पशु स्वास्थ्य व बीमारियां
¨ चिकित्सा विज्ञान की परिभाषा – विज्ञान की वह शाखा जिसमें किसी रोग का पता लगाकर रोगों के इलाज, रोकथाम तथा नियंत्रण का अध्ययन किया जाता है अथवा विज्ञान की वह शाखा जिसका संबंध रोगों की पहचान, निदान, इलाज और रोकथाम से हो, उसे चिकित्सा विज्ञान कहते हैं।
पशु चिकित्सा विज्ञान का पिता (Father of Veterinary Medicine) – रीनेटस वेजेटियस
चिकित्सा विज्ञान का पिता – हिपोक्रेटस
● Preventive Medicine – पशु चिकित्सा विज्ञान की वह शाखा जिसके अन्तर्गत पशुओं में फैलने वाली संक्रामक बीमारियों का कारण, लक्षण, उपचार व बचाव आदि का अध्ययन किया जाता है। जैसे – विषाणु जनित रोग, जीवाणु जनित रोग, प्रोटोजोआ जनित रोग आदि।
● Clinical Medicine – पशु चिकित्सा विज्ञान की वह शाखा जिसके अन्तर्गत पशुओं में तंत्र से संबंधित बीमारियों का अध्ययन जैसे कारण, निदान, उपचार व बचाव के संबंध में उपचार किया जाता है। जैसे – मेटाबॉलिक रोग, आनुवंशिक रोग व विटामिन से संबंधित रोग आदि।
क्र. सं. | स्वस्थ्य पशुओं के लक्षण | रोगी पशुओं के लक्षण |
1. | पशु शरीर का तापमान सामान्य | शरीर का तापमान अधिक या कम। |
2. | पशु के उठ़ने–बढ़ने, चलने व चरने की क्रिया सामान्य। | उठ़ने–बढ़ने में तकलीफ तथा पशु लंगड़ा कर चलता है। |
3. | पशु जुगाली सामान्य करता है। | पशु जुगाली नहीं करता है तथा मुंह से लार गिरती है। |
4. | पशुओं के पेशाब का रंग हल्का पीला व पानी जैसा तथा पेशाब में दुर्गंध नहीं आना | पेशाब का रंग गहरा पीला या लाल तथा पेशाब से दुर्गंध |
5. | दुधारू पशुओं का दूध उत्पादन सामान्य रहता है तथा दूध की गुणवत्ता भी सामान्य रहती है। | दुध उत्पादन में कमी तथा दूध की गुणवत्ता में गिरावट आती है। |
6. | पशु की आवाज सामान्य व पशुओं का स्वभाव भी सामान्य रहता है। | आवाज व व्यवहार में परिवर्तन होता है। |
7. | पशु की श्वसन क्रिया एवं श्वसन गति सामान्य रहती है। | पशु की श्वसन क्रिया एवं श्वसन गति सामान्य नहीं रहती है। |
पशु स्वास्थ्य से संबंधित सामान्य व्याधियाँ–
1. पेचिस (Dysentery)- खूनी पेचिस, खूनी दस्त, लाल पेचिस
– यह एक प्रोटोजोआ जनित रोग है जो गर्मी के दौरान अधिक होता है।
– इस रोग का कारक – कोकसीडियम जरनाई या इमेरिया जरनाई
– इस रोग का परजीवी गोबर में पाया जाता है जो बड़ी आंत को संक्रमित करता है।
– पशु में यह रोग होने पर पशु को दस्त लगती है तथा यह रोग छोटे पशुओं में वह कुक्कुट के बच्चों में ज्यादा होता है।
2. आफरा (Tympanites, Blot) – यह पशुओं में पेट से संबंधित रोग है जो पशु द्वारा गीला–हरा चारा, सड़ा हुआ चारा व दाना खाने से पशु का पेट फूल जाता है तथा गैस भर जाती है। पशु के पेट को बाई ओर से थप–थपाने पर ढोल जैसे आवाज आती है।
– पशु को कठिनाई होती है तथा कभी–कभी पेट में गैस अधिक भरने से पशु की मृत्यु हो जाती है
– उपचार
– पशु को तुरन्त, हींग 11.5 ग्राम, तारपीन का तेल 58 ग्राम, मीठा या अलसी का तेल 650 ग्राम दे।
– पशु के बाईं तरफ रूमन के बीचों-बीच ट्रोकार कैनुला घुसा कर कैनुला की मदद से गैस को बाहर निकालते हैं।
– किण्वीकरण रोकने के लिए तपारपीन का तेल कैनुला के छिद्र से ही रूमन में डाल देना चाहिए। ऐसा करने से गैस बनना बन्द हो जाती है।
– लाइकोपोडियम 200- पशु के दांयी तरफ के आफरे की यह उत्तम दवा है, इसमें पेट में बहुत वायु बनती है, खाने के थोड़ी देर बाद पेट फूलने लगता है।
– चाइना 200 – यदि पूरे पेट में आफरा है, पशु कमजोर है तो इसका प्रयोग करें।
– नक्सवोम 30 – पशु बार-बार गोबर करने का प्रयास करता हो तो इसका प्रयोग करें।
3. कब्ज (Constipation) – यह पशुओं में सामान्य रोग है।
– इसमें पशुओं का चारा ठीक प्रकार से नहीं पचता है जिससे पशुओं को कब्ज हो जाती है। जिससे पशु द्वारा सक्त गोबर करना व पशु का सुस्त रहना आदि लक्षण दिखाई देते हैं।
उपचार
– अलसी, अरण्डी और तिल का तेल बराबर मात्रा में मिलाकर 600 ग्राम की मात्रा तैयार करें और उसमें 80 ग्राम सौंठ मिलकर पशुओं को एक खुराक में दे।
4. घाव (Wound) –
(i) खुला घाव – शरीर के किसी भी भाग पर चोट लगने से ऊत्तकों का नष्ट हो जाना एवं रक्तवाहिनियों के फट जाने से यह घाव होता है। इस प्रकार के घाव दुर्घटना से तेज धारदार या नुकीले औजार से, किसी पदार्थ से टकराने से हो जाता है। ताजे घाव से खून निकलता है यदि इस प्रकार के घाव की ठीक तरह से देखभाल न की जाए तो घाव सड़ जाता हैँ घाव पर मक्खियाँ बैठने पर उसमें कीड़े भी पड़ जाते हैं। अत: ताजे घाव का शीघ्र उपचार करने पर जल्द भर जाता है।
(ii) खरोंच (Abration) :- यह किसी वस्तु से रगड़ खाने, टकराने, कटीली झाड़ियों से तारबंदी से रगड़ खाने से या गिरने से होते हैं। इसमें त्वचा की सूक्ष्म रक्तवाहिनियाँ फट जाती हैं। खरोंच घाव बहुत ही दर्द युक्त होता है एवं कई बार ऊतकों के बीच द्रव्य इकट्ठा हो जाता है जिसमें घाव में सूजन पैदा हो जाती है।
5. मोच (Sprain) :- यह पशु द्वारा कुदने से, फिसलने से तथा पशु का आपस में लड़ने से चोट लगती है जिससे मोच आ जाती है। मोच साधारणतया शरीर के जोड़ों पर विशेषकर टांग में आती है। इसमें मांसपेशियाँ, स्नायु या टेन्डन पर चोट आती है या ये अपने स्थान पर से हट जाते हैं। मोच के स्थान पर सूजन आती है जिससे पशु लगड़ा कर चलता है।
उपचार– मोच के स्थान पर नमक या बोरिक एसिड से मिले गुनगुने पानी से सेक करें।
6. दाह (Burn) – पशु आवास में आग लग जाने से गर्म पानी से या रासायनिक घोल से जल जाता है। जिससे फफोल पड़ जाते हैं एवं फफालों के फूटने पर उसमें से द्रव्य निकलता है एवं घाव हो जाता है।
7. भोजन में विषाक्तता – पशु आहार में कुछ हानिकारक पदार्थ पाए जाते हैं जिससे पशु–आहार विषैला हो जाता है तथा पशु द्वारा विषाक्तता युक्त आहार खाने–से पशु के शरीर में जहर फैल जाता है।
उदाहरण
(i) गोसीपोल – यह बिनौले या बिनौले की खल में पाया जाता है। मुर्गियों के आहार में 0.015 प्रतिशत मात्रा भी हानिकारक होती है। बिनौले को उबालने पर इसका जहरीला प्रभाव कम हो जाता है।
(ii) सायनोजेनेटिक ग्लूकोसाइड – ये कुछ ऐसे पदार्थ हैं। जैसे – ज्वार में धुरीन जिनका कुछ इन्जाइम द्वारा हाइड्रोलायसिस होने पर हाइड्रोसायनिक अम्ल बनता है यह हाइड्रोसाइनिक अम्ल सूक्ष्म मात्रा में ही बहुत हानिकारक होता है। अगर हरी ज्वार में धुरीन हो तो आहार में ज्वार की मात्रा 3% से अधिक नहीं होनी चाहिए।
(iii) अफ्लाटोक्सिन – यह विषाक्ता मूँगफली की खल में Aspergillus flavis से होती है।
¨ शब्दावली (Terminology) :-
A. समयावधि के अनुसार रोगों का वर्गीकरण –
i. Peracute – वे रोग, जिनके लक्षण तुरंत प्रकट होते हैं, अतिउग्र रोग (Peracute) कहलाते हैं। इसमें अचानक से रोग के लक्षण प्रकट होते हैं जिससे पशु की मृत्यु हो जाती है।
जैसे – एन्थ्रैक्स (Anthrax)
ii. Acute – कुछ रोगों के लक्षण तुरंत प्रकट नहीं होते हैं। लेकिन कुछ समय बाद तेजी से दिखते हैं, उसे उग्र रोग (Acute) कहते हैं। जैसे – गलघोंटू/लंगड़ी बुखार, रिन्डरपेस्ट
iii. Subacute – वे रोग जिनके लक्षण कुछ दिन बाद (15-30 दिन) प्रकट होते हैं व इनकी अवधि भी लम्बी होती है, उपउग्र रोग (Subacute) कहलाते हैं। जैसे – मेस्टाईटिस, FMD
iv. चिरकालीन रोग (cronic) – इन रोगों के लक्षण देरी से प्रकट होते हैं व इनके उपचार व ठीक होने में भी बहुत अधिक समय लगता है।
जैसे – क्षयरोग, जोहन्स रोग, ब्रुसेलोसिस।
B. क्षेत्र के आधार पर रोगों का वर्गीकरण :-
i. विकीर्ण रोग (Sporodiac/Sporadic) – वह रोग जो किसी एक पशु तक सीमित रहता है तो इसे विकीर्ण रोग कहा जाता है, जैसे – पागलपन (रेबीज), कान दर्द, पेट दर्द।
ii. Endemic/Enzootic – यदि रोग कुछ स्थानीय जगह पर ही पाया जाता है तो इसे स्थानीय रोग (Endemic/Enzootic) कहा जाता है। यह रोग जिला स्तर तक फैलता है। जैसे- लगड़ी बुखार, एन्थ्रेक्स
iii. Epidemic/Epizoatic – यदि कोई रोग वृहत स्तर/राज्य स्तर तक फैलता है तो इसे एपीडेमिक रोग (epidemic/epizoatic) कहा जाता है। जैसे- खुरपका-मुँहपका रोग, पशुमाता
iv. Pandemic/Panzootic – यदि कोई रोग महामारी के रूप में अर्थात् पूरे देश या विश्व में फैलता है तो इसे Pandemic/Panzootic रोग कहा जाता है। जैसे- कोरोना, L.S.D, बर्ड फ्लु, स्वाईन फ्लु, इन्फलूएंजा
v. देशी रोग (Indigenous) – यह देशी नस्लों में होता है व एक विशेष क्षेत्र तक सीमित रहता है।
vi. विदेशी रोग (Exotic) – यह रोग विदेशी नस्लों में होता है। जैसे – दक्षिण अफ्रीका अश्व बीमारी।
C. कारक के आधार पर रोगों के प्रकार –
i. संसर्ग रोग (Contagius disease) – इसे छूत की बीमारी भी कहते हैं ऐसे रोग एक पशु से दूसरे पशु में सम्पर्क में आने से फैलते हैं। जैसे- खुरपका-मुँहपका रोग, पशुमाता रोग, गलघोंटू (हिमोरेजिक सेप्टीसेमिया), ब्रुसेलोसिस (पशु से मानव), कोरोना (मानव से मानव)
ii. संक्रामक (Infectious) – ऐसे रोग जीवाणु, विषाणु, प्रोटोजोआ व परजीवी द्वारा फैलता है। खुरपका-मुँहपका, जोहन्स रोग, क्षय रोग
iii. असंक्रामक (Non Infectious) – ये रोग रोगाणु से नहीं फैलता है अर्थात् ये रोग तंत्रिका तंत्र से संबंधित है। जैसे – उपापचयी रोग, विटामिन, मिनरल आदि।
D. उत्त्पति के आधार पर रोगों का वर्गीकरण–
i. आनुवंशिक रोग (पैतृक रोग)- इस प्रकार का रोग पशुओं में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी (माता-पिता से सन्तान) में फैलता है। जैसे- हीमोफिलिया रोग, मिर्गी आदि।
ii. जन्मजात रोग (Congenital)- इस प्रकार का रोग पशु के जन्म के समय ही उपस्थित होता है। जैसे- क्षय रोग, Atresia ani (पशु की गुदा मार्ग का खुला नहीं होना), शरीर में चोट लगने से।
iii. अर्जित रोग (Acquired Disease) – पशु शरीर में जन्म से मृत्यु तक होने वाले रोग। जैसे- पशुमाता रोग, खुरपका-मुँहपका रोग
उपापचयी रोग
– कई बीमारियाँ किसी रोगाणुओं से नहीं होती हैं तो इन्हें अन्य या मेटाबोलिक (उपापचयी) बीमारियाँ कहा जाता है।
जैसे – विटामिन की कमी (बेरी-बेरी/रिकेट्स/स्कर्वी, रंतोधी), कैल्सियम की कमी (Milk Fever) – दुग्ध बुखार, यूरीन में रक्त (P की कमी)
– मेस्टाइटिस (Mastitis) (थनेला) – Bacterial & Managemental
1. स्थानीय रोग (Local Disease) :-
– यह रोग कुछ विशेष अंगों तक सीमित होता है। इनका पूरे शरीर में प्रभाव नहीं देखा जा सकता।
जैसे – कान दुखना, हृदय की धड़कन का बढ़ना।
2. सामान्य रोग (General Diease) :-
– इस प्रकार के रोग में पूरे शरीर पर रोग का असर होता है।
जैसे – बुखार आना, चक्कर आना।
¨ नाड़ी दर (पल्स रेट) :-
– धमनियों में रक्त का दाब अधिक पाया जाता है व शिराओं में कम। अत: पशुओं में नाड़ी दर धमनियों से ज्ञात की जाती है।
– गाय, भैंस में नाड़ी दर कॉक्सीजियल (Coccygeal)/पूच्छ धमनी से ज्ञात की जाती है।
– छोटे जानवरों में (भेड़, बकरी, कुत्ता) पीछे के पैर के ठीक बीच में Fermoral artery (फिमोरल धमनी) से।
– घोड़े में नाड़ी दर Maxillary या फेशियल धमनी (Facial artery) से ज्ञात की जाती है।

