peranemaceae) – एनाइसोनिमा (Anisonema)
9. वर्ग- फिओफ़ाइसी (Class-Phaeophyceae):-
– मुख्य वर्णक-भूरे रंग का फ्यूकोन्थिन (fucoxanthin); थैलस तंतुल (filamentous) अथवा सुसंगठित पैरेन्काइमी (well organised parenchymatous); कोशिका भित्ति में एल्जिनिक (alginic) व फ्यूसिनिक (fucinic) अम्ल प्रचुर मात्रा में उपस्थित; जनन कोशिकाएँ द्विकशाभिक, कशाभिकाएँ पार्श्व अथवा उपशिखाग्र (lateral or sub-apical)।
– फ़िओफ़ाइसी वर्ग को नौ गणों में विभक्त किया गया है-
(i) एक्टोकार्पेलीज़ (Ectocarpales) उदाहरण:- एक्टोकार्पस (Ectocarpus)
(ii) टिलोप्टेरीडेलीज़ (Tilopteridales) उदाहरण:- टिलोप्टेरिस (Tilopteris)
(iii) कट्लेरिएलीज़ (Cutleriales) उदाहरण : कट्लेरिया (Cutleria)
(iv) स्पोरोक्नेलीज़ (Sporochnales) उदाहरण:- स्पोरोक्नस (Sporochnus)
(v) डेस्मेरेस्टिएलीज़ (Desmarestiales)- उदाहरण:- डेस्मेरेस्टिया (Desmarestia)
(vi) लेमीनेरिएलीज़ (Laminariales) उदाहरण : लेसोनिया (Lesonia)
(vii) स्फेसीलेरिलीज़ (Sphacelariales) उदाहरण:- स्फेसीलेरिया (Sphacelaria)
(viii) डिक्टियोटेलीज़ (Dictyotales) – उदाहरण:- डिक्टियोटा (Dictyota)
(ix) फ्यूकेलीज़
– उदाहरण : सारगैसम (Sargassum)।
10. वर्ग-रोडोफ़ाइसी (Class-Rhodophyceae; लाल शैवाल red algae):-
– मुख्य r-फाइकोइरिथ्रिन (r-phycerthin) तथा r-फाइकोसायनिन (r-phycocyanin), सचित भोज्य पदार्थ फ्लोरीडीन स्टार्च (floridean starch), जनन कोशिकाएँ अकशाभिक, जननांग अत्यधिक विकसित, जनन विषमयुग्मकी।
– रोडोफ़ाइसी वर्ग को सात गणों (orders) में विभक्त किया गया है:
(i) बैंगीएलीज़ (Bangiales) उदाहरण : पोरफाइरा (Porphyra)
(ii) निमेलिओनेलीज़ बैट्रेकोस्पर्मम (Nemalion)
(iii) जेलिडिएलीज़ (Gelidiales) उदाहरण : जिलीडिअम (Gelidium)
(iv) क्रिप्टोनेमिएलीज़ (Cryptonemiales) – उदाहरण : कोरेलिना (Corallina)
(v) गिगरटाइनेलीज़ (Gigartinales) – उदाहरण : गिगरटाइना (Gigartina)
(vi) रोडीमेनिएलीज़ (Rhodymeniales)- उदाहरण : रोडीमेनिया (Rhodymenia)
(vii) सिरेमिएलीज़ – उदाहरण : सिरैमियम, पॉलीसाइफ़ोनिया
11. वर्ग-मिक्सोफ़ाइसी (Myxophyceae or blue-green algae):-
– मुख्य वर्णक सायनोफ़ाइसी Cyanophyceae, नील-हरित शैवाल, c-फाइकोसायनिन (c-phycocyanin), प्रोकेरियोटी (prokaryotic) शैवाल, कोशिका भित्ति म्यूकोपॉलीमर (mucopolymer) से निर्मित, संचित भोज्य पदार्थ सायनोफाइसीन स्टार्च (cyanophycean starch) व ग्लाइकोजन (glycogen)
– मिक्सोफ़ाइसी वर्ग में पाँच गण (orders) सम्मिलित किए गए हैं-
(i) क्रूकोकेलीज़ (Chroococcales)– उदाहरण : क्रूकोकस (Chroococcus)
(ii) कैमेसाइफ़ोनेलीज़ (Chamaesiphonales) उदाहरण : कैमेसाइफॉन (Chamaesiphon)
(iii) प्लूरोकैप्सेलीज़ (Pleurocapsales) उदाहरण : प्लूरोकैप्सा (Pleurocapsa)
(iv) नॉस्टोकेलीज़ (Nostocales) – उदाहरणः नॉस्टॉक (Nostoc), ऑसिलैटोरिया (Oscillatoria), साइटोनिमा (Scytonema)
(v) स्टाइगोनिमेटेलीज़ (Stigonematales) – उदाहरण : स्टाइगोनिमा (Sigonema)
थैलस संरचना के विविध रूप:-
– शैवालों की कायिक संरचना में अत्यंत विविधता पायी जाती है। इनमें पादपकाय सूक्ष्म प्रारूपिक एककोशिकीय से लेकर बहुकोशिकीय जटिल प्ररूपों तक अनेक प्रकार के होते हैं। इनका आमाप एक माइक्रॉन अथवा उससे भी कम से लेकर स्थूलदर्शीय वृहत् आमापीय होता है।
