फल व सब्जियों में महत्त्वपूर्ण पिगमेंट
क्र.सं. | फल व सब्जियाँ | महत्त्वपूर्ण पिगमेंट |
1. | आँवला | टेनिन |
2. | बैल | मार्मेलोसिन |
3. | बादाम | एमाइलेसिन |
4. | मूली का तीखापन | आइसोसाइनेट |
5. | शलजम में चरपराहट | कैल्सियम ऑक्सेलेट |
6. | मिर्च में चरपराहट | केप्सेसिन |
7. | मिर्च का लाल रंग | कैप्सेंथीन (कैप्सेन्थीन) |
8. | प्याज में गंध | एलाइल प्रोपाइल डाई सल्फाइड |
9. | प्याज का लाल रंग | एन्थोसाइनिन |
10. | प्याज का पीला रंग | क्वेरसिटीन |
11. | लहसुन में गंध | एलाइसिन |
12. | लहसुन में गंध (तत्त्व) | सल्फर तत्त्व |
13. | करेले में कड़वाहट | मेमोर्डिकोसाइट |
14. | आलू में हरा रंग | सोलेनिन |
15. | टमाटर का लाल रंग | लाइकोपीन |
16. | गाजर का लाल रंग | एंथोसाइनिन |
17. | चुकन्दर का लाल रंग | एंथोसाइनिन |
18. | खीरे में कड़वाहट | कुकुरबिटासीन |
19. | नीबू वर्गीय फलों में कड़वाहट | लिमोनिन ग्लूकोसाइड |
20. | गाजर का पीला रंग | केरोटिन |
21. | पपीते का पीला रंग | केरिकाजेन्थीन |
22. | सेब का लाल रंग | एंथोसाइनिन |
23. | टमाटर का पीला रंग | बिटाकेरोटिन |
24. | हल्दी का पीला रंग | कुरकुमिन |
25. | प्याज का पीला रंग | क्यूरेसिटीन |
26. | प्याज में तीखापन | एलाइल प्रोपाइल डाई सल्फाइड |
27. | सरसों में तीव्र गंध | सिनीग्रीन |
28. | लहसुन में तीखापन | डाई एलाइल डाई सल्फाइड |
29. | पत्तागोभी में तीव्र गंध | सिनिग्रीन |
विभिन्न फलों के फल प्रकार (Fruit type)
1. सरस – अमरूद, पपीता, अँगूर, आँवला, केला, आलू,
टमाटर, बैंगन व मिर्च।
2. अष्ठिल – आम, बेर, खजूर और लहसूवा
3. हेस्पेरिडियम सरस- कागजी नीबू, संतरा, माल्टा, मौसमी
4. सम्पूट (कैप्सूल) – भिण्डी, आँवला, प्याज व लहसुन
Note – आँवला का फल प्रकार सरस भी है।
5. रूपान्तरित सरस (एम्फीसारका) – बेल
6. साइकोनस – अंजीर
7. फली/पॉड – सेम, मटर
8. सोरोसिस – कटहल, अन्नानास
9. बालूस्टा सरस – अनार
10. पेपो – तरबूज, खरबूजा, ककड़ी आदि।
11. सिलिकुआ – सभी गोभीवर्गीय मूली आदि।
12. सिजोकार्प – सौंफ, धनिया, जीरा व गाजर आदि।
फलों का पुष्पक्रम/पुष्पगुच्छ के प्रकार
1. स्पेडिक्स – केला व खजूर
2. साइमोस – पपीता
3. पेनिकल – अँगूर, आम
4. सोलेट्री – अमरूद, नीबू वर्गीय
5. वेसीकल – बेर
6. हाइपेन्थोडियम – अनार
7. कैटकेन – पत्तागोभी
8. रेसीम या रेसिमॉस – फूलगोभी, कुकुरबिट्स, मूली, मटर
9. रेसिमॉस (रेसीम) – आँवला
10. साइम (ट्रस) – आलू, टमाटर, पालक व बैंगन
11. स्पाईक – चौलाई व चुकन्दर
12. फूलों में स्पाईक – ग्लैडियोलस, कारनेशन, रजनीगंधा
13. फूलों के केपिटुलम – गुलदाऊदी, जरबेरा
फल व सब्जियों का खाने योग्य भाग:-
1. सम्पूर्ण फल – टमाटर, बैंगन, मिर्च, खीरा, ककड़ी आदि।
2. तना – आलू, प्याज व लहसुन
3. जड़ – गाजर, मूली
4. कर्ड – फूलगोभी
5. हैड – पत्तागोभी
6. मध्यफल भित्ति (मिजोकार्प)–आम, पपीता, लहसुआ,
चीकू
7. रसीला प्लसेंटल रेशे – कागजी, नीबू, संतरा, माल्टा,