पशुओं की नाड़ी दर
ट्रिक | पशु का नाम | नाड़ी दर/प्रति मिनट |
उ | ऊँट | 28-32 |
घो | घोड़ा | 32-40 |
भे | भैंस | 40-45 |
गा | गाय | 40-50 |
(सूरज घणा)S/G | भेड़/बकरी | 70-80 |
सूतों | सूअर | 60-80 |
मुर्गो देखो | मुर्गा | 200-400 |
नोट –
कुक्कुट – 200-400 नाड़ी गति प्रति मिनट।
ऊँट – 28-32 नाड़ी गति प्रति मिनट।
– क्रिटिकल तापमान सामान्य ताप से 2 oF अधिक होता है जो सामान्य स्थिति होती है।
– सूअर में क्रिटिकल ताप 1oF से अधिक होता है।
पशुओं में तापमान
क्र.सं. | पशु का नाम | औसत तापमान F | औसत तापमान C | क्रिटिकल तापमान |
1. | ऊँट | 99°F | 38°C | 101°F |
2. | घोड़ा | 100.5°F | 38.5°C | 102.5°F |
3. | भैंस | 101°F | 38.5°C | 103.5°F |
4. | गाय | 101°F | 38.5°C | 103.5°F |
5. | भेड़/बकरी | 102°F | 39°C | 104°F |
6. | सूअर | 103°F | 39°C | 104°F |
7. | मुर्गा | 107°F | 42°C | 108°F |
पशुओं में श्वसन दर
ट्रिक | पशुओं की जाति | श्वसन प्रति मिनट |
उ | ऊँट | 5-7 |
घो | घोड़ा | 8-16 |
भे | भैंस | 8-18 |
गा | गाय | 20-25 |
(सूरज घणा)S/G | भेड़/बकरी | 12-20 |
सूतों | सूअर | 16-18 |
मुर्गो देखो | मुर्गा | 15-30 |
ट्रिक | पशुओं की जाति | नाड़ी दर/प्रति मिनट | श्वसन प्रति मिनट | औसत तापमान F |
उ | ऊँट | 28-32 | 5-7 | 99°F |
घो | घोड़ा | 32-40 | 8-16 | 100.5°F |
भे | भैंस | 40-45 | 8-18 | 101°F |
गा | गाय | 40-50 | 20-25 | 101°F |
(सूरज घणा)S/G | भेड़/बकरी | 70-80 | 12-20 | 102°F |
सूतों | सूअर | 60-80 | 16-18 | 103°F |
मुर्गो देखो | मुर्गा | 200-400 | 15-30 | 107°F |
नोट –
– टेकीकार्डिया (Tachycardia) – हृदय दर का सामान्य से अधिक होना।
– ब्रेडिकार्डिया (Bradycardia) – हृदय दर का सामान्य से कम होना।
– हाइपोथर्मिया (Hypothermia) – शरीर का तापमान सामान्य से कम होना।
– हाइपरथर्मिया (Hyperthermia) – शरीर का तापमान सामान्य से अधिक होना।
– टेकीप्नीया (Tachypnea) – श्वसन दर का सामान्य से अधिक हो जाना।
– ब्रेडिप्नीया (Bradypnea) – श्वसन दर में कमी हो जाना।
– एप्नीया (Apnea) – श्वसन का बन्द हो जाना।
– डिस्प्नीया (Dyspnea) – श्वसन में कठिनाई।
जीवाणु जनित रोग
क्र.स. | रोग का नाम | रोग काउपनाम | रोग कारक |
1. | एन्थ्रेक्स | गिल्टी रोग तिल्लीबुखार, जहरी बुखार | बेसिलस एंथ्रेसिसBacillus anthracis |
2. | लंगड़ा बुखार (Black Quarter) | ब्लैक लेग, जहरबाद, चुर्चरिया, लगड़ी बुखार | क्लोस्ट्रोडियम शोवियाईClostridium chauvoei |
3. | गलघोटू, (H.S.)Hemorrhagicsepticemia | पाश्चुरेला, शिपिंग फिवर, घुर्रका रोग,नाविक रोग, स्टोकयार्ड रोग | पाश्चुरेला मल्टोसिड़ा(रूमन्थी पशुओं में)Pasteurella multocida |
4. | ऐन्टेरोटोक्सिमिया(Enterotoxaemia) | फड़किया, PulpyKidney disease | क्लोस्ट्रीडियम परफ्रीन्जेन्सClostridiumPerfringensType -D |
5. | मेस्टाइटिस(Mastitis) | थनैला | स्ट्रेप्टोकोकस एगलेक्शिया, माइकोप्लाज्मा |
6. | ट्यूबरकुलोसिस(T.B.Tuberculosis) | मोती रोग Pearls Disease | माइकोबैक्टीरियम बोविसMycobacteriumbovis |
7. | ब्रूसेलोसिस(Brucellosis) | बैंग्स रोग, माल्टा फीवर, कंटेजियस,एर्बोसन | ब्रुसेला एबोर्टस ब्रुसेला केनिस (Brucellaabortus) Brucella canis |
8. | टिटेनस | धनुष टंकार, लकड़ीजैसा घोड़ा Locked Jaw | क्लोस्ट्रिडियम टिटनीClostridium tetani |
AB HEMT BT Trick – अब हिम्मत बहुत है। |
जीवाणु जनित रोगों का विवरण –
- एंथ्रैक्स (Anthrax) :-

