पर्यावरणीय मुद्दे
पर्यावरण प्रदूषण
– मानव सभ्यता के विकास के साथ उसकी आवश्यकताओं का भी विस्तार हुआ। तेजी से बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु मनुष्य ने प्राकृतिक संसाधनों का दोहन शुरू किया।
– औद्योगिक एवं तकनीकी विकास जैसे हथियारों के सहारे मानव ने अपनी स्वार्थी प्रकृति और जनसंख्या के दबाव में प्रकृति का अनियन्त्रित दोहन किया।
– हर बड़े नगर के साथ औद्योगिक क्षेत्र का विकास हुआ और इन उद्योगों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों के बढ़ने से पर्यावरणीय प्रदूषण नामक समस्या का जन्म हुआ।
प्रदूषण का अर्थ एवं परिभाषा
– “वायु, जल एवं मृदा के भौतिक, रासायनिक व जैविक गुणों में होने वाला ऐसा अवांछित परिवर्तन जो मनुष्य के साथ ही सम्पूर्ण परिवेश के प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक तत्त्वों को हानि पहुँचाता है, प्रदूषण कहलाता है।”
प्रदूषक-वे पदार्थ जो प्रदूषण के लिए उत्तरदायी होते हैं, पर्यावरण प्रदूषक कहलाते हैं।
– ऐसे अवाँछनीय पदार्थ जो पर्यावरण के किसी भी मूल तत्त्व में अपनी उपस्थिति से उसे परिवर्तित कर देते हैं या प्रदूषण फैलाते हैं प्रदूषक कहलाते हैं। प्रदूषण सभी प्रकार के जीवों के लिए हानिकारक होने के साथ-साथ अजैविक संसाधनों को भी भारी क्षति पहुँचाता है।
प्रदूषकों का वर्गीकरण –
(i) समाप्ति के आधार पर – प्रदूषक दो प्रकार के होते हैं-
(a) जैव निम्नीकरण प्रदूषक- वह प्रदूषक जो सूक्ष्म जीवों द्वारा अपघटित किए जा सकते हैं; जैसे – घरेलू कचरा, कागज, कपड़ा, मल इत्यादि।
(b) अजैव निम्नीकरण – वह प्रदूषक जो सूक्ष्म जीवों द्वारा अपघटित नहीं किए जा सकते हैं।
जैसे- DDT, BHC, तथा हेलोकार्बन, प्लास्टिक इत्यादि।
(ii) उत्पादन प्रक्रिया के आधार पर – प्रदूषक दो प्रकार के होते हैं-
(a) प्राथमिक प्रदूषक- ऐसे प्रदूषक जो सीधे स्रोत से पर्यावरण में प्रवेश कर जाते हैं, प्राथमिक प्रदूषक कहलाते हैं। जैसे –CO, CH4, SO2 इत्यादि
(b) द्वितीयक प्रदूषक – प्राथमिक प्रदूषकों की आपस में अभिक्रिया से निर्मित प्रदूषक, द्वितीयक प्रदूषक कहलाते हैं। जैसे – NO, SO3, O3, PAN इत्यादि।
(iii) मात्रा के आधार पर:- प्रदूषक दो प्रकार के होते हैं-
(a) मात्रात्मक प्रदूषक – ऐसे प्रदूषक जिनकी उपस्थिति प्रदूषण नहीं करती है, जबकि इनकी अधिक मात्रा प्रदूषण के लिए उत्तरदायी होती है। जैसे – CO2
(b) गुणात्मक प्रदूषक – ऐसे प्रदूषक जिनकी उपस्थिति मात्र ही प्रदूषण का कार्य करती है। जैसे –SO2, SO3, CO इत्यादि
प्रदूषण के प्रकार –
(i) वायु प्रदूषण, (ii) जल प्रदूषण, (iii) ध्वनि प्रदूषण, (iv) मृदा प्रदूषण (भूमि प्रदूषण), (v) वाहन प्रदूषण, (vi) विकिरणीय प्रदूषण, (vii) तापीय प्रदूषण, (viii) औद्योगिक प्रदूषण, (ix) कूड़े-कचरे से प्रदूषण, (x) समुद्रीय प्रदूषण, (xi) घरेलू अपशिष्ट के कारण प्रदूषण, (xii) अन्य कारणों से प्रदूषण।
पर्यावरणीय समस्याओं का वर्गीकरण:-
इन्हें तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है-
– स्थलीय वातावरण से संबंधित समस्याएँ
– वायुमण्डलीय वातावरण से संबंधित समस्याएँ
– जैविक वातावरण से संबंधित समस्याएँ
स्थलीय वातावरण से संबंधित समस्याएँ
वायु प्रदूषण
– समस्त जीव जगत के लिए वायु आवश्यक है उसके बिना जीवन सम्भव नहीं है।
– वायुमण्डल में विद्यमान सभी गैसें एक निश्चित अनुपात में पाई जाती हैं – जैसे नाइट्रोजन 78%, ऑक्सीजन 21%, ऑर्गन 0.93%, कार्बन डाई ऑक्साइड 0.03% तथा अन्य 0.02%। इस अनुपात में थोड़ा भी परिवर्तन वायुमण्डल की सम्पूर्ण व्यवस्था को प्रभावित करता है। जिसका परोक्ष-अपरोक्ष प्रभाव जीव जगत पर पड़ता है।
– वायु प्रदूषण को स्रोत के आधार पर दो भागों में विभाजित किया जाता है– (अ) प्राकृतिक प्रदूषण, (ब) अप्राकृतिक प्रदूषण।
(अ) प्राकृतिक प्रदूषण – यह प्रकृति की देन है। ज्वालामुखी उद्गार से निकले पदार्थ, धूलभरी आँधियाँ, तूफान, दावानल, पहाड़ों का गिरना आदि प्राकृतिक क्रियाओं से प्रदूषण होता है।
(ब) अप्राकृतिक कारण – वायु को प्रदूषित करने में सबसे बड़ा योगदान स्वयं मानव का ही है। घरों में जलाने वाला ईंधन, उद्योग, परिवहन साधन, धूम्रपान, रसायनों का उपयोग, रेडियो धर्मिता जैसे उपयोगों से सर्वाधिक प्रदूषण हो रहा है।
– वायु प्रदूषण रसायनों, सूक्ष्म पदार्थों, जैविक पदार्थों के कारण वातावरण में होता है।
– वायु प्रदूषण के कारण श्वास संबंधी रोग उत्पन्न होते हैं।
– वायु प्रदूषण स्थायी स्रोतों से उत्पन्न होते हैं।
– वायु प्रदूषण के उत्सर्जन का सबसे बड़ा स्रोत मोबाइल एवं ऑटोमोबाइल्स है।
– वायु प्रदूषण में कार्बन डाई ऑक्साइड व ग्लोबल वॉर्मिंग भी सहायक है।
– वायु प्रदूषण के कारण ओज़ोन परत को भी नुकसान पहुँचता है।
– वायु प्रदूषण के कारण अम्लीय वर्षा (Acid Rain) होती है। अम्लीय वर्षा संगमरमर की इमारतों को क्षतिग्रस्त करती है।
CaCO3 Acid Rain→ CaO (चूना) + CO2
कैल्सियम कार्बोनेट (संगमरमर)
– वायु प्रदूषण के जैव सूचक लाइकेन (शैवाल एवं कवक) पाए जाते हैं।
– वायु प्रदूषण में उपस्थित गैसों द्वारा की जाने वाली अभिक्रियाएँ:-
गैसें जल | उत्पाद | |
SO2 +H2O | → | H2SO4 (सल्फ्यूरिक अम्ल) |
NO2 +H2O | → | HNO3 (नाइट्रिक अम्ल) |
CO2 +H2O | → | H2CO3 (कार्बोनिक अम्ल) |
वायु प्रदूषण के दुष्प्रभाव
– मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।
– वनस्पति पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। जीव जन्तु एवं कीटों के अस्तित्व पर खतरा बनने लगा है।
– जलवायु एवं वायुमण्डलीय दशाओं पर प्रतिकूल प्रभाव, जलवायु परिवर्तन, ओज़ोन परत में क्षरण, ग्रीन हाउस प्रभाव, मौसम पर प्रभाव।
– महानगरों एवं नगरों पर कोहरे के गुम्बद बन जाते हैं।
वायु प्रदूषण के नियन्त्रण हेतु उपाय
– वायु प्रदूषण नियन्त्रण हेतु द्विआयामी नीति पर चलना होगा। पूर्व में हो चुके पर्यावरण पर नियन्त्रण पाना तथा भावी प्रदूषण को रोकना जिसमें नई तकनीक का विकास कर उपयोग किया जाए।
– प्रदूषण रोकने के लिए वृक्षारोपण करना, क्षेत्रफल के कम से कम 33 प्रतिशत भाग पर वन हो। ग्राम, नगर के समीप हरित पेटी का विकास किया जाए। इस कार्य में विभिन्न सामाजिक संगठन, सरकारें, व्यक्तिगत रूप से लोग आगे आ रहे हैं।
– वाहनों के प्रदूषण पर नियन्त्रण किया जाए। पेट्रोल-डीजल की अपेक्षा सौर ऊर्जा, बैटरी चालित, विद्युत इंजन (रेलवे) का उपयोग किया जाए।
– निर्धूम चूल्हों का उपयोग किया जाए। पेड़ नहीं काटे जाएँ।
– ईंट भट्टों व बर्तन बनाने व पकाने जैसे उद्योगों को शहर से बाहर स्थापित किया जाए।
– उद्योग की नवीन तकनीकों का उपयोग एवं निर्माण इकाइयाँ शहर से बाहर स्थापित की जाए।
मृदा प्रदूषण
– जब भूमि में प्रदूषित जल, रसायनयुक्त कीचड़, कूड़ा, कीटनाशक दवा और उर्वरक अत्यधिक मात्रा में प्रवेश कर जाते हैं तो उससे भूमि की गुणवत्ता घट जाती है, इसे मृदा-प्रदूषण कहा जाता है। मृदा-प्रदूषण की घटना भी आधुनिकता की देन है।
– मृदा में अत्यधिक मात्रा में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग मृदा प्रदूषण के लिए उत्तरदायी होता है।
– रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से मृदा की अम्लीयता में वृद्धि होती है।
– मृदा की अम्लीयता को दूर करने के लिए चूना/ लाइम CaO का प्रयोग किया जाता है।
मृदा-प्रदूषण के कारण
– कीटनाशक व उर्वरक – कीटनाशक व उर्वरक मृदा-प्रदूषण के प्रमुख कारण हैं। इनके प्रयोग से फसलों की प्राप्ति तो हो जाती है, लेकिन जब वे तत्त्व भूमि में एकत्रित हो जाते हैं तो मिट्टी के सूक्ष्म जीवों का विनाश कर देते हैं। इससे मिट्टी का तापमान प्रभावित होता है और उसके पोषक तत्त्वों के गुण समाप्त हो जाते हैं।
– घरेलू अवशिष्ट – कूड़ा-कचरा, गीली जूठन, रद्दी, कागज, पत्तियाँ, गन्ना-अवशिष्ट, लकड़ी, काँच व चीनी मिट्टी के टूटे हुए बर्तन, चूल्हे की राख, कपड़े, टीन के डिब्बे, सड़े-गले फल व सब्जियाँ, अंडों के छिलके आदि अनेक प्रकार के व्यर्थ पदार्थ मिट्टी में मिलकर मृदा-प्रदूषण को बढ़ावा देते हैं।
– औद्योगिक अवशिष्ट – उद्योगों से निकले व्यर्थ पदार्थ किसी न किसी रूप में मृदा-प्रदूषण का कारण बनते हैं।
– नगरीय अवशिष्ट – इसके अन्तर्गत मुख्यतः कूड़ा-करकट, मानव मल, सब्जी बाजार के सड़े-गले फल व सब्जियों का कचरा, बाग-बगीचों का कचरा, उद्योगों, सड़कों, नालियों व गटरों का कचरा, मांस व मछली बाजार का कचरा, मरे हुए जानवर व चर्मशोधन का कचरा, आदि को सम्मिलित किया जाता है। इन सबसे मृदा-प्रदूषण होता है।
– मृदा-प्रदूषण नियंत्रण के उपाय
– व्यर्थ पदार्थों व अवशिष्टों का समुचित निक्षेपण किया जाना चाहिए।
– कृषि कार्यों में डी.डी.टी., लिण्डेन, एल्ड्रिन तथा डीलिड्रन आदि प्रयोग पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए।
– नागरिकों को चाहिए कि वे कूड़ा-कचरा सड़क पर न फेंके।
– अस्वच्छ शौचालयों के स्थान पर स्वच्छ शौचालयों का निर्माण करना चाहिए।
– अवशिष्टों के निक्षेपण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
– नागरिकों में सफाई के प्रति चेतना जाग्रत करनी चाहिए।
– मृदा-क्षरण को रोकने के उपाय करने चाहिए।
जल प्रदूषण
– जल में किसी ऐसे बाहरी पदार्थ की उपस्थिति, जो जल के स्वाभाविक गुणों को इस प्रकार से परिवर्तित कर दे कि जल स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह हो जाए या उसकी उपयोगिता कम हो जाए, जल प्रदूषण कहलाता है।
– जल प्रदूषण निवारण तथा नियन्त्रण अधिनियम, 1974 की धारा 2 (डी) के अनुसार जल प्रदूषण का अर्थ है- जल का इस प्रकार संक्रमण या जल के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों में इस प्रकार का परिवर्तन होता है कि किसी औद्योगिक बहिःस्त्राव या किसी तरल, वायु (गैसीय) या ठोस वस्तु का जल में विसर्जन हो रहा हो या होने की सम्भावना हो।
– वे वस्तुएँ एवं पदार्थ जो जल की शुद्धता एवं गुणों को नष्ट करते हों, प्रदूषक कहलाते हैं।
– जल प्रदूषण में जैव सूचक कोलीफोर्म जीवाणु होते हैं, जो बड़ी आँत को नुकसान पहुँचाते हैं।
प्रदूषक | → | बीमारी |
(a) मर्करी (Hg) | – | मिनीमीटा रोग |
(b) कैडियम (Cd) | – | इटाई-इटाई |
(c) नाइट्रेट (No3) | – | ब्लू बेबी सिड्रोम |
(d) फ्लोरिन (F) | – | फ्लोरोसिस (नीनोर्क-सिण्ड्रोम) |
– जल प्रदूषण के स्रोत अथवा कारण –
जल प्रदूषण के स्रोतों अथवा कारणों को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है-
1. प्राकृतिक स्रोत
2. मानवीय स्रोत
1. जल प्रदूषण के प्राकृतिक स्रोत –
– कभी-कभी भूस्खलन के दौरान खनिज पदार्थ, पेड़-पौधों की पत्तियाँ जल में मिल जाती हैं जिससे जल प्रदूषण होता है।
– इसके अतिरिक्त नदियों, झरनों, कुओं, तालाबों का जल जिन स्थानों से बहकर आता है या इकट्ठा रहता है, वहाँ की भूमि में यदि खनिजों की मात्रा है तो वह जल में मिल जाते हैं। वैसे इसका कोई गम्भीर प्रभाव नहीं होता है।