– थैलस संगठन के आधार पर शैवालों को निम्नलिखित पाँच श्रेणियाँ में विभक्त किया जा सकता है–
– एककोशिकीय रूप, निवह रूप, तंतुल रूप, साइफोनियस रूप, पैरेन्काइमी रूप।
एककोशिकीय रूप:-
– शैवालों के कैरोफाइसी तथा फिओफाइसी वर्गों को छोड़कर शेष सभी वर्गों में एककोशिकीय प्रारूप पाए जाते हैं। ऐसे शैवाल अकोशिक भी कहलाते हैं।
– एककोशिकीय रूपों को निम्नलिखित चार समूहों में विभक्त किया जा सकता है–
राइजोपोडियल एककोशिक:-
– राइजोपोडियल कोशिकाओं में दृढ़ कोशिका भित्ति का अभाव होता है। इनमें जीवद्रव्यी बहिर्वेशन पाए जाते हैं, जिनके द्वारा यह अमीबीय गति करते हैं। उदाहरणार्थ– राइजोक्लोरिस, जैन्थोफाइसी, क्राइसेमीबा।
– एककोशिकीय कशाभिक कोशिकाएँ भित्तिहीन जैसे यूग्लीना, फेकोटस में कोशिका भित्ति के चारों ओर कैल्सियमी पदार्थ का कैप्सूल होता है।
– सर्पिल तंतुवत एककोशिकीय रूप:- कुछ एककोशिक शैवाल सर्पिल अथवा कुंडलित तंतुवत रचना बनाते हैं, जैसे स्पाइरुलाइना सायनोफाइसी।
अगतिशील एककोशिकीय रूप:-
– शैवालों में अनेक गोलाभ अथवा अचल रूप पाए जाते हैं। ये अकशाभिक तथा दृढ़ कोशिका भित्ति युक्त होते हैं। जैसे क्रूकोकस
– क्लोरोफाइसी वर्ग के अगतिशील सरल रूपों में केंद्रक तथा प्लैस्टिड पाए जाते हैं; जैसे- क्लोरेला
निवह रूप:-
– निवह रूप समान संरचना वाली कोशिकाओं का एक समूह है। कोशिकाओं के ये समूह प्राय: शिथिल होते हैं, अत: एक कॉलोनी का खंडों में विभाजन हो सकता है।
– प्रत्येक कोशिका योजकों द्वारा जुड़ी रहती है तथा उन्हें पृथक् नहीं किया जा सकता है। आकारिकी के आधार पर निवही संगठन के निम्नलिखित प्रकार होते हैं–
सीनोबियल:-
– इस प्रकार की कॉलोनी में कोशिकाओं की संख्या निश्चित होती है तथा वे एक विशिष्ट क्रम में विन्यासित रहती हैं। यह कॉलोनी सीनोबियम कहलाती है।
– गतिशील सीनोबियम की कोशिकाएँ कशाभिक होती हैं; जैसे पैन्डोराइना, यूडोराइना, वॉल्वॉक्स।
– अगतिशील सीनोबियम की कोशिकाएँ एक-दूसरे से लगभग संलयित होती हैं जैसे हाइड्रोडिक्टियान।
– उदाहरण एफैनोथीका सायनोफाइसी तथा टेट्रास्पोरा क्लोरोफाइसी हैं।
– संपूर्ण कॉलोनी एक शाखित पौधे के रूप में दिखाई देती है। उदाहरणार्थ – क्राइसोडेन्ड्रॉन, क्राइसोफाइसी।
– राइजोपोडियल:- राइजोपोडियल कॉलोनी में कोशिकाएँ राइजोपोडिया द्वारा जुड़ी रहती हैं। क्राइसोफाइसी वर्ग का क्राइसीडिएस्ट्रम इस प्रकार की कॉलोनी का प्रमुख उदाहरण है।
तंतुल रूप:-
– इसमें संतति कोशिकाएँ पृथक् न होकर एक ही दिशा में जुड़ जाती हैं तथा एक तंतु बनाती हैं। तन्तु में कोशिकाएँ एक अथवा अधिक पंक्तियों में हो सकती हैं तथा तन्तु शाखित अथवा अशाखित हो सकते हैं।
अशाखित तन्तु:-
– अशाखित तन्तु जल में स्वतंत्र रूप से तैरते हुए; जैसे-स्पाइरोगायरा।
– किसी आधार पर संलग्न; जैसे यूलोथ्रिक्स, इडोगोनियम।
– कॉलोनी के रूप में; जैसे नॉस्टॉक, ऑसिलैटोरिया।
शाखित तन्तु:-
– तन्तुओं में शाखन आभासी अथवा सत्य हो सकता है। आभासी शाखन पार्श्व उर्ध्व के रूप में विकसित नहीं होता है। वास्तव में जब तन्तु की कोई अन्तर्वेशी कोशिका नष्ट हो जाती है। तो तन्तु का टूटा सिरा श्लेष्मीय आवरण से बाहर निकल जाता है और तन्तु शाखित प्रतीत होता है। सायनोफाइसी वर्ग के साइटोनिमा वंश में आभासी शाखन पाया जाता है।