– यह जीवाणु जनित रोग है जो Bacillus Anthracis (बेसिलस एंथ्रेसिस) जीवाणु से फैलता है।
– यह रोग मुख्यत: गाय, भैंस, भेड़ व बकरी में फैलता है।
– यह रोग पशुओं में तेजी से व लंबे क्षेत्र में फैलता है।
– इस रोग का मुख्य लक्षण प्राकृतिक छिद्रों (नाक, कान, गुदा, योनि) से रक्त स्रवण होता है। रक्त गहरे भूरे व काले रंग का होता है।
– एंथ्रेक्स रोग को तिली (Spleen) बुखार या जहरी बुखार भी कहा जाता है।
– यह रोग अचानक तेजी से फैलता है। (अतिउग्ररोग Peracute) व इनकी प्रकृति Zoonotic (जूनोटिक) – पशु से मानव व Contagious (पशु से पशु में) होती है।
– यह रोग मक्खी या मच्छरों से एक पशु से दूसरे पशु में फैलता है।
– इस रोगाणु के छोटे-छोटे बीजाणु (Spore) बनते हैं जो तेजी से फैलते हैं।
– यह मिट्टी में कई वर्षों तक सुरक्षा कवच बनाकर जीवित रह सकते हैं। अत: इसे मिट्टी जनित रोग भी कहा जाता है।
– भेड़ों में एंथ्रेक्स रोग में ऊन के रेशे छोटे हो जाते हैं। अत: इसे ‘wool shorter disease’ रोग भी कहा जाता है।
– इस रोग में रक्त प्लीहा एवं उत्तकों को अधिक नुकसान होता है।
– इस रोग में शरीर का तापमान 105-107oF तक हो जाता है अर्थात् उच्च बुखार होता है।
– 72-80 घंटे के भीतर पशु का इलाज नहीं करने पर अचानक से पशु की मृत्यु हो जाती है। मृत्यु के समय पशु शरीर का तापमान 98oF तक कम हो जाता है व अंत में खूनी दस्त लगती है।
– यदि पशु गर्भित है तो गर्भपात हो जाता है।
– भेड़ व बकरियों में इस रोग में सांस लेने में अत्यंत कठिनाई व गले में सूजन होने से पशु दाँतों को किटकिटाता है।
¨ उपचार –
S – 1 Suphamidine (सल्फाडीमिडिन) – 10 ml अंत:शिरा (I/V)
T – 2 Tysin (टायसिन) – 15 ml अंत:पेशी (I/M)
D – 3 Dexona (डेक्सोना) (Last) – 3 ml अंत:पेशी (I/M)
– इसके बचाव के लिए प्रतिवर्ष जून माह में एंथ्रैक्स स्पोर वैक्सीन 1 ml अंत:त्वचीय (S/C) लगाते हैं।
– इस रोग में बीजाणुओं के फैलने का डर होता है। अत: पोस्टमार्ट्म नहीं करनी चाहिए व इसकी खाल बिना उतारे जमीन में 5 फीट गहराई में गाड़ देनी चाहिए।
– आसपास फैले स्राव व मिट्टी को जला दे व मृत पशु के रहने की जगह को फिनाईल से साफ करे।

