राजस्थान की प्रमुख जनजातियाँ

जनजातियाँ

● मानव सभ्यता के विकास के प्रभावों से दूर अपने प्राकृतिक परिवेश के अनुरूप जीवनयापन करते हुए अभी भी अपनी जीवन पद्धति, भाषा, संस्कार एवं व्यवसायों को अक्षुण्ण बनाए रखे हुए मानव समुदाय, आदिवासी जनजाति समुदाय कहलाते हैं।

अनुसूचित जनजाति –

● किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति के रूप में चिह्नित करने के लिए सामान्य रूप से निम्नलिखित विशेषताएँ या लक्षण होने चाहिए-

 (i) आदिम लक्षण

 (ii) एक विशिष्ट संस्कृति

 (iii) भौगोलिक अलगाववाद

 (iv) अपनी राजनैतिक व्यवस्था

 (v) सामाजिक व आर्थिक पिछड़ापन

 (vi) बाहर के लोगों से संपर्क करने में संकोच या कतराना

● संविधान की धारा 366 (25) में दिए गए निर्देशानुसार भारत के राष्ट्रपति देश के किसी भी समुदाय को संविधान के अनुच्छेद-342 (i) के अन्तर्गत जनजाति घोषित कर सकते हैं।

राजस्थान में जनजाति जनसंख्या–

● राजस्थान जनजाति जनसंख्या की दृष्टि से मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उड़िसा, बिहार, गुजरात के बाद राजस्थान छठे स्थान पर है।

● अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या 92,38, 534 है, जो राज्य की जनसंख्या का 13.48 प्रतिशत है।

● राज्य  में सर्वाधिक जनजातीय जनसंख्या –

           1.उदयपुर (15.25 लाख),

              2. बाँसवाड़ा

● राज्य  में न्यूनतम जनजातीय जनसंख्या –

           1.बीकानेर (7779),

           2.नागौर

● राज्य में जनजाति जनसंख्या प्रतिशत की दृष्टि से सर्वाधिक –

           1. बाँसवाड़ा (76.38 %),

           2.डूँगरपुर

● राज्य में जनजाति जनसंख्या प्रतिशत की दृष्टि से न्यूनतम –

           1. नागौर (0.31%),

           2.बीकानेर

राजस्थान में निवास करने वाली जनजातियाँ–

 1. भील जनजाति  2. मीणा जनजाति

 3. गरासिया जनजाति   4. सहरिया जनजाति

 5. कथौड़ी     6. डामोर

 7. सांसी    8. कंजर

 9. कालबेलिया

(i) पूर्वी एवं दक्षिणी-पूर्वी क्षेत्र : इस क्षेत्र में राजस्थान के अलवर, भरतपुर, धौलपुर, जयपुर, दौसा, सवाईमाधोपुर, करौली, अजमेर, भीलवाड़ा, टोंक, कोटा, बाराँ, बूंदी, झालावाड़ जिले सम्मिलित हैं। यह क्षेत्र मीणा जनजाति बाहुल्य क्षेत्र है।

● बारां जिले की शाहबाद तहसील और किशनगंज तहसील में सहरिया जनजाति के लोगों की अधिकता है। सांसी जनजाति भरतपुर जिले में निवास करती है।

(ii) दक्षिणी क्षेत्र : इसके अन्तर्गत राजस्थान के सिरोही, राजसमन्द, चित्तौड़गढ़, बांसवाड़ा, डूंगरपुर और उदयपुर आदि जिले आते हैं।

1. भील जनजाति

● यह राजस्थान की दूसरी प्रमुख जनजाति है।

● आर्थिक दृष्टि से यह लोग स्थायी रूप से कृषक, सामाजिक दृष्टि से पित़सत्तात्मक जनजाति एवं परम्परागत रूप से अच्दे तीरंदाज होते हैं।

● भील जनजाति राजस्थान के भीलवाड़ा, बाँसवाड़ा, डूँगरपुर, उदयपुर, सिरोही, चित्तौड़गढ़ आदि जिलों में मुख्य रूप से निवास करती है।

● ‘Wild Tribes of India’ नामक पुस्तक के लेखक रोने ने भीलों का मूल निवास मारवाड़ को बताया है।

