प्रजनन प्रणाली

प्रजनन प्रणाली

–  जीवों में सन्तान उत्पन्न करने की प्रक्रिया को जनन कहते हैं। मनुष्य में लैंगिक जनन पाया जाता है इनमें लैंगिक द्विरूपता होती है अर्थात् नर तथा मादा को बाह्य लक्षणों के आधार पर पहचाना जा सकता है। नर में शिश्न (Penis) व वृषण कोष (Scrotal sac) पाए जाते हैं जबकि, स्त्रियों में स्तन ग्रन्थियाँ विकसित होती हैं। नर में ये केवल अवशेषी रूप में होती हैं। पुरुषों में दाढ़ी-मूंछ की उपस्थिति, आवाज भारी होना आदि लक्षण पाए जाते हैं, जबकि स्त्रियों में महीन आवाज, कोमल त्वचा तथा नितम्बों (Buttocks) के क्षेत्र में वसा जमाव के कारण श्रोणि क्षेत्र का अधिक विकसित होना आदि प्रमुख लक्षण होते हैं।

नर जनन तंत्र (Male Reproductive System)

–  नर जनन तंत्र के दो प्रमुख घटक होते हैं प्राथमिक जननांग तथा सहायक जननांग। पुरुषों में एक जोड़ी वृषण (Testes) प्राथमिक जननांग या जनदों (Gonads) के में रूप होते हैं। इसके अतिरिक्त कई सहायक जननांग (Accessory reproductive organs) मुख्यतया वृषण कोष (Scrotal sac), अधिवृषण (Epididymis), शुक्र वाहिनियाँ (Vas deferens), शिश्न (Penis) प्रोस्टेट ग्रन्थि (Prostate gland) एवं काउपर ग्रन्थि (Cowper’s gland) के रूप में पाए जाते हैं।

1. वृषण (Testes)

–  वयस्क पुरुष में एक जोड़ी, गुलाबी तथा अण्डाकार वृषण, उदर गुहा के बाहर दोनों टांगों के मध्य कोषों में स्थित होते हैं। वृषण कोष की दीवार लचीली, पतली तथा रोम युक्त होती है एवं इसके भीतर अरेखित पेशी तन्तुओं का मोटा उपत्वचीय (Subcutaneous) स्तर होता है, जिसे डारटोस पेशी (Dartos muscle) कहते हैं। रेखित पेशी तन्तुओं (Striated muscle fibres) को एक दण्डनुमा गुच्छा वृषण कोष के प्रत्येक अर्धभाग के उपत्वचीय पेशी स्तर को उदरीय उपत्वचीय पेशी से जोड़ता है जिसे वृषणोत्कर्ष पेशी (Cremaster muscle) कहते हैं। प्रत्येक वृषण कोष की गुहा से एक संकरी वक्षण नाल (Inguinal canal) जुड़ी होती है।

–  वृषण की संरचना एवं कार्य (Structure and Functions of Testes) – प्रत्येक वृषण लगभग 4 सेंटीमीटर मोटा, 2.5 सेंटीमीटर लम्बा तथा लगभग 10 से 15 ग्राम भार वाली संरचना है। वृषण पर दो आवरण पाए जाते हैं जिन्हें वृषण खोल (Testicular capsule) कहते हैं। इसमें बाहरी महीन आवरण को यौनिक कंचुक (Tunica vaginalis) कहते हैं। यह उदरगुहा के उदरावरण से बनता है, जबकि भीतरी स्तर श्वेत कंचुक (Tunica albuginea) कहलाता है, जो श्वेत तंतुमय संयोजी ऊतक का बना होता है। यह स्तर स्थान-स्थान पर वृषण में धँसकर वृषण पट्टियों (Septula testes) का निर्माण करता है। प्रत्येक वृषण पिण्डकों (Lobules) में विभक्त रहता है। पिण्डक ऊतक में दो या तीन महीन कुण्डलित शुक्रजनक नलिकाएँ (Seminiferous tubules) होती है। पिण्डक ऊतक में इन नलिकाओं के अतिरिक्त अन्तस्रावी कोशिकाएँ, रुधिर कोशिकाएँ तथा तंत्रिका तन्तु पाए जाते हैं। इनमें अतिरिक्त संयोजी ऊतक में अन्तराली कोशिकाएँ (Interstitial cells) या लिडिंग कोशिकाएँ उपस्थित होती है जो नर हॉर्मोन, टेस्टोस्टेरोन (Testosterone) का स्त्रावण करती है, जिसके कारण पुरुषों में द्वितीयक लैंगिक लक्षणों तथा सहायक जनन ग्रन्थियों का विकास होता है।