2. B.Q. (Black Quarter) (लगड़ी बुखार) :-

– यह एक जीवाणु जनित रोग है जो क्लोस्ट्रीडियम शोवियाई (Clostridium choive) जीवाणु द्वारा फैलता है।
– स्थानीय भाषा में इसे जहर बाद, चुर्चरिया, फड सूजन व लगड़ी बुखार भी कहा जाता है।
– इस रोग में शरीर में जहर फैल जाता है। अत: इसे जहर बाद रोग कहा जाता है।
– चार माह से तीन वर्ष के पशु इस रोग से अधिक ग्रसित होते हैं।
– इसमें गर्दन, कंधे व पीछे वाले पैरों के ऊपर (फड़ सूजन) पुठे में सूजन होती है। अत: इसे फड़ सूजन भी कहा जाता है।
– यह रोग पशुओं में बरसात के मौसम में अधिक होता है।
– फड़ में सूजन व दर्द होने के कारण पशु लंगड़ाने लगता है जिससे इसे लगड़ी बुखार भी कहा जाता है।
– यह रोग दूषित जल, चारे से फैलता है। कहीं बार घाव के माध्यम से इनके जीवाणु शरीर में प्रवेश कर जाते हैं तथा जहर (विष) पैदा करता है। इस जहर के प्रभाव से रक्त कोशिकाएँ व मांसपेशियाँ सड़ने लगती है जिससे रक्त व ऊतक काले रंग के हो जाते हैं व सड़ने से इनमें बदबू उत्पन्न हो जाती है।
– यदि गर्दन व पुठे पर कट लगाया जाए तो काला बदबूदार रक्त/द्रव बाहर निकलता है जो इस रोग की एक विशेष पहचान है।
– इस रोग के संक्रमण से पशु को तेज बुखार (104-106oF) आता है।
– पशु खाना पीना बंद कर देता है तथा पूरे शरीर में जकड़न पैदा होती है।
– इस रोग का जीवाणु मिट्टी में कवच बनाकर लम्बे समय तक जीवित रहता है।
¨ उपचार –
i. इस रोग में प्रेडनीसोलोन के 15mlइंजेक्शन अंत:पेशी दिए जाते हैं। यह सूजन को कम करता है।
ii. इसमें पेनिसिलीन (P.P.F. – प्रोकेन पेनिसिलीन फोर्ट) के 80 लाख यूनिट के 10ml इंजेक्शन लगाए जाते हैं।
iii. इसमें 10ml डेक्सोना के अंत:पेशी इंजेक्शन दिए जाते हैं। यह स्टीरॉयड (Steroid) होते है जो शरीर में ताकत व उत्तेजना उत्पन्न करते हैं।
iv. बुखार उतारने के लिए निमोवेट इंजेक्शन 15ml अंत:पेशी दिया जाता है।
Tricks – प्रेपडेनी
v. इस रोग से बचाव के लिए प्रतिवर्ष जून माह में B.Q. का 5ml अंत:पेशी टीका लगाया जाता है।
vi. अभी वर्तमान में B.Q. के साथ H.S. का टीका संयुक्त रूप से 2ml उपत्वचीय लगाया जाता है।
vii. H.S.+B.Q.+FMD का टीका 2ml गहरा उपत्वचीय (Deep S/C) दिया जाता है।

3. गलघोटू (Heamoragic Septicemia) :-

– यह रोग गाय, भैंस, भेड़ व बकरी में होने वाला घातक जीवाणु जनित रोग है।
अन्य नाम- पाश्चुरेला, शिपिंग फिवर, घुर्रका रोग,नाविक रोग, स्टोकयार्ड रोग
– गले में भारी सूजन (सबमेन्डी बुलर इडेमा) होने से पशु को ऐसा लगता है जैसे उसका गला घोटा जा रहा है जिससे इस रोग को गलघोटू रोग कहा जाता है।
– यह रोग पशुओं में मुख्यत: वर्षा ऋतु में अधिक होता है।
– इस रोग में पशु की श्वसन क्रिया के दौरान घुर्र-घुर्र की ध्वनि आती है। अत: इसे घुर्रका रोग भी कहा जाता है।
– इस रोग का जीवाणु शरीर में प्रवेश कर विष पैदा करता है जिसके कारण पूरे शरीर में टोरमिया हो जाता है जो पशु की मृत्यु का मुख्य कारण है।
– यह रोग पशुओं में लम्बी यात्रा के दौरान अधिक पाया जाता है जिससे इसे Shiping Fever कहा जाता है।
– यह रोग 5-6 महीने से 2 साल तक अधिक पाया जाता है व दो साल के पश्चात् इसकी संभावना कम हो जाती है।
– इसमें पाश्चुरेला की विभिन्न जातियाँ रोग फैलाती है, जैसे- गायों में, पाश्चुरेला बोवीसेप्टीका, भैंसों में पाश्चुरेला बुबेलस सेप्टीका, भेड़ों में पाश्चुरेला ओवीस।
– इस रोग में पशु को तेज बुखार 104-106oF तक होता है। शरीर में अत्यधिक कम्पन्न होता है। गले के नीचे व अगले पैरों के बीच में (गलकम्बल) भारी व कठोर सूजन आ जाती है जिससे सांस लेने में कठिनाई आती है व सांस की ध्वनि घुर्र-घुर्र आती है, आँखें लाल व सूज जाती है।
– इस रोग का पशुओं में एक बार लक्षण दिखाई देने पर मृत्यु दर 80-90% तक रहती है।
– यदि पशु का समय पर इलाज नहीं किया जाए तो 48-72 घंटे के भीतर पशु की मृत्यु हो जाती है।
¨ उपचार –
– इस रोग के उपचार में निम्न दवाइयाँ दी जाती हैं-
1. प्रेडनीसोलोन (Prednisolone) – 10-15 ml अंत:पेशी
2. सल्फामिडीन – 30 ml/50kg शरीर भार – अंत:शिरा
3. Dexona (डेक्सोना) – 10-15 ml
4. निमोवेट – 10 ml
5. Oxy tetra cycline ऑक्सी-टेट्रासाइक्लिन (OTC) – 20-30ml अंत:पेशी
Tricks – प्रेसडेनी
¨ टीकाकरण –
– प्रतिवर्ष मई-जून महीने में में H.S. का टीका लगाते हैं।
– H.S. पहला टीका पशुओं में 6 माह की उम्र में लगाते हैं।

- फड़किया (Enterotoximia) :-

– यह जीवाणु जनित रोग है जो क्लोस्ट्रीडियम परफ्रीन्जेन्स जीवाणु (Clostridium Perfrigens) से होता है।
– फड़किया रोग भेड़-बकरियों में खतरनाक बीमारी होती है। बड़े पशुओं में यह रोग कम पाया जाता है व इस रोग का अधिक असर भी नहीं होता है।
– E.T. के 5 स्ट्रेन पाए जाते हैं जिसमें से ‘D’ स्ट्रेन सबसे खतरनाक होता है।
– E.T. – A, B, C, D, E (स्ट्रेन)
– FMD – O, A, C, Asia, Sat 1/2/3
– यह रोग संक्रमित दाने, चारे व दूषित जल के माध्यम से जीवाणु आँतों में फैलता है।
– इस रोग में पशु के पाचन तंत्र में जहर फैल जाता है। पेट में आफरा के लक्षण दिखाई देते हैं।
– पशु अत्यन्त बैचेन हो जाता है। कई बार पेट दर्द के कारण पशु दाँत किटकिटाता है व आँखों से आँसू व मुँह से झाग निकलते हैं। अंत में खूनी दस्त के साथ पशु की मृत्यु हो जाती है।
– कई बार आफरा अधिक होने से साँस लेने में परेशानी होती है तथा पशु बार-बार उठता है या बैठता है।
¨ उपचार – Trick – D Don
1. डेक्सोना – 3ml अंतपेशी (I/M) इंजेक्शन
2. डाईसाइक्लोमीन इंजेक्शन पेट दर्द के लिए 3ml I/M दिया जाता है।
3. जीवाणु को मारने के लिए एण्टीबायोटिक ऑक्सीटेट्रासाइक्लीन (Oxytetracycline) O.T.C. 3ml I/M दिया जाता है।
4. शरीर में मांसपेशियों की अकड़न रोकने के लिए न्यूरोबियन (Neurobian) 3ml I/M दिया जाता है।
5. इसके बचाव के लिए E.T.V. का टीकाकरण 2.5ml S/C या I/M दिया जाता है। इसे राजस्थान सरकार हर वर्ष बरसात से पहले (Premonsoon) उपलब्ध करवाती है।