– सत्य शाखन से निम्नलिखित तीन प्रकार के थैलस बनते हैं-
– सरल:- उदाहरणार्थ-क्लेडोफोरा में शाखाएँ सदैव परस्पर कोशिकाओं के बीच उपस्थित अनुप्रस्थ भित्ति के ठीक नीचे से उत्पन्न होती हैं।
– विषमतंतुक:- प्रगत विषमतंतुक शैवाल शयान (जैसे ड्रेपर्नेल्डियाप्सिस, अथवा उर्ध्वशीर्षी जैसे कोलियाकीट तंत्रों का प्रगामी विलोपन प्रदर्शित करते हैं।)
– आभासी पैरेन्काइमी:- अधिक केंद्रीय तन्तु तथा उनकी शाखाएँ संगठित होकर पैरेन्काइमा जैसी संरचना बनाती हैं जिसे आभासी पैरेन्काइमा कहते हैं। ये दो प्रकार के हो सकते हैं–
1. एकअक्षीय – जैसे-बेट्रेकोस्पर्मम
2. बहुअक्षीय – जैसे-पॉलीसाइफोनिया
साइफोनिस रूप:-
– शैवालों का थैलस शाखित, पटहीन व बहुकेंद्रकी नलिकाकार तन्तुओं से निर्मित होता है। इनमें केंद्रक विभाजन के पश्चात् भित्ति निर्माण नहीं होता है। पट केवल जननांगों के निर्माण के समय ही बनते हैं। उदाहरणार्थ-बोट्रीडियम, वौकेरिया
पैरेन्काइमी रूप:-
– शैवालों में पैरेन्काइमी थैलस का विकास तन्तु कोशिकाओं के दो अथवा अधिक तलों में विभाजन से हुआ है। विभाजन के पश्चात् संतति कोशिकाओं के पृथक् न होने के फलस्वरूप विभिन्न प्रकार की पैरेन्काइमी संरचनाएँ बन जाती हैं। उदाहरणार्थ-अल्वा, सारगैसम।
ब्रायोफाइटा (Bryophyta):-
– रॉथमेलर (Rothmaler) ने वर्गों को क्रमश: हेपेटिकॉप्सीडा (Hepaticopsida), ऐन्थोसिरोप्सीडा (Anthoceropsida) तथा ब्रायोप्सीडा (Bryopsida) कहा।
– प्रोस्कर (Proskauer) ने पादप नामकरण की अंतर्राष्ट्रीय संहिता (International Code of Botanical Nomenclature) का अनुसरण कर ऐन्थोसिरोप्सीडा का नाम बदल कर एन्थोसिरोटॉप्सीडा (Anthocerotopsida) रखा। इनके द्वारा प्रस्तुत वर्गीकरण की रूपरेखा नीचे दी गई है–

– ब्रायोफाइटा के सामान्य लक्षण तथा जनन (General Characters of Bryophyta and Reproduction):-
1. पादप समूह (Gregarious) प्रायः स्थलीय आवासों में केवल कुछ जलीय (Aquatic) जातियाँ जैसे रिक्सिया फ्लुटेन्स (R. fluitans), रिक्सिया फोन्टिनेलिस (Fontinalis) इत्यादि। सामान्यतः पौधे नम व छायादार स्थानों पर उगते हैं।
2. पौधे का शरीर थैलस (Thallus) या पर्णिल (Leafy) होता हैं। पर्णिल लीवरवर्ट्स व मॉस (Mosses) पौधे मूलाभासों (Rhizoids), स्तम्भ व पत्तियों में विभेदित होते हैं।
3. राइजोइड्स एक कोशिकीय (Unicellular) जैसे लीवरवर्ट्स में या बहुकोशिकीय (Multicellular) जैसे – मॉस पौधों में पाए जाते हैं, मूलाभास पौधों को आधार पर स्थिर रखते हैं तथा जल व लवणों का अवशोषण करते हैं। पर्णिल पौधों में पर्ण हमेशा पर्णवन्त रहित (Sessile) होते हैं।
4. पर्णिल पौधें मध्यशिरा विहीन (लीवटवर्ट में) या मध्याशिरायुक्त (मॉस में)।
5. पौधे हरे तथा स्वपोषी (Autotrophic) होते हैं परन्तु क्रिप्टोथैलस मिराबिलिस व बक्सवाउमिया (Buxbaumia) आंशिक मृतोपजीवी होते हैं।
6. संवहन ऊतक नहीं पाए जाते हैं।
7. पौधों का शरीर युग्मकोद्भिद् (Gametophyte) होता है।
8. वर्धी प्रजनन (Vegetative Propagation) पाया जाता है जो थैलस के पुराने भागों की मृत्यु एवं क्षय (Death & Decay), अपस्थानिक शाखाओं, गेमी (Gemmae) व कन्दों (Tubers) इत्यादि द्वारा होता है।