–  प्रत्येक शुक्रजनक नलिका (Seminiferous tubule) के चारों ओर संयोजी ऊतक का बना झिल्लीमय पतला आवरण होता है, जिसे ट्यूनिका प्रोप्रिया (Tunica propria) कहते हैं। इसके अन्दर जनन उपकला (Germinal epithelium) का स्तर पाया जाता है जिसमें निम्नलिखित दो प्रकार की कोशिकाएँ पाई जाती हैं–

(i)  शुक्राणुजनीय कोशिकाएँ (Spermatogonial cells) – इनके द्वारा शुक्रजनन (Spermatogenesis) द्वारा शुक्राणुओं (Sperms) का निर्माण होता है।

(ii)  आलम्बन कोशिकाएँ (Supporting cells) – इन्हें सर्टोली कोशिकाएँ (Sertoli cells) या धात्री कोशिकाएँ (Nurse cells) भी कहते हैं। ये कोशिकाएँ संख्या में कम, आकार में बड़ी तथा स्तम्भी प्रकार की होती हैं। इनका स्वतंत्र सतह वाला भाग कटा-फटा होता है। इस भाग में शुक्राणुपूर्व कोशिकाएँ (Spermatids) सर्टोली कोशिकाओं से सटकर संलग्न रहती हैं। सर्टोली कोशिकाएँ विकासशील जनन कोशिकाओं को सुरक्षा, आलम्बन तथा पोषण प्रदान करने के साथ-साथ शुक्राणुपूर्व कोशिका के अनावश्यक कोशिकाद्रव्य का विघटन करती हैं। इनके द्वारा शुक्राणु उत्पादन प्रेरित करने वाले हॉर्मोन (FSH) की क्रिया का नियमन करने हेतु इन्हिबिन (Inhibin) नामक प्रोटीन हॉर्मोन का भी स्त्रावण होता है।

–  शुक्रजनक नलिकाएँ (Seminiferous tubules) वृषण की सतह के पास प्रारम्भ होकर कम कुण्डलित होते हुए मध्यवर्ती क्षेत्र में पहुँच कर सीधी होकर छोटी-छोटी नलिकाओं के घने जाल में खुल जाती हैं, जिसे वृषण जालक (Rete testis) कहते हैं। इससे लगभग 15-20 संवलित नलिकाएँ (Convoluted ductules) निकलती हैं जिन्हें शुक्रवाहिकाएँ या अपवाही वाहिनिकाएँ (Vasaefferentia) कहते हैं। ये नलिकाएँ वृषण की अग्र या ऊपरी सतह पर पहुँच कर एक लम्बी अधिवृषण या एपिडिडिमिस नलिका (Epididymis) में खुलती है। शुक्रवाहिकाओं का आन्तरिक स्तर पक्ष्माभी स्तम्भी उपकला कोशिकाओं का बना होता है जिसके बाहर एक पतला वर्तुल पेशी स्तर पाया जाता है।

–  मानव सहित अधिकांश स्तनी जीवों में वृषण उदरगुहा के बाहर वृषण कोष में पाए जाते हैं क्योंकि शुक्राणुओं का परिपक्वन उदरगुहा में अधिक तापमान के कारण संभव नहीं है। वृषण कोष में ताप शरीर के ताप से लगभग 2-2.5°C तक कम होता है। जिससे शुक्राणुओं का परिवर्धन सुगमता से संभव हो जाता है।

–  सर्दियों में वृषणकोषों का ताप कम होने लगता है तो डारटोस पेशियों एवं वृषणोत्कर्ष पेशी सिकुड़कर वृषणकोष को उदरगुहा के अधिक नजदीक ले जाती है जिससे शरीर के ताप के कारण वृषण का ताप नियत बना रहता है।

2. अधिवृषण (Epididymis)

–  यह एक पतली, लगभग 6 मीटर लम्बी, अत्यधिक कुण्डलित, चपटी तथा अर्द्धविराम (Comma) के आकार की नलिका है। इसके कुण्डल संयोजी ऊतक द्वारा परस्पर चिपके रहते हैं। इसकी दीवार में बाहर की तरफ मोटा पेशीय स्तर तथा आन्तरिक स्तर स्तरित उपकला (Stratified epithelium) द्वारा आस्तरित होता है। इस नलिका को तीन भागों में बाँटा गया है।

(i)  शीर्ष अधिवृषण (Caput epididymis) – यह भाग चौड़ा तथा वृषण के ऊपरी भाग पर टिका होता है। अपवाही वाहिनिकाएँ इस भाग में ही आकर खुलती हैं।

