राजस्थान के प्रमुख लोक नृत्य

राजस्थान के प्रमुख लोक नृत्य 

● राजस्थान एक भौगालिक विविधता वाला प्रदेश है। इस विविधता ने नृत्य को भी विविधता प्रधान की और भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न नृत्य विकसित हुए है।

● मस्ती, उल्लास और खुशी में अतिरेक में की गई थिरकन ही नृत्य है।

● राजस्थान के लोक नृत्यों को विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है-

विभिन्न जातियाँ एवं उनके नृत्य

भीलकेवल पुरुष – गैर,  गवरी, व युद्ध नृत्य केवल महिला – घूमरा नृत्य युगल नृत्य – नेजा नृत्य, द्विचक्री नृत्य
गरासियाकेवल पुरुष – मोरिया नृत्य, रायण नृत्य,  केवल महिला –  लूर नृत्य, मांदल नृत्य, गर्वा नृत्य युगल नृत्य  –  वालर, गौर, जवारा, व कूद नृत्य
कालबेलियाइंडोणी, पणिहारी, शंकरिया व बागड़िया नृत्य
कथौड़ीमावलिया नृत्य, होली नृत्य
मेवरणबाजा नृत्य, रतवई नृत्य
कंजरचकरी नृत्य, धाकड़ नृत्य, लाठी नृत्य
बंजारामछली नृत्य
सहरियाशिकारी नृत्य, इंद्रपुरी नृत्य, झेला नृत्य, लहँगी नृत्य
गुर्जरचरी नृत्य
कामड़ियातेरहताली नृत्य

क्षेत्र विशेष में प्रचलित नृत्य

शेखावाटी गीदड़ नृत्य , चंग नृत्य, ढप नृत्य,  कच्छी घोड़ी नृत्य
जालोरढोल नृत्य
मारवाड़डांडिया नृत्य, घुड़ला नृत्य
भरतपुर व अलवरबम (बम रसिया)नृत्य
झालावाड़बिंदौरी नृत्य
नाथद्वाराडांग नृत्य
भीलवाड़ानाहर नृत्य

प्रमुख व्यावसायिक नृत्य

भवाई नृत्य, तेरहताली नृत्य, कालबेलिया नृत्य, इंडोणी नृत्य, पणिहारी नृत्य, शंकरिया नृत्य, बागड़िया नृत्य, चकरी नृत्य,   धाकड़ नृत्य,कच्छी घोड़ी नृत्य, भोपों के नृत्य, कठपुतली नृत्य।

सामाजिक व धार्मिक नृत्य

अग्नि नृत्य – कतरियासर, बीकानेर
तेरहताली नृत्य – रामदेवरा, जैसलमेर
सांकल नृत्य – गोगामेड़ी, हनुमानगढ़
तेजा नृत्य –  खरनाल, नागौर
घूमर नृत्य – गणगौर व तीज पर
गरबा नृत्य – नवरात्रा पर
घुड़ला नृत्य – शीतलाष्टमी पर

घूमर नृत्य

● उद्गम – मारवाड़

● नृत्य- स्त्रियों द्वारा

● उपनाम – राजस्थान की आत्मा, रजवाड़ी नृत्य व नृत्यों का सिरमौर

● यह नृत्य मांगलिक अवसर व त्योहारों पर किया जाता है।

● इस नृत्य में राज घराने की नजाकत- नफासत साफ देखने को मिलती है।

● यह  राजस्थान का ‘राज्य नृत्य’ है।

● घूमर में 8 मात्रा की ‘कहरवे’ की विशिष्ट चाल का प्रयोग किया जाता है इसे ‘सवाई’ कहते हैं। लहंगे के घेरे को घूम्म कहते हैं।

● मुख्य वाद्य-यंत्र – ढोल, नगाड़ा, शहनाई आदि होते हैं।

 मुख्य गीत –

● ‘अस्सी कली रो घाघरो, कली-कली में घेर।’