मौसमी
8. बाह्य फल भित्ति (पेरीकार्प) – आँवला, खजूर
9. बाह्य व मध्य फलभित्ति (मिजोकार्प+पेरीकार्प) – बेर
10. पुष्पासन व फल भित्ति (थेलेमस+पेरीकार्प) – अमरूद
11. फलभित्ति व प्लेसेंटा – अँगूर (पेरीकार्प + प्लेंसेटा)
12. रसीला प्लेसेंटा – बेल
13. मध्य व अन्त: फलभित्ति (मिजोकार्प + एण्डोकार्प) –
केला
14. बीज आवरण (ऐरिल) – अनार
15. बिना खिली कलिका – लौंग
उद्यानिकी फसलों में गुणसूत्र संख्या
फल व सब्जियाँ | गुणसूत्र संख्या |
1. खजूर | 36 |
2. आँवला | 28 |
3. विलायती पालक | 12 |
4. खीरा और गुलाब | 14 |
5. लहसूआ | 16 |
6. प्याज व लहसुन | 16 |
7. पपीता व अनार तथा नीबू वर्गीय | 18 |
8. फूलगोभी, पत्तागोभी तथा मूली | 18 |
9. गुलदाऊदी व गाजर | 18 |
10. ग्लेडियोलस व कारनेशन | 30 |
11. अँगूर | 40 |
12. जरबेरा | 50 |
13. भिण्डी | 130 |
– त्रिगुणित –
1. केला – 33 (3n-11)
– चतुर्गुणित –
1. आम – 40 (4n-10)
2. बेर – 48 (4n-12)
3. आलू – 48 (4n-12)
4. फ्रेंच गेंदा (टेगेट्स पटूला) – 48 (4n-12)
बागवानी फसलों में विषैला तत्त्व
– सोलेनिन – आलू
– सोलेसोडीन – बैंगन
– सेपानिन – टमाटर, पालक, चौलाई
बागवानी फसलों में पुष्प खिलने का समय
– खरबूजा, चिकनी तुरई, खीरा- सुबह के समय
– लौकी, नसदार तोरई, स्नैक गार्ड – शाम के समय
बागवानी फसलों का उत्पत्ति स्थान
1. भारत– करेंला, खीरा, टिण्डा, तुरई, मटर, लहसुआ, बेल, आँवला, कागजी नीबू, करौंदा, केला, फालसा, ग्वार आदि।
2. भारत-बर्मा – आम
3. इण्डो-चायना – बेर व पालक
4. चीन – संतरा, माल्टा, व मौसमी
5. मैक्सिको – पपीता, अमरूद, कद्दू
6. यूरोप – मूली, मैथी, सौंफ
7. भूमध्य सागरीय क्षेत्र (मेडिटेरियन क्षेत्र)/आर्मेनिया- अँगूर, गोभी
8. पर्सिया (इरान) – अनार, ईसबगोल, रिजका
9. ईराक (खाड़ी देश) – खजूर
10. अफ्रीका– खरबूजा, तरबूज, लौकी, भिण्डी
11. अफगानिस्तान – गाजर
12. उष्ण एशिया – प्याज व लहसुन
13. उष्ण अमेरिका (पेरू) – मिर्च, टमाटर, आलू आदि।
14. भारत/मलाया- केला
बागवानी फसलों में आवश्यक तापमान-
– टमाटर में लाइकोपीन का निर्माण नहीं होना- 10°C से
कम तथा 27°C से अधिक तापमान पर
– लाइकोपीन हेतु उचित तापमान – 21-24°C
– मूली में सर्वोत्तम स्वाद (गंध) संरचना – 12-15°C
– आलू में कंद निर्माण हेतु सर्वोत्तम – 17-19°C
– गाजर में अच्छा रंग विकास – 15.5-21.6°C
– प्याज में बल्ब निर्माण – 20-25° C
– मिर्च में फल बनने के लिए – 24°C
बागवानी फसलों में दैहिक विकार:-
– अनार व टमाटर में फलों का फटना – B (बोरॉन) की कमी।
– आम व आँवला के फलों में आंतरिक ऊतक क्षय (Internal Necrosis) – B (बोरॉन) की कमी।
– नीबू व आम में छोटी पत्ती (लिटिल लीफ) रोग – जिंक (Zn) की कमी से।
– अँगूर में चिक हेन्स रोग – B (बोरॉन) की कमी।
– मूली में आकासिन (स्वाद खराब होना) – बोरॉन की कमी।
– फूल गोभी में भूरा सड़न – बोरॉन की कमी।
– आम में कालाशिरा/ब्लैक टिप – बोरॉन की कमी व SO2 गैस
