फसल के प्रमुख रोग और उनका नियंत्रण: रोगों का वर्गीकरण

फसल के प्रमुख रोग और उनका नियंत्रण: रोगों का वर्गीकरण

– पादप रोग विज्ञान तीन ग्रीक शब्दों से मिलकर बना है-

1. फाइटोन- पादप

2. पैथोज- रोग

3. लागोस- अध्ययन

– पादप रोग विज्ञान, कृषि विज्ञान, वनस्पति या जीव विज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत पादप रोगों के कारणों, रोगों से हुई हानि तथा नियन्त्रण के उपायों का अध्ययन किया जाता है।

– पादप रोगों की सही पहचान एवं उनका नियन्त्रण करने के लिए आवश्यक होता है। पादप रोगों का वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है-

1. रोग कारकों के आधार पर (on the basis of pathogen):-

2. स्थान के आधार पर:-

(a) स्थानिक रोग (Endemic disease):- वह पादप रोग जो किसी विशेष देश, जिले या स्थान पर फैला हुआ तथा क्षेत्र तक सामान्य से लेकर उग्र रूप में उपस्थित रहता है। उदा:- आलू का वार्ट रोग।

(b) विकीर्ण रोग (Sporadic disease):- वह पादप रोग जो अनियमित समय अन्तरालों तथा स्थानों पर उत्पन्न होता है। उदा:- ककड़ी का कोणीय पत्ती धब्बा रोग।

(c) महामारी रोग (Epidemic disease):- वह पादप रोग जो बड़े क्षेत्र में गम्भीर एवं उग्र रूप से कभी-कभी या कुछ अन्तराल के बाद प्रकट होता है तथा फसल को बहुत अधिक हानि पहुँचाता है। जैसे- गन्ने का लाल सड़न रोग, गेहूँ का रस्ट रोग एवं आलू का पछेता झुलसा रोग।

(d) सर्वव्यापी रोग (Pandemic disease):- जब कोई रोग पूरे विश्व, महाद्वीप या देश में फैली हुई हो तो उसे सर्वव्यापी रोग कहा जाता है। उदा:- आलू का पछेती अंगमारी रोग।

3. फसलों के आधार पर (On the basis of Crops):-

धान्य फसलों के रोगगेहूँ का रोली रोग, जौ का कण्डवा रोग
तिलहनी फसलों के रोगसरसों का सफेद रोली रोग, मूँगफली का टिक्का रोग
दलहनी फसलों के रोगचने का उकठा रोग, मूँग का पीला मोजेक रोग
सब्जियों के रोगआलू का पछेता झुलसा रोग, टमाटर का पर्ण कुंचन रोग
फलों के रोगनीबू का कैंकर रोग, आम का छाछ्या रोग
बागान फसलों के रोगचाय का लाल रोली रोग, कॉफी का रोली रोग
औषधीय फसलों के रोगग्वारपाठे का तना गलन रोग, तुलसी का उकठा रोग

4. पोषण न्यूनता के आधार पर (On the basis of nutritional deficiency):-

– मृदा में आवश्यक पोषक तत्त्वों की कमी या पादपों को पर्याप्त आवश्यक पोषक तत्त्व उपलब्ध नहीं होने के कारण उनमें विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। उदा:- जिंक की कमी से धान का खैरा रोग, कैल्सियम की कमी से टमाटर का ब्लॉसम एंड रोग, मोलिब्डेनम की कमी से फूलगोभी का व्हिपटेल रोग इत्यादि।

5. ऋतुओं के आधार पर (On the basis of seasons):-

(a) वर्षा ऋतु में होने वाले रोग:- बाजरा की मृदारोमिल ओसिता, चावल का ब्लास्ट रोग, कपास का जड़ गलन, आर्द्रगलन रोग इत्यादि।

(b) शरद ऋतु में होने वाले रोग:- गेहूँ का रोली रोग, आलू का अंगमारी रोग, स्क्लेरोटीनिया जड़ गलन रोग, सरसों का सफेद रोली, जौ का धारीदार रोग, पाला मारना (Frost damage) इत्यादि।