(ii)  मध्य (Corpus epididymis) – यह मध्य व संकरा भाग है जो कि पतला चपटा होता है व वृषण की पश्च सतह तक फैला रहता है।

(iii)  पुच्छक अधिवृषण (epididymis) – यह अन्तिम भाग है जो पतला होता है व वृषण के निचले भाग को ढके रहता है।

3. शुक्रवाहिनी (Vas Deferens)

–  शुक्रवाहिनी लगभग 45 सेमी. लम्बी नलिका होती है। पुच्छक अधिवृषण कम कुण्डलित तथा मोटी नलिका के रूप में सीधी होकर शुक्र वाहिनी की भीतरी सतह कूटस्तरित स्तम्भी उपकला (Pseudostratified columnar epithelium) की बनी होती है। इसमें कुछ कोशिकाएँ विशेष तरल पदार्थ का स्त्राव करती हैं जो शुक्रवाहिनी के मार्ग को शुक्राणुओं के गमन हेतु चिकना बनाती है। इसकी दीवार की पेशियों में तरंग गति उत्पन्न होने के कारण शुक्राणु आगे बढ़ते हैं। शुक्रवाहिनी अधिवृषण के पश्च भाग से प्रारम्भ होकर ऊपर की ओर वक्षण नाल से होकर उदर गुहा में मूत्राशय के पश्च तल पर नीचे की ओर मुड़कर चलती हुई अन्त में एक फूला हुआ भाग तुम्बिका (Ampulla) बनाती है। यहाँ शुक्राशय (Seminal vesicle) की छोटी वाहिनी आकर खुलती है। दोनों के मिलने से एक स्खलनीय वाहिनी (Ejaculatoryduct) का निर्माण होता है।

–  तुम्बिका में शुक्राणुओं को अस्थायी रूप से संग्रह किया जाता है। स्खलनीय वाहिनियाँ अन्त में मूत्र मार्ग (Urethra) में आकर खुलती है।

4. मूत्र मार्ग (Urethra)

–  मूत्राशय से मूत्रवाहिनी निकलकर स्खलनीय वाहिनी से मिलकर मूत्र जनन नलिका या मूत्र मार्ग (Urinogenital duct or Urethra) बनाती है। यह लगभग 20 सेमी. लम्बी नाल होती है, जो शिश्न के शिखर, भाग पर मूत्र-जनन छिद्र (Urinogenital aperture) का कार्य करता है।

5. सहायक जनन ग्रन्थियाँ (Accessory Reproductive Glands)

–  पुरुषों में मुख्यतः तीन प्रकार की सहायक जनन ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं, जो कि अपने स्त्राव मूत्रमार्ग में छोड़ती हैं। ये सभी स्त्रावी पदार्थ अधिवृषण तथा शुक्राशय द्वारा स्त्रावित पदार्थों एवं शुक्राणुओं में मिलकर शुक्रद्रव या वीर्य (Semen) का निर्माण करते हैं। नर में निम्नलिखित सहायक जनन ग्रन्थियाँ होती हैं–

(i)  प्रोस्टेट ग्रन्थि (Prostate Gland) – यह ग्रन्थि मूत्र मार्ग के आधार भाग पर स्थित होती है। प्रोस्टेट ग्रन्थि द्वारा हल्के सफेद, क्षारीय तरल पदार्थ का स्त्रावण किया जाता है। जो वीर्य का 25-30 प्रतिशत भाग बनाता है। इस तरल में फॉस्फेटेस (Phosphatase), सिट्रेट (Citrate), लाइसोजाइम, फाइब्रिनोलाइसिन, स्पर्मिन इत्यादि पदार्थ पाए जाते हैं। यह शुक्राणुओं को सक्रिय बनाता है एवं वीर्य के स्कंदन को रोकता है। अधिक आयु में प्रोस्टेट का आकार बढ़ जाता है जिससे मूत्र विसर्जन में कठिनाई होती है।

(ii)  शुक्राशय (SeminalVesicles) – ये मूत्राशय की सतह एवं मलाशय के बीच में स्थित एक जोड़ी थैलीनुमा संरचना है। यह एक पीले से चिपचिपे तरल पदार्थ का स्त्रावण करने वाली ग्रन्थि है। प्रत्येक शुक्राशय से एक छोटी नलिका निकल कर शुक्रवाहिनी की तुम्बिका में खुलती है। शिश्न की उत्तेजित अवस्था में स्खलन के समय दोनों शुक्राशय संकुचित होकर अपने स्त्राव मुक्त करते हैं। शुक्राशयों के स्त्राव का वीर्य का 60 प्रतिशत भाग बनाता है। इसमें फ्रक्टोस (Fructose) शर्करा, प्रोस्टाग्लैंडिन्स (Prostaglandins) तथा प्रोटीन सेमीनोजेलिन (Semenogelin) होते हैं। फ्रक्टोज शुक्राणुओं को ATP के रूप में ऊर्जा प्रदान करता है। क्षारीय प्रकृति के कारण यह स्त्राव योनि मार्ग की अम्लीयता को समाप्त कर शुक्राणुओं की सुरक्षा करता है।