5. थनैला :- Mastitis

– यह एक जीवणु जनित रोग है जो मुख्यतया स्ट्रेप्टोकोकस एगेलेक्शिया जीवाणु द्वारा होता है तथा इसके साथ कभी-कभी कवक, माइकोप्लाज्मा भी देखे जाते हैं।
– यह रोग देशी नस्ल की गायों की अपेक्षा संकरण नस्ल की गायों में अधिक होता है।
– इस रोग के प्रारंभिक समय में अयन/थन में सूजन आती है। थन हल्के कठोर हो जाते हैं व संक्रमण के कारण यह हल्के गर्म भी हो जाते हैं।
– कभी-कभी थन में गाँठे हो जाती हैं व लम्बे समय तक इलाज नहीं करने से थन में फाइब्रोसिस हो जाता है जिससे दूध की नलिकाएँ व अयन की कोशिकाएँ खराब हो जाती हैं व दूध आना बंद हो जाता है।
– यदि प्रारंभिक समय में इस रोग का उपचार कर दिया जाए तो थन सामान्य रहता है।
– कई बार पशु के थन पर दूध लगे रहने से जीवाणु थन में प्रवेश कर जाता है व संक्रमण के प्रारंभिक दिनों में छैने जैसा दूध या दूध का फटना या कभी-कभार दूध में रक्त/मवाद का पाया जाना भी देखा जाता है तथा दूध में गंध आती है।
¨ उपचार –
i. मेलोनेक्स (Melonex) – 15ml अंत:पेशी इंजेक्शन लगाए। (दर्द, सूजन)
ii. एम्पीसिलीन (Ampicilin) – 10-15ml अंत:पेशी इंजेक्शन (Antibiotic)
iii. टाइसीन (Tysin) – 15 ml (फंगस के लिए)
iv. एविल (Avil) – 10ml (एलर्जी के लिए)
v. त्वरित उपचार के लिए मेस्टाइटिस ट्यूब सुबह-शाम थन में चढ़ा दे।
Tricks – MATA M – थन में Tube
v. यदि थनैला का संदेह हो तो दूध का उपयोग बीमारी के ठीक होने तक नहीं करना चाहिए व पशु के अयन पर ठंडे पानी/बर्फ से सेक करना चाहिए।

6. Tuberculosis (टी.बी)

– उपनाम – Pearl disease मोती रोग
– रोग कारक – माइकोबैक्टीरियम बोविस (गाय/भैंस में), माइकोबैक्टीरियम एवियम (मुर्गियों में)
– लक्षण – chronic and contagious (संक्रामक), श्वसन तंत्र को प्रभावित गाय व भैंसों में, पाचन तंत्र को प्रभावित मुर्गियों में, श्वास लेने में दिक्कत, मोती जैसी गाँठों का फेफड़ों में बनना तथा बड़ी लेन्गरहेन्स कोशिकाओं का मिलना। गर्भाशय से मवादीय सिजस डिस्चार्ज का आना। गर्भपात। सुप्रा मेमरी लिम्फनोड का बड़ा हो जाना। दूध में हरे-पीले थक्के का आना। घोड़े में सर्वाइकल वर्टीबरा में दर्द होता है।
– उपचार – आइसोनियाजिड 5-10mg/kg + स्ट्रेप्टोमाइसीन 10mg/kg I/m

7. Brucellosis (ब्रुसेलोसिस)

– उपनाम – माल्टा फीवर, कंटेजियस, एर्बोसन, बेंग्स डीजीज
– रोग कारक – ब्रुसेला एबोर्टस, ब्रुसेला केनिस, ब्रुसेला ओविस, बुसेला मेलिटेन्सीस
– लक्षण – Zoonotic disease – पशुओं से मानव तथा मानव से पशुओं में फैलता है। यह रोग गाय, भैंस, भेड़, बकरी में होता है। गर्भित मादा पशु का तिसरी तिमाही में गर्भपात होना। ROP तथा मेट्राइटिस योनि से Greyish White Mucopurulent Discharge का आना। नर पशु में Orchitis (वृषण में सूजन) का पाया जाना। प्लेसेन्टा में इरिथिटोल सुगर का पाया जाना। आर्थ्राइटिस आदि।
– उपचार – OTC 5-10mg/kg, Penicillin 12000 IU/kg, Streptomycin
Test– Brucella milking test (herd test), plate agglutination test, complement fixation test, standard agglutination test

8. Tetanus (टिटेनस)

– उपनाम – locked jaw, धनुष टंकार, लकड़ी जैसा घोड़ा
– रोगकारक – क्लोस्ट्रिडियम टिटनी
लक्षण – जबड़े की मांसपेशियाँ तथा अन्य मांसपेशियों में सूजन
locked jaw, धनुष-काठ का घोड़े जैसी संरचना
– 3rd eyelid में prolapse, श्वसन तंत्र, मांसपेशियों में लकवा। बहुत अधिक पसीना आना। कान खड़े, नाक का फूलना, अति संवेदनशील। मृत्यु का कारण एसफाईफसिया (श्वसन में अवरोध)। जीवाणु toxin स्रावण टीटेनोलाइसिन, टीटेनोस्पामिन
– उपचार – पेनीसिलीन G 20000-40000 IU/kg

- पशु प्लेग (रिंडर पेस्ट) :-

– स्थानीय भाषा में इसे ‘पोकनी’ भी कहा जाता है।
– यह बीमारी छनित वायरस या Paramixo (पेरामिक्सो) वायरस से होती है।
– इस रोग में पहले पशु को तेज बुखार आता है फिर पिचकारी की तरह रुक-रुककर दस्त हो जाती है। (शूंटिंग डायरिया)
– बीमारी के 3-4 दिन पश्चात् दस्त में पतला खून पाया जाता है जिससे इस रोग को पोकनी कहा जाता है।
– मुँह में घाव हो जाते हैं व आँखें लाल हो जाती है। नाक और आँख से पानी निकलने लगता है व अंत में यह पानी जैसा स्राव मवाद में परिवर्तित हो जाता है।
¨ इलाज :-
– इस रोग में 15ml एम्पीसीलीन अंत:पेशी इंजेक्शन देते हैं।
– क्रोम इंजेक्शन (Crome injection) 10 ml (स्तम्भक Astingents) – दस्त के लिए
– Avil (एविल) – 10 ml – एलर्जी के लिए
– सल्फामिडीन – 15 ml – दस्त रोकने के लिए
– Tricks – AC में AS करता है।
– यदि यह इलाज 5-7 दिन नहीं किया गया तो पशु की मृत्यु हो जाती है व मरते समय इसका तापमान 98oF तक हो जाता है।
– इस रोग से बचाव के लिए रिंडर पेस्ट का टीका तीन वर्ष में 1 बार (जून महीने) में लगाया जाता है।

