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खाद

खाद शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के खाद्य शब्द से हुई है जिसका अर्थ भोजन होता है

भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने व पौधों को पोषक तत्त्वों की आपूर्ति के लिए भूमि में मिलाए गए सभी कार्बनिक पदार्थ; जैसे – पेड़-पौधे, फसलों का अवशेष, घास-चारा व पशु-पक्षियों का मल-मूत्र आदि खाद कहलाते हैं।
जीवांश खाद – जीव + अंश
जीवांश खाद को प्राकृतिक/कार्बनिक खाद भी कहते हैं।
जीवांश खादों का वर्गीकरण
स्थूल कार्बनिक खाद | सान्द्र कार्बनिक खाद |
कार्बनिक पदार्थ की मात्रा अधिक होती है | कार्बनिक पदार्थ की मात्रा कम होती है। |
पोषक तत्त्वों की मात्रा कम होती है। | पोषक तत्त्वों की मात्रा अधिक होती है। |
उदाहरण- गोबर की खाद (FYM) कम्पोस्ट, वर्मीकम्पोस्ट, हरी खाद, मानव विष्टा, गंदे नालों की खाद, अपवक व चिड़ियों की बीट | उदाहरण – खलिया, मछली की खाद, हड्डी का चूरा, सूखा रक्त आदि। |
जीवांश खाद का महत्त्व :-
• उत्पादन को स्थिर रखने व मृदा की उर्वरता बनाए रखने के लिए जीवांश खाद आवश्यक हैं।
• जीवांश खाद के प्रयोग से मृदा में जैविक कार्बन स्तर भी सुधर जाता है।
• जीवांश खाद का प्रभाव लंबी अवधि (लगभग 2-3 वर्ष) तक रहता है।
• जीवांश खाद के प्रयोग से मुख्य पोषक तत्त्वों के साथ-साथ गौण व सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की आपूर्ति भी आसानी से हो जाती है।
• जीवांश खाद से मृदा की जैविक, भौतिक व रासायनिक तीनों अवस्थाओं में सुधार होता है।
• वायु संचार व जलधारण क्षमता में वृद्धि होती है।
• मृदा अपरदन नियंत्रित होता है व पौधों की जड़ों का विकास अच्छा होता है।
• भूमि की संरचना को सुधारा जा सकता है।
• मृदा की क्षारीयता तथा लवणीयता में सुधार हो जाता है।
• जीवांश खाद के प्रयोग से क्षारीय मृदा का pH मान कम हो जाता है।
• मृदा की धनायन विनिमय क्षमता (CEC) में वृद्धि होती है।
• मृदा में कार्बन की मात्रा में बढ़ोतरी होती है।
• जीवांश खाद पौधों को सभी आवश्यक पोषक तत्त्वों के साथ-साथ हॉर्मोन्स व एंटिबायोटिक्स की पूर्ति भी करता है।
• मृदा में लाभदायक जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि होती है।
• जीवांश खाद सूक्ष्म जीवों के लिए भोजन व ऊर्जा प्रदान करती है, जिससे सूक्ष्म जीवों द्वारा विभिन्न क्रियाएँ, जैसे- नाइट्रीकरण अमोनीकरण तथा नाइट्रोजन स्थिरीकरण में वृद्धि होती है।
• मृदा में खाद का प्रयोग करने से स्थूल घनत्व कम हो जाता है।
कार्बनिक खाद बनाने की विधियाँ:-
विभिन्न जीवांश खादों में पोषक तत्त्वों की मात्रा