भीलों की उपजातियाँ

● मेवाड़ राज्य से भीलों की 16 प्रतापगढ़ से 36, डूँगरपुर से 36, बाँसवाड़ा से 32, जैसलमेर से 18 और जोधपुर से 58 उपशाखाओं (गोत्र) का पता लगा है, इनमें से कई राजपूतों की उपशाखाएँ भी पाई जाती है।

● मेवाड़ के गुहिलवंश का संबंध भीलों से था।

● भीलों द्वारा महाराणा प्रताप को दिया गया सहयोग आज भी स्मरणीय है।

अर्थव्यवस्था

● आर्थिक दृष्टि से भील जनजाति के लोग अत्यन्त निर्धन है।

● पहाड़ी ढालों के वनों को जलाकर प्राप्त की गई भूमि में वर्षा काल में अनाज, दालें, सब्जियाँ बो दी जाती है। इसी प्रकार की खेती को चिमाता कहा जाता है।

● भीलों को कर्नल जेम्स टॉड ने वन पुत्र कहा।

● महाभारत में भीलों को निषाद कहा गया।

● ‘भील’ शब्द की उत्पत्ति – बील (द्रविड़ भाषा का शब्द) (अर्थ – तीर कमान)

● राजस्थान की सबसे प्राचीन जनजाति है।

● मीणा जनजाति के बाद राज्य की दूसरी सर्वाधिक आबादी वाली जनजाति है।

● सर्वाधिक निवासी उदयपुर में है  

● कई घरों का मोहल्ला फला कहलाता हैं।  

● इनके घरों को टापरा या कू कहा जाता हैं।

●       इनके गाव को पाल तथा गाव के मुखिया को पालवी या तदवी कहा जाता हैं।  

● भीलों को पंचायत का मुखिया गमेती कहलाता है।  

● मौताणा प्रथा – किसी व्यक्ति की संदिग्ध मृत्यु होने पर मृत्यु स्थान के स्वामी से जब तक हर्जाना न वसूला जाए तब मृत व्यक्ति के शरीर को वही रखा जाता है तथा हर्जाने का फैसला पंचायत ही तय करती है।

भील पुरुषों के वस्त्र–

1) पोत्या – सफेद रंग का साफा होता है।

2) फेंटा – लाल/पीला/केसरिया साफा होता है।

3) लंगोटी/खोयतु – कमर पर पहना जाने वाला वस्त्र है।  

4) ढेपाड़ा – तंग धोती (घुटनों तक) है।

5) फालू – कमर पर रखे जाने वाला अंगोछा है।  

भील महिलाओं के वस्त्र–

1) कछाबू – घुटनों तक पहना जाने वाला घाघरा है।

2) सिन्दूरी – लाल रंग की साड़ी होती है।

3) पिरिया – पीले रंग का लहंगा है।    

4) परिजनी – पीले रंगी की मोटी चूड़ियाँ जो पैरों में पहनी जाती है।

5) ताराभाँत की ओढ़नी – इनकी लोकप्रिय ओढ़नी है।

● टोटम – भीलों का कुलदेवता, पेड़-पौधों को टोटम का प्रतीक मानते हैं।

● आमजा माता – भीलों की कुलदेवी है।

● फायरे-फायरे – भीलों का रणघोष है।

● गवरी या राई – भीलों का प्रमुख लोकनाट्य हैं।

● झूमटी/दजिया – झूमिंग कृषि (मैदानी भागों को जलाकर) है।  

● चिमाता – पहाड़ी भागों पर की जाने वाली झूमिंग कृषि है।

लोकगीत :- 

1) हमसीढ़ो – महिला व पुरुषों का युगल गीत है।

2) सुंवटियो – केवल महिलाओं का गीत है।  

प्रमुख नृत्य :

1) गवरी नृत्य  2) गैर नृत्य

3) युद्ध नृत्य   4) रमणी नृत्य

5) हाथीमना   6) द्विचक्री/द्विचक्की

7) घूमरा

भील जनजाति के मेले :

1) बेणेश्वर मेला – नवाटापरा (डूँगरपुर), माघ पूर्णिमा, इसे आदिवासियों का कुंभ’ कहा जाता है।