– परन्तु यदि जल में इसकी मात्रा बढ़ जाती है तो नुकसानदेह साबित होते हैं।
– यही कारण है कि किसी क्षेत्र विशेष में एक ही बीमारी से बहुत से लोग पीड़ित होते हैं क्योंकि उस क्षेत्र विशेष के लोग एक जैसे प्राकृतिक रूप से प्रदूषित जल का उपयोग करते हैं।
– जल में जिन धातुओं का मिश्रण होता है उन्हें विषैले पदार्थ कहते हैं- जैसे सीसा, पारा, आर्सेनिक तथा कैडमियम।
– इसके अतिरिक्त जल में बेरियम, कोबाल्ट, निकल एवं वैनेडियम जैसी विषैली धातुएँ भी अल्पमात्रा में पाई जाती हैं।
2. जल प्रदूषण के मानवीय स्रोत –
जल प्रदूषण के मानवीय स्रोत अथवा कारण हैं-
– घरेलू बहिःस्त्राव (Domestic effluent)
– वाहित मल (Sweage)
– कृषि बहिःस्त्राव (Agricultural effluent)
– औद्योगिक बहिःस्त्राव (Industrial effluent)
– तेल प्रदूषण (Oil pollution)
– तापीय प्रदूषण (Thermal pollution)
– रेडियोधर्मी अपशिष्ट
– अन्य कारण
जल प्रदूषण का प्रभाव
– जल प्रदूषण का प्रभाव बहुत ही खतरनाक होता है। इससे मानव तो बुरी तरह प्रभावित होता ही है, जलीय जीव-जन्तु, जलीय पादप तथा पशु-पक्षी भी प्रभावित होते हैं।
– जलीय जीव-जन्तुओं पर प्रभाव
– जलीय पादपों पर प्रभाव
– पशु-पक्षियों पर प्रभाव
– मानव पर प्रभाव
– जल प्रदूषण के कुछ अन्य प्रभाव
(i) पेयजल का अरुचिकर तथा दुर्गन्धयुक्त होना
(ii) सागरों की क्षमता में कमी
(iii) उद्योगों की क्षमता में कमी
जल प्रदूषण बचाव के उपाय
– सभी नगरों में जल-मल के निस्तारण हेतु सीवर शोधन संयंत्रों की स्थापना की जाए।
– रासायनिक कृषि के स्थान पर जैविक खाद की खेती को प्रोत्साहित किया जाए।
– औद्योगिक अपशिष्ट युक्त जल को उपचारित कर वही पुनः उपयोग में लिया जाए।
– मृत पशु शवों को नदी में विसर्जन पर पूर्ण रोक हो, विद्युत शव गृहों की स्थापना की जाए।
– 300 नमामी गंगे प्रोजेक्ट लॉन्च – भारत सरकार ने नमामी गंगे प्रोजेक्ट को सफल बनाने के लिए 1 जुलाई 2016 को देशभर में एक साथ 300 प्रोजेक्ट शुरू किए जो गंगा नदी के किनारे शुरू हो रहे हैं जिसके अन्तर्गत घाटों का आधुनिकीकरण करने के साथ-साथ किनारों पर वृक्षारोपण किया जाएगा।
ध्वनि प्रदूषण
– अत्यधिक शोर जो मानव जाति और जीव-जन्तुओं के लिए अनुपयोगी हो, उसे ध्वनि प्रदूषण कहते हैं।
– दुनिया भर में सर्वाधिक ध्वनि प्रदूषण परिवहन प्रणाली जैसे मोटर वाहन, वैमानिक शोर-शराबा, रेल परिवहन इत्यादि से होता है।
– ध्वनि प्रदूषण से प्रकृति के स्वास्थ्य एवं व्यवहार दोनों प्रभावित होते हैं।
– ध्वनि प्रदूषण से चिड़चिड़ापन, आक्रामकता, उच्च रक्तचाप, तनाव, श्रवण शक्ति का ह्रास, नींद में गड़बड़ी अन्य हानिकारक प्रभाव मानव स्वास्थ्य पर पड़ते हैं।
नोट:- ध्वनि की तीव्रता को मापने की इकाई डेसीबल (db) होती है।
साइलेन्ट जोन:- जहाँ ध्वनि 45 डेसीबल से कम होती है; जैसे – स्कूल, कॉलेज, पार्क, अस्पताल इत्यादि
शोर ध्वनि जोन:- जहाँ ध्वनि 60 डेसीबल से अधिक होती है तो वह ध्वनि प्रदूषण के अंतर्गत आती है।
– ध्वनि प्रदूषण के कारण
परिवहन के साधनों से, स्पीकरों से, उद्योगों से निकलने वाली ध्वनि से, वायुयानों एवं जैट विमानों से।
– ध्वनि प्रदूषण से हानियाँ
मानव में मस्तिष्क पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जिससे मनुष्यों में चिड़चिड़ापन, बहरापन, अत्यधिक उच्च ध्वनि से व्यक्ति की स्थायी रूप से श्रवण शक्ति समाप्त हो जाती है जिससे व्यक्ति पागल की तरह व्यवहार करने लगता है।
रेडियोधर्मी प्रदूषण
– रेडियोधर्मी प्रदूषण ठोस, द्रव, गैसीय पदार्थों में अवांछनीय रेडियोधर्मी पदार्थों की उपस्थिति से होता है, उसे रेडियोधर्मी प्रदूषण कहते हैं।
रेडियोधर्मी प्रदूषण के प्रभाव-
– परमाणु विस्फोटों एवं दुर्घटनाओं से जल, वायु एवं भूमि का प्रदूषण होता है।
– रेडियोधर्मी प्रदूषण के कारण गर्भाशय में शिशुओं की मृत्यु, कैंसर जैसी घातक बीमारी, पेड़-पौधों, जीव-जन्तु, खाद्य सामग्री आदि को प्रभावित करते हैं।
रेडियोधर्मी प्रदूषण नियंत्रण के उपाय:-
– नाभिकीय बमों, परमाणु बमों तथा रेडियाधर्मी हथियारों, साधनों, तत्त्वों के परीक्षण पर पूर्णत: रोक लगा देनी चाहिए।
– नाभिकीय संयंत्रों के निर्माण, कार्य एवं सुरक्षा उपायों पर पूर्णत: ध्यान रखना चाहिए।
ई-प्रदूषण
– वे प्रदूषक जिनका निवारण परम्परागत तरीके से किया जाता है, ई-प्रदूषक कहलाते हैं।
– इसे इलेक्ट्रॉनिक प्रदूषण (कचरा) भी कहा जाता है।
– ई. कचरे में लगभग एक हजार तरह की चीजें शामिल होती हैं। जिसमें 21 प्रतिशत प्लास्टिक और 13 प्रतिशत अलौह धातु एवं अन्य दूसरी चीजें होती हैं; जैसे – प्लास्टिक, अलौह धातु, काँच, लकड़ी, प्रिन्टेड सर्किट बोर्ड, रबर, ताँबा एल्युमिनियम, सोना, चाँदी इत्यादि।
– ई. प्रदूषण में सर्वाधिक खतरनाक पदार्थ सीसा, पारा, कैडमियम, क्रोमियम, हेलोजेनेटेड पदार्थ (cfc) पॉलिक्लोरेनेटेड बाइफिनाइल आदि होते हैं।
– भारत में 70% ई-कचरा पैदा करने वाले 10 राज्य हैं।
महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, कर्नाटक, गुजरात, मध्य प्रदेश तथा पंजाब हैं।
– प्रमुख शहर मुम्बई, दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नई, कोलकाता, अहमदाबाद, हैदराबाद, पुणे, सूरत व नागपुर शामिल हैं।
– वर्तमान में चेन्नई और बेंगलुरु में ई-कचरा निबटान संयंत्र कार्यरत हैं।
वनोन्मूलन
– वनों के विनाश से जैविक वातावरण प्रभावित होता है।
– मनुष्य ने अपने तात्कालिक लाभ के लिए वनों का विनाश किया।
– हर वर्ष जंगलों में खेती के लिए, ईंधन के लिए या इमारती लकड़ी के लिए वनों को काटा।
– जिससे प्रकृति का असंतुलन बढ़ता जा रहा है।
– ये कार्बन डाई ऑक्साइड गैस को अवशोषित कर ऑक्सीजन छोड़ते हैं और धरती का तापमान बनाए रखने में सहयोग करते हैं।
– ये मृदा के अपरदन को भी रोकते हैं।
– वनों के विनाश से वातावरण में CO2 की मात्रा बढ़ती जा रही है तथा वर्षा की मात्रा कम हो रही है।
– जिससे पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं।
– बढ़ता मरुस्थलीकरण भी इसी का एक परिणाम है।
वायुमण्डलीय वातावरण से संबंधित समस्याएँ –
– जीवाश्मी ऊर्जा (कोयला, पेट्रोल, डीजल, गैस आदि) के अत्यधिक प्रयोग, वनों के तीव्र विनाश, परिवहन साधनों के उपयोग में भारी वृद्धि आदि के कारण वैश्विक जलवायु परिवर्तन देखने को मिले हैं।
– वायुमंडलीय वातावरण से संबंधित असंतुलन मुख्यतः हैं –
(i) ओज़ोन छिद्र (Ozone Hole)
(ii) भूमंडलीय तापन (Global Warming)
(iii) अम्लीय वर्षा (Acid Rain)
(iv) हरित गृह प्रभाव (Green House Effect)
भूमंडलीय तापन (Global Warming)
– औद्योगिक क्रांति के बाद से वायुमंडल में कार्बन-डाई-ऑक्साइड (CO2), कार्बन-मोनो-ऑक्साइड (CO),मीथेन (CH4), क्लोरो-फ्लोरो-कार्बन (CFC), हाइड्रो -फ्लोरो कार्बन (HFC) आदि ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में तीव्र वृद्धि हुई है।
– इनमें भी भूमंडलीय तापन के लिए मुख्यतः CO2 जिम्मेदार है।
– यह भारी गैसों में आती है एवं वायुमंडल के पार्थिव विकिरण के लिए अपारगम्यता को बढ़ाती है।
– इस कारण ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न होते हैं और तापमान में वृद्धि देखी जाती है।
– भूमंडलीय तापन के कारण हिम क्षेत्र पिघलेंगे जिसके परिणामस्वरूप समुद्री जलस्तर 2.5 से 3 मीटर तक बढ़ जाएगा।
– इससे अनेक द्वीपों और तटीय क्षेत्रों के डूबने की आशंका है।
– उदाहरण के लिए प्रशांत महासागर का तुवालू और कारटरेट द्वीप डूब गए हैं एवं मालदीव के द्वीपों के भी जलमग्न होने की आशंका है।
– तापमान बढ़ने के कारण अनेक सूक्ष्म जीव व जीव-जन्तु नष्ट हो सकते हैं एवं जैव-विविधता में कमी आएगी।
हरित गृह प्रभाव –
– इसे वैश्विक तापन व ग्लोबल वॉर्मिंग भी कहा जाता है।
– वैश्विक तापन शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ‘वैल ब्रेकर’ वैज्ञानिक द्वारा वर्ष 1975 में किया गया।
– वैश्विक तापन पृथ्वी पर पहुँचने वाली ऊष्मीय ऊर्जा तथा पृथ्वी से अंतरिक्ष में परावर्तित होने वाली ऊष्मीय ऊर्जा का संतुलन है।
– पृथ्वी एक निश्चित सीमा तक तापमान बनाए रखती है जिससे पृथ्वी पर जीवन बना रह सके लेकिन मानवीय क्रियाओं द्वारा पृथ्वी के तापमान में निरन्तर वृद्धि हो रही है जिसे वैश्विक तापन कहा जाता है। इसके लिए हरित गृह गैसें उत्तरदायी हैं जिसे हरित गृह प्रभाव कहा जाता है।
– हरित गृह गैसें – कार्बन डाई ऑक्साइड (CO2), मीथेन (CH4), नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड (NO2), जलवाष्प, ओज़ोन (O3), CFC (क्लोरो-फ्लोरोकार्बन)।
– कार्बन डाई ऑक्साइड (CO2) – यह गैस वायुमंडल में 0.03% पाई जाती है लेकिन वैश्विक तापन के लिए सबसे अधिक उत्तरदायी है।
उत्सर्जन के प्रमुख स्रोत जीवाश्म ईंधन जैसे कोयला, पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस का दोहन।
– मीथेन (CH4) – CO2 की तुलना में 5 गुना अधिक तापन में वृद्धि करती है।
CH4 उत्सर्जन के स्रोत- आर्द्रभूमि, धान की फसल, जुगाली करने वाले जानवर, दीमक, गैस ड्रिलिंग तथा समुद्र।
– नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड (NO2) – यह गैस CO2 की तुलना में 230 गुना अधिक वैश्विक तापन में सक्षम है।
प्रमुख स्रोत- समुद्री जल, ज्वालामुखी उद्गार, जलवाष्प
– जलवाष्प – जलवाष्प हरित गृह प्रभाव के लिए उत्तरदायी है। बढ़ते वैश्विक तापन के कारण वाष्पीकरण तथा वाष्पोत्सर्जन की घटना में वृद्धि होती है। जिसके फलस्वरूप जलवाष्प की मात्रा में वृद्धि होती है।
– क्लोरो–फ्लोरो कार्बन (CFC) – शीतलकों के रूप में प्रयोग की जाती है। (शीतलक (रेफ्रिरेजेटर), AC)
यह गैस वैश्विक तापमान के अतिरिक्त ओज़ोन गैस को सर्वाधिक नुकसान पहुँचाती है।
– हाइड्रोफ्लोरो कार्बन (HFCS) – औद्योगिक क्रियाओं के द्वारा अवशिष्ट पदार्थों से उत्पन्न होती है।
– परफ्लोरो कार्बन (PFCS) – एल्युमिनियम युक्त इलेक्ट्रॉनिक्स पदार्थों या एल्युमिनियम उद्योगों में उत्पन्न होती है।
– सल्फर हेक्सा फ्लोराइड (SF6) – गंध युक्त ईंधनों के दहन से उत्पन्न होती है। जो अम्लीय वर्षा का कारण है।
– हरित गृह प्रभाव के कारण
– औद्योगीकरण – (उद्योगों में कोयले, पेट्रोलियम के उपयोग के कारण)।
– वनों का विनाश – कार्बन डाईऑक्साइड बहुत उपयोगी गैस है क्योंकि यह पौधों में प्रकाश संश्लेषण क्रिया के लिए अत्यन्त आवश्यक है लेकिन वनों की लगातार कटाई के कारण वृक्षों की कमी होने से वायुमण्डल में CO2 की मात्रा लगातार बढ़ रही है। अधिक मात्रा में यह हानिकारक होती है।
– जीवाश्म ईंधन (लकड़ी एवं कोयले) के दहन से – जीवाश्म ईंधन के दहन से लगभग 80% CO2 वातावरण में मुक्त होती है। CO2 की मात्रा 290-330 ppm तक बढ़ने का मुख्य कारण वनों का विनाश तथा जीवाश्म ईंधन का प्रयोग है।