क्र.सं. | खाद | N% | P% | K% |
1. | गोबर की खाद | 0.5 | 0.25 | 0.5 |
2. | वर्मीकम्पोस्ट | 3 | 1 | 1.5 |
3. | फार्म कम्पोस्ट | 0.5-1.0 | 0.4-0.8 | 0.8-1.2 |
4. | शहरी कम्पोस्ट | 0.7-2.0 | 0.9-3.0 | 1.0-2.0 |
गोबर की खाद (FYM):-
• मुख्य अवयव (घटक):- गोबर, मूत्र व बिछावन
• गोबर में N (0.3-0.7%), P (0.25%), K (0.3-0.5%)
• मूत्र में N (0.4-1.35%), P (0.05-0.10%), K (0.5-2.0%)
• मूत्र में 2% यूरिया होती है जो कि इसका मुख्य अवयव है।
• बिछावन से खाद के ढेर में वायु का संचार पर्याप्त रहता है।
गोबर की खाद तैयार करने की विधियाँ:-
1. ढेरी विधि:-
• इस विधि से प्राप्त खाद की गुणवत्ता निम्न स्तर की होती है व पोषक तत्त्वों की मात्रा कम होती है।
• वर्तमान में यह विधि प्रचलित है।
• ढेरी विधि से खाद बनाना दोषपूर्ण है।
2. संशोधित गड्ढा विधि:-
• गड्ढे का आकार = 3×2×1.10 मीटर
• इस आकार का गड्ढा एक पशु के लिए एक वर्ष के लिए पर्याप्त रहता है।
• इस विधि द्वारा खाद 5 से 6 माह में तैयार होती है।
3. ट्रैंच विधि:-
• आविष्कार – C.N. आचार्य
• ट्रैंच का आकार = 6×1.5×1 मीटर
• इस विधि में गड्ढे को 2 बार में भरा जाता है पहले गड्ढे के आधे भाग को भरते हैं। आधा भाग भर जाने के बाद दूसरे भाग को भरा जाता है जब तक दूसरा भाग भरता है पहले भाग की खाद तैयार हो जाती है।
• इससे तैयार खाद में नाइट्रोजन की मात्रा भी अधिक होती है।
• गोबर की खाद बनाने की सबसे अच्छी विधि है।
कम्पोस्ट:-
• कार्बनिक पदार्थों को वायवीय व अवायवीय जीवाणुओं द्वारा विघटित कर बनाई गई खाद कम्पोस्ट कहलाती है।
• कम्पोस्ट बनाने की प्रक्रिया कम्पोस्टिंग कहलाती है।
• यह एक जैव रासायनिक क्रिया है।
• फार्म कम्पोस्ट:- इसमें फार्म पर बचा हुआ फसलों का अवशेष, खरपतवार, पशुओं का बचा हुआ चारा, पेड़-पौधों की पत्तियाँ आदि काम में लिए जाते हैं।
• सिटी/शहरी कम्पोस्ट:- सिटी कम्पोस्ट शहर के कूड़ा करकट, मल-मूत्र, कार्बनिक कचरा आदि से तैयार किए जाते हैं।
कम्पोस्ट तैयार करने की विधियाँ:-
1. इंदौर विधि:-
• खोजकर्ता:- इंदौर विधि अल्बर्ट होवार्ड तथा Y.D. वाड के द्वारा “इंस्टीट्यूट ऑफ प्लांट न्यूट्रीशन इंदौर” में 1924 से 1931 के मध्य विकसित की गई।
• इस विधि में कम्पोस्ट 4 माह में तैयार की जाती है।
• कम्पोस्ट तैयार करने के लिए वायवीय दशाओं की आवश्यकता होती है।
• गड्ढे का आकार = 10×2-3×3 feet
• गड्ढे की गहराई 3 फीट से अधिक नहीं रखनी चाहिए।
• इस विधि में खाद को बार-बार पलटना पड़ता है।
• आवश्यक सामग्री:- बिछावन, गोबर, लकड़ी की राख, धान की चूरी, गन्ने की पत्तियाँ, खरपतवार, पौधों व फसलों के अवशेष, पशुओं के मूत्र से सोंखी हुई मिट्टी।