2) मानगढ़ धाम मेला – मानगढ़ पहाड़ी (बाँसवाड़ा)

3) घोटिया अम्बा का मेला – घोटिया (बाँसवाड़ा)

● ऊंदरिया पंथ – भील जनजाति में प्रचलित एक धार्मिक पंथ।

● पाखरिया भील (बहादुर भील) – कोई भील पुरुष किसी सैनिक के घोड़े को मार देता है तो उसे पाखरिया भील कहा जाता है।

● कांडी (अभद्र शब्द) – भीलों को कांडी कहने पर नाराज हो जाते हैं।

● पाडा – प्रेम सूचक शब्द – इस शब्द को सुनने से भील प्रसन्न होते हैं।

● भीलों में भगत पंथ की परम्परा का सूत्रपात गोविन्द गुरु ने किया था।

2. मीणा जनजाति

●  इसका गण चिह्न – मीन (मछली) मत्स्य है।

● मीणाओं का उल्लेख ‘मीणा पुराण’ तथा ‘मत्स्य पुराण’ में मिलता है। 

● यह देश की अति प्राचीन जनजाति है तथा राजस्थान में आबादी की दृष्टि से सबसे बड़ी जनजाति है।

● सर्वाधिक आबादी जयपुर में निवास करती हैं।  

● यह शक्ति के उपासक हैं और दुर्गा माता की पूजा करते हैं।

● इनकी इष्टदेवी जीण माता है।

● मीणाओं के कुलदेवता बुझ देवता है।

● मीणाओं की 24 खापें हैं। मुनि मगर सागर (मीणा जनजाति के धर्म गुरु) ने मीणा पुराण ग्रंथ की रचना की।

अर्थव्यवस्था

● कृषि के अलावा मीणा जनजाति के लोग अन्य व्यवसायों को भी अपनाने लगे हैं।

● सरकारी आरक्षण नीति के फलस्वरूप मीणा जनजाति के लोग अब उच्च सरकारी पदों पर आसिन होने लगे है।

मीणा जनजाति के वर्ग :-

● जमींदार मीणा – कृषि व पशुपालन का कार्य करते हैं।

2) चौकीदार मीणा – राजघरानों की चौकीदारी का कार्य करते थे।

● आराध्य देव – भूरिया बाबा (नाणा रेलवे स्टेशन-पाली) हैं।  

सामाजिक जीवन :

● यह जनजाति सर्वाधिक शिक्षित हुई।

●       ‘मोरनी माण्डना’ भील जनजाति के विवाह के समय की एक प्रथा हैं।

● नाता प्रथा प्रचलित है।

● गाँव का मुखिया  पटेल कहलाता हैं।

● इस जनजाति में गोद प्रथा प्रचलित है।

3. गरासिया जनजाति

● निवास – सिरोही, उदयपुर, पाली (बाली) हैं।  

● कर्नल जेम्स टॉड, गरासिया शब्द की उत्पत्ति ‘गवास’ शब्द से हुई जिसका अर्थ सर्वेन्ट/नौकर होता है।

● गरासिया जनजाति में पितृसत्तात्मक व पितृवंशीय परिवार पाए जाते हैं।

● राज्य की आबादी की दृष्टि से तीसरी सबसे बड़ी जनजाति है।

● इस जनजाति पर गुजराती, राजस्थानी और मराठी इन तीनों संस्कृतियों एवं सभ्यता का प्रभाव है।

● सिरोही जिले का भाखर क्षेत्र इस जनजाति का मूल प्रदेश है।

जीवन

● नक्की झील (आबू)- इस समुदाय के लोग इस झील को सबसे पवित्र मानते हैं तथा इसमें वह अपने पूर्वजों की अस्थियों का विसर्जन करते हैं तथा इसे गरासियों की गंगा भी कहा जाता है।

● घरों को घेर कहा जाता है।

● इस समुदाय में गाँव की सबसे छोटी इकाई फलिया है।  

● पंचायत का मुखिया सहरोल कहलाता है।

● नृत्य – गोल नृत्य, मादल नृत्य, ज्वारा, राय, लूर नृत्य, मोरिया नृत्य, वालर, कूद, दोह नृत्य इत्यादि हैं।  