(c) ग्रीष्म ऋतु में होने वाले रोग:- चारकोल सड़न, रोग, सूरज दाग (Sun scald) इत्यादि।

खरीफ की फसलों के रोग (Diseases of kharif crops):-

  1. बाजरे का मृदुरोमिल आसिता रोग (Downy mildew disease):-

 लक्षण:-

– आर्द्र मौसम में पत्तियों की निचली सतह पर यह कवक वृद्धि

  करता है, अत: इसे Downy mildew कहा जाता है।

– अनाज की बालियाँ/पुष्प वाला भाग हरे पत्ते जैसा या पत्ती के घेरे जैसी संरचना में परिवर्तित हो जाता है इसलिए इसे ग्रीन इयर डिजीज नाम दिया गया है।

– रोगजनक (Pathogen):- स्क्लेरोस्पोरा गेमिनिकोला (Sclerospora graminicola)

 प्रबन्धन (Management):-

– गर्मी के दिनों में खेत की गहरी जुताई (Deep summer ploughing) करनी चाहिए।

– बीजों को मेटालेक्जिल (एप्रोन एस.डी. 35) से 6 ग्राम प्रति किलो बीज से बीजोपचार करना चाहिए।

– बुवाई के 21 दिन बाद मैन्कोजेब का छिड़काव करना चाहिए।

– बाजरे की रोगरोधी किस्में; जैसे- पूसा मोती, पूसा-23, WCC-75, ICMH-451, ICMH-88088, Raj-171 इत्यादि का प्रयोग करना चाहिए।

कपास का म्लानि रोग (Cotton wilt):-

 लक्षण:-

– इस रोग को ‘मुरझान’ या ‘उकटा’ के नाम से भी जाना जाता है।

– इस रोग में पौधे की जड़ों की जायलम वाहिकाओं का अवरुद्ध होना तथा जड़ों पर भूरी या काले रंग की धारियाँ दिखाई देती है।

 रोगजनक (Pathogen):-

– फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम फॉ. स्पे. वासइन्फेक्टम (Fusarium oxysporum f. sp. vasinfectum) नामक कवक।

 प्रबन्धन (Management):-

– अपरपोषी फसलों (Non-host crops) के साथ लम्बी समय अवधि तक फसल चक्र अपनानी चाहिए।

– मृदा का सोलेराइजेशन करना चाहिए।

– कार्बेन्डाजिम (0.1%) कवकनाशी से बीजोपचार करना चाहिए।

– रोगरोधी किस्में जैसे– जयाधरजरिलामोती, LD- 694, विजय तथा वेरूम का उपयोग करना चाहिए।

मूँगफली का पर्ण चित्ति (टिक्कारोग (Leaf spot or Tikka disease of groundnut):-

 लक्षण:-

– अगेती पत्ती धब्बा रोग में पत्ती की ऊपरी सतह पर लालभूरे से काले रंग के धब्बे बनते है।

– धब्बे कम तथा आकार में बड़े होते हैं। जिनका व्यास 1-10 मि.मीहोता है।

– रोगजनक (Pathogen):– सर्कोस्पोरा अरेकिडीकोला (Cercospora arechidicola)

– पछेती पत्ती धब्बा रोग में पत्ती की सतह पर गहरेभूरे से काले रंग के धब्बे बनते हैं जिनके चारों आर पीला घेरा (Yellow halo) नहीं होता है।

– धब्बे अधिक तथा छोटे होते हैं जिनका व्यास 1-6 मि.मीहोता है।

– रोगजनक (Pathogen):- – सर्कोस्पोरिडियम परसोनेटम (Cercosporidium personatum)

 प्रबन्धन (Management):-

 ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई एवं दोतीन साल का फसल चक्र अपनाना चाहिए।