नोट:- लकड़ी की राख अम्लीयता कम तथा पोटाश की मात्रा को बढ़ा देती है।
2. बैंगलोर विधि:-
• खोजकर्ता:- C.N. आचार्य द्वारा (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बेंगलुरु) में की गई।
• इस विधि में खाद की पलटाई नहीं करनी होती है क्योंकि यह एक अवायवीय विधि है।
• शहरी क्षेत्र में खाद तैयार करने की सबसे उपयुक्त विधि है।
3. नेडेप कम्पोस्ट:-
• खोजकर्ता:- नेडेप काका (नारायण देवराय पन्डरीपांडे) महाराष्ट्र
• कम्पोस्ट तैयार होने में 3-4 माह का समय लगता है।
• एक टैंक से 160-175 घन फीट (3 फीट) कम्पोस्ट तैयार होती है।
4. एडको विधि:-
• खोज – हचिसन व रिचर्ड्स
• इसमें एडको पाउडर स्टार्टर के रूप में काम लिया जाता है।
• यह इंग्लैंड से विकसित है।
• खाद को तैयार होने में 3 माह का समय लगता है।,
वर्मीकम्पोस्ट:-
• कृषि अवशिष्ट/कार्बनिक पदार्थों को केंचुओं द्वारा पचाकर उत्तम किस्म का कम्पोस्ट बनाया जाता है इसे वर्मीकम्पोस्ट कहते हैं।
• इस कम्पोस्ट में एक्टिनोमाइसीटीज की मात्रा गोबर की खाद की तुलना में 8 गुना अधिक होती है। वर्मीकम्पोस्ट में सूक्ष्म पोषक तत्त्व तथा एंजाइम्स व विटामिन्स भी पाए जाते हैं।
• प्रकृति में लगभग 700 किस्म के केंचुएँ पाए जाते हैं इनमें से 293 प्रजातियाँ लाभकारी है।
वर्मीकम्पोस्ट बनाने की विधि:-
• बेड/क्यारी का आकार – लंबाई – 40-50 फीट
• बेड/क्यारी का आकार – चौड़ाई – 3-4 फीट
• बेड छायादार स्थान पर ही बनाएँ।
• सर्वप्रथम बेड पर 3 इंच मोटी भूसे की परत बिछाई जाती है।
• बिछावन में नमी के लिए पानी का छिड़काव कर दें। इस बिछावन पर 2 इंच मोटी कम्पोस्ट/गोबर की परत बिछा दें। इसे भी नम करें। इस परत के ऊपर वर्मीकम्पोस्ट डाल दें। जिसमें केंचुएँ व कोकुन होते हैं।
• इसके ऊपर गोबर व मामूली सड़ा हुआ अपशिष्ट पदार्थ मिलाकर बिछा दिया जाता है। जब इस ढेर की ऊँचाई लगभग 1.5 फीट हो जाए तो इसे घास-फूस या टाट से ढक दिया जाता है।
• पानी का छिड़काव समय-समय पर करते रहें।
• वर्मीकम्पोस्ट तैयार होने में 60 दिन का समय लगता है।
• वर्मीकम्पोस्ट तैयार होने पर पानी का छिड़काव बंद कर दें व वर्मीकम्पोस्ट को इकट्ठा कर लें।
केंचुओं के प्रकार
एपिजिक | इन्डोजिक | डायोजिक |
कार्बनिक/कृषि अपशिष्ट अधिक खाते हैं व मिट्टी को कम खाते हैं | ये कार्बनिक पदार्थों को कम व मिट्टी को अधिक खाते हैं। | यह एपिजिक व डायोजिक दोनों के बीच की श्रेणी है। |
भूमि में 1 मीटर की गहराई तक देखने को मिलते हैं। | ये भूमि में 3 मीटर से अधिक गहराई तक सुरंग बनाते हैं। | ये 1 से 3 मीटर गहराई के बीच देखने को मिलते हैं। |