(iii)  काउपर ग्रन्थि या बल्बोयूरीथल ग्रन्थि (Cowper’s Gland or Bulbourethral Gland) – प्रॉस्टेट ग्रन्थि के ठीक नीचे, मूत्र मार्ग के दोनों पार्श्वों में एक-एक छोटी अण्डाकार ग्रन्थियाँ स्थित होती हैं, जिन्हें काउपर की ग्रन्थि कहा जाता है। मैथून के समय इन ग्रन्थियों के द्वारा एक गाढ़ा, चिपचिपा तथा क्षारीय पारदर्शी तरल पदार्थ स्त्रावित किया जाता है, जो मूत्र मार्ग को चिकना बनाता है तथा मूत्र मार्ग की अम्लीयता को समाप्त कर उसे उदासीन या हल्का क्षारीय बनाता है। यह तरल मादा को योनि को चिकना कर मैथून क्रिया को सुगम बनाता है।

6. शिश्न (Penis)

–  मनुष्य व अन्य स्तनियों में वृषण कोषों के बीच में उदर से लटका हुआ एक लम्बा, बेलनाकार (Cylindrical), उत्थापनशील या उच्छायी (Erectile) तथा अत्यधिक संवहनी (Richly vascularized) मैथुनांग पाया जाता है, जो शिश्न कहलाता है। यह महीन उदरभित्ति द्वारा ढका रहता है।

–  शिश्नकाय (Body of penis) तन्तुमय एवं पेशीय संयोजी ऊतकों की तीन स्पंजी अनुलम्ब डोरियों (Longitudinal chords) का बना होता है। इनमें से दो मोटी डोरियाँ शिश्न के पृष्ठ पार्श्व (Dorsolateral) भागों में तथा तीसरी मूत्र मार्ग के चारों ओर अधरवर्ती भाग में, बीच में एक पतली डोरी होती है। पृष्ठवर्ती भाग की डोरियाँ शिश्न सगुह या कॉर्पोरा कैवरनोसा (Corpora cavernosa) तथा अधरवर्ती भाग की डोरी को स्पंजाभ पिण्ड या कॉर्पस स्पंजिओसम (Corpus spongisum) कहते हैं। शिश्न का शिखर भाग फैलकर एक फूले हुए चिकने मुण्ड (Glans-penis) का निर्माण करता है। यह केवल कॉर्पस स्पंजिओसम का बना होता है। शिश्न मुण्ड को ढकने वाली त्वचा एक टोपी के समान रचना बनती है जो शिश्नमुण्डछद (Prepuce) कहलाती है। यह मैथून के समय शिश्न मुण्ड के आधार पर वलित हो जाती है।

–  सामान्य अवस्था में शिश्न की तीन डोरियों में उपस्थित रक्त कोटर खाली रहते हैं तथा पेशियाँ संकुचित रहती हैं। इस समय मूत्र जनन छिद्र द्वारा मूत्र ही बाहर निकलता है। मैथून के प्रति उत्तेजना होने पर शिश्न धमनी से रक्त स्पंजी डोरियों के कोटरों में भर जाता है, पेशियाँ शिथिल हो जाती हैं और शिश्न फूलकर बड़ा एवं कड़ा हो जाता है। मुण्ड वाला भाग नग्न हो जाता है। शिश्न का तन कर खड़ा होना (Erection) शिश्न में रुधिर परिसंचरण पर निर्भर करता है। शिश्न मैथून के समय उत्तेजित अवस्था में योनि में गहराई तक प्रवेश कर जाता है जिससे मैथुन के समय निकले शुक्राणु गर्भाशय में आसानी से पहुँच सके।

मादा जनन तंत्र (Female Reproductive System)
A diagram of the uterus

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–  स्त्रियों में एक जोड़ी अण्डाशय (Ovary) प्राथमिक जननांगों (Primary reproductive organs) के रूप में होते हैं। इनके अतिरिक्त अण्डवाहिनी, गर्भाशय, योनि भग तथा जनन ग्रन्थियाँ एवं स्तन सहायक जननांगों का कार्य करते हैं।