9. लैंगिक जनन विषमयुग्मी (Oogamous) प्रकार का होता है। लैंगिक अंग (Sex organs) बहुकोशिकीय व बंध्य आवरण (Sterile Jacket) युक्त नर-पुमणुधानी (Antheridium) व मादा– स्त्रीधानी (Archegonium)में पाए जाते हैं।
10. पुमणु (Antherozoids) द्विकशाभिकीय (Biflagellated) तथा स्त्रीधानी फलास्कनुमा लम्बी बेलनाकार ग्रीवा (Neck) व आधारीय फूला भाग अण्डधा (Venter) ग्रीवा में ग्रीवा नाल कोशिकाएँ (Neck canal cells) उपस्थित होती है।
11. अण्डधा में एक अण्डधा नाल कोशिका। (Venter canal cell) व एक बड़ी अण्ड कोशिका (Egg cell) उपस्थित होती है।
12. निषेचन के लिए पानी आवश्यकता होती है।
13. रसायन अनुचलन (Chemotaxis) द्वारा पुमणु स्त्रीधानी की ओर जाते हैं।
14. जाइगोट के समसूत्री विभाजनों द्वारा भ्रूण (Embryo) निर्माण जिससे बीजाणुद्भिद् (Sporophyte) बनता है तथा बीजाणुद्भिद्, युग्मकोद्भिद पर निर्भर तथा पाद (Foot), संपुटिका वृन्त (Seta) व संपुटिका (Capsule) में विभेदित होता है।
15. संपुटिका भित्ति एकस्तरीय (मार्केन्शिया में) या द्वि-त्रि स्तरीय (लेनिया में) या 2-7 स्तरीय (जैसे एन्थोसिरोस में)।
16. कैप्सूल में बीजाणु (Spores) व इलेटर्स (Elaters) जैसे लीवरबटर्स में, परन्तु रिक्सिया में इलेटर्स नहीं होते हैं।
17. बीजाणु व आभासी इलेटर्स एन्थोसिरोस में पाए जाते हैं। बीजाणु मातृ कोशिकाएँ अर्धसूत्री विभाजन (Meiosis) द्वारा विभाजित होकर बीजाणु उत्पन्न करती है।
18. बीजाणु अंकुरण द्वारा (लीवरवर्ट्स में) युग्मकधर (Gametophore) पौधे को जन्म देते हैं।
19. विषमरूपी पीढ़ी एकान्तरण (Heteromorphic Alternation of Generation) उपस्थित होता है।
टेरिडोफाइटा (Pteridophyta):-
– वर्ष 1935 में सिन्ट ने पादप वर्गीकरण की एक आधुनिक पद्धति प्रस्तुत की जिसमें सभी संवहनी पौधों को एक अलग समूह ट्रैकिओफ़ाइटा में रखा। इस समूह के सभी सदस्यों के बीजाणुद्भिद पादप कायों (Sporophytic plant body) में सुविकसित संवहनी तंत्र (Vascular system) पाया जाता है। ट्रैकिओफ़ाइटा में संवहनी क्रिप्टोगैम (टेरिडोफ़ाइटा) तथा उच्च संवहनी पौधे (स्पर्मेटोफ़ाइटा) सम्मिलित हैं।

टेरिडोफाइटा के लक्षण (Characteristics of Pteridophyta):-
1. यह संवहनी अपुष्पी पादप (Vascular Cryptogams) कहलाते हैं अथवा पादप जगत का सरीसृप भी कहते हैं।
2. पादप शरीर बीजाणुद्भिद् (Sporophyte) होता है, जो जड़, तने व पत्तियों में विभेदित होता है।
3. पादप सामान्यतः स्थलीय (Terrestrial) किन्तु कुछ वंश जलीय (Aquatic) जैसे – मार्सीलिया, व ऐजोला इत्यादि। पौधे नम स्थानों पर पाए जाते हैं।
4. पौधे शाकीय व क्षुप रूप में तथा कुछ वंश वृक्षनुमा (Arborescent) होते है, जैसे- एलसोफिला।
5. जड़ें अपस्थानिक (Adventitious) होती हैं। स्तम्भ वायवीय (Aerial) या भूमिगत प्रकन्द (Rhizome) उपस्थित होते हैं।
6. पत्तियाँ छोटी (Microphyllous) जैसे सिलेजिनेला में या बड़ी पत्तियाँ (Megaphyllous) जैसे-फर्न्स में।
7. पर्णों में एक मध्यशिरा द्विशाखित शिराविन्यास (Furcate venation) पाया जाता है। फर्न की पत्तियों में कुण्डलित किसलय विन्यास (Circinate Vernation) पाया जाता है।
8. संवहन ऊतक (Vascular tissues) पाए जाते हैं।
