खरपतवार (weed)

खरपतवार

• ऐसे पौधे जो अनचाहे स्थान व अनचाहे समय पर उगते हैं, खरपतवार कहलाते हैं।

• सर्वप्रथम खरपतवार शब्द का प्रयोग वर्ष 1931 में जेथ्रोटूल नाम वैज्ञानिक ने किया।

• खरपतवार विज्ञान के जनक :- जेथ्रोटूल

• जेथ्रोटूल द्वारा लिखित पुस्तक :- “हॉर्स होइंग हसबैण्ड्री”

• आधुनिक भू-परिस्करण के जनक :- जेथ्रोटूल

• खरपतवार अनुसंधान निदेशालय (DWR) :- जबलपुर, मध्यप्रदेश

विशेषताएँ :- [Characteristic of weeds]

1. अधिक गहरी जड़ें :-

• फसल के पौधों की अपेक्षा अधिक गहरी होती है।

• इससे गहराई के पोषक तत्त्वों को ग्रहण करने में मदद मिलती है।

• जैसे- हिरनखुरी, कांस, ज्वासा व बायसूरी की जड़ें 4-6 मीटर गहराई में होती है।

2. बीज उत्पादन क्षमता अधिक होना :-

क्र सं.खरपतवारबीज उत्पादन/पौधा
1.जंगली चौलाई (अमरेन्थस स्पी.)1,96,000
2.मकोय1,75,000
3.बथुआ72,000
4.अमरबेल16,000
5.गाजर घास व सत्यानाशी5,000

3. बीजों की जीवन क्षमता अधिक :-

क्र सं.खरपतवारजीवन क्षमता
1.हिरनखुरी, बथुआ, जंगली चौलाई50 वर्ष
2.जंगली सरसों30 – 40 वर्ष
3.मोथा20 वर्ष

4. सुरक्षा के लिए बीजों पर कठोर आवरण :-

• बीजों पर सख्त बाल, काँटे आदि पाए जाते हैं; जैसे :- सत्यानाशी व गोखरु।

5. फसल के बीजों से समानता :-

• आकार, आकृति रंग में कुछ खरपतवारों के बीज फसलों के बीजों से समानता रखते हैं; जैसे :- सत्यानाशी के बीज सरसों से, जंगली जई के बीज जई से

6. सभी प्रकार की मृदाओं में वृद्धि करना

• खरपतवार लवणीय, क्षारीय, अम्लीय, बंजर व जलमग्न सभी प्रकार की मृदाओं में वृद्धि करते हैं।

7. वानस्पतिक प्रजनन :-

• हिरनखुरी, मोथा, दूबघास

8. खरपतवार व बीजों का शीघ्र प्रकीर्णन :-

• खरपतवारों का विस्तार वायु द्वारा, जल द्वारा, मनुष्यों द्वारा, पशुओं व फार्म मशीनरी द्वारा बहुत शीघ्रता से होता है

• वायु द्वारा प्रकीर्णन : आक

• जल द्वारा प्रकीर्णन : जलकुम्भी

9. शीघ्र वृद्धि व परिपक्वता :-

• गेहूँसा व जंगली चौलाई अपना जीवन चक्र 60-70 दिन में पूरा कर लेते हैं।

10. खरपतवार के पौधे प्रतिकूल जलवायु से अप्रभावित रहते हैं।

11. कीट व रोगों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता रखते हैं।

12. खरपतवार के पौधों को कम/न्यून पोषक तत्त्वों की आवश्यकता होती हैं।

खरपतवारों से लाभ :-

1.  औषधियों के रूप में उपयोग –

·  दूब घास – रक्त स्तम्भक के रूप में

·  ल्युक्स एस्पेरा – साँप के काटने पर

2.  चारे के रूप में उपयोग – दूबघास व काँसनी

3.  मृदा संरक्षण में सहायक

4.  सजावट के रूप में उपयोग – लेंटाना कैमरा

5.  व्यवसाय के रूप में उपयोग – मोथा (सुगंधित अगरबत्ती बनाने में)

6.  मृदा उर्वरा शक्ति बढ़ाने में

7.  जैविक कीट-रोग नियंत्रण में उपयोग

8.  कम्पोस्ट बनाने में उपयोग

9.  अन्य उपयोग

जैसे- शाक-सब्जी के रूप में,

• कॉफी का स्वाद बढ़ाने में कासनी के बीजों का उपयोग करते हैं,

• सत्यानाशी का उपयोग क्षारीय मृदाओं को सुधारने में किया जाता है।

खरपतवारों से नुकसान [Losses caused by weeds] :-

• खरपतवारों द्वारा फसलों के उत्पादन व गुणवत्ता दोनों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

• खरपतवार फसलों के पौधों के साथ उगकर स्थान, भोजन, प्रकाश व जल के लिए प्रतिस्पर्द्धा करते हैं।