1. अण्डाशय (Ovary)

–  स्त्रियों में बादाम की आकृति के दो अण्डाशय उदर गुहा में स्थित होते हैं। प्रत्येक अण्डाशय 1.5 से 3 सेंटीमीटर तथा 8 मिलीमीटर मोटी होती है और वृक्क के पीछे, श्रोणि प्रदेश (Pelvic region) में मध्यअण्डाशयी (Mesovarium) नामक आँत्रयोजनी (Mesentery) द्वारा उदर गुहा की पृष्ठ पार्श्व भित्ति से संलग्न रहता है। अण्डाशय द्वारा अण्डाणुओं (Ova) की उत्पत्ति तथा मादा हॉर्मोन ऐस्ट्रोजन (Estrogen) तथा प्रोजेस्टेरॉन (Progesterone) का स्त्रावण किया जाता है।

–  आन्तरिक संरचना के आधार पर अण्डाशय एक सघन तथा ठोस अंग है जो एक मोटे, सघन बाह्य भाग वल्कुट (Cortex), अपेक्षाकृत ढीले आन्तरिक भाग मध्यांश (Medulla) में विभक्त रहता है। अण्डाशय में सबसे बाहरी आवरण अंतरांग पेरिटोनियम (Visceral peritoneum), आन्तरिक भाग संयोजी ऊतक से निर्मित महीन व सफेद-सी ट्यूनिका ऐल्बूजीनिया (Tunica albuginea) तथा इनके मध्य में घनाकार कोशिकाओं की इकहरी जननिक उपकला (Germinal epithelium) होती है। वल्कुट एवं मध्यांश का संयोजी ऊतक के तंतुओं से निर्मित पदार्थ स्ट्रोमा (Stroma) कहलाता है।

–  वल्कुटीय क्षेत्र के स्ट्रोमा में प्रत्यास्थ तन्तु, अरेखित पेशी तन्तु, रुधिर वाहिनियाँ तथा परिपक्वता की विभिन्न अवस्थाओं में अनेक गोलाकर अण्डाशयी या ग्राफीयन पुटिकाएँ (Ovarian follicles or Graafian follicles) पाई जाती हैं। पुटक कोशिकाओं में विभाजन के द्वारा अण्डाशयी पुटक आकार में वृद्धि करता है। इन कोशिकाओं में से एक कोशिका शीघ्रता से आकार में वृद्धि कर अण्डाणु का निर्माण करती है। शेष कोशिकाएँ पुटक कोशिकाएँ कहलाती हैं। परिपक्व पुटक ग्राफीयन पुटक कहलाता है। अण्ड कोशिका (Oocyte) के बाहर की तरफ एक पारदर्शी एवं पतला स्तर, जोना पैल्युसिडा (Zona pellucida) बन जाता है। जिसके बाहर स्तम्भी कोशिकाएँ कोरोना रेडिएटा (Corona radiata) स्तर बनाती है। ग्राफीयन पुटक की वृद्धि प्रावस्था में अब कणिकामय कला (Membrana granulosa) की पुटक कोशिकाओं के बीच एक गुहा, पुटकीय गुहा या एन्ट्रम (Follicular cavity or antrum) का निर्माण हो जाता है जिसमें एक रंगहीन द्रव, पुटिका द्रव (Liquor folliculi) भरा होता है। ग्राफी पुटक में एक स्थान पर पुटकीय गुहा का विस्तार नहीं होता है। इस भाग में अण्ड कोशिका युक्त संरचना कणिकामय कला की कोशिकाओं के एक संयोजक पिण्ड द्वारा पुटक की दीवार से जुड़ा रहता है। इस संयोजक पिण्ड को अण्डधर चक्रिका या अण्डधर पुंज (Discus proligerus or Cumulus oophorus) कहते हैं।

–  ग्राफीयन पुटक की वृद्धि की अंतिम अवस्था में प्राथमिक अण्ड कोशिका (Primary Oocyte) में प्रथम परिपक्वन विभाजन (First maturation division) होता है, जिसमें यह द्वितीयक अण्ड कोशिका (Secondary oocyte) में बदल जाती है। मनुष्य सहित अधिकांश स्तनियों में इसी अवस्था में अण्डोत्सर्ग होता है। अण्डोत्सर्ग के समय परिपक्व पुटिका के फटने से अंडाणु मुक्त होकर बाहर आ जाता है, जिसके पश्चात् फटी हुई पुटक की कोशिकाओं द्वारा पीले रंग की एक ग्रन्थिल रचना कॉपर्स ल्युटियम का निर्माण किया जाता है। यह अण्डाणु का निषेचन होने के पश्चात् भी बनी रहती है। कॉर्पस ल्युटियम अस्थायी अन्तःस्त्रावी ग्रन्थि का कार्य करती है। इसके द्वारा प्रोजेस्टरोन तथा ऐस्ट्रोजन हॉर्मोन्स का स्त्रावण किया जाता है, जो गर्भाशय तथा स्तन ग्रन्थियों को क्रियाशील बनाते हैं। एक वयस्क महिला के दोनों अण्डाशयों में लगभग चार लाख ग्राफीयन पुटक पाए जाते हैं। इनमें से अधिकांश को अपह्वसन (Degeneration) के पश्चात् मासिक चक्र (औसत काल 28 दिन) के स्त्राव के साथ निष्कासित कर दिया जाता है।