9. दारू ऊतक वाहिनिकाओं (Tracheids) व मृदुतकीय कोशिकाओं से निर्मित होता है। वाहिकाएँ (Vessels) अनुपस्थित किन्तु टेरीडियम तथा इक्वीसीटम बाइल में उपस्थित होती हैं।
10. पोषवाह ऊतक में चालनी नाल कोशिका (Sieve tube cells) तथा मृदुतक की सह-कोशिकाएँ (Companion cells) अनुपस्थित होती हैं।
11. द्वितीयक वृद्धि नहीं होती है, किन्तु आइसोइटिस (Isoetes) में होती है।
12. बीजाणुद्भिद् बीजाणुओं (Sportes) की सहायता से अलैंगिक जनन होता है।
13. पर्ण जिन पर बीजाणु धानियाँ (Sporangia) उपस्थित होती हैं वे बीजाणुपर्ण (Sporophylls) कहलाते हैं। बीजाणु बीजाणुधानियों में पाए जाते हैं।
14. फर्न में बीजाणुधानियाँ पुंजों (Sori) में होती हैं। सिलेजिनेला, लाइकोपोडियम व इक्वीसीटम में बीजाणुपर्ण मिलकर स्ट्रोविलस (Strobilus) बनाते हैं।
15. मार्सीलिया में बीजाणुधानियाँ बीजाणुकलिकाओं (Sporocarps) में पाई जाती हैं।
16. बीजाणुमातृ कोशिका (Spore Mother cell) मिओसिस द्वारा विभाजित होकर अगुणित बीजाणुओं को बनाती है।
17. समबीजाण्विक वंश के पादपों में युग्मकोद्भिद स्वतंत्र एवं यह बहिर्बीजाणुक (Exosporic) रूप से विकसित होता है जबकि विषमबीजाण्विक (Hererosporoms) वंश के पादपों में युग्मकोद्भिद ह्रासित (Reduced) व बीजाणु चोल के भीतर (Endosporic) विकसित होते हैं।
18. पुंधानियाँ द्विकशाभिक पुमणुओं (सिलेजिनेला) या बहुकशाभिक पुमणुओं (मार्सीलिया) को जन्म देती हैं।
19. स्त्रीधानियों में ग्रीवा नाल कोशिकाएँ (Neck Canal cells) कम पाई जाती हैं।
20. निषेचन (Fertilization) के लिए पानी जरूरी होता है। एक नर युग्मक के अण्ड (Egg) से संलयित होने से द्विगुणित युग्मनज का विकास होता है।
21. जाइगोट माइटोसिस द्वारा भ्रूण में परिवर्तित होता है तथा भ्रूण से नये बीजाणुद्भिद् पादप का विकास होता है।
जिम्नोस्पर्म का वर्गीकरण:-
– 1827 तक जिम्नोस्पर्म एक पृथक् पादप समूह के रूप में नहीं जाना जाता था तथा जो पौधे अब इस समूह में हैं तब वे समानता के आधार पर ऐन्जियोस्पर्म के विभिन्न वर्गों में रखे गए थे। इस समय तक इन पौधें के बीजाण्ड (Ovules) मादा पुष्प समझे जाते थे। जिम्नोस्पर्म को एक अलग समूह के रूप में मान्यता सर्वप्रथम रॉबर्ट ब्राउन (Robert Brown, 1827) ने दी। उन्होंने बताया कि साइकैड्स (Cycads) तथा कोनीफ़र (Conifers) के मादा पुष्प वास्तव में बीजाण्ड (Ovule) हैं।

जिम्नोस्पर्म के लक्षण (Characters of Gymnosperms):-
– अधिकांश वंश सदाहरित (Evergreen) वृक्ष (Trees) अथवा क्षुप (Shrubs) है।
– पादप शरीर बीजाणुद्भिद् (Sporophyte) तथा जड़, तने एवं पत्तियों में विभेदित होता है।
– इनमें मूसला जड़ें (Tap roots) पाई जाती हैं। कुछ वंशों की जड़ जैसे साइकस (Cycas) की कोरेलोइड जड़ों में (Coralloid roots) सहजीवी शैवाल नॉस्टॉक (Nostoc) व एनाबिना (Anabaena) पाए जाते हैं। पाइनस की जड़ों में बहिर्पोषणीज कवकतंतु (Ectotrophic mycorrhiza) उपस्थित होते हैं।
– तने सीधे (Irect) काष्ठीय (Woody), अधिकांशतः शाखित (Branched) किन्तु साइकस (Cycas) में अशाखित। एफिड्रा (Ephedra) में पर्णाभ स्तंभ (Phylloclode) उपस्थित होता है।
– तने पर चिरस्थायी पर्णाधार (Persistent leaf bases) उपस्थित होते हैं।