– नीबू मे सख्त फल – बोरॉन की कमी से
– नीबू में डाईबैक (उल्टा सूखा रोग) – Cu (कॉपर) की कमी से
– नीबू में पत्ती धब्बा रोग (लीफ स्पॉट) – MO (मोलीब्लेडिनम की कमी से)
– फूलगोभी में व्हीपटेल – MO (मोलीब्लेडिनम) की कमी से।
– खीरा में पीलापन रोग – Ca (कैल्सियम) की कमी से।
– Ca (कैल्सियम) की कमी से अन्य रोग –
– गाजर में कैविटी स्पॉट
– टमाटर में पुष्प छोर गलन
– अँगूर में क्लेक्स एण्ड रॉट
– आलू में मार्श – मैंगनीज की कमी से
– आलू में ब्लैक हर्ट – O2 की कमी से
– आलू में हरापन – सूर्य किरणों के सम्पर्क से।
– आम में स्पोंजी ऊतक समस्या – मृदा संवहन से
– गाजर में फोर्किंग – कठोर मृदा सतह से
– आलू व फूलगोभी में खोखलापन – नाइट्रोजन की अधिकता से
महत्त्वपूर्ण उद्यानिकी फसलें
आम
– फलों का राजा/उष्ण फलों का राजा/राष्ट्रीय फल/भारत का गर्व/प्यार का प्रतीक/फलों का राजदूत/बाथरूम फ्रूट
– वानस्पतिक नाम (B.N.) – मैजीफेरा इंडिका
– कुल (Family) – एनाकार्डिएसी
– गुणसूत्र संख्या – 2n = 4x = 40
– उद्गम स्थल – इण्डो-बर्मा
– फल प्रकार – अष्ठिल (Drupe)
– खाया जाने वाला भाग – मध्य फल भित्ति (मिजोकार्प)
– पुष्पक्रम – पेनीकल
– फलों में आम के अंतर्गत सर्वाधिक विटामिन-A 4800 Iu/100 gm पाई जाती है। (B केरोटिन)
– इसका प्रयोग अचार, अमचूर, चटनी, स्केवश तथा मुरब्बा बनाने में किया जाता है।
जलवायु व मृदा:-
– आम मुख्यत: उष्ण जलवायु का पौधा है लेकिन उपोष्ण जलवायु भी अच्छी मानी जाती है।
– पुष्पन व फलन के समय साफ मौसम चाहिए।
– आम की वृद्धि के लिए 24-27o सेन्टीग्रेड तापमान सर्वाधिक उपयुक्त होता है।
– मृदा जीवांशयुक्त गहरी बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त, मृदा का पी.एच. 6.5-7.5 होना उत्पादन के लिए उपयुक्त है।
– आम में शीर्ष फलन जो कि पिछले वर्ष की पुरानी शाखाओं पर होता है।
– आम सदाबहारी पौधा है।
– विश्व में आम उत्पादन व क्षेत्रफल में भारत की स्थिति प्रथम है।
– भारत में आम के क्षेत्रफल में आंध्रप्रदेश प्रथम स्थान पर एवं उत्तर प्रदेश द्वितीय है।
– भारत में आम के उत्पादन में उत्तर प्रदेश प्रथम व आंध्रप्रदेश द्वितीय स्थान पर है।
– अकबर ने बिहार के दरभंगा में एक लाख आम के पौधे लगाए थे जिसे लख-बाग कहा जाता है।
– आम में एकलभ्रूणता एवं बहुभ्रूणता दोनों पाई जाती है। दक्षिण भारतीय किस्मों में प्राय: बहुभ्रूणता पाई जाती है।
किस्में:-
– अगेती किस्म – बॉम्बे ग्रीन/सरोली, केसर
– मध्यम किस्म – लंगड़ा, दशहरी, मल्लिका, आम्रपाली
– पछेती किस्म – चौसा, फजली
– अम्बिका – आम्रपाली × जनार्दन पसंद
– अरुणिका – आम्रपाली × वनराज
– मल्लिका – नीलम × दशहरी – NDM
– आम्रपाली – दशहरी × नीलम – DNA
– रत्ना – नीलम × अल्फांसो – RNA
– सिंधु (बीज रहित किस्म) – रत्ना × अल्फांसो – RAS, इसका विकास फल अनुसंधान केन्द्र धापोली (MH) द्वारा किया गया है।