2. रेबीज रोग:-

अन्य नाम – जलाटांका, लाईसा, हिड़काव, हाइड्रोफोबिया
रोगकारक – रेबडो वायरस या लाइसा वायरस (तंत्रिका तंत्र तक सीमित)
– Furious form – बहुत अधिक आक्रामक।
– Dump form – लकवा हो जाना।
– इसका रोग काल गाय, भैंस और घोड़े में 4-8 सप्ताह, भेड़, बकरी, सूअरी में तीन सप्ताह, कुत्तों में 14-90 दिन या कभी-कभी 1 वर्ष या इससे भी अधिक हो सकता है। रोगी पशु अपने मालिक का कहना नहीं मानता। बार-बार चिल्लाता है व आवाज बदल जाती है। पशु बिना किसी उद्देश्य के इधर-उधर घूमता (Aimless walking) है। चेहरे पर धूर्तता के भाव (cunning facial exprassion) आ जाते हैं। रोगी पशु अपने आस-पास घूमने वाली वस्तुओं को पकड़ता है। निचला जबड़ा लटक जाता है और मुँह से लार गिरती है। ग्रसनी का लकवा हो जाता हैं और पानी नहीं पी सकता है। गायों में गर्दन मुड़ जाती हैं और सख्त हो जाती (Torticolis) है। पशु अत्यधिक उत्तेजित हो जाता है। मृत कुत्ते के हिपोकेम्पस में नेग्रीबॉडी का बनना। मृत गाय के सेरीबेलम के पूरकिन्जे कोशिकाओं में नेग्रीबॉडी का बनना।
– काटने के बाद टीकाकरण-
(0,3,7,14,28 दिन )

- खुरपका–मुँहपका रोग (Foot & Mouth Disease) :-


– यह Picorna Virus (पीकोरना वायरस) की सात जाति द्वारा फैलती है जिसमें भारत में O, A, C के अधिक केस देखे जाते हैं।
– कुछ मात्रा में Asia-1 के भी केस देखे गए है।
– कुछ मात्रा में Asia-1 के भी केस देखे गए है।
– SAT-1, SAT-2, SAT-3 (Satelite Virus) भारत में नहीं पाए जाते हैं।
– इस रोग की शुरुआत खुर के मध्य भाग या जीवित ऊतक में फोड़े (अल्सर) बनते हैं। जब यह फूट जाते हैं तो घाव बन जाता है।
– घोड़े के खुर में कठोर भाग होने से FMD नहीं होती है।
– जब पशु खुर को छाँटता है तो FMD के वायरस मुँह से पशु के शरीर में चले जाते हैं।
– 2-3 दिन पश्चात् अत्यधिक लार स्रावण, तेज बुखार (105˚-106˚F) तथा मुँह में छाले होने से विशेष ध्वनि उत्पन्न होती है।
– खुर में घाव होने से पशु लंगड़ाकर चलता है तथा अचानक से दूध में भारी मात्रा में कमी आ जाती है व पशु खाना-पीना बंद कर देता है। (एनोरेक्सिया)
– इस रोग में मृत्यु दर तो कम होती है परंतु दुग्ध उत्पादन में अत्यंत कमी आती है।
¨ इलाज :-
– FMD के इलाज में सर्वप्रथम मुँह के छालों को फिटकरी से धोकर इस पर बोरिक एसिड/सुहागा को ग्लिसरिन/शहद में मिलाकर दिन में 2-3 बार लगाना चाहिए।
– पैर के घाव के कीड़ों को बाहर निकालने के लिए तारपीन का तेल लगाना चाहिए।
– अधिकतर बीमारियों का टीकाकरण बरसात से पहले (Premonsoon) किया जाता है लेकिन FMD का टीकाकरण अगस्त-सितम्बर व फरवरी-मार्च के दौरान किया जाता है।
– अभी वर्तमान में Raksha FMD Vaccine 3 ml (त्वचा के नीचे) उपत्वचीय लगाया जाता है।
¨ टीका (inj.) की site –
i. अंत:शिरा – (I/V) – Intra Venous (अधिक)
ii. अंत:पेशी – (I/M) (मध्यम मात्रा)
iii. उपत्वचीय – (S/C) (कम मात्रा)

4. PPR (Peste des Petits Ruminants)
अन्य नाम – Goat Plague, Pseudo-rinderpest, Goat catarrhal fever
रोग कारक – Morbilli virus (Paramyxoviridae)
लक्षण –भेड़-बकरियों में प्रमुख रोग। तेज बुखार (106oF), मुंह में सूजन (nacrotic), भुख न लगना। नाक स्राव गाढ़ा और पीला होने से पपड़ी जम जाती है और साँस लेने में तकलीफ होती है। भेड़-बकरियों की मृत्यु के पश्चात् बड़ी आँत में जेबरा रेखाओं का मिलना। जीभ, तालु तथा नीचले होंठ की म्यूकोसा पर डिफ्थेरिक प्लेग (चकते) का बनना।


- दुग्ध बुखार (Milk Fever) :-

– यह एक उपापचयी (Metabolic) जनित रोग है।
– यह रोग केवल मादा पशु में होता है, नर पशु में नहीं होता है।
– इस रोग में कैल्सियम की कमी हो जाती है। अत: इसे ‘हाइपोकेल्सिमिया’ रोग भी कहा जाता है।
– इस रोग में पशु के प्रसव (ब्याना) के बाद शरीर में कैल्सियम की अत्यधिक कमी हो जाती है जिससे मांसपेशिया अत्यधिक कमजोर, पशु बेहोश हो जाता है।
– इस रोग में पहले पशु सीधा बैठ जाता है। (स्टर्नल रिकम्बसी) इसे मेंढ़क बैठक (Froglike Sitting) कहते हैं व अपनी गर्दन को पीछे की तरफ मोड़ देता है।
– यदि कुछ देर तक इलाज नहीं किया गया तो पशु लेट जाता है (लेटरल रिकम्बसी) व शरीर में जकड़न, ताप कम व रक्त उपसंहार कम होने से पशु की मृत्यु भी हो जाती है।
– यह रोग तुरंत ठीक भी हो जाता है। यदि इसे लक्षण दिखते ही कैल्सियम दे दिया जाए।
– प्रसव के पश्चात् पशु में कैल्सियम की कमी से Milk Fever, फॉस्फोरस की कमी से P.P.H. (Post Parturient Haemoglobinuria) व ग्लुकोज की कमी से कीटोसिस (Ketosis) नामक रोग हो जाता है।
– कीटोसिस वाले पशुओं में एक विशेष खुशबू/गंध बनी रहती है। (नेल पॉलिश जैसी)
– पशु के शरीर में कैल्सियम की मात्रा सामान्यतया 10-12mg/ml तक होती है। यदि Ca की मात्रा 6-7mg/ml हो जाये तो पशु में Milk Fever के लक्षण पाए जाते हैं।
– मिल्क पाउडर में एण्टीबायोटिक या अन्य दवाइयाँ नहीं दी जाती है। इसमें Ca की पूर्ति करने के लिए–
1. ca को पूरा करे (मौखिक)
2. Calcium Borogluconate (कैल्सियम बोरोग्लूकोनेट) (C.B.G.) – 450ml-500ml (Slow) – अंत:शिरा (I/V)
3. C.B.G.+mg
4. Dextrose glucose (डैक्सट्रोज, ग्लूकोज) (Ketosis) – 1 liter

2. पोस्ट पार्चूरेन्ट हिमोग्लोबिनुरिया (PPH)-
अन्य नाम- हयपोफॉसफेटेमिया , लहू मूतना
– दुग्ध के साथ फास्फोरस का अधिक निकल जाना।
– फास्फोरस की कमी, कॉपर की कमी।
– लक्षण –
– सुस्ती, तनाव, भूख नहीं लगना। गहरे लाल भूरे से काले रंग का पेशाब। दुग्ध उत्पादन में कमी। सांस लेने में तकलीफ। एनिमिया, पीलिया, पाईका।
– मल निश्कासन के दौरान कठिनाई होना।
– सोडियम एसिड फॉस्फेट 80gm as 20% solution
– टोनो फॉस्फोन
– सोडा बाई फोस्फेट पाउडर orally