– रेफ्रिजरेटर तथा एयर कन्डीशनर्स का प्रयोग – रेफ्रिजरेटर तथा एयर कन्डीशनर्स के निर्माण कार्य तथा प्रयोग से CFC (क्लोरोफ्लोरो कार्बन) गैस उत्पन्न होती है जो हरित गृह गैसों की मात्रा को बढ़ाती है।
दुष्परिणाम
– मीथेन तथा नाइट्रस ऑक्साइड गैसों के स्तर में पिछले 100 वर्षों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। CO2 की सान्द्रता में 30% की बढ़ोतरी हुई है।
– मीथेन की मात्रा वायुमण्डल में औद्योगिक क्रान्ति के समय से अब तक लगभग 145% तक बढ़ चुकी है। इससे ग्रीन हाउस प्रभाव बढ़ा है तथा पृथ्वी के ऊष्मायन में वृद्धि हुई है। इसके मुख्य प्रभाव हैं–
– तापमान में वृद्धि – पूरे विश्व के औसत तापमान में वृद्धि दर्ज की गई है ऐसा माना जा रहा है कि यदि ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव को कम नहीं किया गया तो सूरज की तीव्र रोशनी एवं ऑक्सीजन (O2) की कमी से वृक्षों के बने रहने की संभावनाएँ कम हो जाएगी।
– वर्षा में वृद्धि – वर्षा का चक्रण बदल जाएगा, वर्षा में वृद्धि होगी, लेकिन कुछ देशों में विपरीत स्थिति के कारण मरुस्थलीकरण होगा।
– समुद्री जल स्तर में वृद्धि – मात्र 0.5°C से 1.5°C ताप वृद्धि के परिणामस्वरूप हिमनद तथा ध्रुवीय हिम टोपियाँ पिघलेंगी, समुद्रतटीय मैदानों में बाढ़ आएगी। सम्भवतः कई द्वीप पानी में डूब जाएँगे। जल स्तर में वृद्धि होगी।
– वनस्पति क्षेत्रों में परिवर्तन – घास क्षेत्र, वन क्षेत्र की सीमाओं में परिवर्तन होगा, अफ्रीका के रेतीले क्षेत्रों में अकाल की संभावना हो सकती है।
– बीमारियों के स्तर में वृद्धि – वनस्पति क्षेत्रों में परिवर्तन होने से कीट पतंगों में भी परिवर्तन संभव है इससे बीमारियों में वृद्धि का अंदेशा रहेगा। 3-5°C ताप वृद्धि होने पर मलेरिया स्तर में 45 से 60% तक वृद्धि हो सकती है।
– जैव विविधता को खतरा – ताप वृद्धि के परिणामस्वरूप 80% जैव विविधता को खतरा उत्पन्न हो जाएगा।
हरित गृह प्रभाव
(i) जलवायु परिवर्तन
(ii) मानव रोग– वैश्विक तापन की घटना से उत्तर भारत में चलने वाली गर्म एवं शुष्क पवन लू से बहुत लोगों की मृत्यु हो जाती है।
– इसके अतिरिक्त बहुत से जीवाणु तथा विषाणु अधिक तापमान में सक्रिय हो जाते हैं। जैसे- मलेरिया, डेंगू, फाइलेरिया जैसी बीमारियों में वृद्धि होती है।
– हरित गृह गैसों को कम करने हेतु वैकल्पिक प्रयास–
– वैकल्पिक ईंधन जैसे- सौर ऊर्जा, हाइड्रोजन ऊर्जा, नाभिकीय ऊर्जा, जलविद्युत ऊर्जा, भू-तापीय ऊर्जा का प्रयोग करना, जिससे वायुमण्डल में CO2 की मात्रा में कमी लाई जा सकती है।
– वनों की कटाई पर पूर्णत: प्रतिबंध लगाना चाहिए तथा वनों को विकसित करने पर बल देना चाहिए।
– रासायनिक उर्वरक के स्थान पर जैविक उर्वरकों के प्रयोग पर बल देना चाहिए।
– विकसित देशों द्वारा हरित गृह गैसों के उत्सर्जन में कटौती की जानी चाहिए।
नोट:- हरित गृह गैसों के उत्सर्जन में सर्वाधिक योगदान-(i) चीन (ii) USA (iii) यूरोपीय संघ (iv) भारत।
– ओज़ोन परत में क्षरण
यह गैस पृथ्वी के वायुमण्डल में समताप मण्डल में पाई जाती है इसलिए समताप मण्डल को ओज़ोन मण्डल कहा जाता है।
– ओज़ोन गैस परत पराबैंगनी किरणों से विखण्डित होकर पुन: जुड़ जाती है इस रासायनिक क्रिया के कारण ‘रसायनमण्डल/ कीमोस्फियर’ भी कहा जाता है।
पराबैंगनी (UV Rays) किरणें– सूर्य से उत्सर्जित होने वाली विद्युत चुंबकीय किरणें हैं।
– इनका तरंग दैर्ध्य 100 से 400 nm होता है।
– UV Rays 3 Types
(i) UV-A: 315-400 nm
(ii) UV-B: 200-315 nm
(iii) UV-C: 100-280 nm सबसे हानिकारक किरणें
ओज़ोन परत क्षरण के कारण –
– ओज़ोन गैस की अल्पता तथा विनाश के मुख्य दोषी कारक हैलोजनिक गैसें हैं। क्लोरोफ्लोरोकार्बन, क्लोरीन, ब्रोमीन, मिथाइल क्लोरोफार्म, कार्बन टेट्राक्लोराइड इत्यादि।
– समताप मण्डल में क्लोरीन परमाणु के विसरण से ओज़ोन की कमी होती है।
– क्लोरीन का एक परमाणु 100,000 ओज़ोन के अणुओं को नष्ट करता है। ये क्लोरीन परमाणु क्लोरोफ्लोरो कार्बन के विघटन से बनते हैं–
– सी.एफ.सी. और हेलोजन की वृद्धि होने पर ओज़ोन रिक्तीकरण क्रियाविधि में वृद्धि होती है।
– क्लोरीन और ब्रोमीन के परमाणु ओज़ोन के अणुओं को कई अपघटनी क्रियाओं के द्वारा नष्ट कर देते हैं।
– इस तरह के एक चक्र के सरलतम उदाहरण में एक क्लोरीन परमाणु एक ओज़ोन अणु के साथ क्रिया करता है, इसके एक ऑक्सीजन परमाणु को लेकर ClO बना लेता है और एक ऑक्सीजन अणु को मुक्त कर देता है क्लोरीन मोनो ऑक्साइड (ClO) ओज़ोन के दूसरे अणु के साथ क्रिया करके (अर्थात् O3) एक अन्य क्लोरीन परमाणु और दो ऑक्सीजन अणु बना देती है।
Cl + O3 ¾® ClO + O3
ClO + O3 ¾® Cl + 2O2
– समग्र प्रभाव ओज़ोन की मात्रा में कमी का कारण बन जाता है जो समताप मण्डल के निचले भाग में ओज़ोन के विनाश का कारण है।
ओज़ोन परत क्षरण के प्रभाव
– ओज़ोन परत की क्षति से त्वचा का कैंसर, मोतिया बिन्द जैसे रोग होते हैं।
– पराबैंगनी किरणों के कारण पादप प्लावक नष्ट हो रहे हैं, जिसके कारण समुद्री खाद्य शृंखला पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
– पराबैंगनी किरणों से रोग प्रतिरोधक क्षमता पर कुप्रभाव पड़ता है।
– भूमध्य रेखीय प्रदेशों में ओज़ोन क्षय के कारण तापमान में और अधिक वृद्धि होगी। इस कारण लोगों का शारीरिक एवं मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाएगा।
ओज़ोन परत का क्षरण (खतरा)
– ओज़ोन परत के बिना हम जिंदा नहीं रह सकते क्योंकि पराबैंगनी किरणों के कारण कैंसर, फसलों को नुकसान और समुद्री जीवों को खतरा पैदा हो सकता है।
– अंटार्कटिका में ओज़ोन में एक बड़ा छेद हो गया है।
– अंटार्कटिका क्षेत्र में बड़े हिमखंड यदि पिघलते हैं तो तटीय क्षेत्रों में बाढ़ सहित कई खतरे पैदा हो सकते हैं।
– इसके अलावा गर्मी भी बढ़ेगी जो नुकसानदायी होगी।
ओज़ोन परत बचाने हेतु प्रयास
– मॉन्ट्रियल समझौता – 16 सितम्बर, 1987 को कनाडा में ओज़ोन परत संरक्षण के लिए किया गया था।
– ओज़ोन दिवस 16 सितम्बर को मनाया जाता है।
– ओज़ोन 16 अक्टूबर, 2016 को रवांडा की राजधानी मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल (MOP 28) के सभी 197 देशों के प्रतिनिधियों ने ग्रीन हाउस गैसों हाइड्रोक्लोरो कार्बन के प्रयोग एवं उत्पादन में वर्ष 2047 तक चरणबद्ध तरीके से कम करने पर सहमति बनी। विकसित देश वर्ष 2019 से, चीन वर्ष 2024 से तथा भारत वर्ष 2028 से कमी करेगा।
– 2 मार्च 1990 को लन्दन में ‘ओज़ोन परत सुरक्षा’ नामक एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया।
– मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल को अपनाया गया है। जिसके अनुसार सीएफसी और हेलोजन के उत्पादन तथा अन्य ओज़ोन रिक्तीकरण रसायनों जैसे कार्बन टेट्रा क्लोराइड, ट्राइक्लोरो इथेन के उत्पादन पर रोक लगा दी गई है।
– फ्रेऑन सबसे अधिक घातक क्लोरो फ्लोरो कार्बन है, जिसका प्रयोग रेफ्रिजरेटर, एयर कण्डिशनर, गद्देदार सीट या सोफों में काम आने वाली फोम तथा ऐरोसोल स्प्रे में होता है, प्रतिबन्धित किया गया है।
अम्लीय वर्षा (Acid Rain)
– विभिन्न उद्योगों की विविध उत्पादन क्रियाओं से निकली कार्बन डाई ऑक्साइड, सल्फर डाई ऑक्साइड तथा नाइट्रिक ऑक्साइड गैसें वायुमण्डल में जलवाष्प तथा बारिश की बूँदों में मिलकर अम्लीय अवस्था में आ जाती है।
– वह वर्षा जिसके पानी में यह गैसें मिल जाती हैं अम्ल वर्षा कहलाती है।
– सामान्यतः वातावरण में 60-90% अम्लीयता H2So4 के कारण तथा 30-40% HNO, के कारण होती है।
SO2 + H2O ¾® H2SO4 (सल्फ्यूरिक अम्ल)
NO2 +H2O ¾® HNO3 (नाइट्रिक अम्ल)
– अम्ल वर्षा से सम्बन्धित जल का pH मान 5 से 2.5 के बीच हो जाता है। pH का तटस्थ मान 7 होता है इससे कम मान अम्लीयता तथा अधिक मान क्षारीयता का प्रतीक है। अम्लीय वर्षा में हाइड्रोजन आयनों का स्तर ऊँचा हो जाता है।
अम्लीय वर्षा के कारण –
– अम्लीय वर्षा का प्रमुख कारण NO2, SO2, NO, CO आदि हैं। सल्फर डाई-ऑक्साइड रासायनिक अभिक्रिया द्वारा H2SO4 का निर्माण करती है। SO2 के निम्नलिखित स्रोत हैं–
– ऑटोमोबाइल या कोयला या जल विद्युत संयंत्रों के कारण वातावरण में बनती है।
– ताप शक्ति गृह जहाँ पर बिजली उत्पन्न करने हेतु भारी मात्रा में कोयला जलाया जाता है।
– खनिज तेल शोधन शालाएँ
– स्वचालित वाहन
– जीवाश्म ईंधनों का दहन
अम्ल वर्षा के कुप्रभाव –
– अम्ल वर्षा से जल संसाधन प्रदूषित होते हैं इससे जलीय जीव सर्वाधिक प्रभावित होते हैं।
– अम्लीय वर्षा जंगलों को क्षति पहुँचाती है।
– अम्लीय वर्षा ऐतिहासिक इमारतों को नुकसान पहुँचाती है।
अम्लीय वर्षा के प्रभाव
– मिट्टी की उत्पादकता घट जाती है। अधिक अम्लीयता के कारण मिट्टी के खनिज एवं पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं।
– अम्लीय वर्षा का दुष्प्रभाव एक स्थान विशेष तक ही सीमित नहीं रहता और न ही यह SO2 तथा NO2 उगलने वाले औद्योगिक एवं परिवहन स्रोतों तक सीमित रहता है। यह स्रोतों से दूर अत्यधिक विस्तृत क्षेत्रों को भी प्रभावित करती है क्योंकि अम्लीय वर्षा के उत्तरदायी कारक वायु के वेग के साथ वायु की दिशा में हजारों किमी. दूर तक बह जाते हैं और आर्द्रता पाकर अम्लीय वर्षा के रूप में बरसते हैं।
– पेयजल भण्डार दूषित हो जाते हैं। अम्लीय वर्षा से मानव को साँस एवं त्वचा की बीमारियाँ हो जाती हैं। आँखों में जलन की समस्या उत्पन्न होती है।
– अम्लीय वर्षा का वनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है क्योंकि इससे पत्तियों की सतह पर मोम जैसी परत जमा हो जाती है। पत्तियों के स्टोमेंटा बंद हो जाते हैं। फलस्वरूप प्रकाश संश्लेषण वृद्धि, जनन, वाष्पोत्सर्जन आदि जैविक क्रियाएँ मन्द पड़ जाती है। जर्मनी में अम्लीय वर्षा के कारण 8% के लगभग वन नष्ट हुए हैं।
– जल स्रोतों यथा झील, नदी आदि की अम्लीयता बढ़ने से पानी के जीवों व वनस्पतियों पर हानिकारक असर होता है। अमेरिका और नॉर्वे, स्वीडन, आदि देशों में अम्लीय वर्षा के कारण अधिकांश झीलों के जैविक समुदाय समाप्त हो गए हैं।
– इससे भवनों को संक्षारण के कारण क्षति होती है। पत्थर एवं संगमरमर विशेष रूप से प्रभावित होता है। यूनान, इटली एवं कई यूरोपीय देशों में संगमरमर से बनी मूर्तियाँ तथा आगरा का प्रसिद्ध ताजमहल अम्लीय वर्षा से धुँधला पड़ता जा रहा है।
संभावित समाधान
– अम्ल वर्षा पर्यावरण सम्बन्धी मौजूदा समस्याओं में से एक सबसे बड़ी समस्या है। अम्लीय वर्षा अति प्रदूषित इलाके में बहुत दूर तक बड़ी आसानी से फैलती है। अम्लीय वर्षा के लिए मानवीय उत्पादन मुख्य रूप से जिम्मेदार है।
– विभिन्न स्रोतों से अम्लीय वर्षा उत्पन्न करने वाली SO2 एवं NO2 के उत्पादन पर नियंत्रण किया जाए। इन्हें वातावरण में घुलने से रोका जाए। अतः उद्योगों में स्क्रबर्स का उपयोग करें। बैग फिल्टर तथा कोलाइडल टैंक बनाए जाएँ।