(1) फसल उत्पादन में गिरावट/कमी

• फसल उत्पादन में खरपतवारों द्वारा 30-35% कमी होती है।

फसल को हानिनुकसान
खरपतवार33%
कीट26%
रोग20%

(2) उत्पाद की गुणवत्ता में कमी

• सत्यानाशी के बीज सरसों में मिल जाने से तेल में दुर्गंध आने लगती है तथा इस तेल का सेवन करने से मनुष्य में ड्रोप्सी नामक रोग हो जाता है।

• जंगली प्याज या लहसुन पशुओं द्वारा चरने से दूध में दुर्गन्ध आने लगती है।

(3) भूमि की कीमत में कमी

• अधिक खरपतवार भूमि के उपजाऊपन को नष्ट कर देते हैं जिससे भूमि की उत्पादकता में कमी आ जाती है।

(4) सिंचाई जल का ह्रास

• सिंचाई नालियों, नहर व तालाब के पानी का अवशोषण करते हैं व इनके पानी बहाव में अवरोध उत्पन्न करते हैं।

(5) मृदा नमी में कमी

• जड़ों की गहराई अधिक होने के कारण मृदा नमी को अधिक नुकसान पहुँचाते हैं।

(6) खरपतवार मनुष्य व पशु स्वास्थ्य के लिए घातक

• गाजर घास  – एलर्जी व चर्म रोग

• बथुआ एवं दूबघास – श्वसन क्रिया प्रभावित

• सत्यानाशी के बीज + सरसों – ड्रोप्सी रोग

• बर – घास के कल्ले फूटते समय पशुओं द्वारा चर लेने पर जहरीला प्रभाव पड़ता है।

(7) खरपतवार कीट व रोगों को शरण देते हैं–

क्र. सं.फसलरोगपरपोषी खरपतवार
1.कद्दुवर्गीय सब्जियाँएफिडहिरण खुरी
2.गेहूँ/जौ/जईरोली रोगजंगली जई
3.मक्काडाऊनी मिल्ड्युकांस
4.बाजराअरगटअंजन घास
5.गोभी वर्गीयक्लब रूटजंगली सरसों

• धान में तना छेदक कीट को फैलाने वाला परपोषी खरपतवार जंगली धान, सावा है।

• टमाटर, कपास, भिण्डी व अरहर में फली छेदक कीट का परपोषी खरपतवार बथुआ व जंगली चौलाई हैं।

(8) किसान की आर्थिक स्थिति पर प्रभाव

• शाकनाशी दवाइयाँ खरीदने व श्रमिकों की व्यवस्था करने के लिए अधिक खर्च होता है जिससे आर्थिक स्थिति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

(9) कृषि यंत्रों, मशीनों व पशुओं की क्षमता में कमी

खरपतवारों का वर्गीकरण [Classification of weeds]

• खरपतवारों  के वर्गीकरण का आधार उनकी आयु, पत्तियों की बनावट, फसल खरपतवार सम्बन्ध, मृदा व जलवायु को माना गया है।

1. जीवन चक्र के आधार पर :- [Based on life cycle]

A. एक वर्षीय खरपतवार – वे खरपतवार जो अपना जीवन चक्र एक वर्ष या उससे भी कम अवधि में पूर्ण कर लेते हैं, एक वर्षीय खरपतवार कहलाते हैं।

इसके दो प्रकार हैं–

(i)  खरीफ के खरपतवार – मोथा, गोखरु, जंगली धान, जंगली चौलाई, लहसुआ, पत्थरचट्‌टा आदि।

(ii) रबी के खरपतवार – सत्यानाशी, बथुआ, गेहूँसा, प्याजी, जंगली जई, कृष्णनील आदि।

B. द्विवर्षीय खरपतवार – वे खरपतवार जो प्रथम वर्ष में अपनी वानस्पतिक वृद्धि करते हैं तथा दूसरे वर्ष में बीज उत्पादन करते हैं।

उदाहरण – जंगली गोभी, जंगली गाजर।

C. बहुवर्षीय खरपतवार – वे खरपतवार जो अपना जीवन चक्र पूरा करने में दो से अधिक वर्षों का समय लेते हैं, बहुवर्षीय खरपतवार कहलाते हैं। उदाहरण – मोथा, लेन्टाना कैमरा, जलकुंभी, दूबघास

• इनकी वृद्धि वानस्पतिक भागों; जैसे – बल्ब, राइजोम, ट्यूबर्स द्वारा हाती है।

• कभी-कभी उपयुक्त जलवायु मिलने पर ये बीज उत्पादन भी करते हैं।

2. बीजपत्र के आधार पर वर्गीकरण –

• इनको दो भागों में बाँटा गया है-

एक बीजपत्री खरपतवार (Monocot)द्विबीजपत्री खरपतवार (Dicot)
इस प्रकार के बीजों को दो समान भागों में विभक्त नहीं किया जा सकता है।इस प्रकार के बीजों को दाल की भाँति दो समान भागों में विभक्त किया जा सकता है।
उदाहरण – दूब घास, प्याजी, कांस, मोथा, गेहूँसा आदि।उदाहरण – हिरणखुरी, सत्यानाशी, बथुआ, मकोय, जंगली चौलाई आदि।