3. किटोसिस-
– अन्य नाम – इसे Hypoglycemia कहते है।
– गायों, भैंसों में Acetonaemia तथा भेड़ों में Pregnancy Toxemia कहते हैं।
– रक्त में ग्लूकोज की कमी से।
– कम आहार और कम कार्बोहाइडेट वाला आहार खिलाने से यह रोग होता है।
– मेटाबोलिज्म गड़बड़ी राशन में अधिक प्रोटीन की मात्रा।
• लक्षण –
– सुस्ती, Anorexia, शरीर का भार कम हो जाना। दुग्ध उत्पादन में कमी। शरीर लकड़ीनुमा हो जाता है। थन के अंदर सूजन हो जाती है। दूध व पेशाब में कीटोन बॉडीज की स्मेल आती है। मुँह से लार गिरना। ऋणात्मक ऊर्जा संतुलन। दाना और खाना बन्द कर देना। हाइपरएस्थेसिया।
● उपचार
– ग्लिसरोल
– ट्रायमसिनोलोन
– प्रोपाइलिन ग्लाइकोल
– ग्लूकोज का हाइपर टॉनिक सोल्युशन (10-50%)
0.5gm/kg b.wt. I/v
– सोडियम प्रोपियोनेट

प्रोटोजोआ जनित बीमारी –
1. सर्रा (Surra) :-

– यह एक प्रोटोजोआ जनित बीमारी है।
– इसमें पशु सड़-सड़कर मरता है जिससे इसे सर्रा (सड़ा) रोग कहा जाता है।
– सामान्यतया यह रोग 2-3 साल तक असर दिखाता है जिससे इसे तिबरसा रोग कहा जाता है।
– यह ‘ट्रिप्नोसोमा इवेन्साई’ प्रोटोजोआ द्वारा फैलता है। अत: इस रोग को ट्रिपेनोसोमेयेसिस (Trypanosoiasis) भी कहा जाता है।
– इस बीमारी में मानसिक लक्षण अधिक दिखाई देते हैं।
• लक्षण –
i. इस रोग में चार प्रकार से रोग के लक्षण दर्शाए जाते हैं–
A. अतिउग्ररोग (Peracute) – इस लक्षण में पशु को अचानक से तेज बुखार आता है व पशु में उत्तेजना देखी जाती है तथा पशु अपने सिर को दीवार/जमीन पर मारता है व पागलों की तरह बिना उद्देश्य के इधर-उधर भागता है।
– इस लक्षण में यदि समय पर इलाज नहीं किया गया तो पशु की मृत्यु हो जाती है।
B. तीव्र रोग (Acute) – इस लक्षण में पशु को बुखार नहीं आता है। पशु गोल-गोल चक्कर लगाता है व खाना कभी खाता है, कभी नहीं खाता है।
– इस स्थिति में पशु में पसीना अधिक आता है तथा कुछ समय के पश्चात् पशु गिर जाता है।
C. कम तीव्र पशु (Subacute) – इस लक्षण में पशु को बुखार नहीं आता है परंतु खाना-पीना पूरी तरह से बंद हो जाता है। (Complete Anorexia)
– इसमें पशु दुर्बल व शक्तिहीन होकर गिर जाता है व 2-4 सप्ताह में मर जाता है।
D. चिरकालीन (Cronic) – इस लक्षण में पशु को कभी-कभी बुखार रहता है। खाना-पीना अत्यंत कम हो जाता है। पशु को देखने पर उदास रहता है व उसके अंदर RBC की कमी होने से एनीमिया के लक्षण दिखते हैं।
– यह रोग टेबेनस (मक्खी) द्वारा फैलता है।
• सर्रा का उपचार –
1. इस रोग में 2.5gm ट्राइक्विनिन को 15ml डिस्टील वॉटर में घोलकर चमड़ी में लगाया जाता है।
– ट्राइक्विनिन सर्रा की मुख्य दवाई होती है।
2. इंजेक्शन एण्टीसाइड प्रोसाल्ट को 2.5-3gm दवा को 15ml डिस्टील वॉटर में घोलकर चमड़ी में लगाया जाता है।
3. इंजेक्शन टोनोफॉस्फोन (Tonophosphone) 10ml व CBG 500ml I/V (अंत:शिरा) दी जाती है।
4. पशु को एनोरेक्सन फोर्ट (Anorexen Forte) या प्रोमीन HS की 2-2 गोलियाँ सुबह-शाम दी जाती है।
5. इंजेक्शन बेरेनिल (Berenil) 5gm को 25ml डिस्टील वॉटर में घोलकर चमड़ी में लगाया जाता है।
Tricks – TATA B (टाटा बाय)

2. टिक फीवर (Tick fever)
– यह रोग पशुओं में होने वाला एक फीवर है जो रक्त परजीवी बोओफिलस माइक्रोप्लस द्वारा फैलता है।
– इस रोग में पशु को भूख नहीं लगती है तथा पशु का वजन घटता है।
– खून की कमी तथा दूध उत्पादन में भी कमी आ जाती है।
● उपचार
– रोगी पशु को स्वस्थ पशु से दूर रखे तथा पशुशाला में कीटनाशक दवाईयों का छिड़काव करें।
3. खाज/ खुजली (Mange/Scabies)
– यह एक छूतदार चर्म रोग है जो माइटस नामक परजीवी से फैलता है तथा यह परजीवी त्वचा में घुसकर अपना असर दिखाता है जो एक पशु से दूसरे पशु में शीघ्रता से फैलता है।
– यह रोग चार प्रकार के कीटाणुओं द्वारा फैलता है–
I. सोरप्टिस कम्युनिस
II. कोरीओप्टिससिंबोइटिस
III. डेमोडेक्स फौलीक्युलोरम
IV. सारकौप्टिस स्कैबी
– इस रोग में त्वचा का रंग लाल हो जाता है तथा पशु अपने शरीर को खुजलाता रहता है।
– यह रोग पशु के चेहरे, होंठ व पैरों से प्रारम्भ होता है जो सिर, गर्दन एवं पुट्ठे तक पहुँचता है।
– यह रोग होने पर बालों का झड़ना, शरीर पर सूजन आना, चमड़ी पर दाने होना आदि।
● उपचार
– रोग ग्रस्त पशुओं के स्थान को रोगाणु रहित कर देना चाहिए।
– बुटाक्स 5 ml को 1 Littter Water में घोलकर त्वचा पर लगाए।
– Inj. Ivermectin 1ml/50Kg Body Wt.
क्र.सं. | टीके का नाम | बछड़ों की आयु | टीके की मात्रा | टीका लगाने का स्थान | पुन: टीकाकरण |
1. | FMD vaccine | 6 Month | 2ml | त्वचा S/c | वर्ष में दो बार |
2. | H.S vaccine | 3 Month | 5ml | त्वचा S/c | प्रतिवर्ष |
3. | E.T vaccine | 3 Month | 2.5ml | त्वचा S/c | प्रतिवर्ष |
4. | R.P vaccine | 6 Month | 1ml | त्वचा S/c | 3 वर्ष में एक बार |
5. | B.Q. vaccine | 3 Month | 5ml | त्वचा S/c | प्रतिवर्ष |
6. | Antherx spyer vaccine | 3 Month | 1ml | त्वचा S/c | प्रतिवर्ष |
7. | P.P.R. vaccine | 3 Month (Goat, Sheep) | 1ml | त्वचा S/c | प्रतिवर्ष |
8. | Brucellosis C -19 vaccine | 3 Month (मादा बछड़ों में) | 5ml | त्वचा S/c | जीवन में एक बार |
मुर्गियों में बीमारियाँ–
रानीखेत