– भारत में सर्वाधिक निर्यात अल्फांसो (हाफुस) – स्पंजी ऊतक की समस्या पाई जाती है।
– अधिकतम उत्पादकता तोतापुरी (बेंगलुरु) किस्म की है।
– पूसा अरुणिका, पूसा सूर्या, पूसा लालिमा, पूसा श्रेष्ठ, पूसा प्रतिभा, पूसा पीताम्बर
– अर्का उदय, अर्का अरुणा, अर्का पुनीत, अर्का नीलकिरण, अर्का अनमोल
– निरंजन – आम की बैमौसम फलन देने वाली किस्म
– जेवियर – सर्वाधिक TSS
– रुमानी – सेब की आकृति जैसी
– एडवर्ड – एन्थ्रेक्नोज प्रतिरोधी किस्म
– रोसिका – उत्परिवर्तित किस्म
– दक्षिण भारत की किस्म – बैंगनपल्ली, नीलम, तोतापुरी
– बहुभ्रूणता वाली किस्म – ओलुर, गोवा, चन्द्रकर्ण, बैलारी
– आम में एकान्तरण फलन की समस्या पाई जाती है।
– उत्तर भारत की किस्मों में एकान्तरण फलन व स्वबन्धता पाई जाती है, नियंत्रण पैक्लाब्यूट्राजोल व कल्टार 1.25-10 gm/पेड़
– साई सुगंधा (तोतापुरी × केसर) – नियमित फलन व मैंगो मॉलफोर मेशन से मुक्त किस्म है।
प्रवर्द्धन:-
– आम में प्रवर्द्धन बीज व वानस्पतिक विधियों दोनों से किया जा सकता है, लेकिन व्यावसायिक रूप से प्रवर्द्धन वानस्पतिक रूप से किया जाता है।
मूलवृन्त हेतु किस्में:-
– चंद्रकर्ण, ओलूर, बथाकाई, वल्लाईकोलम्बन (बौनापन व लवणीय संवहनीय), कुरकान, नेकरी, मुवंडन
प्रवर्द्धन:-
1. वीनियर ग्राफ्टिंग:-
– यह भारत में आम के प्रवर्द्धन की व्यावसायिक विधि है।
2. इनार्चिंग (भेंट कलम):-
– दक्षिण भारत में आम के प्रवर्द्धन की व्यावसायिक विधि है।
3. स्टोन या एपीकोटाइल ग्राफ्टिंग:-
– इस विधि में कम समय में अधिक पौधे तैयार किए जा सकते हैं। कोंकण क्षेत्र (MH) व गुजरात (इसे In-situ विधि भी कहते हैं।)
– आम में प्रवर्द्धन जुलाई-अगस्त (वर्षा ऋतु) में किया जाता है।
– आम में पूर्निंग अगस्त-सितम्बर में की जाती है।
– आम में पुष्प कलिका अक्टूबर-नवम्बर में निकलती है।
– आम में फूल (पुष्पन) फरवरी-मार्च में होता है।
– आम में फलन मई-अगस्त तक होता है।
– भारत में ‘Bottom Heat root technique’ का विकास रेडी & मजूमदार ने 1975 में किया।
पौधे लगाने की विधि:-
– वर्गाकार विधि से अधिकतर लगाया जाता है। गड्डे मई-जून में तैयार कर लेते हैं।
– गड्डे 1 × 1 × 1 व पौधों की दूरी 10 × 10 मीटर रखी जाती है तथा पौधे जुलाई-अगस्त में लगाए जाते हैं।
– आम्रपाली – 2.5 × 2.5 मीटर
– दशहरी (HDP) – 5 × 5 मीटर
प्रमुख रोग व कीट-व्याधि:-
1. आम का फुदका (mango Hopper):-
– एमरीटोडस एटकीनसोनी सर्वाधिक नुकसान पहुँचाता है। (वयस्क निम्फ) फूल, छोटे फल व नई शाखाओं का रस चूसता है।
2. मिली बग (ड्रोसिका मेन्जीफेरा):-
– निम्फ – मुलायम शाखाओं पुष्पक्रम व छोटे फलों के डण्ठलों पर समूह में रस चुसते हैं।
3. भक्षक:-
– इण्डरबेला स्पेशल
1. चूर्णी फफूँद/पाउडरी मिल्ड्यू –
– ओडियम मेन्जीफेरी का छिड़काव करे।
– शाखा, पत्तियों व पुष्पक्रम पर सफेद चूर्ण दिखाई देती है।
– केराथेन 1 ML/Liter का छिड़काव करे।
2. एन्थ्रेक्नोज:-
– कोलेस्ट्रोट्राइकम स्पीशीज