2. अण्डवाहिनी (Oviduct)

–  प्रत्येक अण्डाशय से लगभग 12 सेंटीमीटर लम्बी, कीपनुमा एवं कुण्डलित पेशीय नलिका निकटतः सम्बद्ध होती है जिसे डिम्बवाहिनी नली या अण्डवाहिनी अथवा गर्भाशयी नलिका (Fallopian tube, Oviduct or Uterine tube) कहते हैं । डिम्बवाहिनी अपनी ओर के अण्डाशय के समीप से गर्भाशय तक फैली होती है। इसका अग्र कीपनुमा भाग जो अण्डाशय से लगा होता है, इंफन्डीबुलम या कीपक (Infundibulum) कहलाता है, जिसके किनारों पर अंगुलियों के समान अनेक झालरदार प्रवर्ध होते है, जिन्हें झालर (Fimbrae) कहते हैं। कीप का छिद्रनुमा मुख ऑस्टियम (Ostium) कहलाता है।

–  अण्डवाहिनी की दीवार संकुचनशील तथा अन्दर से पक्ष्माभी उपकला द्वारा आस्तरित होती है। इसकी श्लेष्मलीय उपकला (Mucosal epithelium) की स्त्रावी कोशिकाओं द्वारा गाढ़े लसलसे द्रव्य की पतली परत का स्त्रावण किया जाता है, जो अण्डाणु को पोषण व सुरक्षा प्रदान करता है। अण्डवाहिनी का अन्तिम सिरा गर्भाशय में खुलता है। अण्डाशय द्वारा मुक्त अण्डाणु झालर के द्वारा अण्डवाहिनी में प्रवेश कर जाते हैं।

3. गर्भाशय (Uterus)

–  यह नाशपती के आकार का खोखला अंग है जो श्रोणि क्षेत्र के मध्य में स्थित होता है। तीन मजबूत स्नायु (Ligaments) इसे श्रोणि गुहा में साधे रहते हैं। सामान्यत: इसका आकार 7.5 x 50 x 2.5 सेंटीमीटर होता है। इसमें दोनों तरफ की अण्डवाहिनियाँ आकर खुलती हैं। गर्भाशय की दीवार मोटी एवं अत्यधिक पेशीय होती है। गर्भाशय की गुहीय सतह पर श्लेष्मी उपकला का स्तर पाया जाता है जिसे गर्भाशय अन्तःस्तर (Endometrium) कहते हैं। म्यूकोसा के बाहर चिकनी पेशियों से निर्मित एक मोटी पेशीय परत पाई जाती है जिसे मायोमेट्रियम (Myometrium) कहते हैं। गर्भाशय का ऊपरी मुख्य भाग अपेक्षाकृत चौड़ा एवं तिकोनी गुहा (Triangular cavity) युक्त होता है, जिसे काय (Body) कहते हैं तथा इसका निचला संकीर्ण भाग गर्भाशय-ग्रीवा (Cervix uteri) कहलाता है। यह एक बाह्य द्वार (External orifice) द्वारा योनि में खुलता है। निषेचन के बाद निर्मित भ्रूण अपरा द्वारा गर्भाशय की दीवार से ही संलग्न रहता है, जहाँ इसे सुरक्षा एवं पोषण प्रदान किया जाता है।

4. योनि (Vagina)

–  गर्भाशय ग्रीवा उभर कर एक लचीली पेशीय झिल्लीमय नलिका रूपी रचना बनाती है जिसे योनि कहते हैं। योनि की भित्ति कोशिकाएँ ग्लाइकोजन का संचय करती है। योनि में उपस्थित लैक्टोबेसीलाई (Lactobacilli) जीवाणुओं की किण्वन क्रिया (Fermentation) द्वारा योनि में उपस्थित श्लेष्मा (Mucous) अम्लीय हो जाता है। जो संक्रमण से सुरक्षा प्रदान करता है। योनि द्वार एक पतली झिल्ली द्वारा आंशिक रूप से बंद रहता है, जिसे योनिच्छद (Hymen) कहते हैं। यह अत्यधिक शारीरिक परिश्रम, लैंगिक सम्पर्क तथा व्यायाम के कारण फट जाती है।