● वाद्ययंत्र – बाँसुरी, नगाड़ा, अलगोजा हैं।

● मोर पक्षी को इस समुदाय के लोग अपना आदर्श पक्षी मानते हैं।

● व्यवसाय – कृषि एवं पशुपालन।

● भील गरासिया – गरासिया पुरुष तथा भील स्त्री का विवाह।

● गमेती गरासिया – भील पुरुष तथा गरासिया स्त्री का विवाह।

● इस समुदाय में 3 वर्ग होते हैं–

1) मोटी नियात – उच्च वर्ग के लोग बाबोर हाईया कहलाते हैं।

2) नेनकी नियात – मध्यम वर्ग के लोग माडेरिया कहलाते हैं।

3) निचली नियात – निम्न वर्ग के लोग होते हैं।  

● इस समुदाय में त्योहारों का आरम्भ आखातीज से माना जाता है।

● प्रिय त्योहार – होली एवं गणगौर हैं।  

● यह जनजाति एकाकी परिवार में विभक्त होती है।

● इस समुदाय में मृतक का अंतिम संस्कार मृत्यु के 12वें दिन किया जाता है।

● इस समुदाय में प्रेम विवाह सर्वाधिक प्रचलित है।

● हलेरू – इस समुदाय की सामाजिक संस्था हैं।

● अनाज भण्डार की मिट्‌टी की आकर्षक कोठियाँ सोहरी कहलाती है।

● नवजात शिशु की नाल काटने व गाढ़ने की प्रथा ‘अनालामोरयू’ कहलाती है।

● गरासिया जनजाति में मृत्यु भोज मेक कहलाता है।

इनके विवाह के प्रकार-

 1. मोरबंधिया

 2. पहरावना विवाह

 3. ताणना विवाह

           4. मेलबो

           5. खेवणो– प्रेमी से विवाह का प्रकार है।  

● इस जनजाति में पलायन, दितवारिया, सेवा, नाता तथा अट्टा-सट्‌टा (विनिमय विवाह) का भी प्रचलन है।

आभूषण एवं पहनावा

● गरासियों में गोदने की परम्परा है तथा चेहरे पर होने वाला गोदना ‘माण्डलियां’ कहलाता है।

● हाथ-पाँव पर गोदना ‘माण्डला’ कहलाता है।

● पुरुषों के आभूषण में झेला, झरमरिया, कड़ा, कंदोरा और हांकली सम्मिलित हैं।

● स्त्रियाँ प्राय: विटली, हाथपान, हांसली, बोरयू और जबला भमरिया पहनती है।

अर्थव्यवस्था

● गरासिया जनजाति मुख्य रूप से पशुपालन और कृषि से अपनी आजीविका चलाती है।

4. सहरिया जनजाति

● इस जनजाति का 99.2 प्रतिशत भाग बाराँ जिले की शाहबाद व किशनगंज तहसीलों में निवास करता है।

● सहरिया राजस्थान की जनसंख्या का 0.99 प्रतिशत है।

● इनमें कई गोत्र राजपूतों के समान है यथा– चौहान, देवड़ा, सोलंकी व बांधेल आदि।

● जनजाति जिसे भारत सरकार ने ‘आदिम समूह जनजाति’ में शामिल किया है।

●  ‘सहरिया’ शब्द की उत्पत्ति – फारसी भाषा के ‘सहर’ शब्द से हुई जिसका अर्थ जंगल में विचरण करना’ है।