– सौर ऊर्जा तथा पवन ऊर्जा के प्रयोग को बढ़ावा दिया जाए।
– व्यक्तिगत वाहनों का प्रयोग कम किया जाए। समय- समय पर वाहनों की जाँच करवाई जाए।
– जल स्रोतों जहाँ पानी की अम्लीयता बढ़ गई है वहाँ पानी में चूना डाला जाए। इसी प्रकार मिट्टी की अम्लीयता नष्ट करने हेतु भी चूने का प्रयोग किया जाए।
अधिकांश भारतीय नगरों में वर्षा जल में अम्लीयता का स्तर सुरक्षा सीमा से कम है लेकिन बढ़ते उद्योग इकाइयों से हानिकारक गैसों की सान्द्रता पर रोकथाम पूरी तरह प्रभावी नहीं हो पा रही है। हमें अपने देश की औद्योगिक इकाइयों को नियंत्रित करना पड़ेगा।
जैविक वातावरण से संबंधित समस्याएँ –
– पारिस्थितिकी संतुलन का सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव जीवमंडल की जैविक संरचना पर पड़ा है।
– UNEP के एक रिपोर्ट के अनुसार प्रतिदिन 50 जीव-जन्तुओं की प्रजातियाँ विलुप्त होने की श्रेणी में आ रही हैं।
– यह जैविक विनाश वनों के विनाश से भी संबंद्ध है।
प्रेयरी भैंस, सफेद हाथी, सफेद बाघ, दरियाई घोड़ा, चिम्पांजी, व्हेल, डॉल्फिन, प्रवाल जीव आदि अत्यधिक संकटग्रस्त स्थिति में हैं। पुनः जैव – तकनीकी से उत्पन्न ट्रांसजेनिक बीजों एवं जीवों के कारण परंपरागत बीज व जीव क्रमशः विलुप्त होते जा रहे हैं।
– मानव की संख्या में अनियंत्रित वृद्धि व प्रकृति के अनियोजित व अनियंत्रित दोहन से खाद्य – शृंखला प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुई है।
एल नीनो प्रभाव (El-Nino Effect)
– एल नीनो एक भूगोलीय प्रभाव है। यह शब्द स्पेनिश भाषा से लिया गया जिसका अर्थ “क्राइस्ट शिशु” है अर्थात् साल के अन्त में जीसस के जन्म के आस-पास उत्पन्न होने वाला प्रभाव।
– समुद्र की धाराएँ जो उसके पानी में उतार-चढ़ाव उत्पन्न करती हैं, वे वातावरण को भी प्रभावित करती हैं। इनमें से एक प्रभाव एल नीनो प्रभाव कहलाता है। इस प्रभाव से समुद्र का पानी असामान्य रूप से गर्म हो जाता है। यह प्रभाव दक्षिण तथा मध्य अमेरिकी समुद्री किनारे पर साल के अन्त में देखा जाता है। इस प्रभाव के फलस्वरूप समुद्री मछलियों की संख्या प्रभावित होने लगती है तथा वर्षा और मौसम में भी परिवर्तन आने लगता है।
– सामान्यत: वायु पश्चिम से बहती हुई समुद्री गर्म पानी को ऑस्ट्रेलिया की तरफ गति कराती है जबकि ठण्डा पानी अमेरिकी समुद्री किनारे की तरफ रहता है, जिसके कारण समुद्री मछलियों को भी पोषण प्राप्त होता है लेकिन प्रत्येक 3-7 वर्षा पश्चात् यह वायु की दिशा खत्म हो जाती है, जिसके फलस्वरूप गर्म जल दक्षिणी अमेरिका की तरफ स्थानान्तरित हो जाता है।
– एलनीनो प्रभाव समुद्री वायुमण्डल तंत्र के ट्रॉपिकल पेसिफिक क्षेत्र में परिवर्तन उत्पन्न करता है जिसके फलस्वरूप मौसम में असामान्य परिवर्तन होने लगते हैं। ये परिवर्तन हैं- वर्षा का दक्षिणी अमेरिकी तथा पेरु क्षेत्र में बढ़ना जिसके फलस्वरूप बाढ़ आती है और पश्चिमी पोसिफिक क्षेत्र में बढ़ना जिसके फलस्वरुप बाढ़ आती है और पश्चिमी पेसिफिक क्षेत्र में सूखा पड़ता है तथा ऑस्ट्रेलिया में विनाशकारी “बुश फायर” का खतरा उत्पन्न हो जाता है।
जैव विविधता
– जैव-विविधता को सर्वप्रथम वर्ष 1992 में ब्राज़ील के रियो शहर में हुए ‘पृथ्वी-सम्मेलन’ के दौरान परिभाषित किया गया।
– इसमें पृथ्वी समस्त जलीय एवं स्थलीय क्षेत्रों में पाए जाने वाले विभिन्न जीवों तथा उनमें पाई जाने वाली विभिन्नताओं से हैं।
जैव–विविधता के तीन स्तर –
1. आनुवंशिक जैव–विविधता –
– एक ही प्रजाति सदस्यों के बीच पाई जाने वाली विभिन्नताएँ। जैसे – भारत में धान/अनाज की लगभग 50 हजार प्रजातियाँ
– राउल्फिया/सर्पगंधा की प्रजातियाँ, जो हिमालय की अलग-अलग ऊँचाइयों पर पाई जाती हैं, इनमें ‘रेसरपीन’ एल्केलॉयड की मात्रा भी अलग-अलग पाई जाती है, जो कि आनुवंशिक जैव-विविधता को दर्शाता है।
– यह विविधता जीन में विविधता के कारण उत्पन्न होती है।
2. जातीय जैव विविधता –
– भारत में पश्चिमी घाट की जैव-विविधता की पूर्वी घाट की तुलना में बहुत ज्यादा है।
– जातियों के स्तर पर पाई जाने वाली विभिन्नताएँ।
– पश्चिमी घाट में उभयचरों की अधिक जातियाँ पाई जाती हैं जबकि पूर्वी घाट पर उभयचरों की संख्या कम पाई जाती है।
3. पारिस्थितिकीय जैव–विविधता –
– भारत की पारिस्थितिकीय जैव-विविधता, नॉर्वे, स्वीडन जैसे देशों की तुलना में बहुत ज्यादा है क्योंकि विभिन्न वातावरणीय दशाओं में हमारे यहाँ अलग-अलग पारिस्थितिकी तंत्रों में जैव-विविधता भी अधिक है।
– यह विविधता किसी देश में पारिस्थितिकीय स्तर पर पाई जाने वाली विभिन्नता को दर्शाती है।
– इन्हें तीन भागों में विभक्त किया गया है-
(i) 𝛼- विविधता (ii) 𝛽- विविधता (iii) 𝛾- विविधता
(i) 𝛼- विविधता – एक ही आवास/समुदाय में उपस्थित विभिन्न जीवों की विविधता 𝛼- विविधता कहलाती है।
उदाहरण – विभिन्न पादपों की जाति के सदस्यों का पाया जाना।
(ii) 𝛽- विविधता – अलग-अलग आवास/समुदाय में उपस्थित विभिन्न जीवों की विविधता 𝛽- विविधता कहलाती है।
उदाहरण – हिमालय पर अलग-अलग अक्षांश पर अलग-अलग प्रकार की वनस्पति का पाया जाना।
– स्थल व जल तंत्र में पाई जाने वाली जातियों की विभिन्नता।
(iii) 𝛾- विविधता – इसे क्षेत्रीय विविधता भी कहते हैं।
– इसमें एक क्षेत्र में पाए जाने वाले विभिन्न आवासों की जैव विविधता को शामिल किया जाता है।
जैव–विविधता का वितरण –
– पूरे विश्व में अलग-अलग भागों में जैव-विविधता भी अलग-अलग पाई जाती है, जो कि निम्नलिखित कारकों से स्पष्ट है –
1. अक्षांशीय प्रवणता – भू-मध्य रेखा (Equator) पर तथा इसके आस-पास के क्षेत्रों में सर्वाधिक जैव-विविधता पाई जाती है, क्योंकि
इस क्षेत्र में प्राकृतिक आवास अत्यधिक विकसित होता है।
– ये भू-भाग पृथ्वी पर हिम-युग (ice-age) से अप्रभावित रहा है।
– जीव-जंतुओं के लिए प्रचुर मात्रा में भोजन।
– विषुवत रेखा से ध्रुवों की ओर जाने पर जैव-विविधता में कमी आती है।
2. जाति–क्षेत्र संबंध – एलेक्जेंडर वॉन हम्बोल्ट के अनुसार; जैसे-जैसे अध्ययन का क्षेत्र बढ़ाते हैं, जैव-विविधता में एक निश्चित सीमा तक ही वृद्धि देखी जाती है। उसके बाद ये स्थिर हो जाती है। इसे ही जाति-क्षेत्र संबंध कहते हैं।
3. समुद्र तल से ऊँचाई के साथ जैव-विविधता में कमी आती है।

– विश्व में 12 मेगाबायोडायवर्सिटी देश, जहाँ पर कुल वैश्विक जैव-विविधता का 50-60% भाग पाया जाता है। ये देश – ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया, इण्डोनेशिया, चीन, भारत, मेडागास्कर, घाना, पेरु, कोलंबिया, इक्वेडोर, मैक्सिको एवं ब्राज़ील।
– हाल ही में 5 नए मेगा बायोडायवर्सिटी देशों की पहचान की गई है, जो इस प्रकार हैं – यूएसए, वेनेजुएला, दक्षिण अफ्रीका, फिलीपींस, पापुआ न्यू गिनी।
– अत: वर्तमान में 17 मेगा बायोडायवर्सिटी देश हैं।
– वास्तव में जातीय समृद्धि और वर्गीकरण पद या जीव समूह की किस्मों के क्षेत्र के बीच का संबंध आयताकार अतिपरवलय के रूप में प्रकट होता है इस संबंध को लघुगणक स्केल में सीधी रेखा में प्राप्त किया जाता है।
Log S = Log C + Z Log A
S = जातीय समृद्धि
A = क्षेत्रफल
Z = रेखीय वक्र
C = अन्तर्खण्ड

महत्त्व –
– अधिक उत्पादकता में
– स्थिरता में
– पारिस्थितिकी स्वास्थ्य
रिवर पोयर परिकल्पना –
– पारिस्थितिकी स्वास्थ्य को समझाने के लिए स्टेनफोर्ड के पारिस्थितिकी विद पॉल एहरलिक ने अपनी रिवेट पोपर परिकल्पना प्रस्तुत की थी।
– इस परिकल्पना में पारितंत्र की जातियों की तुलना वायुयान में लगे रिवेट से की गई है।
– इनके अनुसार यदि किसी वायुयान में लगे रिवेटों को उसमें बैठे यात्री ही अपने घर ले जाएँ तो वायुयान उड़ने योग्य नहीं रहेगा।
– इस परिकल्पना में वायुयान को पारितंत्र, रिवेट को जाति व यात्रियों के द्वारा रिवेट ले जाने को जातियों के लुप्त होने के रूप में समझाया है।
जैव–विविधता के तप्त स्थल (Hot-Spots of biodiversity)–
– इनके बारे में डॉ. नॉर्मन नेयर्स ने बताया।
– ये जैव-विविधता समृद्ध क्षेत्र हैं, जहाँ लगभग 50% जैव-विविधता नष्ट हो चुकी है तथा कम से कम 1500 संवहनी पौधों (vascular plants) की प्रजातियाँ पाई जाती हैं।

जैव–विविधता में क्षति के प्रमुख कारण –
1. आवासीय विखण्डन (Fregmentation of Habitat)–
– मानवीय गतिविधियों या प्राकृतिक कारणों से जब जीवों के प्राकृतिक आवास नष्ट होने लगते हैं, तो जीवों की प्रजातियाँ धीरे-धीरे विलुप्त होने लगती हैं, जिससे जैव-विविधता में कमी आने लगती है।
– अमेज़न वर्षा वनों में सोयाबीन की खेती व चारागाह विकास हेतु इन वनों की कटाई की गई, जिससे यहाँ के हजारों जीवों की प्रजातियाँ हमेशा के लिए विलुप्त हो गई।
– अमेज़न को ‘पृथ्वी के फेफड़े’ भी कहा जाता है।
2. अतिदोहन (Over exploitation) –
– जब मानवीय आवश्यकताएँ लालच में बदलती हैं, तो वह प्राकृतिक संसाधनों का अतिदोहन करने लगता है, जिससे इन संसाधनों पर निर्भर जीवों का अस्तित्व ही संकट में आ जाता है।
3. विदेशी जातियों का आक्रमण –
– कई बार जीव किसी नए वातावरण में पहुँच कर तेजी से वृद्धि करने लगता है तथा स्थानीय प्रजातियों के अस्तित्व पर संकट उत्पन्न कर देता है, जिससे स्थानीय जैव-विविधता में कमी आने लगती है। उदाहरण –
i. जलकुंभी (Water Hycinth) – भारत में सजावटी पौधे के रूप में लाया गया परंतु ये भारत में खरपतवार के रूप में तेजी से वृद्धि करने लगा तथा स्थानीय जलीय पारिस्थितिक तंत्रों को नष्ट करने लगा।
ii. लैन्टाना कैमरा –
– यह अमेरिका से लाई गई एक उष्णकटिबंधीय झाड़ी है।
– ये खरपतवार के रूप में हानिकारक प्रभाव दिखा रही है।
iii. कांग्रेस घास/गाजर घास –
– इसका वानस्पतिक नाम पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस है।
– यह एक खतरनाक खरपतवार है, जो त्वचीय बीमारियों तथा अस्थमा जैसी बीमारियों को बढ़ावा दे रही है।
iv. नाइलपर्च –
– यह नील नदी की मछली है, जिसे दक्षिणी अफ्रीका की विक्टोरिया झील में डाला गया परन्तु परभक्षी मछली ने अपनी संख्या इतनी बढ़ाई की विक्टोरिया झील में रहने वाली सिचलिड मछलियों की कई जातियों को नष्ट कर दिया।
v. अफ्रीकन कैटफिश –
– इसका वानस्पतिक नाम कलोरियस गैरीपाइनस है।
– यह देशी प्रजाति की कैटफिश के अस्तित्व के लिए खतरा बन गई है।
4. सहविलुप्तता –
– दो या दो से अधिक जीवों की प्रजातियाँ, जो आपस में एक-दूसरे पर निर्भर हों, यदि उनमें से एक जीव की प्रजाति नष्ट हो जाए तो दूसरे जीवों की संख्या में कमी आने लगती है।
5. विक्षुब्धन –
– जीवों के प्राकृतिक आवासों में आने वाले परिवर्तन को विक्षुब्धन कहते हैं।
– सूखा पड़ने, बाढ़, पेड़ों की कटाई, खनन के कारण विक्षुब्धन होता है।
जैव–विविधता संरक्षण –
1. स्वस्थाने संरक्षण (In-Situ conservation) – जीव का प्राकृतिक आवास में संरक्षण। उदाहरण – राष्ट्रीय उद्यान, बायोस्फीयर रिज़र्व, वन्य जीव अभयारण्य, पवित्र उपवन एवं झीलें।