उदाहरण:- पेरेनिप्स ऑवोरीकोल, फेरेटिमा इलोनगेटा, आइसीनिया फोइटिडा |
वर्मीकम्पोस्ट के लाभ:-
• इसमें पोषक तत्त्वों की मात्रा गोबर की खाद से अधिक होती है।
• एक्टिनोमाइसीटीज रोग प्रतिरोधकता बढ़ाते हैं इनकी मात्रा देशी खाद की तुलना में 8 गुणा अधिक होती है।
• केंचुओं द्वारा स्रावित ऑक्सीन हॉर्मोन पौधों की वृद्धि एवं रोगरोधी क्षमता बढ़ाता है।
• ह्यूमस की मात्रा बढ़ती है, खरपतवार व दीमक का प्रकोप कम होता है।
• जल धारण क्षमता बढ़ती है।
महत्त्वपूर्ण बिंदु:-
• आइसीनिया फोइटिडा राजस्थान की परिस्थितियों में सबसे उपयुक्त है। इनकी लंबाई 3 से 4 इंच वजन 0.5 से 1 ग्राम तक होता है। यह लाल रंग का होता है।
• तापमान नमी एवं खाद्य पदार्थों की उपयुक्त परिस्थितियों में केंचुएँ वयस्क होने में 4 सप्ताह से अधिक समय नहीं लेते हैं।
• केंचुआ द्विलिंगी या उभयलिंगी होता है।
• 1 सप्ताह में 2 से 3 कोकुन देता है व एक कोकुन में 3 से 4 अंडे होते हैं।
• एक प्रजनन केंचुआ 6 माह में 250 केंचुएँ पैदा कर सकता है।
• वर्मीवॉश – पीले रंग का तरल पदार्थ जो वर्मी कम्पोस्ट बेड में उपस्थित केंचुओं से प्राप्त किया जाता है।
• वर्मीकल्चर – केचुंओं को उपयुक्त वातावरण में पालने की क्रिया को वर्मीकल्चर कहते हैं।
• केंचुओं की खाद बनाने के लिए 25–30°C तापमान व 40–60% नमी की आवश्यकता होती है।
हरी खाद:-
• मृदा में जीवांश पदार्थ एवं पोषक तत्त्वों की मात्रा बढ़ाने के उद्देश्य से दलहनी व अदलहनी फसलों को हरी अवस्था में खेत में जुताई कर दबाने की प्रक्रिया को हरी खाद कहते हैं।
हरी खाद बनाने की विधियाँ:-
1. फसल को उसी मृदा में दबाना (In situ method):-
• हरी खाद के लिए उगाई गई फसल को उसी खेत में पलटकर दबा देना।
• पर्याप्त सिंचाई सुविधा वाले क्षेत्रों में यह विधि काम ली जाती है।
• विभिन्न फसलें:- ढैंचा, मूँग, उड़द, ग्वार, सनई, लोबिया, आदि की बुआई कर फूल आने पर खेत में दबा देते हैं।
2. हरित पर्ण विधि (Ex-situ method):-
• इस विधि में हरी खाद के लिए पेड़ व झाड़ियों की कोमल (हरी) शाखाएँ, टहनियाँ व पत्तियाँ अन्य क्षेत्र से लाकर वाँछित खेत में जुताई कर दबा देते हैं।
• पर्याप्त सिंचाई की सुविधा न होने पर इस विधि को काम में लिया जाता है।
• उदाहरण:- करंज, सुबबूल, सदाबहार, ग्लिसरीडिया अमलतास, सफेद आक आदि।
नोट:- भारत के उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में हरी खाद की फसल उसी खेत में उगाकर दबाई जाती है।
• दक्षिणी भारत में खेत की मेड़ों पर उगाई जाती है या पेड़ व झाड़ियों की पत्तियाँ, टहनियाँ आदि को मृदा में दबाया जाता है।