● तेजाजी को भी पूजते है।

● इनकी कुलदेवी कोडिया माता हैं।  

● सहरिया जनजाति में धारी संस्कार प्रचलित है।  

 मेले-

1) सीताबाड़ी का मेला – सीताबाड़ी (बाराँ) में ज्येष्ठ अमावस्या को भरता है।

2) कपिल धारा का मेला – सीताबाड़ी (बाराँ) में कार्तिक पूर्णिमा को भरता है।

● प्रमुख लोकनृत्य – शिकारी, इन्द्रपरी, लहंगा, झैला नृत्य

सामाजिक जीवन :-

● महिला और पुरुष एक साथ कभी नृत्य नहीं करते हैं।

● इस जनजाति में भीख माँगना वर्जित है।

● इस जनजाति में मृतक का श्राद्ध नहीं किया जाता है।

● नवरात्र में इस जनजाति के लोग माँ दुर्गा व माँ काली की विशेष पूजा करते हैं।

● सहरिया लोगों की बस्ती सहराना कहलाती है।

● इनके गाँव को सहरोल कहा जाता है।

● इनकी झोंपड़ी हथाई या बंगला कहलाती है।

● इनमें दहेज प्रथा प्रचलित नहीं है।

● सहरिया जनजाति में विधवा विवाह व नाता प्रथा प्रचलित है।

● इस समुदाय में बच्चों का मुंडन करने का रीति-रिवाज है।

● सहरिया समाज की सबसे बडी संस्था पंचायत है तथा पंचायत की बैठक वाल्मीकि मंदिर (सीताबाड़ी-बाराँ) में आयोजित की जाती है जिसका मुखिया कोतवाल कहलाता है।  

● इस जनजाति में पर्दा प्रथा केवल घर में प्रचलित है।

● सहरिया जनजाति में बहु पत्नी प्रथा प्रचलित है।

● इस समुदाय में विवाह हिन्दू रीति-रिवाज के अनुसार लेकिन फेरों में अन्तर (6 फेरे वधू, 1 फेरा वर) होता है।

● लट्ठमार होली भी प्रचलित है।

● इस समुदाय में सबसे कम साक्षरता दर है।

● सहरिया जनजाति में बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन है।गरासियों की भाँति इस जनजाति में भी वधू-मूल्य प्रथा प्रचलित है।

● सहरिया आदिवासियों में विवाह की प्रथा से जुड़ा हुआ संस्कार ‘लीला मोरिया संस्कार’ है।

● सहरिया जनजाति द्वारा दिया गया मृत्युभोज ‘लोकामी’ कहलाता है।

● मोड़िया देवी सहरिया जनजाति की कुलदेवी है।

● इनके क्षेत्र में मामुनी की संकल्प संस्था ने अच्छा कार्य शुरू किया है। इस संस्था में जहाँ शहरों के सम्पन्न, पढ़े, लिखे युवक सहरिया आदिवासियों के साथ रहते हैं, उनमें चेतना जागृत करने के साथ उनके शोषण का विरोध भी शसक्त रूप से करते हैं।

5. कथौड़ी जनजाति

● इनका निवास पत्तों से बनी झोपड़ियाँ हैं तथा जीविका अर्जन का साधन खैर के जंगलों के पेड़ों से कत्था तैयार करना है।

● इसका राज्य में सभी जनजातियों में सबसे कम शैक्षिक विकास हुआ है।

● यह जनजाति मूलत: महाराष्ट्र की जनजाति है।

● राजस्थान में कत्था तैयार करने के कारण यह कथौड़ी जनजाति कहलाती है।

सामाजिक जीवन :

● यह जनजाति जंगलों में विचरण करती है अत: यह अस्थायी और घुमक्कड़ जीवन यापन करती है।

●         इनके घरों को खोलरा कहा जाता हैं जो जंगलों में काष्ठ तथा घास का बना होता है।

● कथौड़ी जनजाति के सभी लोग माँसाहारी है। यह गाय व लाल मुह के बंदर का माँस काफी पसंद करते हैं।

● यह जनजाति दूध, घी, छाछ व दही का बिल्कुल प्रयोग नहीं करती है।

● कथौड़ी जनजाति पूर्णत: जंगलों (प्रकृति) पर आश्रित है।

 लोकनृत्य –

1) मावलिया नृत्य नवरात्र में केवल पुरुषों के द्वारा किया जाता है।  

2) होली नृत्य केवल महिलाओं के द्वारा किया जाने वाला नृत्य है।

● इस जनजाति की महिलाएँ मराठी अंदाज में साड़ी पहनती है, जिसे फड़का कहा जाता है।

● इस जनजाति में पुरुषों व महिलाओं को गोदना बनाने का शौक है।

● इस जनजाति के लोग शव को दफनाते समय शव के मुँह में चावल और हाथ में पैसे रखते हैं।