3. पत्तियों की बनावट के आधार पर –

• इनको दो भागों में बाँटा गया है।

(i) चौड़ी पत्ती वाले खरपतरवार (Broad leave weeds) – बथुआ, हिरणखुरी, कृष्णनील, जंगली चौलाई, लहसुआ, मकोय आदि।

(ii)  सँकरी पत्ती वाले खरपतवार (Narrow Leave weeds) – गेहूँसा, मोथा, दूबघास, जंगली जई आदि।

4. खरपतवार-फसल संबंध के आधार पर वर्गीकरण

• सापेक्ष खरपतवार (Relative weeds) – जब एक फसल के पौधों के साथ दूसरी फसल के पौधे अनैच्छिक रूप से उग जाते हैं, इसे सापेक्ष खरपतवार कहलाते हैं।

उदाहरण – गेहूँ के खेत में चना, सरसों उग जाए तो इसे सापेक्ष खरपतवार कहते हैं।

·  निरपेक्ष खरपतवार (Absolute weeds) – इसमें एकवर्षीय, द्विवर्षीय व बहुवर्षीय सभी खरपतवार सम्मिलित हैं। ये फसल की उपज को घटा देते हैं।

उदाहरण – हिरणखुरी, मोथा, गाजर घास, कृष्णनील आदि।

·  अवाँछित खरपतवार (Rogue weeds) – जब खेत में फसल की एक किस्म के साथ किसी अन्य किस्म का पौधा बिना बोये उग जाए अवाँछित खरपतवार कहलाता है।

उदाहरण – गेहूँ की किस्म राज 3077 ने राज 1482 के पौधे उगना

रोगिंग (Roguing) – इन अवाँछित खरपतवारों को उखाड़ने की क्रिया रोगिंग कहलाती है।

·  नकलची खरपतवार (Mimicry weeds) – इन खरपतवारों का आकार व आकृति फसल के पौधों से मिलता-जुलता होता है, जिससे इन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता है, ये नकलची खरपतवार कहलाते हैं

उदाहरण – गेहूँ की फसल में गेहूँसा (फ्लेरिस माईनर) नकलची खरपतवार है।

धान की फसल में जंगली धान नकलची खरपतवार है।

• विशेष सूक्ष्म जलवायु के खरपतवार (Special micro-climate weeds) –  कुछ खरपतवारों को वृद्धि और विकास के लिए विशेष जलवायु परिस्थितियों की आवश्यकता होती है।

उदाहरण – बरसीम व रिजका की फसल में काँसनी खरपतवार का उगना।

• स्वैच्छिक खरपतवार (Volunteer weeds) – बोई गई फसल के साथ पिछली ऋतु की फसल के पौधे उगना स्वैच्छिक खरपतवार कहलाते हैं।

उदाहरण– गेहूँ में मूँगफली के पौधे का उगना।

• आपत्तिजनक खरपतवार (Objectionable weeds) – इन खरपतवारों के बीज फसल के बीजों में मिलने के बाद अलग करने में कठिनाई आती है।

उदाहरण- सरसों में सत्यानाशी, गेहूँ में हिरनखुरी, जई में जंगली जई, ज्वार में बरू।

• परजीवी खरपतवार (parasitic weeds) –

क्र. सं.खरपतवारफसल संबंधफसलें
1.लोरेंथसअर्द्ध तना परजीवीआम, चाय व रोपण फसलें
2.अमरबेलपूर्ण तना परजीवीरिजका
3.स्ट्राईगाअर्द्ध जड़ परजीवीज्वार, बाजरा, मक्का
4.ओरोबैंकीपूर्ण जड़ परजीवीतम्बाकू, सरसों व सोलेनेसी कुल की फसलें

5. मृदा व जलवायु के आधार पर वर्गीकरण –

• इन्हें तीन उपवर्गों में बाँटा गया है-

(i)  शुष्क क्षेत्र के खरपतवार (Dryland weeds) – इन खरपतवारों की जड़ें गहरी, पत्तियाँ कम व मोटी, तने पर पाए जाते हैं।

उदाहरण – नागफनी, बायसूरी, जवासा व झरबेरी आदि।

(ii) कृषि क्षेत्र के खरपतवार (Weeds of Cultivated land) – ये खरपतवार फसलों के साथ उगते हैं।

उदाहरण – बथुआ, हिरणखुरी, जंगली चौलाई, प्याजी व कृष्णनील आदि।

(iii) अकृषित क्षेत्र के खरपतवार (Weeds of Non-Agricultural areas) – औद्योगिक क्षेत्रों, सड़क एवं रेलमार्ग में उगने वाले खरपतवार।