–  योनि स्त्रियों में मैथुनांग (Copulatory organ) की तरह कार्य करने के अतिरिक्त गर्भाशय से उत्पन्न मासिक स्त्राव को निष्कासन पथ उपलब्ध कराती है तथा शिशु जन्म के समय गर्भस्थ शिशु को बाहर निकलने के लिए जन्मनाल (Birth canal) की तरह कार्य करती है।

5. भग (Vulva)

–  स्त्रियों के सभी बाह्य जननांगों (External genitalia) को सम्मिलित रूप में भग कहा जाता है। ये श्रोणि क्षेत्र में मूलाधार (Perinaeum) के ठीक ऊपर स्थित होते हैं। भग में निम्नलिखित संरचनाएँ सम्मिलित होती हैं –

(i) प्यूबिस मुंड (Mons pubis or Mons veneris) – ये त्वचा से ढका एवं उभरा हुआ वसीय ऊतक युक्त भाग है जो कि प्यूबिस सिम्फाइसिस के ऊपर स्थित होता है।

(ii) वृह्दगोष्ठ (Labia Majora) – ये प्यूबिस मुंड से नीचे की तरफ व पीछे की ओर विस्तृत एक जोड़ी अनुदैर्ध्य वलन होते हैं, जो कि त्वचा से आच्छादित वसीय ऊतक से निर्मित होते हैं। इनकी बाह्य सतह पर रोम पाए जाते हैं।

(iii) लघुभगोष्ठ (Labia Minora) – ये वृह्दगोष्ठों के बीच में उपस्थित, एक जोड़ी छोटे वलन होते हैं जो कि वर्णकों से युक्त त्वचा में निर्मित होते हैं व प्रघाण को घेरे रहते हैं।

(iv) भगशेफ (Clitoris) – यह प्यूबिस मुंड के नीचे व लघुभगोष्ठों के अग्र कोने पर स्थित एक संवेदी व उच्छ्रायी (Erectile) अंग है, जो कि नर के शिश्न का समजात अंग (Homologous organ) होता है।

(v) प्रघाण (Vestibule) – लघुभगोष्ठों के मध्य में स्थित एक दरार रूपी स्थान को प्रघाण कहते हैं, इसमें मूत्र मार्ग एवं योनि अपने संगत द्वारा (Orifices) खुलते हैं। मूत्र मार्ग का द्वार (Urinary orifice or meatus) भगशेफ के ठीक नीचे एक छोटे छिद्र के रूप में होता है। इस द्वार के नीचे योनिद्वार (Orifice of vagina) स्थित होता है

यौवनारम्भ के समय मानव नर तथा मादा में होने वाले परिवर्तन–
नरमादा
शिश्न, वृषण कोषों, प्रॉस्टेट ग्रन्थि एवं शुक्राशय ग्रन्थि के आकार में वृद्धि होती है।गर्भाशय, योनि, अण्डवाहिनियों तथा भग के आकार में वृद्धि होती है।
वृषणों के आकार में वृद्धि एवं शुक्राणु जनन प्रारम्भ होता है।वक्ष स्थल पर स्तन ग्रन्थियों में वृद्धि तथा रजोदर्शन के साथ मासिक चक्र का प्रारम्भ होना।
आवाज का भारी होना।आवाज महीन, तीव्र एवं मधुर हो जाती है।
शरीर के विभिन्न क्षेत्रों जैसे चेहरे (दाढ़ी, मूंछ) वक्ष स्थल एवं श्रोणि भाग पर बालों का उगना।शरीर पर बालों का अभाव होना।
शरीर में तीव्र वृद्धि तथा अंसीय क्षेत्र में वृद्धि होना।श्रोणि भाग में तीव्र वृद्धि, नितम्ब भाग का फैलकर चोड़ा होना, स्तनों की वृद्धि, शरीर में वसा का संचय।
टेस्टोस्टेरोन, FSH, LH इत्यादि हॉर्मोन्स के स्त्रावण में वृद्धि।प्रोजेस्टरोन, ऐस्ट्रोजन तथा FSH, LH इत्यादि हॉर्मोन्स के स्त्रावण में वृद्धि।
मादा की ओर मनोवैज्ञानिक आकर्षण।नर की ओर मनोवैज्ञानिक आकर्षण।