● “म्हारी घूमर छै नखराली ऐ माय।

 घूमर रमवा म्है जास्यां ओ रजरी” ।।

ढोल नृत्य

● भीनमाल, जालोर का ढोल नृत्य प्रसिद्ध है।

● यह पुरुषों द्वारा ही किया जाता है।

● इस नृत्य को प्रकाश में लाने का श्रेय भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्री जयनारायण व्यास को है।

● इस नृत्य में भाग लेने वाली प्रमुख जातियाँ – माली, ढोली, सरगरा तथा भील हैं।  

● इस नृत्य में ढोल थाकना शैली में बजाया जाता है जिसमें एक साथ चार-पाँच ढ़ोल बजाए जाते हैं।

● ‘थाकना’ का शाब्दिक अर्थ है ‘नृत्य के लिए बुलाना या नर्तकों में जोश भरना’।

घुड़ला नृत्य

● यह मारवाड़ का प्रमुख लोक नृत्य है जो शीतला अष्टमी से लेकर गणगौर त्योहार तक किया जाता है। यह महिलाओं एवं कन्याओं द्वारा किया जाता है। इसमें वे अपने सिर पर छोटे-छोटे छेद वाली मटकी रखती हैं इस मटकी में दीपक जलाकर रखा जाता हैं।

● छेद वाली इस मटकी को ‘घुड़ला’ कहते हैं।

● राजस्थान संगीत नाटक अकादमी के भूतपूर्व मंत्री कमल कोठारी ने घुड़ला को राष्ट्रीय मंच प्रदान किया, जिससे राजस्थानी कला आमजन में लोकप्रिय बनी।

● वर्ष 1492 में अजमेर के मल्लू खाँ ने मेड़ता पर चढ़ाई की उस समय पीपाड़ के पास कोसाना ग्राम में गौरी पूजा कर रही महिलाओं का अपहरण कर साथ ले गया।

● अपहरण की सूचना जब जोधपुर के शासक राव सातलजी को लगी तो उन्होंने तत्काल पीछा किया। वे महिलाओं (तीजणियों) को तो छुड़ा लाए किन्तु युद्ध के दौरान वीरगति को प्राप्त हो गए।

● राव सातलदेव ने मल्लू खाँ के सेनापति घुडला खाँ का सिर काटकर उन कन्याओं (तीजणियों) को दे दिया गया जिन्होंने उसे थाली में रखकर घर-घर घुमाया और इस भावना का संचार किया कि कन्याओं के अपहरणकर्ताओं को ऐसा दंड मिलता है।और उसी समय से इस नृत्य का मारवाड़ में प्रचलन हुआ।

 “घुड़लो घूमेला जी घूमेला”

● इस नृत्य में वाद्य-यंत्र ढोल, बांकिया, थाली आदि होते हैं।

चरकुला नृत्य

● यह नृत्य मूलतः उत्तर प्रदेश का है।

● इस नृत्य का सर्वाधिक प्रचलन भरतपुर जिले में है।

● यह नृत्य भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी राधा की स्मृति में बैलगाड़ी के पहिए पर 108 दीपक जलाकर किया जाता है।

हुरंगा नृत्य

● डीग (भरतपुर) में होली के अवसर पर किया जाने वाला प्रसिद्ध नृत्य है।

 नाहर नृत्य

● यह नृत्य मांडलगढ़ (भीलवाड़ा) में होली के अवसर पर किया जाता है।

● इस नृत्य को प्रारंभ करने का श्रेय बादशाह शाहजहाँ को जाता है।

 घूमर-घूमरा नृत्य

● यह राज्य का एकमात्र शोक सूचक नृत्य है।

● इस नृत्य का प्रचलन वागड़ क्षेत्र के ब्राह्मण समुदाय में हैं।

गीदड़ नृत्य

● यह केवल पुरुषों द्वारा किया जाने वाला नृत्य है। शेखावाटी क्षेत्र में होली के पंद्रह दिन पूर्व प्रारंभ होकर होली के साथ समाप्त हो जाता है।

● प्रदर्शन हेतु खुले मैदान में एक ऊँचा मंडप बनाया जाता है। मंडप के बीच नगाड़े बजाने वाला नगारची बैठता है।