 वाद्ययंत्र

1) तालीसर (पीतल की थाली)- देवी-देवताओं की स्तुति के समय तथा मृतक के अंतिम संस्कार के समय प्रयोग किया जाता है।

2) तारणी – लौकी के एक सिरे में छेद करके बनाया जाता है जो महाराष्ट्र के तारपा वाद्ययंत्र से मिलता जुलता है।

3) खोखरा/घोरिया

4) पावरी – यह मृत्यु के समय बजाया जाता है।

5) टापरा

● कथौड़ी जनजाति के समाज के मुखिया को नायक कहा जाता है।

● इसमें नाता प्रथा (तलाक), विधवा पुनर्विवाह तथा मृत्यु भोज आदि परम्परा मौजूद है।

● प्रमुख देवता – डूँगरदेव, ग्रामदेव, वाघदेव हैं।

● प्रमुख देवियाँ – भारी माता तथा कंसारी माता हैं।

6. डामोर जनजाति

●  डामोर को डामरिया भी कहा जाता है।

● डामोर अपने आप को राजपूत मानते हैं।

● राजस्थान के दक्षिणी क्षेत्र के डूँगरपुर जिले की समीलवाड़ा पंचायत समिति और बाँसवाड़ा जिले में गुजरात की सीमा पर डामोर जनजाति पाई जाती है।

● डामोर राजस्थान में समग्र आदिवासियों का 0.63 प्रतिशत है।

● यह मूलत: गुजरात राज्य की रहने वाली जनजाति है।

● यह जनजाति अपनी उत्पत्ति राजपूतों से मानती है।

सामाजिक

● डामोरों में एकांकी परिवार में रहने की प्रथा है।

● डामोर जनजाति का मुखिया मुखी कहलाता है।

● इनका परिवार पूर्णत: एकाकी होता है अर्थात् पुत्र का विवाह होने के तुरन्त बाद अलग कर दिया जाता है।

● प्रमुख व्यवसाय कृषि और पशुपालन है।  

● यह जनजाति मैदानों में निवास करती है।

● इस जनजाति के पुरुष भी महिलाओं के समान गहने पहनते हैं।

● गाँव की सबसे छोटी इकाई को फला कहा जाता है।

● इनमें बहुविवाह प्रचलित है।

● वधू मूल्य, तलाक प्रथा तथा नातरा प्रथा (विधवा पुनर्विवाह) प्रचलित हैं।

अर्थव्यवस्था

● डामोर जनजाति के लोग अपना जीवन यापन कृषि करके करते हैं।

● आर्थिक दृष्टिकोण से भी डामोर उपयोजना क्षेत्र में होते हुए भी यह लोग आज भी गरीब हालत में जीवन यापन कर रहे हैं।

 मेले –

1) छैला बावजी का मेला  पंचमहल (गुजरात) में भरता है।

2) ग्यारस की रवाडी – सीमलवाड़ा (डूँगरपुर) में भरता है।

● चाडिया – डामोर जनजाति में होली के अवसर पर होने वाला कार्यक्रम है।

7. सांसी

● सांसी जनजाति खानाबदोश जनजाति है।

● भरतपुर (सर्वाधिक) जोधपुर, हनुमानगढ़, श्रीगंगानगर व नागौर में निवास करती है।

● इसे जनजातियों में सम्मिलित नहीं किया गया।

● सांसी जाति की उत्पत्ति – ‘सांसमल’ शब्द से मानी जाती है।

● यह जाति अनुसूचित जाति (SC) समूह में सम्मलित है।

● कूकड़ी की रस्म – युवती के विवाह के उपरान्त उसके चरित्र की परीक्षा ली जाती है तथा इस जाति में विवाह का निपटारा हरिजन व्यक्ति द्वारा किया जाता है।