– थायरम या केप्टान (2.5 ग्राम/किलो बीजसे बीज कर उपचार करना चाहिए।

– कार्बेन्डाजिम (0.1%) का 15 दिन के अन्तराल पर दो से तीन बार छिड़काव करना चाहिए।

– रोगरोधी किस्में; जैसे– ICGS-10, VRI-3 का प्रयोग करना चाहिए।

मूँगफली का विषाणु गुच्छा रोग (Peanut clump virus disease):-

 लक्षण:-

– इस रोग में रोग ग्रसित पौधे अत्यधिक छोटेगहरे हरे रंग के तथा गुच्छे में बदल जाते हैं एवं नई पत्तियों पर मोजेक तथा पीले रंग की रिंग के रूप में लक्षण दिखाई देते हैं।

 रोगकारक (Causal factor):-

–  “इण्डियन पीनट कलम्प वायरस” (Indian peanut clump virus, IPCV)

 प्रबन्धन (Management):-

– रोगग्रस्त खेत में बाजरे की बुवाई करके 15 दिन बाद इसे खेत में ही पलट देना चाहिए तथा बाद में मूँगफली की बुवाई करनी चाहिए।

– फसल चक्र के रूप में सरसों या गेंदा की फसल लेनी चाहिए।

– कार्बेन्डाजिम (0.1%) कवकनाशी से बीजोपचार करना चाहिए।

कपास का जीवाणु अंगमारी रोग (Chemical management):-

– अन्य नाम कोणीय पत्ती धब्बा‘ (Angular leaf spot) एवं काली भुजा रोग‘ (Black arm)

– इस रोग की चार अवस्थाएँ

1. नवजात पादप अंगमारी:- नवजात पौधों के बीजपत्र भूरे से काले रंग में बदल जाते हैं।

2. कोणीय अंगमारी:- परिपक्व पौधों की पत्तियों पर धब्बे कोणीय हो जाते हैं।

3. काली भुजा अवस्था:- तना  शाखाओं पर गहरे भूरे से कालेरेखीय धँसे हुए धब्बे प्रकट होते हैं। जिसके कारण काली टहनियाँ या काली भुजा दिखाई देती है।

4. बॉल सड़न अवस्था:- बॉल पर गहरे भूरे रंग के धब्बे प्रकट होते हैं।

 रोगजनक (Pathogen):-

 रोगजनक जैन्थोमोनास अक्जोनोपोडिस पैथोवार माल्वेसीएरम (Xanthomonas axonopodis pv. malvacearum)

 प्रबन्धन (Management):-

 बीजों को 56°C पर 10 मिनट तक गर्म जल से उपचारित करना चाहिए।

– स्ट्रेप्टोसाइक्लिन का 15-20 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिए।

टमाटर का पर्ण कुन्चन रोग (Leaf curl of tomato):-

 स्थानीय नाम– ‘कोढ़ी‘ या माथाबन्धी‘ रोग

 लक्षण:-

– रोगग्रस्त पौधे की पत्तियाँ का छोटा रह जानाकप आकार में मुड़नाकिनारों से पीला होनाशीर्ष पर गुच्छे में दिखाई देनापत्तियों का खुरदरा  मोटा हो जाना रोग के प्रमुख लक्षण है।

 रोगजनक (Pathogen):-

– टोमेटो येलो लीफ कर्ल वायरस (Tomato yellow leaf curl virus) विषाणु 

 यह विषाणु मुख्यतसफेद मक्खी (Bemisia tabaci) द्वारा फैलाया जाता है।

 प्रबन्धन (Management):-

– रोग वाहक सफेद मक्खी की रोकथाम हेतु इमिडाक्लोप्रिडडाइमिथोएटमिथाइल डिमेटोन का छिड़काव करना चाहिए।

– नीम के तेल का छिड़काव करना चाहिए।

टमाटर का अगेती झुलसा रोग (Early blight of tomato):-

– पत्तियों पर हल्के भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं।

 रोगजनक (Pathogen):-

– ऑल्टरनेरिया सोलेनाई (Alternaria solaniनामक मृदा जनित कवक।

 प्रबन्धन (Management):-

– ग्रामप्रति लीटर कॉपर ऑक्सीक्लोराइड या 2 ग्राम/प्रति लीटर पानी में मैंकोजेब का छिड़काव करना चाहिए।