• पूर्वी व मध्य भारत में मुख्य फसल के साथ ही हरी खाद की फसल को बुआई की जाती है।
हरी खाद की फसल के आवश्यक गुण:-
• फसल कम अवधि में पकने वाली हो।
• फसल को कम पानी की आवश्यकता हो।
• ज्यादा खाद उर्वरक की आवश्यकता ना हो।
• फसल में पत्तियों व शाखाओं की संख्या अधिक हो जिसमें प्रति हेक्टेयर कार्बनिक पदार्थ अधिक मिले।
• फसल की जड़ें अधिक विकसित होने वाली हो।
• फसल कम उपजाऊ भूमि में भी आसानी से उगाई जा सके।
• फसल का वानस्पतिक भाग मुलायम हो ताकि आसानी से अपघटित हो सके।
• फसल दलहनी होनी चाहिए जो नाइट्रोजन का स्थिरीकरण जड़ों द्वारा कर सके।
• फसल की रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक होनी चाहिए।
• फसल चक्र में हरी खाद का उचित स्थान हो।
हरी खाद की फसलें
दलहनी फसलें | अदलहनी फसलें |
उदाहरण:- सनई, ढैंचा, ग्वार, लोबिया आदि। | उदाहरण:- मक्का, जौ, ज्वार आदि |
हरी खाद के लिए दलहनी फसलें उपयुक्त रहती है। | दलहनी फसलें N2 स्थिरीकरण नहीं करती लेकिन विलय N2 का संरक्षण करती है। |
राइजोबियम जीवाणु द्वारा नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करती है। | कार्बनिक पदार्थ की मात्रा में वृद्धि करती है। |
इन फसलों की वानस्पतिक वृद्धि भी अच्छी होती है। | |
फसल की अवधि कम होती है व जड़ें गहरी होती है। |
1. सनई:-
• वानस्पतिक नाम – क्रोटोलेरिया जुंसिया
• इससे 50kg N2 तथा 280 क्विंटल हरा चारा/हेक्टेयर प्राप्त होता है।
• उत्तरी भारत में मुख्यत: प्रयोग में ली जाती है।
• लगभग 6-8 सप्ताह बाद मृदा में पलट दी जाती है।
2. ढैंचा:-
• वानस्पतिक नाम – सेस्बानिया स्पीसिज
• सेस्बानिया अकुलिएटा – जड़ द्वारा N स्थिरीकरण
• सेस्बानिया रोस्ट्राटा – जड़ + तना द्वारा नाइट्रोजन स्थिरीकरण
• इसका प्रयोग क्षारीय भूमियों को सुधारने में किया जाता है।
• 75Kg N2 प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है।
• फसल को 45 दिन बाद खेत में पलटाई कर देते हैं।
3. ग्वार:-
• 65kg/hec.. नाइट्रोजन
• कम वर्षा वाले क्षेत्रों में ग्वार हरी खाद का प्रमुख स्रोत है।
4. लोबिया:-
• 50kg/hec. नाइट्रोजन व 150 क्विंटल हरा पदार्थ प्राप्त होता है और इसकी बढ़वार अच्छी होती है।
महत्त्वपूर्ण बिंदु:-
• फसल के अपघटन के लिए 25-35°C तापमान उपयुक्त माना जाता है।
• सामान्यत: 50-60 सेमी. से अधिक वर्षा वाले क्षेत्र हरी खाद की फसलों की वृद्धि के लिए उपयुक्त होते हैं।
• हरी खाद के लिए बोई जाने वाली दलहनी फसलों में बुआई के समय 20kg N2 व 40kg P2O5 प्रति हेक्टेयर दे जिससे की बढ़वार अच्छी हो।