● यह जनजाति बर्हिविवाही होती है।

● राजस्थान के सांसियों में विधवा विवाह का प्रचलन नहीं है।

● सांसी जाति के वर्ग बीजा और माला हैं।

● नारियल के गोले से इस जाति में सगाई की रस्म पूरी मानी जाती है।

● बहु विवाह प्रचलित है लेकिन विधवा विवाह प्रचलित नहीं है।

● भाखर बावजी इनके संरक्षक देवता हैं।

● इस जाति के लोग पेड़-पौधों तथा वृक्षों को पवित्र मानते हैं।

● सांसी जनजाति का कोई भी स्थायी व्यवसाय नहीं है।

8. कंजर जनजाति

● कंजर एक घुमन्तु प्रजाति है, जो अपराध वृति के लिए प्रसिद्ध है।

● राजस्थान में इनका मुख्य क्षेत्र कोटा, बाराँ, बूँदी, झालावाड़, भीलवाड़ा, अलवर, उदयपुर व अजमेर हैं।

● अनुसूचित जाति (SC) वर्ग में शामिल है।

● ‘कंजर’ शब्द की उत्पत्ति – संस्कृत भाषा के ‘काननचर’ शब्द से हुई जिसका अर्थ ‘जंगल में विचरण करने वाला होता है’

● इस जनजाति के लोग घुमक्कड़ जीवन जीते हैं।

● राष्ट्रीय पक्षी मोर का मांस इनको बहुत पंसद है।

● इस जाति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनमें एकता बहुत होती है।

● इनकी कुलदेवी जोगणिया माता (भीलवाड़ा) तथा आराध्य देवी चौथमाता व रक्तदंजी माता (सवाई माधोपुर) हैं।  

● ये हनुमान जी को अपना आराध्य देव मानते हैं।

● इस जाति का मुखिया पटेल कहलाता है।

● इस जाति के लोग चोरी करने से पूर्व देवी-देवताओं से आशीर्वाद लेते हैं जिसे पाती माँगना कहा जाता है।

● हाकमराजा का प्याला पीकर इस जाति के लोग झूठ नहीं बोलते हैं।

● इनके नृत्य धाकड़,लाडी, तथा चकरी हैं।

● इनके वाद्ययंत्र ढोलक तथा मंजीरा हैं।

● कंजर जाति की महिलाओं द्वारा कमर पर पहना जाने वाला वस्त्र खूसनी कहलाता है।  

● इस जाति में मृतक के मुँह में शराब की बूँदें डाली जाती है।

अर्थव्यवस्था

● कंजर जनजाति श्रमिकों के रूप में तथा ठेला व टेम्पु को चलाने में भी कार्यरत है।

● चोरी, डकेती तथा राहजनी जैसी वारदात में जाने से पहले यह लोग विभिन्न तरीकों से शगुन-अपशगुन देखते है और ईश्वर का आर्शीवाद प्राप्त करते हैं, इसे पांती माँगना कहते है।

9. कालबेलिया जनजाति

● अनुसूचित जनजाति (ST) में शामिल है।

● इन्हें सपेरा भी कहा जाता है।

● पुंगी कालबेलिया समाज का खानदानी वाद्ययंत्र है।

● यह मुख्यतया पाली, उदयपुर, भीलवाड़ा तथा चित्तौड़गढ़ में निवास करती हैं।

● इनके नृत्य बागड़िया, पणिहारी, कालबेलिया, शंकरिया तथा इंडोणी हैं।

जनजाति विकास कार्यक्रम

● जनजाति उपयोजना क्षेत्र – बाँसवाड़ा, डूँगरपुर, चित्तौड़गढ़ व सिरोही जिलों की पंचायत समितियों में क्रियान्वित किया जा रहा है।

● परिवर्तित क्षेत्र विकास उपगमन (माडा) कार्यक्रम – अलवर, धौलपुर, भीलवाड़ा, चित्तौड़गढ़, बूँदी, झालावाड़, कोटा, उदयपुर आदि जिलों में संचालित हैं।

● बिखरी जनजाति विकास कार्यक्रमों का संचालन जनजाति क्षेत्र विकास विभाग द्वारा किया जाता है।

● आदिम जाति शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान उदयपुर में स्थित है।

● राज्य में नारू उन्मूलन कार्यक्रम उदयपुर, बाँसवाड़ा, डूँगरपुर जिलों में चलाया गया है।

● राज्य में बाँसवाड़ा को नारू रोग से पूर्ण मुक्त जिला घोषित किया गया है।

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