– 0.2 ग्राम/प्रति लीटर पानी में बैक्टीरियोमाइसिन का छिड़काव करना चाहिए।

रबी की फसलों के रोग (Diseases of Rabi Crops):-

गेहूँ का रोली रोग (Wheat Rust Disease):-

– गेहूँ का रोली या रस्ट रोग पक्सीनिया की विभिन्न प्रजातियों के कारण तीन प्रकार का होता है।

– पक्सीनिया एक विकल्पी तथा बहुरूपी कवक है।

– यह एकाश्रयी (heteroecious) परजीवी है। उदाहरण इसका पूरा जीवनचक्र गेहूँ में होता है तथा वैकल्पिक पोषक पौधा बारबेरी है।

– इसके जीवनचक्र के दौरान पाँच प्रकार के बीजाणु उत्पन्न होते हैं।

– टीलियोबीजाणुयूरेडोबीजाणुबेसिडियोबीजाणुर्स्पमेशिया/ पिकनोस्पोरइसियोबीजाणु।

(a) काला या स्तम्भ रोली रोग (Black or Stem Rust):-

– रोगजनक (Pathogen):– पक्सीनिया ग्रेमिनिस ट्रीटीसाई (Puccinia graminis tritici)

 लक्षण:-

 इससे तने को ही अधिक क्षति पहुँचती है अतइसे तने का रतुआ कहा जाता है।

– यूरेडिनिया के लम्बे भूरे दाने तनेपत्ती के खोल तथा पत्ती की ऊपरी पर प्रकट होते हैं।

 प्रबन्धन (Management):-

– फसलों में प्रतिरोध क्षमता बढ़ाने के लिए संतुलित उर्वरकों का प्रयोग किया जाना चाहिए।

– रोग के लक्षण दिखाई देने पर ट्राइऐडिमेफॉन 0.2 प्रतिशत के दो छिड़कावसात से बीस दिन के अन्तराल पर करने से रोग तीव्रता को कम किया जा सकता है।

गेहूँ का भूरा या पर्ण किट्ट रोग (Brown or Leaf Rust of Wheat):-

– यह हमारे देश में गेहूँ की फसल में सबसे ज्यादा फैलने वाला हानिकारक रोग रतुआ है।

 लक्षण:-

– हल्के नारंगीभूरे रंग के दाने (रतुए के रंग के यूरेडिनोस्पोर्समुख्यतपत्ती की ऊपरी सतह पर छितराए हुए रहते हैं अतइन्हें लीफ रस्ट कहा जाता है।

 रोगजनक (Pathogen):- पक्सीनिया रिकॉन्डिटा (Puccinia recondite)

 प्रबन्धन (Management):-

– फसलों में प्रतिरोध क्षमता बढ़ाने के लिए संतुलित उर्वरकों का प्रयोग किया जाना चाहिए।

– रोग के लक्षण दिखाई देने पर ट्राइऐडिमेफॉन 0.2 प्रतिशत के दो छिड़कावसात से बीस दिन के अन्तराल पर करने से रोग तीव्रता को कम किया जा सकता है।

गेहूँ का पीला रोली रोग (Yellow Rust of Wheat):-

 लक्षण:-

– फसल को शुरुआती चरण में क्षति पहुँचाता है।

– पीले रंग को छिद्रनीबू के रंग के पीले दाने पत्तियोंपत्ते के खोल तथा ग्लूम्स पर पंक्तियों में विकसित होते हैंयह पीले रतुए की मुख्य विशेषता है।

 रोगजनक (Pathogen):- पक्सीनिया स्ट्राइफॉर्मिस (Puccinia striiformis)

 प्रबन्धन (Management):-

  •  कवकनाशी कार्बोक्सिन या ऑक्सीकार्बोक्सिन 0.2% का छिड़काव करना चाहिए।

गेहूँ का अनावृत्त या छिदरा कण्ड (Loose Smut of Wheat):-

– अन्य नाम– कन्जीयारीकेरंजुवाकंडुआकान्हीकायमाकालिमाशिथिल।

 लक्षण:-

– संक्रमित पौधे की सम्पूर्ण बालियाँ काले रंग के चूर्ण में परिवर्तित हो जाती है।

– प्रारंभ में सम्पूर्ण बाली एक चमकीली झिल्ली से ढकी रहती है तथा बाद में झिल्ली फट जाती है।