जैव विविधता हॉट स्पॉट (तप्तस्थल) –
– वर्ष 1988 में नॉर्मन मेयर ने इस संकल्पना के बारे में बताया था।
– इसमें उन क्षेत्रों को रखा जाता है जिसमें अत्यधिक जातीय समृद्धि होती है तथा उच्च स्थानिकता दर्शाती है।
– सर्वप्रथम 25 हॉट-स्पॉट थे।
– वर्तमान में सम्पूर्ण विश्व में 36 जैव विविधता हॉट-स्पॉट हैं।
– भारत में तीन जैव विविधता स्थल हैं। (वर्तमान – 4)
1. पश्चिमी घाट
2. पूर्वी हिमालय
3. इंडो-बर्मा क्षेत्र
4. सुण्डालैण्ड (अण्डमान निकोबार द्वीप समूह)
राष्ट्रीय उद्यान –
– इनका निर्माण केन्द्र सरकार द्वारा किया जाता है लेकिन रखरखाव व व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्य सरकार को सौंपी गई है।
– ये सरकार द्वारा घोषित किए गए आवास परिरक्षण क्षेत्र हैं जहाँ पर वन्य जातियों को संरक्षित किया जाता है।
– भारत में कुल 106 राष्ट्रीय उद्यान हैं।
– राजस्थान में कुल तीन राष्ट्रीय उद्यान हैं –
1. मुकुंदरा हिल्स (दर्रा) राष्ट्रीय उद्यान
2. रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान
3. केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान
4. मरु राष्ट्रीय उद्यान (नाममात्र)
क्र.सं. | राष्ट्रीय उद्यान | राज्य |
1 | बाँदीपुर | कर्नाटक |
2 | कॉर्बेट | उत्तराखंड व उत्तर प्रदेश |
3 | कान्हा | मध्य प्रदेश |
4 | मानस | असम |
5 | मेलघाट | महाराष्ट्र |
6 | पालामऊ | झारखंड |
7 | रणथंभौर | राजस्थान |
8 | सिमलीपाल | ओडिशा |
9 | सुन्दरबन | पश्चिम बंगाल |
10 | पेरियार | केरल |
11 | सरिस्का | राजस्थान |
12 | बुक्सा | पश्चिम बंगाल |
13 | इंद्रावती | छत्तीसगढ़ |
14 | नामदफा | अरुणाचल प्रदेश |
15 | दुधवा | उत्तर प्रदेश |
16 | कलाकंद-मुन्दनथुरई | तमिलनाडु |
17 | वाल्मीकि | बिहार |
18 | पेंच | मध्य प्रदेश |
19 | ताडोबा-अंधेरी | महाराष्ट्र |
20 | बांधवगढ़ | मध्य प्रदेश |
21 | पन्ना | मध्य प्रदेश |
22 | दम्पा | मिजोरम |
23 | भद्रा | कर्नाटक |
24 | पेंच | महाराष्ट्र |
25 | पक्के | अरुणाचल प्रदेश |
26 | नामेरी | असम |
27 | सतपुड़ा | मध्य प्रदेश |
28 | अन्नामलाई | तमिलनाडु |
29 | उदंती-सीतानदी | छत्तीसगढ़ |
30 | सतकोसिया | ओडिशा |
31 | काजीरंगा | असम |
32 | अचानकमार | छत्तीसगढ़ |
33 | डांडेली-अंशी | कर्नाटक |
34 | संजय-डुबरी | मध्य प्रदेश |
35 | मुदुमलाई | तमिलनाडु |
36 | नागरहोल | कर्नाटक |
37 | परन्बिकुलम | केरल |
38 | सह्याद्रि | महाराष्ट्र |
39 | बिलीगिरी रंगनाथ टेम्पल | कर्नाटक |
40 | कवल | तेलंगाना |
41 | सत्यामंगलम् | तमिलनाडु |
42 | मुकुंदरा हिल्स | राजस्थान |
43 | नवेगांव नागझीरा | महाराष्ट्र |
44 | नागार्जुन सागर श्रीशैलम् | आंध्र प्रदेश |
45 | अमराबाद | तेलंगाना |
46 | पीलीभीत | उत्तर प्रदेश |
47 | बोर | महाराष्ट्र |
48 | राजाजी | उत्तराखंड |
49 | ओरंग | असम |
50 | कामलांग | अरुणाचल प्रदेश |
51 | भोरमदेव | छत्तीसगढ़ |
52. | रामगढ़ विषधारी | बूँदी (राजस्थान) |
53. | गुरु घासीदास | छत्तीसगढ़ |
जैव मण्डल प्रारक्षण (बायोस्फीयर रिज़र्व)
– ये बहुउद्देशीय प्रतिबंधित सुरक्षित क्षेत्र है जो जैव विविधता (आनुवंशिक) को संरक्षित करते हैं।
– यहाँ जन्तु, पादपों के साथ मूल आदिवासियों को रहने की अनुमति होती है।
– इनके तीन भाग होते हैं-
1. कोर अनुक्षेत्र – किसी भी मानवीय क्रिया या हस्तक्षेप की अनुमति नहीं।
2. बफर अनुक्षेत्र – मानवीय क्रियाओं की सीमित अनुमति।
3. कुशलयोजना अनुक्षेत्र (Manipulation) – इसमें मानव के लाभकारी उत्पादों को प्राप्त करने की पूर्ण अनुमति के साथ-साथ पारिस्थितिक तंत्र को क्षति की अनुमति नहीं होती है।
– बायोस्फीयर प्रारक्षण कार्यक्रम वर्ष 1971 में प्रारंभ हुआ था।
– प्रथम बायोस्फीयर क्षेत्र का निर्माण यूनेस्को के मनुष्य तथा जीवमण्डल कार्यक्रम (MAB) के अन्तर्गत किया है।
– UNESCO तथा UNEP दोनों ने संयुक्त रूप से टास्कफोर्स का गठन किया जिसमें वर्ष 1981 में बायोस्फीयर प्रारक्षण के उद्देश्य बताए।
बायोस्फीयर रिज़र्व
– भारत में सर्वाधिक बायो स्फीयर रिज़र्व मध्य प्रदेश राज्य में।
(1) पंचमढ़ी
(2) पन्ना
(3) अचानकमार – अमरकंटक
भारत में 18 बायोस्फीयर रिज़र्व
(1) कोल्ड डेजर्ट (हिमाचल प्रदेश)
(2) नंदादेवी (उत्तराखण्ड)
(3) खंगचदाजेंगा (सिक्किम)
(4) मानस (असम)
(5) डिब्रू सैखोवा (असम)
(6) नोक्रेक (मेघालय)
(7) सिमलीपाल (ओडिशा)
(8) सुंदरवन (पश्चिम बंगाल)
(9) शेषाचलम् (आंध्र प्रदेश)
(10) नीलगिरि (कर्नाटक, केरल व तमिलनाडू)
(11) अगस्तमलाई (केरल)
(12) मन्नार की खाड़ी (तमिलनाडु)
(13) ग्रेट निकोबार (अण्डमान व निकोबार)
(14) कच्छ का रण (गुजरात)
(15) पन्ना (मध्य प्रदेश)
(16) पचमढ़ी (मध्य प्रदेश)
(17) अचानकमार-अमरकंटक (मध्य प्रदेश)
(18) दिहांग (अरुणाचल प्रदेश)
– बहि: स्थाने संरक्षण (Ex-Situ Conservation) – जीव का प्राकृतिक आवास के बाहर संरक्षण।
1. जंतु उद्यान
2. वानस्पतिक उद्यान
3. जन्तु घर
4. निम्न ताप परिरक्षण (क्रायोप्रिज़र्वेशन)
5. प्रयोगशालाएँ
6. जीन बैंक
7. बीज बैंक/वीर्य बैंक/युग्मक बैंक
8. पात्रे निषेचन
9. ऊतक संवर्द्धन
– क्रायोप्रिज़र्वेशन (निम्नताप परिरक्षण) में जीवों के युग्मकों, बीजों तथा बीजाणुओं को – 1960c ताप पर द्रव N2 (द्रव नाइट्रोजन) में रखा जाता है।
– पात्रे निषेचन में दो उच्च श्रेणी के विशिष्ट जाति के नर व मादा युग्मकों का निषेचन परखनली या प्रायोगिक पात्र में कराया जाता है।
– ऊतक संवर्द्धन तकनीक में कायिक कोशिकाओं/ऊतकों का कृत्रिम माध्यम में संवर्द्धन करवाकर जाति विशेष के जीवों की संख्या को बढ़ाया जाता है।
अंतर | राष्ट्रीय पार्क | अभयारण्य | बायोस्फीयर रिज़र्व |
(1) संख्या | 106 | 566 | 18 |
(2) संरक्षण | विशेष प्रजाति के जीव-जन्तुओं के संरक्षण पर विशेष बल दिया जाता है। | सभी जीव-जन्तुओं के संरक्षण पर एकसमान बल दिया जाता है। | पेड-पौधों, जीव-जंतुओं के साथ-साथ मनुष्य के संरक्षण पर भी बल दिया जाता है। |
(3) गठन | वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के तहत केन्द्र सरकार द्वारा | वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के तहत राज्य सरकार द्वारा | यूनेस्को के कार्यक्रम (1973 में) मैन एण्ड बायोस्फीयर कार्यक्रम के तहत केन्द्र सरकार द्वारा |
(4) मानवीय गतिविधि | प्रतिबंधित (पर्यटन को छोड़कर) | सीमित मानवीय गतिविधि | मनुष्य के संरक्षण पर बल |
(5) कोर व बफर क्षेत्र का निर्धारण | किया जाता है | नहीं किया जाता है | कोर व बफर क्षेत्र का निर्धारण किया जा सकता है। |
(6) जैव-विविधता | सामान्य | सबसे कम | सर्वाधिक |
भारत में जैव-विविधता संबंधी विभिन्न अधिनियम व महत्त्वपूर्ण दिवस
स्वतंत्र भारत में पर्यावरण नीतियाँ तथा कानून
– भारतीय संविधान जिसे 1950 में लागू किया गया था परन्तु सीधे तौर पर पर्यावरण संरक्षण के प्रावधानों से नहीं जुड़ा था। सन् 1972 के स्टॉकहोम सम्मेलन ने भारत सरकार का ध्यान पर्यावरण संरक्षण की ओर खींचा। सरकार ने 1976 में संविधान में संशोधन कर दो महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद 48 ए तथा 51 ए (जी) जोड़े। अनुच्छेद 48 ए राज्य सरकार को निर्देश देता है कि वह ‘पर्यावरण की सुरक्षा और उसमें सुधार सुनिश्चित करे तथा देश के वनों तथा वन्यजीवन की रक्षा करे’। अनुच्छेद 51 ए (जी) नागरिकों को कर्तव्य प्रदान करता है कि वे ‘प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा करे तथा उसका संवर्धन करे और सभी जीवधारियों के प्रति दयालु रहे’। स्वतंत्रता के पश्चात् बढ़ते औद्योगीकरण, शहरीकरण तथा जनसंख्या वृद्धि से पर्यावरण की गुणवत्ता में निरंतर कमी आती गई। पर्यावरण की गुणवत्ता की इस कमी में प्रभावी नियंत्रण व प्रदूषण के परिप्रेक्ष्य में सरकार ने समय-समय पर अनेक कानून व नियम बनाए। इनमें से अधिकांश का मुख्य आधार प्रदूषण नियंत्रण व निवारण था।
पर्यावरणीय कानून व नियम निम्नलिखित हैं:
– जल प्रदूषण संबंधी-कानून
– रीवर बोर्डर्स एक्ट, 1956
– जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974
– जल उपकर (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1977
– पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986
– वायु प्रदूषण संबंधी कानून
– फैक्ट्रीज एक्ट, 1948
– इनफ्लेमेबल्स सब्सटेन्स एक्ट, 1952
– वायु (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981
– पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986
– भूमि प्रदूषण संबंधी कानून
– फैक्ट्रीज एक्ट, 1948
– इण्डस्ट्रीज (डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन) अधिनियम, 1951
– इनसेक्टीसाइडस एक्ट, 1968
– वन तथा वन्यजीव संबंधी कानून
– फोरेस्ट्स कंजर्वेशन एक्ट, 1960
– वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट, 1972
– जैव-विविधता अधिनियम, 2002
– वन्य जीव संरक्षण अधिनियम – 1972 में लाया गया लेकिन वर्ष 2006 में इस अधिनियम में सुधार कर नया अधिनियम लाया गया।
– वन्य संरक्षण अधिनियम – 1980
– ध्वनि प्रदूषण (विनियमन एवं नियंत्रण) अधिनियम – 2000
महत्त्वपूर्ण दिवस
1. 5 जनवरी – राष्ट्रीय पक्षी दिवस – डॉ. सलीम अली (Birdman of INDIA)
2. 2 फरवरी – आर्द्रभूमि संरक्षण दिवस
– समुद्री तटीय क्षेत्र में 6 मीटर तक की लहरों का क्षेत्र एवं भूमि के आंतरिक भागों में झीलों का क्षेत्र जहाँ जैव-विविधता प्रचुर मात्रा में पाई जाती है उसे आर्द्रभूमि कहा जाता है। आर्द्रभूमियों के संरक्षण हेतु 02 फरवरी, 1971 को ईरान देश के रामसर स्थान पर बैठक का आयोजन किया गया। इसे रामसर कन्वेंशन/संधि का आयोजन किया गया। इस संधि के तहत भारत में कुल 47 आर्द्रभूमियाँ हैं।
3. 21 मार्च – विश्व वानिकी दिवस
4. 22 मार्च – विश्व जल दिवस
5. 22 अप्रैल – पृथ्वी दिवस
6. 18 अप्रैल – विश्व विरासत संरक्षण दिवस
7. 22 मई – अंतर्राष्ट्रीय जैव-विविधता संरक्षण दिवस
8. 01 जून – विश्व प्रवालभित्ति दिवस
9. 05 जून – विश्व पर्यावरण दिवस
10. 08 जून – विश्व समुद्र दिवस
11. 22 जून – विश्व ऊँट दिवस
संकटग्रस्त प्रजातियाँ : लाल सूची
(Endangered Species : Red List)
– प्रकृति में विभिन्न जातियों के जीवों का मरना एवं उनके स्थान पर अन्य नवीन जातियों का उद्भव एक सतत प्रक्रिया है। विगत शताब्दी में पारिस्थितिकी तंत्र पर मानवीय प्रभाव ने जीवों के विलोपन की दर को बढ़ाया है। वर्तमान में प्रतिवर्ष सौ से लेकर हजार तक विविध जीवों की जातियाँ एवं उपजातियाँ विलुप्त हो रही हैं। यदि विलोपन की यही दर जारी रही तो अगले 100 वर्षों में पृथ्वी से 50% प्रजातियाँ विलुप्त हो जाएँगी।