● नगाड़े के साथ ढोल, डफ, चंग भी बजाए जाते हैं।

● इस नृत्य में पुरुष पात्र जो महिला का स्वांग धरते हैं, उन्हें ‘महरी या गणगौर’ कहते हैं। इस नृत्य में विभिन्न प्रकार के स्वांग करते हैं जैसे:- सेठ-सेठानी, डाकिया-डाकन, दूल्हा-दुल्हन, शिव-पार्वती, पराक्रमी-योद्धा।

● यह एक प्रकार का स्वांग नृत्य है।

नेजा नृत्य

● यह एक खेल नृत्य है, जिसका प्रचलन डूँगरपुर-खैरवाड़ा के आदिवासी मीणों एवं भीलों में अधिक देखने को मिलता है।

● यह नृत्य होली के बाद तीसरे दिन आयोजित होता है।

● इस नृत्य में खुली जगह पर ख्म्भा रोप दिया जाता है तथा उसके ऊपरी सिरे पर नारियल बाँध दिया जाता हैं।

● जब नारियल उतारने के लिए पुरुष खम्भे के ऊपर चढ़ते हैं तब स्त्रियाँ कोड़ों से मारकर गिरा देती है। इस खेल नृत्य में महिलाओं की बहादुरी और शक्ति सम्पन्नता देखने को मिलती हैं।

बम या बमरसिया नृत्य

● यह नृत्य पुरुषों द्वारा किया जाता हैं।

● यह अलवर और भरतपुर (मेवात क्षेत्र) का प्रसिद्ध नृत्य है।

● इस नृत्य में बम के साथ रसिया गाने के कारण बमरसिया कहलाता है।

● एक विशाल नगाड़े को ही ‘बम’ कहा जाता है। बम के साथ ढोल, मंजीरा, थाली, चिमटा वाद्यों की संगत लिए नर्तक निकल पड़ते हैं।

● नृत्य के साथ होली के गीत और रसिया गाया जाता हैं।

● फाल्गुन माह में फसल कटने के पश्चात् ‘चौपाल’ पर किया जाने वाला नृत्य है।

भैरव नृत्य या मयूर नृत्य 

● होली के दो दिन बाद ब्यावर में बीरबल मेला में बादशाह की सवारी निकाली जाती है। इस सवारी में बीरबल द्वारा मयूर नृत्य या भैरव नृत्य किया जाता है। जो इस मेले का मुख्य केंद्र होता है ।

● इस सवारी के दौरान बच्चे बादशाह से ‘खर्ची दो, खर्ची दो’ कहते हैं। बादशाह खर्ची के रूप में अबीर-गुलाल की पुड़िया बाँटते चलते हैं।

● बीरबल का पात्र (बाना) व्यास परिवार के व्यक्ति धारण करते हैं।

शूकर नृत्य

● यह नृत्य बिजली गाँव, आहोर (जालोर) का प्रसिद्ध है।

● यह एक स्वांग-नृत्य है जिसमें आकर्षण का केंद्र सूअर (शूकर) बने नर्तक होता हैं। इसके अन्तर्गत शिकारी के हाथ में तीर कमान रहता है। दूसरे के पास भाला होता है तथा एक अन्य कलाकार शिकारी कुत्ते का स्वांग किया होता है।

● ढोल और थाली मुख्य वाद्य हैं।

पेजण नृत्य

● यह नृत्य बाँसवाड़ा में दीपावली पर नारी का रूप धारण किए हुए पुरुषों द्वारा किया जाता है।

मोहिली नृत्य

● मोहिली का अर्थ-गोल से हैं।

● यह नृत्य धारियवद, प्रतापगढ़ क्षेत्र का प्रसिद्ध वैवाहिक नृत्य है।

● यह स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला धीमी गति का गोलाकार नृत्य है।

● यह नृत्य अन्य क्षेत्रों में भवाली, भौली नाम से भी प्रचलित है।

खारी नृत्य

● मेवात (अलवर) में दुल्हन की विदाई पर उनकी सहेलियों द्वारा अपने हाथों की चूड़ियाँ बजाते हुए किया जाने वाला नृत्य है।