• राइजोबियम जीवाणु फॉस्फोरस की उपस्थिति में अधिक क्रियाशील रहते हैं।
• फसल की पलटाई पुष्पन प्रारंभ होने के बाद करते हैं।
• खरीफ में पलटाई अगस्त के प्रथम सप्ताह में करनी चाहिए।
• ढैंचे की बुआई के 45 दिन बाद पलटाई व सनई कि 50 दिन बाद करते हैं।
• बालू मिट्टी में फसल को गहराई में व भारी मृदाओं में कम गहराई में दबाते हैं।
• शुष्क क्षेत्रों में फसल को गहराई में तथा आर्द्र क्षेत्रों में कम गहराई पर दबाते हैं।
• सामान्यत: हरी खाद की पलटाई और अगली फसल की बुआई के मध्य 1.5-2 माह का अंतराल होना चाहिए।
हरी खाद वाली फसलों की बीज दर (kg/hec.):-
हरी खाद | बीज दर (kg/hec.) |
सनई | 50-60 |
ढैंचा | 60-80 |
ग्वार | 20-25 |
मूँग, उड़द | 15-20 |
लोबिया | 45-50 |
क्र.सं. | मृदा | फसलें (हरी खाद के लिए) |
1. | भारी मृदा व जल प्लावित दशा | ढैंचा, सनई |
2. | लवणीय/क्षारीय/बलुई दोमट मृदा | मूँग, उड़द, ग्वार, सनई, व ढैंचा |
3. | हल्की बलुई दोमट मृदा/शुष्क क्षेत्र की मृदा | ग्वार, उड़द, मूँग, लोबिया |
• हरी खाद के प्रयोग से मृदा की रासायनिक, भौतिक व जैविक दशाओं में सुधार होता है।
• मृदा उर्वरता बनाए रखने के लिए उपयुक्त खाद है।
खाद को प्रयोग करने की विधि:-
• गोबर की खाद को फसल की बुआई के 3-4 सप्ताह पूर्व प्रयोग करते हैं।
• 10-15 टन/हेक्टेयर मात्रा सब्जियों में प्रयोग करते हैं।
कम्पोस्ट:-
• 10-15 टन/हेक्टेयर मात्रा सामान्यत: फसलों में प्रयोग करते हैं।
• 20-25 टन/हेक्टेयर मात्रा सब्जियों में प्रयोग करते हैं।
• फसल बुआई के 3-4 सप्ताह पूर्व खेत में डालते हैं।
वर्मीकम्पोस्ट:-
• 2.5-3.0 टन/हेक्टेयर मात्रा खेत की तैयारी के समय जुताई कर मिला दे।
• 5-6 टन/हेक्टेयर मात्रा खाद्यान्न फसलों में प्रयोग की जाती है।
सान्द्र कार्बनिक खाद:-

खलिया:-
• खलियों की खाद सान्द्रित खाद कहलाती है। फसल के बीजों से तेल निकालने के बाद बचे हुए अवशेष/अपशिष्ट से खली बनाई जाती है जिसे खाद के रूप में प्रयोग किया जाता है।
• फसल बुआई के 10-15 दिन पहले प्रयोग करें।
• 1-1.2 टन/हेक्टेयर मात्रा का प्रयोग करें।
खाद्य खलियाँ
खलिया | नाइट्रोजन | फॉस्फोरस | पोटाश |
मूँगफली | 7.3 | 1.5 | 1.2 |
सरसों | 5.2 | 1.8 | 1.2 |
तिल | 6.2 | 2.0 | 1.2 |
कपास | 6.4 | 1.6 | 1.6 |
नारियल | 3.0 | 1.8 | 1.8 |
अखाद्य खलियाँ
खलिया | नाइट्रोजन | फॉस्फोरस | पोटाश |
नीम | 5.2 | 1.0 | 1.4 |
अरण्डी | 4.2 | 1.8 | 1.2 |
महुआ | 2.5 | 0.8 | 1.6 |
करंज | 3.9 | 0.9 | 1.2 |
कुसुम | 4.9 | 1.4 | 1.2 |
नोट:- महुआ की खली में सेपोनिन पाया जाता है।
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