 रोगजनक (Pathogen):-

– अस्टिलेगो सेजेटम प्रजाति ट्रिटिसाई (Ustilago segetum var. tritici)

प्रबन्धन (Cultural management):-

 संक्रमित बीजों को 3-4 घण्टे ठण्डे पानी में भिगो कर 54-56° सेन्टीग्रेड तापक्रम के गर्म पानी में 0 मिनट तक डुबोकर निष्क्रिय किया जा सकता है।

– बीजों को कार्बोक्सीन की 2 से 2.5 ग्राम प्रति किलो की दर से उपचारित कर बुवाई करनी चाहिए।  

जौ का आवृत्त कंड (Covered Smut of Barley):-

– सम्पूर्ण पुष्पक्रम (शूकों के अलावाकाले चूर्ण समूह वाली धूसर बाली में परिवर्तित हो जाता है।

 रोगजनक (Pathogen):- अस्टिलेगो होर्डाई (Ustilago hordei) कवक

 प्रबन्धन (Management):-

1. खेत में संक्रमित बालियों को एकत्र करके जला देना चाहिए।

2. बीजों को कवकनाशी कार्बोक्सिन या ऑक्सीकार्बोक्सिन 2 ग्राम प्रति किलो बीज से उपचार करना चाहिए।

3. बीजों को मईजून के माह में धूप में रखकर उपचारित किया जा सकता है।

सरसों का सफेद रोली रोग (White Rust of Mustard):-

 लक्षण:-

– यह सरसों का अतिभयंकर विश्वव्यापी रोग है।

– इस रोग के संक्रमण के कारण पत्तियों की निचली सतह पर सफेद या क्रीमी रंग के उभरे हुए फफोले दिखाई देते हैं।

– उग्र अवस्था में पत्तियों की ऊपरी सतह पर भी फफोले बनने लगते हैं तथा फफोलों के फट जाने पर सफेद चूर्ण पत्तियों पर फैल जाता है।

– तनों के फूलने से विभिन्न भागों में सूजन दिखाई देती है।

– पुष्पीय भाग  कलियाँ पूरी तरह से विकृत हो जाती है। जिस कारण बीज का निर्माण नहीं हो पाता है।

 रोगजनक (Pathogen):- एल्ब्यूगो केण्डिडा (Albugo Candida)

 प्रबन्धन (Management):-

1. सरसों की फसल की शीघ्र बुवाई अर्थात् अक्टूबर माह के प्रथम पखवाड़े में करनी चाहिए।

2. बीजों को कवकनाशी मेटालेक्सिल (एप्रोन S.D.35) से 6 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार करना चाहिए।

3. 20 दिन के अन्तराल में मैंकाजेब 2 किलो/प्रति हैक्टर का 2-3 बार छिड़काव करना चाहिए।

बैंगन का लघुपर्ण रोग (Little leaf of Brinjal):-

 लक्षण:-

– इस रोग में रोग ग्रसित पौधे की पत्तियाँ आकार में छोटी रह जाती है।

– रोगी पौधे पर पुष्प तथा फल नहीं बनते।

– सम्पूर्ण पौधा झाड़ीनुमा हो जाता है।

– रोगजनक (Pathogen):- फाइटोप्लाज्मा (Phytoplasma)

– यह एक माइकोप्लाज्मा सदृश्य जीव (MLOs) द्वारा जनित रोग है।

– इसका वाहक कीट (Vector insect) – हिसोमोनस फाइसाइटिस (Hishi monus phycitis) है।

 प्रबन्धन (Management):-

1. रोगवाहक कीटों को नियंत्रित करने के लिए मैलाथियान (1 मि.लीप्रति ली.) का छिड़काव करना चाहिए।

2. पौधों की जड़ों को रोपण से पूर्व ट्रेटासाइक्लिन (1000 PPM) घोल में डुबाकर रोपाई करनी चाहिए।