– पत्तियाँ सरल (Simple) जैसे पाइनस (IPinus) में या पर्क्षेवत संयुक्त (imately compound) जैसे साइकस (Cycas) में। पाइनस व साइकस में द्विरूपी (Dimorphic) पत्तियाँ । एफिड्रा में केवल शल्क पर्ण होते हैं।
– जड़े द्वि-से बहुआदिदारु (Arch to Polyarch) तथा बाह्यदिदारुक (Narch) होती हैं।
– प्राथमिक अवस्था में तने में संवहनपूल, संयुक्त (Conjoint) संपार्श्विक (Collateral), अंत: आदिदारुक (Endarch) व खुले (Open) तथा एक वलय (Ring) में उपस्थित होते हैं।
– जाइलम केवल वाहिनिकाओं (Tracheids) तथा जाइलम मृदुतक से तथा फ्लोएम केवल चालनी नाल कोशिकाओं (Sieve tube cells) व फ्लोएम मृदुतक से बना होता है।
– जाइलम में वाहिकाएँ (केवल एफ्रीडा, नीटम वेल्विश्चिया को छोड़कर) तथा फ्लोएम में सहकोशिकाएँ अनुपस्थित होती है।
– द्वितीयक वृद्धि (Secondary growth) उपस्थित।
– Polyxylic:- जिसमें उत्तरोत्तर कैम्बियम की वलय-साइकस में।
– Monoxylic:- जिसमें केवल एक ही कैम्बियम की वलय-पाइनस में।
– द्वितीयक वृद्धि से बनी काष्ठ (Wood) दो प्रकार की हो सकती है-
(i) विरल दारुक (Manoxylic):-
– इस प्रकार की काष्ठ में मज्जा व वल्कुट सुविकसित तथा मज्जा रश्मियाँ (Medullary rays) चौड़ी। उदाहरण:- साइकस।
(ii) घन दारुक (Pychoxylic):-
– इसमें मज्जा व वल्कुट अत्यंत समानीत (Reduced) होते हैं। इस प्रकार की काष्ठ में जाइलम तत्त्व (Xylem elements) सघन रूप से व्यवस्थित होते हैं। उदाहरण:- पाइनस।
– पत्तियों की बाह्य त्वचा (Epidermis) उपचर्म (Cuticle) की मोटी परत से ढकी होती है। इसमें धँसे हुए रन्ध्र (Sunken stornate) पाये जाते हैं।
– पर्णमध्योतक (Mesophyll) स्पंजी मृदुतक व खंभ कोशिकाओं (Pelisade cells) में विभेदित जैसे साइकस में या अभिवेदित जैसे पाइनस व सिड्स में।
– अधिकांश जिम्नोस्पर्म की पत्तियों में पार्श्वशिराएँ (Lateral veins) अनुपस्थित। इनमें पार्श्व स्थानांतरण, संचरण ऊतक (Transfusion tissue) द्वारा होता है।
जनन सम्बन्धी लक्षण (Reproductive Characters):-
– इस समूह के पौधे विषमबीजाणुक (Heterosporous) हैं। गुरु एवं लघुबीजाणुपर्णों (Mega and Microsporophylls) पर पाई जाती है।
– बीजाणुधानियों का परिवर्धन युस्पोरेन्जिएट (Eusporangeate) प्रकार का होता है। (कोशिकाओं के समूह से)
– मादाशंकु (Female Strobilus) पौधे पर अनेक वर्षों तक बने रहते हैं।
– कुछ वंशों जैसे साइकस व गिंगो (Ginkgo) में नर व मादा शंकु अलग-अलग पौधों पर तथा कुछ वंशों (जैसे पाइनस) में एक ही पौधे पर विकसित होते हैं।
– बीजाण्ड (Ovule) या गुरुबीजाणु धानियाँ (Megasporangia) नग्न (Naked) होते हैं।
– बीजाण्ड ऋजु (Orthotropous) तथा एक अध्यावरण युक्त (Unitegmic) होते हैं परन्तु एफीड्रा, नीटम व वेल्विश्चिया में द्विअध्यावरणी (Bitegmic) होते हैं।
भ्रौणिकी सम्बन्धी लक्षण (Embryological Characters):-
– अण्ड कोशिका (Egg cell) के निषेचण से युग्मनज (Zygote) बनता है जो समसूत्री विभाजन से भ्रूण (Embryo) बनाता है।
– बहुभ्रूणता (Polyembryony) पाई जाती है। यह दो प्रकार की होती है–
(i) साधारण बहुभ्रूणता (Simple Ployembryony):-
– जब एक से अधिक स्त्रीधानियों के निषेचन से कई युग्मनज बनते हैं तथा प्रत्येक युग्मनज से एक भ्रूण बनता है, जैसे साइकस में।
(ii) विदलन बहुभ्रूणता (Cleavage Polyembryony):-