चंग नृत्य

● शेखावाटी क्षेत्र में होली के अवसर पर केवल पुरुषों द्वारा किया जाने वाला नृत्य है। जिसमें प्रत्येक पुरुष के पास चंग होता है तथा वे चंग बजाते हुए वृत्ताकार नृत्य करते हैं।

● इस नृत्य में धमाल तथा होली के गीत गाए जाते हैं।

ढप नृत्य

● यह नृत्य बसंत पंचमी के अवसर पर शेखावाटी क्षेत्र में किया जाता है।

● यह नृत्य  ढप व मंजीरें बजाते हुए किया जाता है।

डांडिया नृत्य

● यह मारवाड़ क्षेत्र का प्रसिद्ध लोक नृत्य है।

● इस नृत्य में पुरुषों की टोली और हाथ में लम्बी छड़ियों को आपस में टकराते हुए गोल घेरे में नाचते हैं।

● इस नृत्य में नगाड़ा तथा शहनाई बजाई जाती है।

बिंदौरी नृत्य

● यह झालावाड़ क्षेत्र का गैर शैली का प्रसिद्ध नृत्य है।

● यह होली या विवाहोत्सव पर पुरुषों द्वारा किया जाता है।

डांग नृत्य

● यह नाथद्वारा क्षेत्र, राजसमंद में होली के अवसर पर पुरुषों द्वारा किया जाने वाला नृत्य है।

चरी नृत्य

● किशनगढ़ (अजमेर) क्षेत्र में गुर्जर महिलाओं द्वारा किया जाने वाला प्रसिद्ध नृत्य। इस नृत्य में चरी में कपास के बीज (काकड़े) डालकर उसमें आग प्रज्वलित कर महिलाएँ नृत्य करती है।

● इस नृत्य में प्रमुख रूप से बांकिया, थाली वाद्य-यंत्र बजाए जाते हैं।

● इस नृत्य की विश्व प्रसिद्ध नृत्यांगना फलकूबाई है।

● यह नृत्य शुभ, मंगल एवं स्वागत का प्रतीक है।

● चरी नृत्य के लिए पुरस्कृत नृत्यांगना – सुनीता रावत

गैर नृत्य

● यह पुरुषों द्वारा किया जाता है।

● गैर का मूल शब्द ‘घेर’ है।

● मेवाड़ और बाड़मेर क्षेत्र में पुरुष लकड़ी की छड़ियाँ लेकर गोल घेरे में नृत्य करते हैं। यही नृत्य ‘गैर नृत्य’ के नाम से प्रसिद्ध है।

● इसे गैर घालना, गैर रमना, गैर खेलना तथा गैर नाचना जैसे विभिन्न नामों से भी जाना जाता है। गैर करने वाले ‘गैरिये’ कहलाते हैं।

● यह नृत्य होली के दूसरे दिन से ही प्रारम्भ होकर करीब पन्द्रह दिन तक चलता रहता है।

● प्रमुख वाद्य-यंत्र – ढोल, बांकिया और थाली।

● गैर नृत्य में प्रयुक्त डंडे ‘खांडे’ कहलाते हैं।

● कुछ क्षेत्र में  गैर  खांडों की बजाय ‘तलवारों’ से भी खेली जाती है इसमें नर्तक के एक हाथ में नंगी तलवार तथा दूसरे हाथ में म्यान रहती है।

● नाथद्वारा में शीतला सप्तमी से पूरे माह तक गैर का आयोजन रहता है। यहाँ गैर की पहली प्रस्तुति श्रीनाथजी को समर्पित होती है।

● वागड़ क्षेत्र की गैर में युवतियाँ भी सम्मिलित होती है।

आंगिया गैर या आंगी-बांगी

● चैत्र शुक्ल तीज को आयोजित होने वाला गैर नृत्य।

● मुख्य आयोजन स्थल – लाखेटा गाँव (बाड़मेर)।

● नाचने वाले गैरियों के हाथों में एक-एक मीटर की डंडियाँ रहती है जो आस-पास के नृत्यकार की डंडियों से टकराकर खेली जाती हैं।

● चंग, ढोल व थाली इसके प्रमुख वाद्य-यंत्र हैं।

तलवार गैर (एक हाथ में तलवार एक हाथ में म्यान)