– वर्ष 1963 से प्राकृतिक संरक्षण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय संघ (International Union for Conservation of Nature : IUCN) द्वारा वैश्विक प्रजाति कार्यक्रम (Global Species Programme) तथा उत्तरजीविता आयोग (Species Survival Commission) के सहयोग से Red List (लाल सूची) जारी की जाती है। जिसमें वैश्विक स्तर पर पशु व पादप प्रजातियों की संकटग्रस्त स्थिति का आकलन प्रस्तुत किया जाता है। अब तक कुल 112400 प्रजातियों का आकलन किया गया है जिसमें से 30000 प्रजातियाँ विलुप्ति के कगार पर हैं। इस प्रकार IUCN चुनी गई प्रजातियों के संरक्षण की स्थिति, उनके विलुप्त होने के खतरे को उजागर करने एवं उनके संरक्षण के लिए आवश्यक उपायों को निर्दिष्ट करने हेतु ‘रेड डाटा बुक’ प्रकाशित करता है।
– रेड डाटा बुक की सूची में प्रजातियों को उनकी संख्या में तथा भौगोलिक क्षेत्र में उनकी स्थिति के आधार पर कुल नौ भागों में विभक्त किया जाता है–
(i) विलुप्त (Extinct : EX)
(ii) वन से विलुप्त (Extinct in the wild : EW)
(iii) अतिसंकट ग्रस्त (Critically Endangered : CR)
(iv) संकट ग्रस्त व लुप्तशय (Endangered : EN)
(v) संवेदनशील (Vulnerable : VU)
(vi) संकटापन्न (Near Threatened : NT)
(vii) संकटमुक्त (Least Concern : LC)
(viii) आँकड़े पर्याप्त नहीं (Data Deficient : DD)
(ix) आँकड़े उपलब्ध नहीं (Not Evaluated : NE)
(i) विलुप्त प्रजातियाँ (Extinct Species) – वे प्रजातियाँ जो विगत 50 वर्षों में अपने प्राकृतिक आवास में न देखी गई हो तथा उनके बारे में यह विश्वास हो गया हो कि विश्व में कहीं भी अब उनका अस्तित्व नहीं है, विलुप्त प्रजातियाँ (Extinct Species) कहलाती हैं। अनेक जीव-जातियाँ अथवा प्रजातियाँ भूतल पर अतीत में विकसित थीं जो अब सदैव के लिए लुप्त हो गई हैं। डायनासोर, मैमथ, डोडो, जैन्ट माओ, तस्मानियन भेड़िया, क्यूबन, लाल तोता, अन्टार्कटिक भेड़िया, रोडरीग्यूज कछुआ, ब्लू बक, यूकस किंग फिशर आदि इनमें प्रमुख हैं। भारत के विलुप्त जानवरों में प्रमुख हैं- Bhavatterium, Exaeretodon, Gigantopithecus, Hyperodapedon, भारतीय ऑरोच्स, एशियाई चीता, गुलाबी सिर वाली बत्तख एवं सुंदरवन बौना गैंडा। उक्त जातियों में कुछ तो प्राकृतिक कारणों से विपरीत परिस्थितियों में अपनी उत्तर जीविता न बनाए रख पाने के कारण इस धरती से विलुप्त हो गईं जबकि कुछ जातियाँ जैसे – मॉरीशस में पाए जाने वाले डोडो पक्षी आदि मानवीय क्रूरता की भेंट चढ़ गई।
– विश्व संरक्षण मॉनीटरिंग केन्द्र (WCMC) के अनुसार लगभग 533 जन्तु प्रजातियाँ तथा 434 पादप प्रजातियाँ विगत 400 वर्षों में विलुप्त हो चुकी हैं।
(ii) वन से विलुप्त (Extinct in the Wild) – वे प्रजातियाँ जो अपने प्राकृतिक आवास (वन) में नहीं पाई जाती हैं किन्तु उन्हें कृत्रिम आवासों एवं चिड़िया घरों आदि में संरक्षित किया गया है, वन से विलुप्त प्रजातियाँ कहलाती हैं।
(iii) अति संकटग्रस्त प्रजातियाँ (Critically Endangered Species) – संसार में जीव-जन्तुओं की कुछ ऐसी प्रजातियाँ हैं जो पूर्णतः लुप्त नहीं हुई हैं परन्तु ये वनों से विलुप्त होने के कगार पर हैं। इन प्रजातियों को अति संकटग्रस्त प्रजातियाँ कहा जाता है। ऐसी प्रजातियाँ जिनकी जनसंख्या में विगत 10 वर्षों में 90% की कमी दर्ज की गई हो, वर्तमान में उनकी कुल संख्या 250 से कम हो तथा 3 वर्ष में 25% की कमी आ रही हो और जिनके सिर्फ 50 या उससे कम परिपक्व सदस्य शेष हों अति संकटग्रस्त श्रेणी में रखी जाती हैं। इस श्रेणी की 50% प्रजातियों के आगामी 10 वर्षों में विलुप्त हो जाने की प्रायिकता होती है।
– पिग्मी हॉग (Pygmy Hog), Bornean Orangutan, Panthera, Western gorilla, Easterngorilla, Macaw, जंगली उल्लू, ग्रेट इण्डियन बस्टर्ड, जेर्डोन्स, कार्सर (Jerdon’s Courser), व्हाइट बेलीड हेरॉन (White bellied Heron), हिमालयन बटेर (Himalayan quail), गंगा-शार्क, पांडिचेरी शार्क, साइबेरियन क्रेन, गिद्ध (Vulture), घड़ियाल, भारतीय चीता’ आदि इस श्रेणी में शामिल कुछ प्रमुख प्रजातियाँ हैं। इसी प्रकार फसलों की अनेक प्रजातियाँ भी लुप्त होने के अत्यन्त निकट हैं। साँवा, कोदो, फाक्सटेल, देशी चावल, जौ, अनेक सब्जियाँ एवं फल आदि प्रमुख हैं। इनकी संख्या निरन्तर कम हो रही है। यदि इनको संरक्षित नहीं किया गया तो निकट भविष्य में ये पूर्णतः समाप्त हो जाएँगी। जैविक विविधता (2009), संबंधी चौथे अन्तर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (आईयूसीएन) की लाल सूची (2008) के अनुसार भारत में वैश्विक रूप से संकटग्रस्त 413 जीव-जन्तुओं की प्रजातियाँ हैं, जो कि विश्व के कुल संकटग्रस्त प्राणियों की प्रजातियों का लगभग 4.9 प्रतिशत है।
(iv) संकटग्रस्त प्रजातियाँ (Endangered Species) – संसार में अनेक जीव जातियाँ ऐसी हैं जिनके अस्तित्व पर भविष्य में संकट की सम्भावना है। इन जीव-जन्तुओं पर वनों से विलुप्त होने का खतरा बना होता है। इन्हें संकटग्रस्त प्रजातियाँ कहा जाता है। ऐसी प्रजातियाँ जिनकी जनसंख्या में विगत 10 वर्षों में 70% की कमी हुई हो, वर्तमान में उनकी कुल जनसंख्या 2500 में से कम हो और 5 वर्ष के अन्दर 20% की कमी देखी जा रही हो तथा 250 या उससे कम परिपक्व सदस्य संख्या शेष हो, इस श्रेणी में शामिल की जाती है। इस श्रेणी के 20 वर्ष में 20% प्रजातियों के विलुप्त (Extinct) होने की सम्भावना होती है।
– फॉरेस्ट ऑउलेट (Forest Owlet), नीलगिरि ताहर, सुनहरा लंगूर, पैंगोलिन, लाल पाण्डा, गंगा डॉल्फिन, एशियाई शेर, बंगाल टाइगर, इल्ड का हरिण (Eld’s Deer) तिब्बत का एण्टीलोप, मणिपुर का ब्राउ एटलर्ड डीयर (Brow Antlered Deer) भारतीय बाइसन आदि इस श्रेणी में शामिल कुछ प्रमुख प्रजातियाँ हैं। हाल ही में IUCN ने ढोल (जिसे एशियाटिक वाइल्ड डॉग, इंडियन वाइल्ड डॉग तथा रेड डॉग भी कहा जाता है) को लुप्तप्राय श्रेणी (Endangered) में सूचीबद्ध किया है।
– खाद्य प्रजातियों में बासमती, पुन्नी, आदमचीनी, काला जीरा, क्वांरी आदि चावल की जातियाँ तथा सी-306, के-68, मुड़िलवा आदि गेहूँ की जातियाँ एवं जौनपुरी मक्का, देशी ज्वार, बाजरा आदि कम हो रहे हैं। इन फसलों का उत्पादन अतीत में बड़े पैमाने पर किया जाता था। वैज्ञानिक कृषि के कारण अधिक उत्पादन वाली फसलों का उत्पादन किया जाने लगा। पुरानी किस्म की फसलों से उत्पादन कम होता था। साथ-ही इनकी माँग निरन्तर कम होती गई। फलस्वरूप इनकी मात्रा बहुत कम रह गई है। यहाँ यह उल्लेख करना प्रासंगिक है कि विश्व में 10,000 प्रजातियाँ खाद्य योग्य हैं, यद्यपि हम अपने 90 प्रतिशत पोषण हेतु केवल 30 प्रजातियों पर ही निर्भर हैं।
(v) संवेदनशील प्रजातियाँ (Vulnerable Species) – वे प्रजातियाँ जिनकी वनों में संकटग्रस्त हो जाने की संभावना हो, संवेदनशील प्रजातियाँ कहलाती हैं। ऐसी प्रजातियाँ जिनकी संख्या में 10 वर्षों में 50% की कमी हुई हो, वर्तमान में उनकी कुल संख्या 10,000 से कम हो तथा 10 वर्ष में 10 प्रतिशत की कमी दर्ज की जा रही हो और जिनके सिर्फ 1000 या कम परिपक्व सदस्य शेष हों संवेदनशील प्रजाति की श्रेणी में शामिल किए जाते हैं। इस श्रेणी में शामिल प्रमुख प्रजातियाँ हैं-हिम तेंदुआ (Snow Leopard), अफ्रीकन हाथी, एक सींग वाला गैंडा, चीता
– (Cheetah), संबर (Sambar), चार सींग वाला मृग, Dugong (समुद्री गाय), स्लोथ भालू (Sloth Bear), बारहसिंगा, संगमरमर के रंग की बिल्ली, भारतीय भेड़िया एवं कीवी पक्षियों की दो प्रजातियाँ (I) नॉर्दन ब्राउन कीवी (II) रोवी कीवी आदि।
IUCN की श्रेणी में शामिल कुछ मुख्य जीव | |||
IUCN श्रेणी | जीवों के सामान्य नाम | स्थिति | विशिष्टताएँ |
अति संकट ग्रस्त (Critically Endangered, C.R.) | फॉरेस्ट ऑउलेट (Forest Owlet) | MP और महाराष्ट्र का शुष्क पर्णपाती वन | यह पक्षी एक शताब्दी तक विलुप्त रहा। बाद में देखा गया। |
C.R. | जेरडॉन कॉर्सर (Jerdon’s Courser) | मुख्यतः आंध्र प्रदेश का उत्तरी क्षेत्र | आन्ध्र प्रदेश का स्थानिक पक्षी है। स्थानिक क्षेत्र को श्रीलंकामलेश्वर वन्य जीव अभयारण्य के रूप में संरक्षित कर दिया गया। |
C.R. | व्हाइट बेलीड हेरॉन(White Bellied Heron) | अरुणाचल, असम, भूटान और म्यांमार के कतिपय स्थानों पर। | यह पक्षी नदियों एवं झीलों के पास मुख्यतः पाए जाते है। |
C.R. | ग्रेट इंडियन बस्टर्ड(Great Indian Bustard) | मध्य भारत, राजस्थान, गुजरात, पूर्वी पाकिस्तान | शुतुरमुर्ग सदृश दिखने वाला यह पक्षी उड़ने वाला सबसे भारी पक्षी है। भारत में इसके शिकार पर प्रतिबंध हैं। |
C.R. | बंगाल फ्लोरिकन (Bengal Florican) | अरुणाचल प्रदेश, असम, उत्तर प्रदेश, नेपाल एवं कंबोडिया | घास भूमि में रहता है। |
C.R. | हिमालयन क्वेल (Himalayan Quail) | पश्चिमी हिमालय के लम्बे घास एवं झाँड़ियों में। | शताब्दी बाद 2003 में नैनीताल में दृष्टिगोचर हुआ था। |
C.R. | सोशिएबल लेपविंग (Sociable Lapwing) | उत्तरी तथा उत्तर-पश्चिमी भारत के भागों में जाड़े में प्रवास करता है। | परती भूमि तथा रेगिस्तान की झाड़ियों में रहने वाला यह पक्षी मुख्यतः मध्य एशिया, मध्य-पूर्व एवं दक्षिणी एशिया में पाया जाता है। |
C.R. | स्पून बिल्ड सैंडपाइपर(Spoon Billed Sandpiper) | पश्चिमी बंगाल, ओडिशा, केरल एवं तमिलनाडु में। | विशिष्ट अधिवासों में प्रजनन करते हैं। |
C.R. | साइबेरियाई क्रेन | शरद ऋतु में राजस्थान के केवला देव राष्ट्रीय उद्यान के आर्द्र भूमि क्षेत्रों में दिखाई देने वाला प्रवासी पक्षी। | आर्कटिक रूस और पश्चिमी साइबेरिया निवास स्थल। |
C.R. | गंगा-शार्क | गंगा नदी तंत्र एवं बंगाल की खाड़ी में | गंदे जल में भी निवास। |
C.R. | घड़ियाल | चम्बल अभयारण्य में, सोन, गण्डक, घाघरा नदियों में मुख्यतः पाए जाते हैं। | स्वच्छ नदियों में रहना पसंद है। |
C.R. | पिग्मीहॉग | मानस वन्य जीवन अभयारण्य | विश्व का सबसे छोटा जंगली सूअर है, जो घास भूमि में रहता है। |
C.R. | उड़ने वाली नामदफा गिलहरी (Flying Squirrel) | नामदफा राष्ट्रीय उद्यान, अरुणाचल प्रदेश में पाई जाती है। | रात्रिचर तथा वृक्षों पर रहना पसंद है। |
C.R. | मालाबार सीवेट | कन्याकुमारी से कर्नाटक केदुर्ग जिले तक मुख्यतः पाया जाने वाला रात्रिचर जीव है। |
(vi) संकटापन्न (Near Threatened) – ऐसी प्रजातियाँ जिनके निकट भविष्य में संकटग्रस्त हो जाने की संभावना होती है इस श्रेणी में शामिल की जाती हैं। यथा यूरेशियन अटर (Eurasian otter) भेड़िया (Maned wolf), तेंदुआ (Leopard) व हिमालयन ताहर आदि।
(vii) संकटमुक्त (Least Concern) – इस श्रेणी की प्रजातियों को बहुत कम संकट होता है। इन्हें भविष्य में संकटग्रस्त होने की संभावना नहीं होती है। ये प्रजातियाँ बहुतायत में विस्तृत क्षेत्रों में पाई जाती हैं। नीलगाय, चिंकारा (Chinkara), काला हरिण (Black Buck), अंडमान जंगली सुअर (Andaman Wild Pig) क्रैब खाने वाला बन्दर तथा भौंकने वाला बन्दर आदि इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