उदाहरण – लेंटाना कैमरा, गाजर घास व कांस आदि।

(iv) जलीय खरपतवार (Weeds of waterlogged soils) – जलीय खरपतवार ऐसे क्षेत्रों में उगते हैं जहाँ पानी भरा रहता है।

उदाहरण – जलकुंभी, जंगली धान

• तैरते हुए खरपतवार – आइकोर्निया क्रेसिप्स और पिस्टिया

• अर्द्ध डूबे हुए खरपतवार – हाइड्रिला और युट्रिकुलेरिया

• पूर्ण डूबे हुए खरपतवार – टाइफा

6. प्रजनन विधियों के आधार पर खरपतवारों का वर्गीकरण –

(i)  बीज द्वारा – इनका प्रजनन केवल बीज द्वारा होता है।

उदाहरण – प्याजी, कृष्णनील, सत्यानाशी, गेहूँसा, जंगली जई, लहसुआ आदि।

(ii) वानस्पतिक भाग द्वारा – मोथा, हिरणखुरी, दूबघास, कांस

7. स्थान प्रबलता के आधार पर–

1. विकल्पी खरपतवार (Facultative weeds) – वे खरपतवार जो कृषित व अकृषित किसी भी क्षेत्र में उग जाते हैं वे विकल्पी खरपतवार कहलाते हैं।

उदाहरण – सत्यानाशी

2. अविकल्पी खरपतवार (Obligate weeds) – केवल कृषि क्षेत्र में उगने वाले खरपतवार, अविकल्पी खरपतवार कहलाते हैं।

उदाहरण – बथुआ, सैंजी व गेहूँसा

खरपतवार नियंत्रण (Weed control)

खरपतवार नियंत्रण का सिद्धांत–

1. रोकथाम / निरोधात्मक (Prevention)– नए क्षेत्र में खरपतवारों के प्रसार को रोकना।

2. उन्मूलन (Eradication)– किसी क्षेत्र से खरपतवारों को समूल नष्ट करना।

3. नियंत्रण (Control)– खरपतवारों की वृद्धि को कम करना या उनकी संख्या को कम करना जिससे फसल उत्पादन प्राप्त किया जा सके।

खरपतवार नियंत्रण की विधियाँ:-

(A) शस्य विधियाँ :-

(1) फसल बोने का समय – कुछ समय खरीफ ऋतु में फसलों को मानसून आने से पहले बोना चाहिए इससे खरपतवारों का प्रकोप कम होता है।

(2) फसल चक्र – फसल चक्र अपनाने से खरपतवारों का प्रकोप कम होता है कुछ खरपतवार कुछ विशेष फसलों के साथ ही आते हैं।

(3) अन्तराशस्य क्रियाएँ – मक्का व कपास जैसी फसलों (जिनमें कतार से कतार की दूरी अधिक हो) के बीच दलहनी फसलों का अन्तराशस्य करें।

(4) मृदा उर्वरता – पोषक युक्त मृदा से खरपतवार नष्ट करने से फसलें तेजी से बढ़ती है और बाद में निकालने वाले खरपतवारों को दवा देती है।

(5) जातीय  उपयुक्तता – ऐसी जातियाँ उगानी चाहिए, जो उस क्षेत्र में उगने वाले खरपतवारों को दबा सके।

(6) शून्य व न्यून कषर्ण क्रियाओं को अपनाकर खरपतवारों को कम किया जा सकता है; जैसे – गेहूँ के क्षेत्रों में आइसोप्रोट्यूरोन रोधी गुल्ली-डण्डा जैसे खरपतवारों की नियंत्रित किया जा सकता है।
 

(B) भौतिक व यांत्रिक विधि :-

(1) मृदा सौरीकरण [Soil solarization] – ऐसा खेत जहाँ नमी हो अप्रैल-मई के माह में उस खेत की प्लास्टिक की पारदर्शी शीट से ढक दें, इससे मृदा का तापमान सामान्यत: 8-10°c बढ़ जाता है और खरपतवारों के बीज व पौधे नष्ट हो जाते हैं।

(2) पलवार [Mulching] – मृदा में वायु एवं प्रकाश किसी कार्बनिक या अकार्बनिक पदार्थ द्वारा मृदा को ढक दिया जाता है जिससे पौधों में संश्लेषण की क्रिया अवरुद्ध हो जायेगी और खरपतवार नष्ट हो जाएँगे।

नोट – पलवार [Mulching] द्वारा नमी संरक्षण व मृदा संरक्षण भी संभव है।

(3) हाथ से उखाड़ना [Hand pulling] – नर्सरी या छोटे क्षेत्रफल में खरपतवार नियंत्रण की उत्तम विधि है। एकवर्षीय खरपतवारों को आसानी से समाप्त किया जा सकता है।