● मेनार (मेणार) गाँव (उदयपुर) की तलवारों की गैर प्रसिद्ध है।

● ढोल पर डंडे से प्रहार-‘डाका’ कहलाता था।

मेव जाति के प्रमुख नृत्य

रणबाजा नृत्य

● यह एक युद्ध नृत्य है, जिसका प्रचलन मेवात क्षेत्र की मेव जाति में देखने को मिलता है।

● प्राचीन काल में योद्धाओं में जोश भरने के लिए नर्तक युद्धकालीन वेशभूषा धारण कर नृत्य का आयोजन किया जाता था।

● नर्तकों के हाथों में तलवार, ढाल, कटार, भाला आदि होते हैं जो युद्ध के ही शौर्यपरक शान है।

रतवाई नृत्य

● यह नृत्य मेवात क्षेत्र की महिलाओं द्वारा किया जाता है।

● प्रमुख वाद्य दमामा व टामक बजाया जाता है।

कालबेलिया जाति के प्रमुख नृत्य

कालबेलिया नृत्य

● राजस्थान में सपेरा जाति का यह एक प्रसिद्ध नृत्य है।

● काल का अर्थ ही ‘साँप’ से हैं और ‘बेलिया’ से तात्पर्य दोस्त से हैं।

● कालबेलिया महिलाएँ नृत्य के समय काले रंग की कशीदाकारी की गई पोशाक पहनती है ये अपने नृत्यों में बड़ी स्फूर्ति और लोच लिए जो अदाएँ प्रस्तुत करती है।

● गुलाबो इस नृत्य की प्रमुख नृत्यागंना है, जिसने कालबेलिया नृत्य  पूरे विश्व में प्रसिद्ध किया।

● यूनेस्को द्वारा वर्ष 2010 में इस नृत्य को विश्व धरोहर में शामिल किया गया।

● इस नृत्य की प्रसिद्ध नृत्यांगना गुलाबो सपेरा को 26 जनवरी, 2016 को पद्मश्री से सम्मानित किया गया था।

शंकरिया नृत्य

● यह प्रेम कहानी पर आधारित एक युगल नृत्य है।

● मुख्य वाद्ययंत्र पूंगी, खंजरी, मोरचंग ।

पणिहारी नृत्य

● यह महिला प्रधान नृत्य है जो राजस्थानी लोकगीत ‘पणि हारी’ पर किया जाता हैं। यह नृत्य सिर पर 5-7 घड़े रखकर अंग संचालन करते हुए किया जाता है।  

इण्डोणी नृत्य

● यह कालबेलियों का प्रसिद्ध युगल नृत्य है।

बागड़िया नृत्य

● यह नृत्य कालबेलिया स्त्रियों द्वारा किया जाता है।

भील जनजाति के नृत्य

गवरी या राई नृत्य

● उदयपुर संभाग (मेवाड़ क्षेत्र) में भील पुरुषों द्वारा किया जाने वाला धार्मिक नृत्य है। इसका आयोजन रक्षाबंधन के अगले दिन से भाद्रपद प्रतिपदा से आश्विन शुक्ल एकादशी (40 दिन) तक नृत्य नाटिका के रूप में मंचित किया जाता है।

● इस लोक नृत्य में  शिव और भस्मासुर की पौराणिक कथा का आयोजन होता है।

● गवरी की घाई – गवरी लोक नृत्य-नाटिका में विभिन्न प्रसंगों को एक प्रमुख प्रसंग से जोड़ने वाले सामूहिक नृत्य को गवरी की घाई (गम्मत) कहते हैं।

युद्ध नृत्य

● इस नृत्य में मेवाड़ क्षेत्र के भील पुरुषों द्वारा हाथों में हथियार लेकर नृत्य किया जाता है।

हाथीमना नृत्य

● इस नृत्य का आयोजन विवाह के अवसर पर केवल पुरुषों द्वारा किया जाता है।

● इसमें पुरुष हाथों में तलवार लेकर घुटनों के बल बैठकर नृत्य करते हैं।

द्विचक्री नृत्य

● विवाह के अवसर पर भील पुरुषों व महिलाओं द्वारा दो वृत्त बनाकर किया जाने वाला नृत्य है।