वन्य जीव संरक्षण परियोजनाएँ (Wildlife Conservation Projects)
– बाघ परियोजना (Project Tiger) 7 अप्रैल, 1973 को भारत में ‘बाघ परियोजना’ का शुभारम्भ हुआ। इस योजना का उद्देश्य बाघों की गिरती संख्या को रोकना तथा पारिस्थितिकीय सन्तुलन बनाए रखने के लिए उनकी जनसंख्या में वृद्धि करना। 1 जुलाई, 2014 को बोर वन्य जीव अभयारण्य को महाराष्ट्र का छठा एवं देश का 47वाँ बाघ अभयारण्य तथा राजा जी राष्ट्रीय पार्क को उत्तराखण्ड का दूसरा (प्रथम-जिम कॉर्बेट) एवं देश का सबसे बड़ा टाइगर रिज़र्व ‘नागार्जुन सागर- श्रीशैलम’ अभयारण्य (3,296 वर्ग किमी. आन्ध्र प्रदेश) है। देश का 48वाँ बाघ अभयारण्य अधिसूचित किया गया था। फरवरी 2016 में असम के ओरंग को एवं 6 सितम्बर, 2016 को अरुणाचल प्रदेश के कमलांग (Kamlang) राष्ट्रीय पार्क को देश का क्रमशः 49वाँ एवं 50वाँ बाघ अभयारण्य घोषित किया गया। ज्ञातव्य है कि W.W.F. (World Wild Fund for Nature) एवं भारतीय वन्य प्राणी बोर्ड द्वारा 1970 में गठित एक विशेष कार्य दल की संस्तुति पर उक्त परियोजना प्रारम्भ की गई थी।
– पिछले चार वर्षों में (2014-18) बाघों की संख्या में 741 अंकों की वृद्धि हुई है, जो बाघों की कुल संख्या का 33 प्रतिशत है। ज्ञातव्य है कि वर्ष 2014 में बाघों की कुल संख्या 2226 थी, जो 2018 में बढ़कर 2967 तक पहुँच गई। अन्तर्राष्ट्रीय बाघ दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने 29 जुलाई, 2019 को बाघों के अखिल भारतीय अनुमान-2018 के चौथे चक्र के परिणाम जारी किए। बाघगणना-2018 के अनुसार मध्य प्रदेश में बाघों की संख्या सर्वाधिक (526) है।
– इसके पश्चात् कर्नाटक में 524, उत्तराखण्ड में 442, महाराष्ट्र में 312 तथा तमिलनाडु में 264 बाघ हैं। यह देश के लिए गौरव का क्षण है कि उसने बाघों की संख्या दुगुनी करने की सेंट पीटर्स बर्ग घोषणापत्र की प्रतिबद्धता को 2022 की समय सीमा से पहले ही हासिल कर लिया है। ध्यातव्य है कि छत्तीसगढ़ और मिज़ोरम में बाघों की संख्या में गिरावट देखने को मिली, जबकि ओडिशा में इनकी संख्या अपरिवर्तनशील रही। नवीन अनुमान के अनुसार अन्य प्रमुख तथ्य अधोलिखित हैं–
– रिपोर्ट के अनुसार पेंच बाघ अभयारण्य (मध्य प्रदेश) में बाघों की संख्या सबसे अधिक देखने को मिली।
– सत्यमंगलम् बाघ अभयारण्य (तमिलनाडु) को उत्कृष्ट प्रबन्ध के कारण उसे पुरस्कृत किया गया।
– देश के बाघ बहुल राज्यों में कुल 381400 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र में बाघों का सर्वेक्षण हुआ। रिपोर्ट के अनुसार, भारत में दुनिया के 70 प्रतिशत बाघ मौजूद हैं जबकि भारत में बाघों की पूरी आबादी में से 60.80% बाघ शीर्ष पाँच राज्यों में हैं।
– पर्यावरण मंत्रालय के अनुसार, ‘राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण’ (National Tiger Conservation Authority-NTCA) द्वारा उठाए गए कदम जिसके तहत विशेष बाघ संरक्षण बल का गठन, अनाथ बाघ (Cubs) के लिए विशेष कार्यक्रम, बाघों के अवैध शिकार और मानव-पशु संघर्ष और अतिक्रमण को कम करने के कारण भी बाघों की संख्या में वृद्धि दर्ज की गई है। इसके अलावा ‘M-STRIPES’ (Monitoring System for Tiger Intensive Protection and Ecological Status) भी बाघ के शिकार होने या आवास विनाश जैसी विघातक परिस्थितियों में बाघों की रक्षा हेतु महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
– दुर्लभ सफेद बाघों के लिए ओडिशा का नन्दन कानन प्राणी उद्यान प्रसिद्ध है।
– वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड (WWF) एवं ग्लोबल टाइगर फोरम (Global Tiger Forum) द्वारा संयुक्त रूप से जारी आँकड़ों के अनुसार वर्ष 2010 में जहाँ विश्व में बाघों की संख्या 3200 थी, वहीं वर्ष 2016 में यह बढ़कर 3890 हो गई है। इस प्रकार वैश्विक स्तर पर बाघों की संख्या में 22% की वृद्धि दर्ज की गई है।
– अप्रैल, 2016 में नई दिल्ली में बाघों के संरक्षण पर केंद्रित तीसरे एशियाई मंत्रिस्तरीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। ज्ञातव्य है कि बाघ संरक्षण पर प्रथम एशिया मंत्रिस्तरीय सम्मेलन वर्ष 2010 में थाइलैण्ड (हुआ हिन) में तथा द्वितीय सम्मेलन वर्ष 2012 में भूटान (थिंफू) में जबकि तीसरा सम्मेलन, 28-29 जनवरी, 2019 को नई दिल्ली में आयोजित किया गया था।
– बाघों एवं उनके प्राकृतिक आवासों के संरक्षण पर विश्व का पहला बाघ शिखर सम्मेलन वर्ष 2010 में सेंट पीटर्स बर्ग, रूस में आयोजित किया गया था।
– इस समीक्षा सम्मेलन में बाघ क्षेत्र के 13 देशों द्वारा वैश्विक बाघ पुनः प्राप्ति कार्यक्रम (Global Tiger Recovery Programme-GTRP) की स्थिति और वन्यजीव तस्करी से निपटने जैसे विषयों पर चर्चा की गई। 3 अप्रैल, 2016 को मध्य प्रदेश के सतना जिले के मुकुन्दपुर में विश्व का प्रथम ‘सफेद बाघ के रिज़र्व’ (White Tiger Safari) का उद्घाटन किया गया।
– जनवरी, 2018 में राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA : National Tiger Conservation Authority) के निर्देश पर भारतीय वन्य जीव संस्थान’ (WIL : Wildlife Institute of India) द्वारा चौथी अखिल भारतीय बाघ गणना, 2018 (All India Tiger Estimation, 2018) की शुरुआत की गई थी। ज्ञातव्य है कि ‘भारतीय वन्यजीव संस्थान’ द्वारा वर्ष 2006 से इस गणना की शुरुआत की गई थी। इसके पूर्व यह गणना वर्ष 2014 में पूरी हुई थी। वर्ष 2018 की इस गणना की मुख्य विशेषता यह है कि यह पूरी तरह से डिजिटल हुई तथा इसके लिए M-STrIPES तकनीक का प्रयोग किया गया। इसमें बाघों के साथ हरिणों और जंगली जीवों की भी गणना प्रस्तावित थी।
एक्शन टाइगर्स योजना
– बाघों के खतरे में पड़े अस्तित्व को बचाने के लिए विश्व के कई वन्य जीव संगठनों ने ‘एक्शन टाइगर्स’ नाम से एक योजना शुरू की है, जिसमें इस संकटग्रस्त जीव को बचाने के 12 तरीके सुझाए गए हैं। सरिस्का अभयारण्य से शुरू हुई यह योजना बाघों की मौजूदगी वाले सभी 12 देशों में लागू की गई है। सरिस्का से इसकी शुरुआत इसलिए की गई है क्योंकि यह वन्य जीव अभयारण्य बाघों के एकदम लापता हो जाने से सुर्खियों में आ गया था। कारणस्वरूप यह मामला संसद के शीतकालीन अधिवेशन (2007) में भी पहुँच गया था। बाघों की निरंतर कम होती संख्या को ध्यान में रखकर ही 12 देशों के वन्य जीव संगठनों से इस योजना को आरंभ किया गया।
वनाधिकार अधिनियम अधिसूचित
– 1 जनवरी, 2008 को संसद द्वारा 2006 में पारित वनाधिकार अधिनियम को अधिसूचित कर दिया गया। यह अधिनियम अनुसूचित जनजाति व अन्य परम्परागत वनवासियों को वन सम्पत्ति में अधिकार दिलाने से सम्बन्धित है। संसद के दोनों सदनों में पारित इस अधिनियम को जनवरी, 2007 में मंजूरी मिली थी।
अधिनियम के तहत वनवासियों को प्राप्त अधिकार
– 75 वर्षों से रह रहे अनुसूचित जनजातियों व अन्य परम्परागत वनवासियों को वन भूमि के अधिकार प्रदान किए गए।
– लक्षित लाभार्थियों को वनोपजों को एकत्र करने व इनके विपणन का अधिकार होगा।
– वनवासियों का वह अधिकार जो इण्डियन फॉरेस्ट एक्ट 1923 के द्वारा उनसे छीन लिया गया था, इस अधिनियम के तहत उन्हें प्रदान कर दिया गया है।
– यह अधिनियम वन्य जीव अभयारण्यों एवं राष्ट्रीय वन्य जीव उद्यानों के तहत चिह्नित क्षेत्रों पर लागू नहीं होगा।
गिद्ध संरक्षण प्रोजेक्ट
– गिद्धों की संख्या में भारी गिरावट के मद्देनजर उनके संरक्षण एवं अभिवृद्धि के लिए हरियाणा वन विभाग तथा बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी (BNHS) के बीच एक मैमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग पर सन् 2006 में हस्ताक्षर हुए थे। इसमें कहा गया था कि भारत में अधिकांश गिद्धों की मृत्यु पशुओं को दी जाने वाली ‘डिक्लोफेनेक (Diclofenac), नानस्टीरोइडल एण्टी-इनफ्लेमेंटरी ड्रग’ के उपयोग के कारण होती है।
– भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने पशुओं की दर्द निवारक दवा ‘डिक्लोफेनेक’ (Diclofenac) के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने का निर्देश दिया है।
– गुजरात में बड़ी संख्या में गिद्ध पाए जाते थे लेकिन वर्तमान में यहाँ इनकी संख्या घटकर सिर्फ 1400 रह गई है।
– पर्यावरण के संतुलन में गिद्धों की बड़ी भूमिका है। सदियों से ये गिद्ध ही मरे हुए जानवरों के अवशेषों को खा कर धरती पर पड़ी गन्दगी को खत्म करते रहे हैं, जिससे बहुत सी बीमारियाँ व संक्रमण की रोकथाम होती है।
– ज्ञातव्य है कि, 3 जून, 2016 को हरियाणा के पंचकुला जिले के पिनजौर में एशिया के पहले ‘जिप्स गिद्ध पुनरुद्धार कार्यक्रम’ (Gyps Vulture Reintroduction Programme) की शुरुआत की गई। कार्यक्रम का शुभारंभ पिनजौर, हरियाणा के ‘जटायु प्रजनन एवं संरक्षण केंद्र’ (Jatayu Conservation Breeding Center, Pinjore) से किया गया। यह केंद्र एशिया में अपनी तरह का पहला ऐसा केंद्र है जो लुप्तप्राय: प्रजातियों के संरक्षण में प्रमुख योगदान करता है। यहाँ बीमार पक्षियों (Sick Birds) की श्रेणी वाले 2 हिमालयन ग्रिफॉन (Himalayan Griffons) के साथ-साथ 8 सफेद पीठ वाले (White Backed Vulture) गिद्धों सहित कुल 10 गिद्धों को रखा गया है। सभी गिद्धों के पीठ पर ‘डमी उपगृह ट्रांसमीटर’ (Dummy Satellite Transmitters) लगाया गया है, लेकिन शीघ्र ही इनके ऊपर वास्तविक ट्रांसमीटरों को लगाया जाएगा। इन गिद्धों के लिए खान-पान के साथ-साथ इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि जानवरों को दी जाने वाली दर्द निवारक औषधि ‘डिक्लोफेनेक’ (जो गिद्धों की मृत्यु का सबसे बड़ा कारण है) का उपयोग इस केंद्र के 100 किमी. क्षेत्र के आस-पास न हो।
गिर सिंह परियोजना (Gir Lion Project)
– ‘एशियाई सिंहों का घर’ (Home of Asiatic Lion) की उपमा से प्रसिद्ध ‘गिर अभयारण्य’, जिसे 1973 में राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया; में गिर सिंह परियोजना केन्द्र सरकार की मदद से प्रारम्भ की गई। गुजरात के जूनागढ़ जिले के 1412 वर्ग किमी. क्षेत्र में स्थित यह उद्यान अब एकमात्र ऐसा उद्यान है जहाँ एशियाई शेर पाए जाते हैं।
– 2 से 5 मई के मध्य आयोजित 14वीं शेर गणना-2015 (Lion Census-2015) (10 मई, 2015 को जारी) के अनुसार गुजरात के गिर अभयारण्य में एशियाई शेरों की संख्या में 27 प्रतिशत की उत्साहजनक बढ़ोतरी दर्ज की गई है और यह वर्ष 2010 की पिछली गणना के आँकड़े 411 से बढ़कर 523 हो गई। वहीं गिर तथा इसके आसपास शेरों का निवास क्षेत्र भी पिछले पाँच वर्षों में 10 हजार वर्ग किलोमीटर से बढ़कर 22 हजार वर्ग किमी. हो गया है।
– ताजा आँकड़ों के अनुसार कुल 523 शेरों में 109 वयस्क नर शेर, 201 वयस्क मादा शेर और 213 शावक शामिल हैं। गुजरात के वन अधिकारी के अनुसार इस बार ‘प्रत्यक्ष गणना विधि’ यानी शेरों को सीधे देखकर उनकी गणना की गई है।
– इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ नेचर (International Union for Conservation of Nature-IUCN) ने कभी पूरे मध्य एशिया में फैले इन शेरों को विलुप्त हो रही, प्रजाति की सूची में रखा था।
हाथी परियोजना (Elephant Project)
– हाथी समूचे एशिया में सबसे बड़ा स्तनधारी है। हाथी के दाँत (Tusk) के श्वेत पदार्थ जैसे भाग को आइवरी कहते हैं। इस भाग से विभिन्न प्रकार के सुन्दर सामान व खिलौने बनते हैं, जिसके लोभ में शिकारी लोग अवैधानिक रूप से हाथियों का शिकार करते आ रहे हैं। फलतः हाथियों की संख्या में भारी गिरावट आ जाने के कारण केन्द्र सरकार ने इस परियोजना का प्रारम्भ वर्ष 1992 में झारखण्ड के सिंह भूमि जिले से किया था। इसका उद्देश्य हाथियों की संख्या को बढ़ाना तथा उसके प्राकृतिक आवास में उसे प्रतिस्थापित करना था। वर्तमान में यह परियोजना मुख्य रूप से 16 राज्यों/ केन्द्रशासित प्रदेशों यथा- आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, असम, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, मेघालय, नागालैण्ड, ओडिशा, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश व पश्चिम बंगाल में क्रियान्वित की जा रही है। केन्द्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा, 12 अगस्त, 2017 को पहले समन्वय आधारित अखिल भारतीय हाथी संख्या आकलन के प्रारंभिक परिणाम को जारी किया गया। इस रिपोर्ट के अनुसार देश में कुल हाथियों की संख्या 27312 है, जिसमें सर्वाधिक हाथियों की संख्या वाला राज्य कर्नाटक (6049) दूसरा असम (5719 व तीसरा केरल (3054) है। वर्तमान में देश में कुल एलीफेन्ट, रिज़र्व क्षेत्र की संख्या 32 है।
– हाथियों को संरक्षित करने के उद्देश्य से अक्टूबर, 2010 में केन्द्र सरकार ने हाथी (Elephant) को राष्ट्रीय विरासत पशु (National Heritage Animal) घोषित किया था।
– हाथियों के संरक्षण तथा उसके बेहतर प्रबन्धन के लिए केंद्र सरकार ने प्रसिद्ध पर्यावरणविद् महेश रंगराजन की अध्यक्षता में एक कार्यबल (टास्क फोर्स) का गठन किया था।
– पशुओं के अधिकारों के लिए काम करने वाली एक संस्था ‘पेटा’ (People for the Ethical Treatment of AnimalsPETA) और बन्नेरुघट्टा राष्ट्रीय उद्यान (कर्नाटक) के सहयोग से 49.5 हेक्टेयर के क्षेत्र में बेंगलुरु के पास देश का प्रथम हाथी अभयारण्य बनाया जा रहा है।
– देश में हाथियों के संरक्षण हेतु विश्व हाथी दिवस के अवसर 12 अगस्त, 2017 को केन्द्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा एक ‘गज यात्रा’ अभियान का प्रारम्भ किया गया। इस अभियान को देश में हाथियों की बहुलता वाले क्षेत्र के कुल 12 राज्यों में संचालित किया जाएगा। ध्यातव्य है कि IUCN की रेड लिस्ट में अफ्रीकी हाथियों को सुभेद्य (Valnerable) तथा एशियाई हाथियों को संकटग्रस्त (Endangered) सूची में रखा गया है।
हांगुल परियोजना
– हांगुल यूरोपियन रेन्डियर प्रजाति का एक सरल स्वभाव वाला हरिण है। यह अब केवल कश्मीर स्थित दाचीगाम राष्ट्रीय उद्यान में ही शेष बचा है। दुनिया के अन्य भागों से विलुप्त हो चुका यह जीव IUCN की रेड डाटा बुक में प्रविष्टि पा चुका है। अतः इसे संरक्षित करने एवं इसकी जनसंख्या में प्रसार हेतु 1970 में हांगुल परियोजना का शुभारम्भ किया गया।
कस्तूरी मृग परियोजना (Musk Deer Project)
– कस्तूरी केवल नर मृग में ही पाई जाती है। कस्तूरी के औषधीय गुण, सुगंध व भारी कीमत के कारण बड़ी संख्या में कस्तूरी मृग मारे जाने के कारण विलुप्त होने के कगार पर पहुँच गए। फलतः प्राकृतिक संरक्षण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय संघ (IUCN : International Union for Conservation of Nature) के सहयोग से कस्तूरी मृग परियोजना उत्तरांचल के केदारनाथ अभयारण्य में 1970 के दशक से आरम्भ की गई। कस्तूरी मृग के लिए हिमाचल प्रदेश का शिकारी देवी अभयारण्य तथा उत्तरांचल का बद्रीनाथ अभयारण्य प्रसिद्ध है। कस्तूरी मृग हिमाचल की चम्बा घाटी से लेकर सिक्किम तक के हिमालयी क्षेत्र में पाए जाते हैं।
लाल पांडा परियोजना (Red Panda Project)
– भारत के पूर्वी हिमालय क्षेत्र में 1500 से 4000 मीटर ऊँचाई पर पाया जाने वाला सीधा सादा सुन्दर जीव है। अरुणाचल प्रदेश में यह कैट बीयर (Cat Bear) के नाम से जाना जाता है। सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश तथा दार्जिलिंग के जंगलों में पाए जाने वाले इस जीव की संख्या दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही थी। अतः सन् 1996 में विश्व प्रकृति निधि (WWF) के सहयोग से पद्मजानायडू हिमालयन जन्तु पार्क ने लाल पांडा परियोजना का शुभारम्भ किया।
प्रोजेक्ट गोडावण
– विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुके “द ग्रेट इंडियन बस्टर्ड पक्षी को बचाने के लिए राजस्थान सरकार ने “प्रोजेक्ट गोडावण” नामक एक अभियान जैसलमेंर में आरंभ किया है। ऐसा अभियान आरंभ करने वाला राजस्थान देश का पहला राज्य है। कभी भारत का राष्ट्रीय पक्षी बनने की होड़ में रहने वाला ग्रेट इंडियन बस्टर्ड पक्षी की जंगलों में संख्या लगभग 200 रह गई है। राजस्थान सरकार इस पक्षी के संरक्षण व उसकी संख्या में वृद्धि हेतु राज्य स्तर पर इस योजना का क्रियान्वयन करेगी। राजस्थान में इस पक्षी को “गोडावण” कहा जाता है। ग्रेट इंडियन बस्टर्ड घासभूमि आवास की सांकेतिक प्रजाति है और इसकी विलुप्ति इस बात का संकेत है कि भारत में घासभूमि आवासों की कमी हो रही है।
गैंडा परियोजना (Rhinoceros Project)
– एक सींग वाले गैंडे (One Horned Rhinoceros) केवल भारत में पाए जाते हैं। इनके सींग की अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में भारी कीमत होती है क्योंकि उससे कामोत्तेजक औषधियाँ बनाई जाती हैं। अवैध शिकार के कारण गैंडों की संख्या में लगातार कमी होती गई। अतः इनके संरक्षण के लिए 1987 में गैंडा परियोजना आरम्भ की गई। गैंडों के लिए असम के मानस अभयारण्य व काजीरंगा उद्यान तथा पश्चिम बंगाल का जाल्दा पारा अभयारण्य गैंडों की मुख्य शरणस्थली है।
घड़ियाल प्रजनन परियोजना (Crocodile Breeding Project)
– घड़ियालों की गिरती जनसंख्या को देखते हुए 1975 में भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) की सहायता से ओडिशा के तिकरपाड़ा स्थान से घड़ियाल प्रजनन योजना का शुभारम्भ किया। इसका उद्देश्य खारे पानी के मगरमच्छों जो वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची 1 के तहत अंकित हैं, उनकी संख्या में वृद्धि करना था। बाद में इस परियोजना का विस्तार उत्तर प्रदेश में कुकरैल (लखनऊ), राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, अंडमान, असम, बिहार एवं नागालैण्ड में भी किया। इसके परिणामस्वरूप इनकी संख्या बढ़ रही है।
– हाल ही में सुंदरवन में ‘भागबतपुर मगरमच्छ परियोजना’ काफी चर्चा में रही। इसका कारण था ‘हर्पेटोलॉजी’ (Herpetology) के प्रख्यात विशेषज्ञों की मदद से इस परियोजना की नई शुरुआत की गई। इन विशेषज्ञों ने मगरमच्छों के संरक्षण के लिए विश्व के सर्वोत्तम तरीकों का इस्तेमाल किया है। यह परियोजना सुंदरबन में मुख्यभूमि से दूर स्थित निर्जन द्वीप ‘लोथियन द्वीप’ के समीप स्थित है।
देश का पहला डॉल्फिन रिज़र्व
– 8 अक्टूबर, 2015 को कोलकाता के वन्य जीव बोर्ड के अधिकारियों द्वारा यह निर्णय लिया गया कि गंगा नदी में रहने वाली संकटग्रस्त डॉल्फिनों के संरक्षण के लिए पश्चिम बंगाल में माल्दा और सुन्दरवन के बीच हुगली नदी में जल्दी ही देश का पहला सामुदायिक रिज़र्व खोला जाएगा।
– भारत में डॉल्फिनों की संख्या लगभग 2000 होने का अनुमान है। इसे ‘गंगा के टाइगर’ (Tiger of Ganga) के रूप में जाना जाता है और ये उसी प्रकार पारिस्थितिकी तंत्र के लिए महत्त्वपूर्ण हैं, जैसे जंगल के लिए शेर। भारत में डॉल्फिन की जो प्रजातियाँ पाई जाती हैं वे हैं इरावदी डॉल्फिन और गंगा नदी की डॉल्फिन। पश्चिम बंगाल में ये दोनों डॉल्फिन पाई जाती हैं। इरावदी डॉल्फिन को संरक्षित करने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं।
– डॉल्फिन्स को आमतौर पर नदी की सुरक्षा के लिए बायो मॉनिटरिंग टूल के तौर पर देखा जाता है।
– ‘संयुक्त राष्ट्र प्रवासी जीव संरक्षण समिति” द्वारा वर्ष 2007 को डॉल्फिन वर्ष घोषित किया गया था।
– उल्लेखनीय है कि डॉल्फिन को केन्द्र सरकार ने 5 अक्टूबर, 2009 को राष्ट्रीय जलीयजीव घोषित किया है।
– बिहार सरकार ने 5 अक्टूबर को बिहार में “नेशनल डॉल्फिन डे” मनाने का निश्चय किया है।
– राष्ट्रीय जलजीव डॉल्फिन (स्तनधारी) मछलियों की घटती तादाद के मद्देनजर बिहार सरकार ने इनके संरक्षण तथा इस पर विस्तृत अध्ययन करने के लिए पटना विश्वविद्यालय में एक डॉल्फिन अनुसंधान केन्द्र स्थापित करने का निर्णय लिया है। यह अनुसंधान केन्द्र डॉल्फिन मछलियों की देखभाल से जुड़ा एशिया का पहला संरक्षण केन्द्र होगा।
– प्राकृतिक संरक्षण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय संघ (IUCN) द्वारा गंगा की डॉल्फिन (सूंस) को संकटापन्न प्रजाति के अंतर्गत रखा गया है और इसे भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 के अन्तर्गत संरक्षित प्रजाति घोषित किया गया है।
बंधित प्रजनन (Captive Breeding)
– किसी वन प्राणी की प्रजाति के सदस्य को पकड़ना तथा उसे विशेषज्ञों की देख-रेख में पालना एवं प्रजनन करवाना बंधित प्रजनन कहलाता है। इस प्रक्रिया के माध्यम से जब किसी जीव की प्रजातियों की संख्या चिन्ताजनक स्तर तक कम हो जाती है तो उस प्रजाति की संख्या में वृद्धि की जा सकती है।
– भारत में अलीनगर अन्ना जैविक उद्यान, मैसूर चिड़िया घर एवं मैसूर वन्य जीव अभयारण्य में शेर आदि बंधित प्रजनन (Captive Breeding) के उदाहरण हैं।
विश्व विरासत संधि (World Heritage Treaty)
– यह संधि वैश्विक महत्त्व के पर्यावरणीय स्थल को संरक्षित करने के उद्देश्य से वर्ष 1972 में कार्यान्वित की गई थी। भारत ने इस संधि पर 18 अक्टूबर, 1976 को हस्ताक्षर किया तथा 1977 में इसे अपना अनुमोदन प्रदान किया। इस संधि के अनुसार भारत के 7 प्राकृतिक स्थलों को विशिष्ट वैश्विक महत्त्व के स्थल के रूप में भी चिह्नित किया गया है। ये स्थल हैं काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान (असम, 1985) केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान (राज., 1985) मानस राष्ट्रीय उद्यान (असम, 1985)।
राष्ट्रीय जीव
राष्ट्रीय पशु – बाघ (Tiger)
राष्ट्रीय विरासत पशु – हाथी (Elephant)
राष्ट्रीय पक्षी – मयूर (Peacock)
राष्ट्रीय जलीय जीव – गंगा डॉल्फिन
राष्ट्रीय फल – आम (Mango)
राष्ट्रीय वृक्ष – बरगद (Banyan)
राष्ट्रीय पुष्प – कमल (Lotus)
राष्ट्रीय नदी – गंगा
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