(4) भू-परिष्करण द्वारा [Tillage] – भू-परिष्करण का मुख्य उद्देश्य है खरपतवारों को नष्ट करना। प्राथमिक व द्वितीयक भू-परिष्करण क्रियाओं द्वारा खरपतवारों को नष्ट किया जा सकता है।

(5) निराई-गुड़ाई करना –

• निराई – खुरपी से खरपतवार नियंत्रण करना।

• गुड़ाई – इस विधि में फावड़ा, कुदाली, हैण्ड हो, बैलों तथा ट्रेक्टर से चलने वाले हैरो-कल्टीवेटर को काम में लिया जाता है।

(6) छँटाई करना – बंजर भूमि, चारागाह, सड़क, बस्ती, नहर के किनारे उगे खरपतवारों के पौधों को काटकर इनकी वृद्धि तथा बीजोत्पादन को रोका जाता है।

(7) जलाना – अकृषित क्षेत्र में खरपतवारों को नष्ट करने की उपयोगी विधि हैं।

(8)  जल प्लावन (Flooding) – बहुवर्षीय खरपतवारों को नष्ट करने के लिए खेत की पानी से भर दिया जाता है जिससे खरपतवारों की उपापचयी क्रियाएँ बाधित हो जाती हैं और पौधे नष्ट हो जाते हैं।

(9)  चैनिंग [Chaining] – जलीय खरपतवारों को नष्ट करने के लिए इस विधि का प्रयोग किया जाता है।
 

(C) रासायनिक विधियाँ [Chemical Methods] :-

·  रसायनों का प्रयोग द्वितीय विश्व युद्ध 1945 के बाद ही शुरू हुआ जब 2,4-डी व एम.सी.पी.ए. अस्तित्व में आए।

·  खरपतवारों को नष्ट करने के लिए जिन रसायनों का प्रयोग किया जाता है शाकनाशी रसायन (Herbicide) कहलाते हैं।

नोट:– सिंचाई के जल के साथ हर्बिसाइड का उपयोग करना हर्बिगेशन कहलाता है।

·  शाकनाशी रसायनों को उनके गुण, विशेषताओं व प्रभाव के आधार पर निम्न भागों में वर्गीकृत किया गया है–

शाकनाशियों का वर्गीकरण [Classification of herbicides] :-

(1) वर्णात्मक व अवर्णात्मक शाकनाशी :-

(अ)     वर्णात्मक शाकनाशी (Selective Herbicides) – यह शाकनाशी समूह विशेष के खरपतवारों को नष्ट करता है। उदाहरण :- 2,4 –डी गेहूँ में चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों को नष्ट करता है; गेहूँ को नहीं।

(ब) अवर्णात्मक शाकनाशी (Non-Selective Herbicides) – यह शाकनाशी संपूर्ण (खरपतवार + फसल) शाक को नष्ट करता है। इनका प्रयोग बंजर भूमि, नहर के किनारे, सड़कों व अकृषित भूमियों पर करते हैं। उदाहरण :- पैराक्वाट, डाइक्वाट व ग्लाइफोसेट आदि।

(2) सम्पर्क शाकनाशी व स्थानान्तरित शाकनाशी

[Contact hericides & Translocated herbicides] :-

(अ) सम्पर्क शाकनाशी (Contact herbicides) – वे रसायन जो पौधे के केवल उसी भाग को नष्ट करते हैं जो भाग इन रसायन के सम्पर्क में आते हैं। उदाहरण :- पेराक्वाट व डाइक्वाट

(ब) स्थानान्तरित शाकनाशी (Translocated Herbicides) – वे रसायन जो पौधे के सभी भागों में स्थानान्तरित हो जाते हैं और पूरे पौधे को प्रभावित करते हैं। उदाहरण :– आइसोप्रोट्यूरोन, 2,4-D, ग्लाइफोसेट आदि।

नोट – ग्लाइफोसेट अवर्णात्मक जबकि स्थानान्तरित शाकनाशी है। (ग्लोइफोसेट को हाल ही में भारत सरकार द्वारा बैन कर दिया गया है।)

(3) मृदा सक्रिय व पत्र सक्रीय शाकनाशी :-

(अ) मृदा सक्रिय शाकनाशी [Soil Active Herbicides] – इन रसायनों का प्रयोग मृदा में मिलाकर किया जाता है इसके लिए खेत की जुताई कर मृदा को भुरभुरा बना लिया जाता है। इन रसायनों का प्रयोग फसल की बुनाई से पूर्व या खरपतवारों के अंकुरण की अवस्था में किया जाता है। इनका प्रभाव 4-6 सप्ताह बाद तक रहता है।

उदाहरण :- फलुक्लोरेलीन, एट्राजीन, पेन्डिमेथालिन, एलाक्लोर आदि।

(ब) पत्र सक्रिय शाकनाशी [Foliage active herbicides] – इन रसायनों का प्रयोग पौधे पर प्रर्णीय छिड़काव के रूप में किया जाता है।