– पत्तियों पर काले, भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं।
– कॉपर ऑक्सीक्लोराइड या मेन्कोजेब का छिड़काव करे।
– एडवर्ड किस्म सहनशील है।
आम के कायिकीय विकार:-
1. मैंगो मालफोर्मेशन
(i) पुष्पशीर्ष विकृति
(ii) वानस्पतिक
– इसे गुच्छा-मुच्छा रोग भी कहते हैं।
– फूलों को हटाना व 200 PPM NAA का अक्टूबर में छिड़काव करते हैं।
2. ब्लैक टिप:-
– ईंट भट्टों के आस-पास ज्यादा हाता है।
– SO2, CO2 के कारण होता है।
3. स्पंजी ऊतक:-
– अल्फांसो की मुख्य: समस्या
4. एकान्तर फलन:-
– एक वर्ष फलन होता है तथा दूसरे वर्ष नहीं होता है यही क्रम चलता रहता है।
5. Soft Nose:-
– मृदा में N2 की अधिकता व Ca की कमी से होता है।
6. झुमका:-
– यह परागण तथा निषेचन की कमी के कारण होता है।
7. Leaf Scorching:-
– K की कमी, Cl की अधिकता
– आम में पर परागण होता है घरेलू मक्खी (मस्का डोमेस्टिका) कीटपरागित (Entomophilous)
– आम में पत्तियों का छोटा रहना ‘लिटिल लीफ’ जस्ता (Zn) की कमी से
– आम में ‘Heading Back’ क्रिया अपनायी जाती है, नवम्बर-दिसम्बर
– आम में फलों को गिरने से रोकने के लिए NAA- 2,4-D का प्रयोग किया जाता है।
– आम की उत्परिवर्तित किस्म – रोसिका
– आम के पुष्प गुच्छे में 1000 – 6000 पुष्प होते हैं।
– डिब्बाबंदी हेतु किस्म – अल्फांसो, दशहरी
– प्रसंस्करण – केसर
– सर्वाधिक विटामिन A – मल्लिका
– सर्वाधिक विटामिन C – बॉम्बे ग्रीन
– आंतरिक ऊतक क्षय (Internal necrosis) – बोरॉन की कमी
– स्टेम एण्ड रॉट बीमारी कवक से होती है।
नीबू वर्गीय फल:-
– नीबू वर्गीय फलों में गुणसूत्र संख्या 2n = 18 होती है।
– Citrus ग्रीक भाषा का शब्द है जिसका अर्थ ईश्वरीय वृक्ष के फल (Fruit of the dodly tree) होता है।
– नीबू वर्गीय फलों की खेती का अध्ययन सिट्रीकल्चर में करते हैं।
– नीबू वर्गीय फलों का क्षेत्रफल व उत्पादन के दृष्टिकोण से दूसरा व तीसरा स्थान है।
– नीबू वर्गीय फलों का प्रकार हेस्पेरीडियम प्रकार का होता है।
– नीबू वर्गीय फलों का राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान नागपुर, महाराष्ट्र में स्थित है।
– विश्व में सर्वाधिक नीबू वर्गीय फलों में सर्वाधिक हिस्सा मौसमी का है।
– भारत में सर्वाधिक हिस्सा नीबू वर्गीय फलों में संतरा का है।
– नीबू वर्गीय फलों का संबंध रुटेसी कुल से है।
– नीबू वर्गीय फलों में सिट्रिक अम्ल, मैलिक अम्ल तथा विटामिन-C पाया जाता है।
खट्टा नीबू/मेक्सिकन लाइम/खट्टा नीबू/कागजी
लाइम:-
– वानस्पतिक नाम – सिट्रस ऑरेन्टिफोलिया
– मीठा नीबू – सिट्रस लिमीटोइडस (किस्म-मीठा चिकना, मिठोत्तरा)
– उद्गम स्थल – भारत
– खाया जाने वाला भाग – रसीले प्लेसेन्टल रेशे
– विश्व में सर्वाधिक नीबू भारत में तथा आंध्रप्रदेश (भारत) में होते हैं।
जलवायु:-
– उष्ण से लेकर शीतोष्ण जलवायु तक खेती की जा सकती है।
– उपर्युक्त तापमान 16-32oC तक होता है।
– नीबू का प्रवर्द्धन बीज व गुटी दाब विधि द्वारा