घूमरा नृत्य

● मेवाड़ क्षेत्र (बाँसवाड़ा) क्षेत्र की भील महिलाओं द्वारा किया जाता है।

● इसमें दो दल होते हैं। एक दल गाता है तथा दूसरा उसकी पुनरावृत्ति करके नाचता है।

गरासिया जनजाति के प्रमुख नृत्य

 वालर नृत्य

● यह सिरोही, पाली, आबू व जालोर के आदिवासी गरासियों का प्रमुख नृत्य हैं। इसके दो प्रकार है –

 (1) एक प्रकार जिसमें केवल गरासियाँ महिलाएँ ही भाग लेती हैं।

 (2) दूसरे प्रकार में गरासिया स्त्री एवं पुरुष दोनों भाग लेते हैं।

● यह नृत्य एक प्रकार से ‘घूमरा’ का पर्याय भी कहा जाता है।

● स्त्रियों द्वारा नाचे जाने वाला ‘वालर’ वाद्य-विहीन होता है। जबकि स्त्री-पुरुष युगल रूप में किया जाने वाले ‘वालर’ में ढोल बजाया जाता है।

● वालर के गीतों में गरासियों के गौरवमय इतिहास तथा स्वाभिमानी शूरमाओं द्वारा राजाओं और अंग्रेजों से लोहा लेने का शौर्यपरक विवरण मिलता है।

● प्रसिद्ध वालर नर्तक – जवाहरलाल

लूर नृत्य

● गरासिया जनजाति में लूर गौत्र की महिलाओं द्वारा मुख्यत: मेले व विवाह के अवसर पर किया जाने वाला नृत्य हैं।

● इस नृत्य में दो समूह (वरपक्ष-वधूपक्ष) होते हैं जिसमें वरपक्ष की महिलाओं द्वारा वधूपक्ष से कन्या की माँग करती है।

कूद नृत्य

● यह एक युगल नृत्य (स्त्री-पुरुष) है।

● यह नृत्य बिना वाद्य-यंत्र के तालियों की थाप के साथ किया जाता है।

मांदल नृत्य

● यह गरासिया महिलाओं द्वारा किया जाता हैं।

● यह नृत्य वृत्ताकार घेरे में किया जाता है।

जवारा नृत्य

● गरासिया स्त्री-पुरुषों द्वारा होली दहन से पूर्व किया जाने वाला सामूहिक नृत्य हैं। यह नृत्य ढोल के गहरे घोष के साथ किया जाता है।

मोरिया नृत्य

● गरासिया पुरुषों द्वारा विवाह के अवसर पर किया जाने वाला नृत्य है।

● यह गणपति स्थापना के पश्चात् रात्रि में भी किया जाता है।

कथौड़ी जनजाति के नृत्य

होली नृत्य

● होली के अवसर पर महिलाओं द्वारा गीत गाते हुए गोले में किया जाने वाला नृत्य है।

● इसमें पुरुष ढोलक, पावरी, धोरिया एवं बाँसली पर संगत करते हैं।

मावलिया नृत्य

● यह नवरात्र में नौ दिनों तक पुरुष द्वारा किया जाने वाला नृत्य है।

सहरिया जनजाति के प्रमुख नृत्य

झेला नृत्य

● यह बाराँ के शाहबाद की सहरिया जनजाति का फसली नृत्य है।

● आषाढ़ माह में जब फसल पक जाती है तब सहरिया पुरुष अपने खेतों पर मस्ती में झूमते हुए यह नृत्य करते हैं।

● इस नृत्य के अवसर पर जो गीत गाए जाते हैं वे ‘झेला’ नाम से जाने जाते हैं। इसका अन्य नाम ‘लावणी’ भी है।

शिकारी नृत्य

● यह सहरिया जनजाति का नृत्य है। यह जनजाति बाराँ जिले की किशनगंज व शाहबाद तहसीलों में निवास करती है।