(vi) बार्थोलिन की ग्रन्थियाँ अथवा वृहत् प्रघाण ग्रन्थियाँ Bartholin’s glands or Greater Vestibular Glands) – योनि द्वार के दोनों तरफ एक-एक सेम की आकृति (Bean shaped) की ग्रन्थि वृहद्भगोष्ठ पर स्थित होती है। ये ग्रंन्थियाँ एक क्षारीय व स्नेहक (Lubricating) द्रव का स्त्राव करती है, जो कि भग भाग को नम रखता है तथा लैंगिक परस्पर व्यवहार (Sexual Intercourse) को सुगम बनाता है।

6. स्तन या छाती (Breast)

–  स्तन या छाती स्त्री जनन तंत्र के सहायक अंगों का कार्य करती है। मादा में स्तन ग्रन्थियाँ (Mammary glands) से युक्त एक जोड़ी स्तन उपस्थित होते हैं। ये वक्ष के सामने की तरफ अंसीय पेशियों (Pectoral muscles) के ऊपर स्थित होती है। प्रत्येक स्तन ग्रन्थि में भीतर का संयोजी ऊतक 15-20 नलिकाकार कोष्ठकीय पालियों का बना होता है। इनके बीच-बीच में वसीय ऊतक होता है। प्रत्येक पालियों में अंगूर के गुच्छों के समान दुग्ध ग्रन्थियाँ होती हैं, जो दुग्ध का स्त्राव करती हैं। यह दूध नवजात शिशु के पोषण का कार्य करता है। प्रत्येक पालिका से निकली कई छोटी वाहिनियाँ एक दुग्ध नलिका या लैक्टीफेरस नलिका (Lactiferous duct) बनाती है। ऐसी कई दुग्ध नलिकाएँ स्वतंत्र रूप से आकर चूचुक (Nipples) में खुल जाती हैं। चूचुक स्तन ग्रन्थियों के शीर्ष भाग पर उभरी हुई वर्णकित (Pigmented) रचना है। इसके आसपास का क्षेत्र भी गहरा वर्णकित हो जाता है। इस क्षेत्र को स्तनपरिवेश (Areola mammae) कहते हैं। स्त्रियों में चूचुक के चारों तरफ का क्षेत्र वसा के जमाव तथा पेशियों के कारण काफी उभरा हुआ होता है। चुचूक में 0.5 मिमी के 15 से 25 छिद्र पाए जाते हैं।

–  स्तन ग्रन्थियों की वृद्धि एवं कार्य का नियंत्रण सोमैटोट्रोपिन, प्रोलेक्टिन, ऐस्ट्रोजन, प्रोजेस्टरोन, ऑक्सीटोसिन इत्यादि हॉर्मोन्स द्वारा होता है। दुग्ध में वसा, लैक्टोस, केसीन, लाइसोजाइम, कैल्सियम, विटामिन व कई महत्त्वपूर्ण प्रतिरक्षी पदार्थ पाए जाते हैं। माँ का दूध शिशु को पूर्ण पोषण प्रदान करने वाला महत्त्वपूर्ण उत्पाद है। जन्म के बाद यह शिशु को विभिन्न संक्रमणों से सुरक्षा प्रदान करता है।

–  प्रजनन क्रिया में स्त्रियों की, पुरुषों की तुलना में अधिक जिम्मेदारी होती है, क्योंकि मादा जनन तंत्र द्वारा जनन से संबंधित कई कार्य सम्पादित किए जाते हैं जिसे अण्डाणु निर्माण, मैथून के समय शुक्राणुओं को ग्रहण करना, गर्भाधान हेतु अनुकूल वातावरण तैयार करना, नवजात शिशु को भ्रूणावस्था एवं प्रसव पश्चात् पोषण देना, स्तन ग्रन्थियों द्वारा दुग्ध का संश्लेषण एवं स्त्रावण इत्यादि।

मानव में यौवनारम्भ लक्षण (Onset of Puberty in Man)

–  मानव में नर एवं मादा अपरिपक्व जनन अंगों का परिपक्व होकर जनन क्षमता का विकास होना यौवनारम्भ (Puberty) कहलाता है। नर की अपेक्षा मादा में यौवनारम्भ पहले प्रारंभ होता है। मानव नर में यौवनारम्भ 14-16 वर्ष की आयु में वृषणों की सक्रियता तथा शुक्राणु उत्पादन के साथ शुरू होता है जबकि मादा में 12-14 वर्ष की आयु में स्तन ग्रन्थियों की वृद्धि एवं रजो दर्शन (Menarche) के साथ प्रारम्भ होता है।

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