– मूलवृन्त के रूप में Gajanimma (C. Pennivesiculata) व रंगपुर लाइम का प्रयोग करते हैं।
– नीबू वर्गीय पौधों की आपसी दूरी 6 × 6 मीटर होती है।
– नीबू वर्गीय पौधों का पौध रोपण जुलाई-अगस्त में होता है।
– नीबू में काट-छाँट (Root-Pruning) दिसम्बर-जनवरी में होता है जिससे फरवरी-मार्च में पुष्पन अच्छा होता है।
– सिट्रस जम्भीरी (जट्टी-खट्टी) नीबू वर्गीय हेतु एक अच्छा मूलवृन्त है व ट्रिस्टेजा रोग के प्रति सहनशील है।
– नीबू वर्गीय फलों में विशेष सुगंध सिट्रैल के कारण तथा यह वाष्पशील तत्त्व है।
– माल्टा/संतरा में सुगंध वेलीनसीन के कारण
किस्म:- परमालिनी – केंकर के प्रति सहनशील
विक्रम – बैमौसमी, गुच्छों में फल
चक्रधर – बीजरहित किस्म
जयदेवी, साई शर्बती – ट्रिस्टेजा व कैंकर से सहनशील
पूसा उदित – गृहवाटिका हेतु
Trifoliate orange:-
– ठण्डी जलवायु, बौना फाइटोफ्थेरा, टिस्ट्रजा व कैंकर के प्रति सहनशील है।
– फलों को झड़ने से रोकने व फल जमाव हेतु 2-4D का प्रयोग करते हैं।
Sweet Orange
– स्वीट ऑरेंज/tight skinned oranges/मौसमी/माल्टा:-
– वानस्पतिक नाम – सिट्रस साइनेन्सिस
– उत्पत्ति – इण्डो चायना (दक्षिणी चीन)
– अर्द्ध शुष्क व उपोष्ण जलवायु उपयुक्त रहती है।
– नीबू वर्गीय फलों के जूस में खट्टापन (कड़वापन) लिमोलिन के कारण होता है।
– मारमलेड नीबू वर्गीय फलों से तैयार किया जाता है जिसमें फल रस, गुदा व चीनी को पानी के साथ गर्म करके संरक्षित किया जाता है।
– नीबू वर्गीय फलों में ट्रिस्टैजा वायरस का सूचक सिट्रस ऑरन्टीफोलिया है।
किस्म:-
– मौसमी – व्यावसायिक किस्म
– ब्लड रेड माल्टा, हेमलिन (अगेती किस्म), वेलेन्सिया (पछेती), सतपुड़ी, पाइनेपल, जाफा (शुष्क क्षेत्र)
– सर्वाधिक TSS – मौसमी, शामोती (बीज रहित)
– नेवल, वाशिंगटन नेवल (बीज रहित)
– संतरा व माल्टा के लिए जट्टी-खट्टी (सिट्रस जम्भीरी) उपयुक्त मूलवृन्त है।
– संतरा व माल्टा में प्रवर्द्धन T कलिकायन द्वारा होता है।
– नीबू वर्गीय फलों में गेन्यूलेशन की समस्या पाई जाती है जो कि अधिक ताप, अधिक नमी तथा पोषण तत्त्वों का असंतुलन के कारण (मुख्यत: मौसमी में) – नियंत्रण – 2, 4-D 12PPM व Zn+ Cu+ K– 0.05% प्रयोग करते हैं।
संतरा
– मेंडरिन/टेंगरिन/Loose Skinned/Jacket Orange
– वा. नाम – सिट्रस रेटीकुलाटा
– उत्पत्ति – दक्षिणी चीन
– उष्ण व उपोष्ण जलवायु
– गुणसूत्र संख्या – 2n = 18
– फल का प्रकार – हेस्पेरिडियम
किस्म:-
– संतरा की राष्ट्रीय किस्म- पोंकन/नागपुर संतरा। इसे विश्व की सबसे उत्कृष्ट किस्म माना जाता है।
– नागपुर संतरा का Orange रंग क्रिप्टोजेन्थीन पिगमेंट के कारण होता है।
– कुर्ग मेंडरिन, खासी मेंडरिन, कमला मेंडरिन, सतसुमा (बीजरहित लाहौर लेाकल)
– किन्नो – किंग×विलोलिफ (1935 में H.B. Frost द्वारा केलीफोर्निया (USA) से विकसित है।
– भारत में 1959 में प्रवेश हुआ।
– नीबू वर्गीय में डिग्रीनिंग की समस्या मुख्यत: पाई जाती है। इसके लिए इथ्रेल का प्रयोग करते हैं।