जीरे का छाछ्या रोग (Powdery mildew of cumin):-

 लक्षण:-

– रोग की प्रारम्भिक अवस्था में निचली पत्तियों पर सफेद या धूसर रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। अनुकूल अवस्था में पत्तियों की सतह पर सफेद बीजाणु सफेद चूर्ण के रूप में दिखाई देते हैं।

– धीरेधीरे यह चूर्ण पूरे पौधे पर फैल जाता है जिससे पौधे की वृद्धि रुक जाती है।

 रोगजनक (Pathogen):- ऐरीसाइफी पोलीगोनी (Erysiphe polygoni)

 प्रबन्धन (Management):-

1. रोग के लक्षण दिखने पर 13.5 किलोग्राम सल्फर चूर्ण प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करना चाहिए।

2. डाइनोकेप (0.1%) का छिड़काव करके रोग के संक्रमण को रोका जा सकता है।

नीबू का कैंकर रोग (citrus Canker):-

 लक्षण:-

– नीबू वंश का महत्त्वपूर्ण एवं गंभीर रोग जो विश्वव्यापी है।

– पौधे की पत्तियोंटहनियोंफलों पर भूरे या पीले रंग के धब्बों  उभरे हुए दानों की वृद्धि हो जाती है।

– कैंकर के ये उभरे हुए दाने या छाले फलों तक ही सीमित रह जाते हैं अर्थात् फल की आन्तरिक गुणवत्ता को प्रभावित नहीं करते हैं।

 रोगजनक (Pathogen):- जेन्थोमोनास एक्सोनोपोडिस पेथेवार सिट्राई (Xanthomonas axonopodis pv. citri)

 प्रबन्धन (Management):-

1. रोग से ग्रसित पौधे की सभी टहनियों  शाखाओं को काट छाँट कर जला देना चाहिए तथा शाखाओं के कटे हुए सिरों पर बोर्डो मिश्रण (1%) का छिड़काव करना चाहिए।

2. प्रतिजैविक स्ट्रेप्टोसाइक्लिन (500 ppm) का छिड़काव 15 दिन के अन्तराल में करना चाहिए।

बेर का छ्छ्या रोग (Powdery Mildew of Ber):-

 लक्षण:-

– बेर के छोटे फलोंशाखाओंटहनियों  फूलों पर सफेदचूर्ण जमा हो जाता है जिससे प्रभावित भागों की वृद्धि रुक जाती है। फल  पत्तियाँ गिरने लग जाते हैं।

– यह रोग प्रायनवम्बर– अप्रैल माह के मध्य दिखाई देता है।

 रोगजनक (Pathogen):- ओइडियम एरिसाइफोइड्स (oidium erisiphoides)

 प्रबन्धन (Management):-

– रोकथाम के लिए घुलनशील सल्फर (25 किलो प्रति हैक्टरको पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए।

– डाइनोकेप (0.1%) घोल का छिड़काव प्रारंभ में कर देना चाहिए।

अमरूद का म्लानि रोग (wilt of Guava):-

 लक्षण:-

– यह रोग अमरूद में बनाने वाले रोगों में सबसे अधिक विनाशकारी होता है।

– संक्रमित पौधे की पत्तियाँ भूरे रंग में परिवर्तित होकर मुरझा जाती है।

– संक्रमण पूरे तने पर फैल जाता है जिससे पौधा पूरा सूख जाता है एवं पौधे की सभी पत्तियाँ गिर जाती है। फलस्वरूप पौधा एक वर्ष की समयावधि में नष्ट हो जाता है।

 रोगजनक (Pathogen):- फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम प्रजाति साइडाई (Fusarium oxysporum f.s.p. psidi)

 प्रबन्धन (Management):-

1. पेड़ के चारों तरफ की मृदा का उपचार 1.8 किलोग्राम प्रति पौधे के अनुसार चूने या जिप्सम से करना चाहिए।

2. जमीन में गड्ढ़े बनाकर 3 ग्राम/लीटर थीरम का घोल डालना चाहिए।

3. कार्बेन्डाजिम का घोल बनाकर मृदा का उपचार करना चाहिए।

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