उदाहरण :- 2,4-D, आइसोप्रोट्यूरोन, सल्फोसल्फयुरोन, पेराक्वाट, डाइक्वाट, ग्लाइफोसेर व पिनोक्साडेन आदि।

(4) मृदा जीवाणुनाशक एवं मृदा धूमक शाकनाशी

[Soil sterilants and Fumigents] :-

(अ) मृदा जीवाणुनाशक [Soil sterilants]

• वे रसायन जिनका प्रयोग वनस्पति व जीवाणुओं दोनों को नष्ट करने के लिए किया जाता है। इनका प्रभाव 4-24 माह तक बना रहता है।

उदाहरण – डाइयूरॉन, सिमेजिन व एट्राजिन आदि।

(ब) मृदा धुमक शाकनाशी [Soil fumigants]

• वे शाकनाशी जो मृदा में गैस के रूप में फैलकर वनस्पति को नष्ट करती है, मृदा धुमक शाकनाशी कहलाते हैं। इनका प्रभाव मृदा में एक माह तक रहता है। उदाहरण – मिथाइल ब्रोमाइल, कार्बन डाई सल्फाइड आदि।

शाकनाशी रसायनों के प्रयोग के आधार पर:-

(अ) बुआई या रोपाई से पूर्व (Pre-Plant Incorporation)

·  शाकनाशी रसायनों का प्रयोग फसल की बुआई से पहले करते हैं।

• मुख्यत: मृदा सक्रिय शाकनाशी रसायन को में लेते हैं।

• प्रयोग करते समय मृदा में उचित नमी होनी चाहिए।

• दलहनी व तिलहनी फसलों में फ्लुक्लोरेलिन का छिड़काव बुआई से पूर्व करें। इसकी 1Kg मात्रा को 800-1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें।

(ब) बुआई के बाद अंकुरण से पहले [pre-emergence]

• इसके शाकनाशी रसायनों का प्रयोग फसल बुआई के तुरंत बाद व खरपतवार तथा फसल दोनों के अंकुरण से पूर्व करते हैं।

• दलहनी व तिलहनी फसलों में अंकुरण से पहले पेन्डिमेथालिन 0.75-1.0 Kg/ha में प्रयोग करें।

• मक्का, ज्वार व बाजरा में एट्राजिन 0.5 Kg/ hec. का प्रयोग करें।

(स) अंकुरण के बाद [Post emergence]

• शाकनाशी रसायनों का प्रयोग फसल व खरपतवार दोनों के उगने के बाद किया जाता है।

• गेहूँ की फसल में गेहूँसा, जई खरपतवारों के नियंत्रण हेतु बुआई के 30-35 दिन बाद आइसोप्रोट्यूरोन का छिड़काव करते हैं।

• इसकी 1Kg मात्रा को 600-800 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें।

(द) ले-बाई प्रयोग [Lay by application]

• इस विधि में शाकनाशी का प्रयोग आखिरी निराई-गुड़ाई के बाद खड़ी फसल में करते हैं; जैसे- गेहूँ की फसल में 2,4-डी का प्रयोग करना।

जैविक नियंत्रण :-

• जब खरपतवारों का नियंत्रण प्रकृति में उपस्थित जीवों द्वारा किया जाता है तो यह जैविक नियंत्रण कहलाता है।

·  परजीवियों की सहायता से खरपतवारों की संख्या को इस सीमा तक कम किया जाता है कि इनसे होने वाली हानि को रोका जा सके।

·  मुख्यत: कीटों का इस्तेमाल अनेक खरपतवारों के नियंत्रण हेतु व्यापक रूप से किया जाता है।

·  ये कीट मुख्यत: लेपिडोप्टेरा, हेमीप्टेरा, कोलियोप्टेरा, डिप्टेरा, हामिनोप्टेरा और थाइसेनोप्टेरा जातियों के होते हैं।

इन अभिकर्ताओं (बायो एजेंट) के गुण :-

1.  मेजबान पौधों को छोड़कर अन्य पर आकृष्ट नहीं होना चाहिए।

2.  अधिक नुकसान पहुँचाने वाला होना चाहिए।

3.  इनका गुणन तीव्रता से होना चाहिए।

4.  नये वातावरण में शीघ्रता से जम जाना चाहिए (अनुकूल हो जाना) चाहिए।

विभिन्न खरपतवार व मित्र कीट

क्र. सं.खरपतवारमित्र कीटआयातित देशवर्ष
1.गाजर घासजाइकोग्रामा बाइकोलोराटामैक्सिको1983
2.नागफनीडेक्टाइलियस ओबेन्सीश्रीलंका1926
3.लैन्टाना कैमराक्रोसिडोसीमा लेंटानामैक्सिको1921
4.जलकुंभीनियोचेटिना ब्रुचीUSA1982
5.केक्टसकेक्टोब्लास्टिस साल्विनिया  