– नीबू वर्गीय फलों का फटना नमी की कमी/अधिकता व तापमान की कमी व अधिकता की वजह से होता है।
– डाई बैंक Cu की कमी से से होता है।
रोग/व्याधि:-
(1) सिट्रस बटरफ्लाई (पेपीलिओ डिमोलिस) – डिम्भ व लार्वा नुकसान पहुँचाते हैं।
(2) सिट्रस साइला (डाईफोरनिया सिट्राई) – निम्फ हानिकारक अवस्था है।
(3) लीफ माइनर (पर्ण सुरंगी) – लार्वा पत्तियों को नुकसान पहुँचाता है, यह सिट्रस कैंकर का वाहक है।
(4) नीबू का कैंकर – जीवाणु जनित (जेन्थोमोनास सिट्राई)
– पत्तियों, टहनियों, फलों पर हल्के पीले रंग के धब्बे दिखाई देते हैं।
– कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (2.5 – 3gm/L) व स्ट्रेप्टोसाइक्लिन 205-500ppm का छिड़काव करे।
– सिट्रस कैंकर से सर्वाधिक प्रभावित कागजी नीबू।
– सिट्रस ग्रीनिंग – माइकोप्लाज्मा का वाहक सिट्रस साइला है।
– नीबू वर्गीय में पत्तियों का छोटी होना – Cu की कमी (ऐक्सेन्थेमा)
– नीबू वर्गीय में फ्रेंचिग कायिकीय विकार – Zn की कमी
– नीबू वर्गीय में Yellow Spot – Mo की कमी
(5) ट्रिस्टेजा – वायरस जनित रोग – वाहक – सिट्रस एफिड (Toxoptera Citricida)
(6) गमोसिस – नीबू वर्गीय फलों में – कवक जनित (फाइटोफ्थेरा स्पे.) तना, शाखाओं पर गौंद जैसा पदार्थ जमा हो जाता है।
नियंत्रण – बोर्डोपेस्ट व कॉपर ऑक्सीक्लोराइड का प्रयोग करे।
अमरूद
– वानस्पतिक नाम – सीडियम गुवाजावा
– कुल – मिरटेसी
– गुणसूत्र संख्या – 2n = 2x = 22
– खाए जाने वाला भाग – पुष्पासन व फल भित्ति (थैलेमस और पेरीकार्प)
– उत्पत्ति स्थल – उष्ण अमेरिका (मैक्सिको, पैरू)
– फल प्रकार – बैरी
– उपनाम – एप्पल ऑफ ट्रोपिकस, गरीब आदमी का सेब
– अमरूद विटामिन-C का अच्छा स्रोत है 300 mg/100 gm
– अमरूद के फलों से उच्च गुणवत्ता युक्त जैली बनाई जाती है क्योंकि अमरूद पेक्टिन का अच्छा स्रोत है।
– अमरूद उत्पादन में उत्तर प्रदेश अग्रणीय राज्य है।
– राजस्थान में सवाई माधोपुर अग्रणी जिला है।
– अमरूद उत्कृष्टता केन्द्र देवड़ावास (टोंक) में स्थित है।
– अमरूद, अंजीर के बाद रेशे का अच्छा स्रोत है। (6.9%)
– अमरूद जल भराव व पाले के प्रति संवेदनशील है।
जलवायु:-
– अमरूद उष्ण व उपोष्ण क्षेत्र हेतु उपयुक्त फल है। आदर्श तापमान 23-28oC होना चाहिए।
– शरद ऋतु में अगर रात का तापमान 10oC के आस-पास होने पर उच्च गुणवत्ता के फल प्राप्त होते हैं। अधिक क्षारीयता (7.6 से ज्यादा) होने पर उकठा रोग का प्रभाव बढ़ जाता है।
प्रवर्द्धन:-
– सस्ती व सरल विधि – स्टूलिंग/माउण्ड लेयरिंग
– अमरूद में हवाई दाब विधि भी काम लेते हैं।
– अमरूद का व्यावसायिक प्रवर्द्धन इनार्चिंग व ग्राफ्टिंग विधि से किया जाता है।
– प्रवर्द्धन का उचित समय जून-जुलाई है।
– पौधों की आपसी दूरी 6 × 6 मीटर रखते हैं अगर मिडों विधि से रोपण करना हो तो दूरी 2 × 1 मीटर रखते हैं।
– अमरूद के पुष्पन व फलन वर्तमान मौसम की नवीन शाखाओं पर होता है।