व्यावसायिक नृत्य

भवाई नृत्य

        ● यह नृत्य भवाई जाति में प्रचलित होने के कारण इसका नाम ‘भवाई’ पड़ा।

● भवाई नृत्य के प्रवर्तक ‘बाघाजी (नागोजी)’ है परन्तु इस नृत्य को विशिष्ट पहचान भारतीय लोक-कला मण्डल (उदयपुर) के संस्थापक देवीलाल सामर ने दयाराम भील के माध्यम से दिलाई।

● यह नृत्य व्यावसायिक नृत्यों में सर्वाधिक चर्चित है।

● भवाई नर्तक अपने सिर पर मटका लिए रहता है। मटकों की संख्या एक से लेकर एक के ऊपर एक करके पंद्रह-बीस तक होती है।

● भवाई में नृत्य नाटिकाएँ – शंकरिया, ढोलामारू, बीकाजी, सूरदास, बड़ी डोकरी

● यह नृत्य मुख्यतः पुरुष प्रधान है।

● प्रथम भवाई महिला नर्तक – पुष्पा व्यास (जोधपुर)

● प्रमुख भवाई कलाकार – रूपसिंह शेखावत (जयपुर), स्वरूप पंवार-तारा शर्मा (बाड़मेर)

● भीलवाड़ा के कलाप्रेमी निहाल अजमेरा ने अपनी पौत्री वीणा को इस नृत्य में प्रवीण करते हुए 63 मंगल कलश का नृत्य तैयार कर उसका नाम ‘ज्ञानदीप’ दिया।

● जयपुर की अश्मिता काला ने 111 घड़े सिर पर रखकर नृत्य करके ‘लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड’ में अपना नाम दर्ज कराया।

● द्रौपदी, कजली, कुसुम, श्रेष्ठा सोनी (उदयपुर) प्रसिद्ध भवाई नृत्यांगना हुई।

● तेज तलवार पर नृत्य करना, काँच के टुकड़ों पर नृत्य करना आदि भवाई नृत्य की प्रमुख विशेषताएँ हैं।

 तेरहताली नृत्य

● कामड़ पंथ की महिलाओं द्वारा किया जाता है इसमें महिलाएँ 13 मंजीरे बाँधकर बैठकर यह नृत्य करती हैं।

● जिसमें से नौ मंजीरे दाएँ पाँव पर, दो हाथों की कोहनी के ऊपर और एक-एक दोनों हाथों में होते हैं। हाथ वाले मंजीरे के टकराने से ध्वनि उत्पन्न होती है।

● इस नृत्य में कामड़ पंथ के पुरुष मंजीरा, तानपुरा तथा चौतारा वाद्ययंत्र बजाते हैं।

● इस नृत्य का आयोजन रामदेवरा मेले के समय किया जाता है।

● यह एक व्यावसायिक नृत्य है।

● इस नृत्य की प्रसिद्ध नृत्यांगना है – मांगीबाई, दुर्गाबाई (पादरला गाँव, पाली)

● कामड़ पंथ का प्रमुख केन्द्र पादरला गाँव (पाली) है।

चकरी नृत्य

● यह व्यावसायिक नृत्य है जो छबड़ा एवं किशनगंज (बाराँ) में कंजर जाति की महिलाओं द्वारा किया जाता है।

● इसे ‘फूंदी’ नृत्य भी कहा जाता है मुख्य वाद्ययंत्र ढोल तथा चंग होते हैं।

● यह नृत्य सामान्यतः बूँदी के ‘कजली तीज’ के मेले पर सर्वाधिक आयोजित किया जाता है।

● सन् 1974 में चांचोड़ा के रशीद अहमद पहाड़ी ने इस नृत्य को अपने सीमित क्षेत्र से बाहर निकाला तब से इस नृत्य ने पूरे संसार में प्रसिद्धि पाई।

कच्छी घोड़ी नृत्य

● शेखावाटी क्षेत्र में किया जाने वाला प्रसिद्ध व्यावसायिक नृत्य।

● काठ की बनी वह घोड़ी जो कमर में पहन कर नचाई जाती है, कच्छी घोड़ी कहलाती है।

● राजस्थान में कच्छी घोड़ी नृत्य करने वाली प्रमुख जातियाँ – ढोली, कुम्हार, सरगरे, भांभी, मुसलमान तथा बावरी।