खरपतवारनाशी रसायन प्रयोग के लाभ :-

1.  नकलची खरपतवारों को यांत्रिक विधियों से निकालना आसान नहीं है। इन्हें रासायनिक विधि से आसानी से निकाला जा सकता है; जैसे- गेहूँ की फसल से गेहूँसा खरपतवार को निकालना।

2.  मृदा अपरदन की समस्या वाले क्षेत्रों में रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण प्रभावशाली रहता है।

3.  बहुवर्षीय व काष्ठीय खरपतवारों को सफलता पूर्वक नियंत्रित किया जा सकता है।

4.  लगातार वर्षा होने वाले क्षेत्रों में रसायनों द्वारा खरपतवार नियंत्रण संभव है।

5.  रासायनिक विधि द्वारा अंकुरण के समय खरपतवार नियंत्रण संभव है जबकि अन्य विधियों से तीन-चार पत्तियाँ आने पर नियंत्रण होता है।

6.  छिड़काव विधि से बोयी गई फसलों में खरपतवार नियंत्रण आसानी से किया जा सकता है।

7.  श्रमिकों की कम आवश्यकता होती है।

8. लागत कम आती है।

खरपतवारनाशी रसायनों के प्रयोग की सीमाएँ :-

1.  मृदा व फसलों पर दुष्प्रभाव

2.  कृषि जोतों का आकार छोटा होना।

3.  मिश्रित फसलोत्पादन में रसायन प्रयोग में बाधा आती है।

4.  किसानों को शाकनाशी रसायन के प्रभाव व प्रयोग संबंधी जानकारी न होना।

खरपतवारों का विस्तार (Weed dispersal) :-

• खरपतवारों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचना खरपतवारों का विस्तार कहलाता है।

1.  वायु द्वारा (Anemochory)

2.  जल द्वारा (Hydrochory)

3.  मनुष्य द्वारा (Anthropochory)

4.  पशुओं व चिड़ियाँ द्वारा (Zoochory)

खरपतवारों का गुणन (weed multiplication)

• खरपतवारों का गुणन दो माध्यमों से होता है–

1. बीज द्वारा

2. वानस्पतिक भाग द्वारा

बीज द्वारा:-

• प्याजी, सत्यानाशी, कृष्णनील, जंगली चौलाई, जवासा आदि।

वानस्पतिक भाग द्वारा:-

खरपतवारवानस्पतिक वृद्धि
हिरनखुरीजड़ों द्वारा
मौथाकंद द्वारा/राइजोम
दूब घासरनर्स द्वारा
कांसराइजोम द्वारा
गाजर घासपुष्प कलिका द्वारा (क्राउन बड)
अमरबेलतनों द्वारा
जलकुंभीऑफसूट

महत्त्वपूर्ण बिन्दु:-

·  गेहूँसा के नियत्रंण के लिए आइसोप्रोट्यूरोन  के स्थान पर नवीनतम अपनाया गया शाकनाशी सल्फोसल्फयूरोन है।

• सर्वाधिक पेस्टीसाइड का उपयोग करने वाला राज्य महाराष्ट्र है व दूसरे स्थान पर उत्तर-प्रदेश है।

·  कीटनाशी अधिनियम (Insecticide Act) 1968 में आया

·  2,4-डी (2,4-डाईक्लोरोफिनोक्सी एसीटिक एसिड)

·  2,4-डी की खोज 1944 में अमेरिका में हुई।

·  2,4,5-टी (2,4,5-ट्राई क्लोरो फिनॉक्सी एसीटिक एसिड)