– यह मुर्गियों की वायरस जनित बीमारी है जो पेरामिक्सो (R.P.) वायरस के कारण होता है।
– इस बीमारी को ‘मन मोदी रोग’, ‘न्यू केस्टल रोग’ कहा जाता है।
– यह एक घातक बीमारी होती है जिससे श्वसन तंत्र पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। (सर्दी/जुकाम)
– यह रोग लगभग सभी आयु की मुर्गियों में होता है।
– इस रोग में कम उम्र के चूजे अधिक प्रभावित होते हैं।
– यह रोग पेरामिक्सो वायरस के Type-1 (टाइप-1) से होता है। यह वायरस निर्जलीकरण से व पराबैंगनी किरणों (Sunlite) में तेजी से नष्ट हो जाता है।
¨ लक्षण :-
i. इस रोग में पशुओं में छींकना, खाँसना (स्नीजिंग) मुख्य लक्षण होता है व श्वास लेने में परेशानी होती है जिससे पक्षी अपने मुँह को खोलकर कठिनाईपूर्वक श्वास लेता है। कभी-कभी श्वास लेते समय सीटी की ध्वनि उत्पन्न होती है। इसे ‘गेस्पिंग (Gasping)’ भी कहा जाता है।
ii. इस रोग में पीले, हरे रंग की दस्त (डायरिया) होती है।
iii. इस रोग में गर्दन व आगे के पैरों में लकवा हो जाता है जिससे पक्षी अपनी गर्दन को पीछे की तरफ घुमा लेता है। (टोर्टीकोलिस)
iv. कभी-कभी इस रोग के तीव्र लक्षण उत्पन्न होते हैं जिसमें तेज बुखार व साँस लेने में कठिनाई होने से चूजे (छोटे पक्षी) तुरंत मर जाते हैं व बड़े पक्षी कुछ समय (48-72 घंटे) बाद मरते हैं।
¨ उपचार व बचाव :-
i. इस रोग का कोई विशेष उपचार नहीं है।
ii. उचित आवास व देखभाल से इस रोग को फैलने से बचाया जा सकता है।
iii. यदि रानीखेत रोग के लक्षण किसी पक्षी में दिखे तो उसे अलग करके मारकर गड्ढे में गाड़ दिया जाता है।
iv. इस रोग के बचाव के लिए टीकाकरण किया जाता है। जिसमें प्रथम दिन का चूजे में लासोटा टीका (Lasota Vaccine) 1-2 बूँद इसके नाक में डाली जाती है जिससे 15 सप्ताह तक पक्षी के शरीर में प्रतिरक्षा उत्पन्न हो जाती है।
v. 8-12 सप्ताह के दौरान रानीखेत का मुक्तेश्वर टीका जिसे ‘R2b’ भी कहा जाता है। 0.5ml अंत:पेशी (I/M) दिया जाता है जिससे जीवंतपर्यंत प्रतिरक्षा उत्पन्न हो जाती है।

मुर्गियों में चेचक (Fowl Pox) :

– यह एक वायरस जनित बीमारी है जो बोरेलिओटा (Borileota) वायरस द्वारा फैलता है जबकि पशु और मानव में यह ‘वेरिओला वायरस’ द्वारा फैलता है व इसे छोटी माता व बड़ी माता नाम दिया जाता है।
– मुर्गियों में चेचक – बोरेलिओटा एवियम – एविज में
– कबूतर में चेचक – बोरेलिओटा कोलुम्बी
– टर्की (Goose) में चेचक – बोरिलिओटा मेलिग्रेडिस
– Small Pox (बड़ी माता) – वेरिओला (Veriola)
– Chicken Pox (छोटी माता) – वेरिसेला (Vericella)
¨ चेचक (Pox) के लक्षण :-
– मुर्गियों में चेचक तीन प्रकार से असर दिखाती है–
1. प्रथम अवस्था में सूखी चेचक (Dry Pox) होती है जिसे ‘त्वचीय Pox’ या ’Skin Pox’ कहा जाता है। इसमें मुर्गों के शरीर पर छोटे-छोटे दाने हो जाते हैं तथा इनकी कलंगी, चेहरा व पैरों की चमड़ी खुरदरी हो जाती है व सूखी पपड़ी की तरह त्वचा उतरने लगती है।
2. द्वितीय अवस्था में दाने फूटने लगते हैं व इनसे द्रव/मवाद निकलता है। अत: इसे आर्द्र अवस्था/नम अवस्था कहा जाता है। इसमें ‘डिफ्थीरिया’ के लक्षण भी प्रकट होते हैं। जैसे – मुखगुहा तथा ग्रासनली में भी कुछ दानेनुमा संरचना बनती है जिससे भोजन को निगलने में कठिनाई होती है।
नोट:- Pox (चेचक) की घातक अवस्था ‘डिफ्थीरिया अवस्था’ होती है जिसमें Death (मौत) का खतरा होता है।
3. Pox की तीसरी अवस्था में सर्दी-जुकाम के लक्षण दिखाई देते हैं। इसे Coryza (कोराइजा) प्रकार का Pox कहा जाता है।
¨ उपचार व बचाव :-
– इस बीमारी में कोई विशेष उपचार नहीं होता है।
1. घाव पर सिल्वर नाइट्रेट (AgNO3) व पिकरिक अम्ल का घोल बनाकर लगाया जाता है।
2. त्वचा शुष्क होने पर ग्लिसरिन को त्वचा पर लगाया जाता है।
3. टीकाकरण द्वारा इस बीमारी से पक्षियों को बचाया जा सकता है। चेचक को रोकने के लिए दो किस्म के टीके लगाए जाते हैं-
i. पिजियन पॉक्स टीका (Pigeon Pox Vaccine):-
– यह टीका केवल छोटे चूजों में सुरक्षा करता है।
– इसका असर 3 महीने तक ही रहता है।
– 3 महीने पश्चात् दूसरा टीका लगाया जाता है।
ii. फाउल पॉक्स टीका (Fowl Pox Vaccine):-
– यह टीका मुर्गियों में आजीवन सुरक्षा प्रदान करता है।
– टीकाकरण मार्च-अप्रैल के दौरान किया जाता है।
– यदि चेचक का खतरा अधिक हो तो 1 महीने से कम उम्र के पक्षियों में पिजियन पॉक्स टीका लगाना चाहिए व 2-3 महीने या उससे अधिक उम्र के पक्षियों में फाउल पॉक्स का टीका लगाया जाता है।
* डायरिया में दस्त के साथ खून आता है जबकि खूनी पेचिश में केवल खून आता है।

- खूनी पेचिश (Bloody Dycentry) :-
-
– खूनी पेचिश 3 से 12 माह के उम्र के चूजों में होने वाला रोग है।
– खूनी पेचिश का मुख्य कारक कॉक्सिडिया (Coccidia) होता है जो गोल, छोटे-छोटे प्रोटोजोआ होते हैं।
– यह कॉक्सिडिया आइमेरिया (Eimeria) प्रजाति से फैलता है। कुल 9 आइमेरिया वंश के कॉक्सिडिया पक्षियों को प्रभावित करते हैं।
– इनमें से तीन अधिक घातक मुर्गियों में देखे जाते हैं-
i. आइमेरिया टिनेला (T)
ii. आइमेरिया निकाट्रिक्स (N)
iii. आइमेरिया एसरबुलीना (A)
¨ लक्षण :-
i. इस रोग में मुर्गियों में डिसेन्ट्री (खूनी पेचिश) होती है।
ii. इसमें कभी-कभी भूरे-पीले रंग का मवाद भी देखा गया है।
iii. पक्षियों में खून की कमी (एनीमिया) हो जाता है जिससे पक्षी अत्यंत कमजोर व शुष्क हो जाता है।
iv. इसमें पक्षियों के आंत्र में छोटे-छोटे पीले-भूरे रंग के दाने व द्रव जमा हो जाते हैं। इसकी मात्रा बढ़ने से आंत्र की कोशिकाएँ फटने लगती हैं जिससे दस्त में खून आता है।
v. पक्षी खाना पीना बंद कर देता है।
¨ उपचार –
– इसमें सल्फामेथाजीन प्रभावी होती है, जिसका 0.05 से 0.1% जल में घोल बनाकर नाक/मुँह में दवाई 2-3 बूँद देनी चाहिए।
– इस रोग में काक्सीडियोस्टेट जैसे – डायोडीन, सल्फेट, एस्प्राल आदि दवाईयाँ चूजों को निर्धारित मात्रा में देते हैं।

4. बर्ड फ्लु–
– उपनाम- एवियन फ्लू, बर्ड फ्लू, एवियन प्लेग
– रोग कारक-विषाणु जनित H5N1 Type Virus of A strain
लक्षण-
– कलंगी में सूजन। कलंगी एवं पैरों की त्वचा फटना। दस्त लगना। नाक बहना। नरम खोल के एवं अर्द्धपके अंडों का उत्पादन। अंडा उत्पादन में कमी। पैरों और टाँगों पर बवासीर का रक्त स्राव। भूख में कमी।
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