– जब एक युग्मनज (Zygote) से ही एक से अधिक भ्रूण विकसित होते हैं; जैसे पाइनस में।
आवृतबीजी का वर्गीकरण (Classification of Angiosperms):-
– आवृतबीजी पादप वर्गीकरण (Angiospermic plants classification) के इतिहास को दो प्रमुख विस्तृत काल खण्डों में विभेदित किया जा सकता है, ये निम्नलिखित प्रकार से हैं-
(i) पूर्व-डार्विनकालीन वर्गीकरण पद्धतियाँ (Pre-Darwinian System):-
– काल खण्ड प्रथम (Period-I):- स्वभाव या प्रकृति (Habit) पर आधारित वर्गीकरण।
– काल खण्ड द्वितीय (Period-II):- पुष्पीय संरचनाओं की, मुख्यतया पुंकेसरों की संख्या पर आधारित वर्गीकरण।
– काल खण्ड तृतीय (Period-III) – पौधों के आकारिकीय लक्षणों अथवा बंधुता (Form relationship) पर आधारित वर्गीकरण।
(ii) पश्च डार्विन कालीन वर्गीकरण पद्धतियाँ (Post-Darwinian Classification):-
– काल खण्ड चतुर्थ (Period-IV):- पौधों की जातिवृत्तीय बंधुता (Phylogeny) पर आधारित वर्गीकरण।
पादप वर्गीकरण के प्रकार (Types of Plant Classification):-
– प्राचीन एवं आधुनिक वर्गीकरण पद्धतियों को प्रमुख रूप से तीन श्रेणियों में विभक्त किया जाता है–
(i) कृत्रिम पद्धतियाँ (Artificial System)
(ii) प्राकृतिक पद्धतियाँ (Natural System)
(iii) जातिवृत्तीय पद्धतियाँ (Phylogenetic System)
(i) कृत्रिम पद्धतियाँ (Artificial System):-
– 1830 ई. की अवधि तक प्रस्तुत पादप वर्गीकरण की पद्धतियों को इस श्रेणी में रखा जाता है। इस श्रेणी में सम्मिलित प्रमुख पद्धतियाँ हैं– थियोफ्रेस्टस (Theophrastus, 370-285 B.C.), प्लिनी (Pliny, 23-74 A.D.), डायोस्कोरिड्स (Dioscorides, 128 A.D.), बॉहिन (Bauhin, 1560-1624), जॉन रे (John Ray, 1628-1705 A.D.), केरोलस लिनियस (Carolus Linnaeus, 1707-1778)।
(ii) प्राकृतिक पद्धतियाँ (Natural System):-
– प्राकृतिक पद्धतियों का गठन प्रमुख रूप से 1830 ई. से उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक डार्विन के विकासवाद सिद्धान्त के प्रतिपादन से पूर्व हुआ है। प्राकृतिक वर्गीकरण पद्धतियाँ पादपों के प्राकृतिक सम्बन्धों पर आधारित है। प्राकृतिक वर्गीकरण पद्धतियों में प्रमुख हैं – डी. केन्डोले (A.P. de Canddle, 1778-1841), जॉन लिन्डले (John Lindley, 1799-1865), बैंथम एवं हुकर (Bentham & Hooker, 1862-1883)।
(iii) जातिवृत्तीय पद्धतियाँ (Phylogenetic System):-
– चार्ल्स डार्विन (Charl’s Darwin, 1859) द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त ‘प्राकृतिक चयन द्वारा जातियों का उद्भव’ (Origin of Species by Natural Selection) के पश्चात् विकसित वर्गीकरण पद्धतियाँ जातिवृत्तीय पद्धतियाँ कहलाती हैं। इस सिद्धान्त के प्रति समकालीन जीव विज्ञानियों द्वारा आम सहमति प्रकट करने से वर्गिकीवेत्ताओं को वर्गीकरण के लिए एक सशक्त व सर्वमान्य आधार प्राप्त हुआ, जिसे जातिवृत्तीय आधार (Phylogenetic basis) कहते हैं। जातिवृत्तीय वर्गीकरण पद्धतियों के प्रमुख हैं– ऐंगलर तथा प्रेन्टल (Engler and Prantl, 1887-1899), हचिन्सन (Hutchinson, 1887-1915), तख्ताजन (Takhtajan, 1954), चार्ल्स एडवर्ड बैस्से (charl’s Edward Bassey, 1894-1915)।