·  शुद्ध बीज में खरपतवारों के बीज 0.1% से अधिक नहीं होने चाहिए।

·  सत्यानाशी में सेंसर मैकेनिज्म (Censor Mechanism) पाया जाता है।

·  फसलों में खरपतवारों द्वारा सर्वाधिक हानि (30-35%) होती है।

·  Barochory:- खरपतवारों का गुरुत्वाकर्षण द्वारा फैलना।

·  सर्वाधिक खरपतवार नाशी धान की फसल में उपयोग किया जाता है।

रसायनों का प्रयोग का क्रम –

·  भारत – खरपतवारनाशी > कीटनाशी > कवकनाशी

·  विश्व – कीटनाशी > कवकनाशी > खरपतवारनाशी

·  भारत में सर्वाधिक निर्मित व प्रयोग वाला खरपतवारनाशी – आइसोप्रोट्यूरॉन

·  भारत में खरपतवारनाशी की खपत – 40gm/hec/year

·  भारत में कीटनाशकों की खपत – 0.5kg/hec/year

·  सर्वप्रथम खोजा गया खरपतवारनाशी – 2, 4-D

·  विश्व में सर्वाधिक उपयोग होने वाला खरपतवारनाशी – एट्राजीन

विभिन्न फसलों में शाकनाशी का प्रयोग व सक्रिय तत्त्व की मात्रा

क्र. सं.फसलशाकनाशीप्रयोग का समयसक्रिय तत्त्व मात्रा (Kg/ha)
1.गेहूँ2,4-डी, (चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के लिए)बुआई के 30 से 35 दिन बाद0.50
मैटसल्फ्यूरॉन (चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के लिए)बुआई के 30 से 35 दिन बाद0.002-0.004
आइसोप्रोट्यूरॉन (घासीय खरपतवारों के लिए)बुआई के 30 से 35 दिन बाद0.75-1.0
सल्फोसल्फ्यूरॉन (घासीय खरपतवारों के लिए)बुआई के 30 से 35 दिन बाद0.025-0.030
2.धानButachlor (ब्यूटाक्लोर)रोपाई के बाद (3-7 दिन में)1-1.5
3.दलहन व तिलहनFluchloralin (फ्लूक्लोरेलिन)बुआई से पूर्व0.75-1
Metolachlorअंकुरण से पूर्व0.75-1
पेंडीमेथिलीनअंकुरण से पूर्व0.75-1
4.कपासडाईयूरॉनअंकुरण से पूर्व0.50-1.5
5.सोयाबीनएलाक्लोररोपाई के बाद (3-7 दिन में)2-2.5
Clomazineअंकुरण से पूर्व1-1.5
इमिजाथापरबुआई के 15-20 दिन बाद0.10
मेट्रीब्यूजीनबुआई के बाद व अंकुरण से पहले0.25-0.30
6.मक्का व गन्नाएट्राजीनअंकुरण से पूर्व0.50
7.मूँगफली, उड़द व मूँगइमिजाथापरबुआई के 15-20 दिन बाद0.10
8.मूँगफलीटॉक E-25 (नाइट्रोफेन)  
क्र.सं.सामान्य नामवानस्पतिक नाम
1.साँवाएचिनोक्लॉवा कोलोनम
2.दूबघाससाइनोडोन डेक्टाइलोन
3.मौथासाइप्रस रोटेन्डस
4.गोखरूट्राइब्युलस टैरेस्ट्रिस
5.सत्यानाशीआर्जीमोन मेक्सिकाना
6.प्याजीएस्फोडिलियस ट्यूनिफोलियस
7.सफेद सैंजीमेलीलोटस अल्बा
8.नागफनीओपनशिया डिलेनाई
9.गेहूँसाफैलेरिस माइनर
10.कांसनीसिन्चोरियम इन्टाइबस
11.हुलहुलक्लीयोम इकोसेन्ड्रा
12.हिरनखुरीकॉनवोलवुलस आर्वेन्सिस
13.झरबेरीजिजीफस रोटन्डीफोलिया
14.अमरबेलकस्कुटा रिफ्लेक्सा
15.स्ट्राइगास्ट्राइगा स्पीशीज
16.जंगली चोलाईअमेरेन्थस विरीडिस
17.कृष्णनीलअनागलिस आरवेन्सिस
18.पत्थरचटाट्राइएन्थिमा मोनोगाइना
19.जलकुंभीइकोर्निया क्रेसीपस
20.जंगली जईएविना फतुआ
21.बथुआचेनोपोडियम एल्बम
22.जंगली मटर, मटरीलेथाइरस अफाका
23.जंगली गोभील्यूनिया पिन्नेटीफोलिया
24.गाजर घासपार्थेनियम हिस्टोरोफोरस
25.मकोयसेलेनम नाइग्रम
26.बरूसोरघम हेलेपेन्स
27.खरबथुआचेनोपोडियम म्युरैल
28.हजार दानाफाइलेन्थस निरूरी
29.जंगली पालकपोटूलाका ओलेरिसिया
30.कांससैकेरम स्पोन्टेनियम
31.पीली सैंजीमेलीलोटस इण्डिकस
32.जंगली धानएचिनोक्लॉवा स्पी.
क्र.सं.खरपतवारनाशीट्रेड नाम
1.नाइट्रोफेनटॉक E-25
2.2, 4-Dवीडर
3.ब्यूटाक्लोरमचेटी
4.प्रोपेनीलस्टॉप – F-34
5.पेन्डीमेथलीनस्टोम्प (Stomp )
6.इमेजाथापरपरसुट
7.पैराक्वाटग्रामेक्सोन
8.सल्फोसल्फ्यूरॉनलीडर
9.मेटसल्फ्यूरॉनएस्कोर्ट
10.एट्राजीनएट्राटेफ
11.आइसोप्रोट्यूरॉनएरेलोन/रोनक
12.एलाक्लोरलासो
13.फ्लुक्लोरेलीनबेसालीन
14.ग्लाइफोसेटराउण्ड अप

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