● यह नृत्य प्रायः ब्याह-शादियों के अवसर पर किया जाता है।

● नृत्यकार के पाँवों में घुँघरू बँधे रहते हैं। हाथों में तलवार तथा ढाल रहती है।

● इस नृत्य में घोड़ी नृत्यकार मराठे तथा पियादे मुगल सिपाही के प्रतीक होते हैं।

● यह नृत्य वीर रस प्रधान है।

● मुख्य वाद्य- यंत्र ढोलक, झांझ, डेरु, बांकिया, शहनाई

● प्रसिद्ध कलाकार – जोधपुर का छवरलाल गहलोत तथा निवाई (टोंक) के गोविन्द पारीक।

धार्मिक नृत्य

अग्नि नृत्य

● दहकते अंगारों पर महकते फूलों की तरह जसनाथी सम्प्रदाय के लोगों द्वारा किया जाने वाला प्रमुख नृत्य।

● इस नृत्य का उद्भव स्थल कतरियासर (बीकानेर) माना जाता हैं।

● यह मुख्यत: चूरू, नागौर और बीकानेर की जाट जाति का नृत्य है।

● जसनाथ जी के मंदिर में मेले भरते हैं और जम्मे-जागरण के साथ-साथ अग्नि नृत्य के आयोजन होते हैं। गाने वाले भी ये ही सिद्ध और नाचने वाले भी ये ही सिद्ध।

● यहाँ कोई तन्त्र-मन्त्र या टोटका नहीं; केवल सिद्धाचार्य जसनाथजी की असीम कृपा है। ‘फतैह-फतैह’ कहकर ‘धुणा’ की अग्नि पर कूदने का यह आश्चर्यजनक कमाल देखते ही बनता है।

● इस नृत्य में आग, राग व फाग तीनों का समन्वय है।

● आश्विन, माघ व चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को जसनाथी सिद्धों का अग्नि नृत्य आयोजित होता है।

● इस नृत्य के साथ-साथ नगाड़ा वाद्य यंत्र बजाया जाता है।

● इस नृत्य में केवल पुरुष भाग लेते हैं। वे सिर पर पगड़ी, अंग में

 धोती कुर्ता और पाँवों में कड़ा पहनते हैं।

ईला-ईली नृत्य

● लोकदेव ईला-ईली के सम्मुख किया जाने वाला नृत्य।

● ईलोजी (ईला) राजा हिरण्यकश्यप के बहनोई थे।

● ईलोजी की शादी से पहले ही होलिका जल कर मर चुकी थी। जिसके वियोग में तड़पते हुए ईलोजी ने होलिका की राख को अपने शरीर पर लगाई तथा आजीवन कुँवारे रहे इसलिए आज भी जिसका विवाह नहीं हो पाता है उसे ‘ईलोजी’ नाम ही थाप दिया जाता है।

● ईलोजी द्वारा अपने शरीर पर राख लपेटने का वही प्रसंग ‘धूलंडी’ नाम से प्रारंभ हुआ। इसलिए प्रथम दिन होलिका दहन होता है और दूसरे दिन ‘धूलंडी’ को सारे लोग धूल-गुलाल उछालते मौज-मस्ती करते हैं।

● मेवाड़ में इस त्योहार को मनाने की परम्परा ज्यादा है।

● पुत्र कामना के लिए स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला नृत्य।

● ईलोजी की सवारी बाड़मेर में निकलती है।

 गोगा नृत्य

● लोकदेवता गोगाजी की आराधना में किया जाने वाला नृत्य।

● यह नृत्य मुख्य रूप से गोगा नवमी (भाद्रपद कृष्ण नवमी) पर जहाँ गोगाजी के मेले भरते हैं, वहाँ किया जाता है।

● लोहे की साँकल पीठ पर मारकर किया जाने वाला नृत्य।

थाली नृत्य

● इस नृत्य में थाली को हाथों की अँगुलियों पर घुमाया जाता है।

● यह नृत्य पाबूजी के भक्तों द्वारा फड़ बाँचते समय किया जाता है।

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