– आवृतबीजी पुष्पीय पादपों का समूह हैं जिसमें अण्डाशय पाया जाता है जो निषेचन के बाद फल में बदल जाता है। इस समूह के पादप बीज फलभित्ति (Pericarp) से ढके रहते हैं। फलभिति से चारों ओर घिरे हुए पादपों को आवृतबीजी पादप या ऐन्जियोस्पर्म कहते हैं।
– ऐन्जियोस्पर्म पादप जगत के सर्वाधिक विकसित पादप हैं। उनकी उत्पत्ति मिजोजोइक महाकल्प के क्रिटशियस काल में हुई है। वर्तमान काल में पादपों में आवृतबीजी पादपों का समूह पृथ्वी पर प्रभावी वनस्पति के रूप में विद्यमान है।
आवृतबीजियों के सामान्य लक्षण:-
1. आवृतबीजी पादप विश्व में सभी जगह पाए जाते हैं, ये उत्तरी ध्रुव, दक्षिणी ध्रुव तथा भूमध्यसागरीय क्षेत्र में व्यापक रूप से पाए जाते हैं।
2. ऐन्जियोस्पर्म मैदानों, पर्वतों, शिखाओं, समुद्री झीलों व मरुस्थलों में अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। कई पादप मरुद्भिद पादप हैं; जैसे नागफनी, कुछ पादप जल में निमग्न स्थिति में उगते हैं; जैसे– हाइड्रिला, वेलिसिनेरिया।
– कुछ लवणयुक्त सागर जल में जैसे जोस्टेरा मेराइना कुछ ज्वारनदमुख स्थानों पर मैंग्रोव वनस्पति का निर्माण करते हैं; जैसे राइजोफोरा, एबीसनिया कुछ अधिपादपों के रूप में; जैस वान्डा आदि।
– अधिकांश सदस्य स्थलीय शाक तथा वृक्ष हैं; जैसे – मटर, आम, पीपल, गेहूँ आदि।
3. आवृतबीजियों के स्वभाव में आश्चर्यजनक विविधता पाई जाती है। चाहे वह सूक्ष्मदर्शी वॉल्फिया हो या फिर यूकेलिप्टस; जैसे लम्बे वृक्ष हो, अधिकांश सदस्य शाक, झाड़ियाँ, वृक्ष तथा लम्बे वृक्ष होते हैं। शाक – गोखरू (Tribulus), झाड़ी- आक (Calotropis) वृक्ष – बबूल (Acacia) तथा आरोही पादप बोगेनविलिया आदि।
4. आवृतबीजियों का मुख्य पादप बीजाणुद्भिद होता है जो सुविकसित मूल तंत्र तथा प्ररोह तंत्र में विकसित होता हैं। प्ररोह तंत्र स्तम्भ तथा पर्णों से बना होता है।
5. आवृतबीजियों के अधिकांश सदस्य प्रकाश संश्लेषी अर्थात् स्वपोषी होते हैं। बहुत कम सदस्य विषमपोषी होते हैं। जैसे परजीवी (अमरबेल, कस्कुटा) मृतजीवी (मोनोट्रोपा), आंशिक विषमपोषी जैसे – कीटभक्षी (घटपर्णी, निफेनथीज) आदि।
6. आवृतबीजियों में सुविकसित संवहन तंत्र पाया जाता है। जाइलम व फ्लोएम दोनों ऊतक चार-चार तत्त्वों से बने होते हैं। जाइलम का निर्माण वाहिनिकाओं, वाहिकाओं, जाइलम रेशों तथा जाइलम मृदुतकों (Tracheids, Vessels, Xylem fibres and Xylem parenchyma) तथा फ्लोएम का निर्माण चालनी नलिकाओं सहकोशिकाओं, फ्लोएम रेशों तथा फ्लोएम मृदुतकों (Sieve tubes, Companion cells, Phloem fibres and phloem Parenchyma) से होता है। द्विबीजपत्री पादपों में द्वितीयक वृद्धि हेतु एधा बनता है।
7. जनन के वक्त सभी आवृतबीजी पादप पुष्प धारण करते हैं। पुष्पों में फलद पर्णें; जैसे– पुंकेसर (लघुबीजाणुपर्णें) तथा स्त्रीकेसर (गुरुबीजाणुपर्णें) व्यवस्थित होती है।
8. परागकण परागण के समय बीजाण्ड से दूर अण्डप के वर्तिकाग्र पर आते हैं।
9. इनमें नर युग्मक अचल होते हैं तथा निषेचन नालयुग्मनी (Siphonogamous) होता है।
10. त्रिगुणित भ्रूणपोष पाया जाता है।
11. आवृतबीजियों में त्रिक संयोजन (Triple Fusion) तथा दोहरा निषेचन (Double Fertilization) पाया जाता है।
12. आवृतबीजी एकबीजपत्री अथवा द्विबीजपत्री होते हैं।
1 thought on “पौधों की वर्गिकी और वर्गीकरण (Taxonomy and classification of plants)”