– अमरूद में मृग बहार का उत्पादन लेने हेतु अप्रैल माह में कृन्तन कार्य किया जाता है।
अमरूद में बहार:-
पुष्पन:-
अम्बे बहार – फरवरी-मार्च (फ)
हस्त बहार – सितम्बर-अक्टूबर (स)
मृग बहार – जुलाई-अगस्त (जा)
फलन:-
वर्षाऋतु (जुलाई-अगस्त)
बसंत (मार्च-अप्रैल)
सर्दी (नवम्बर-दिसम्बर)
– बहार नियंत्रण के लिए 1-1.5 माह पूर्व सिंचाई बंद कर दें।
– NAA का 100 PPM व यूरिया का 10-15 प्रतिशत का छिड़काव 15 अप्रैल-15 मई (50 प्रतिशत पुष्पन) में करना चाहिए जिससे बहार नियंत्रण में मदद मिलती है।
– अमरूद में लाल/गुलाबी रंग का गुदा एकल प्रभावी जीन से नियंत्रित होता है।
– अमरूद के बीजों को HCl से उपचारित करने पर अंकुरण प्रतिशत बढ़ता है।
– अमरूद में GA3 का प्रयोग कर अनिषेचित फल प्राप्त किए जाते हैं तथा GA3 की 15-30 PPM की मात्रा फलों की जमाव स्थिति को बढ़ाता है।
– मूलवृन्त के लिए इलाहाबाद सफेद, पूसा श्रीजन किस्में हैं।
– अमरूद एक क्लाइमैट्रिक फल है।
– अमरूद में ब्रोंजिग की समस्या होती है जो कि मुख्यत: बोरॉन की कमी से होता है। यह समस्या वर्षा ऋतु में अधिक होती है। इलाहाबाद सफेदा किस्म इस समस्या से मुक्त है।
मुख्य बीमारी:-
1. अमरूद की फल मक्खी – बेक्ट्रोसेरा करेंक्टा (डाकस डोरसेलिस) – मुख्य कीट वर्षा ऋतु के फलों में ज्यादा प्रकोप होता है।
2. अमरूद का स्केल्स (पलविनेरिया सिडी) – उत्तरी भारत में
3. उकठा/विल्ट:- फ्यूजेरियम प्रजाति – क्षारीय मृदाओं में अधिक
4. एंथ्रोक्नोज (ग्लोइओ स्पोरियस सिडी व कोलोटोट्राइम ग्लोइओ स्पोरियस)
5. छाल भक्षक कीट
किस्म:-
– पंत प्रभात, हरीजा (बिहार में प्रसिद्ध), इलाहाबाद सफेदा (उत्तर प्रदेश की प्रसिद्ध किस्म), इलाहाबाद सुर्ख चित्तिदार (सर्वाधिक TSS, त्वचा पर हल्के लाल धब्बे)
– L-46 (नाशपती आकार), L-49 (सरदार) – सर्वाधिक विटामिन-C, राष्ट्रीय किस्म, सफेद जाम, कोहिर सफेदा।
– IIHR बेंगलुरु से विकसित – अर्का अमूल्य, अर्का मृदुला, अर्का किरण, अर्का रश्मि आदि।
– CISH लखनऊ से विकसित – ललित, श्वेता, लाल गुदा, गुलाबी गुदा
– HAU, हिसार से विकसित – हिसार सफेदा, हिसार सुर्ख, एप्पल कलर (लाल स्कीन) हफ्सी (लाल गुदा)
– IARI दिल्ली से विकसित – पूसा श्रीजन = 2n = 24 विल्ट के प्रति सहनशील, बौना मूलवृन्त गैन थाइलैण्ड, बेहत कोकोनेट
अनार
– Fruit of paradise/fruits of love/National fruit of Iran
– वानस्पतिक नाम – पुनिका ग्रेनेटम
– कुल – पुनीकेसी
– गुणसूत्र संख्या 2n = 2x = 18
– खाया जाने वाला भाग – बीजावरण (Aril) Juicy seed coat
– उद्गम स्थल – ईरान (पर्शिया)
– फल का प्रकार – बेलूस्टा
– अनार का पुष्पक्रम – हाइपेन्थोडियम
– अनार को समृद्धि/खुशहाली का प्रतीक माना जाता है।
– पोमोग्रेनेट लैटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है ‘grainly apple’ है।
जलवायु:-
– अनार शुष्क व उपोष्ण जलवायु वाला फल वृक्ष है।
– फल पकते समय गर्म व शुष्क जलवायु उचित रहती है।
– लवण प्रभावित क्षेत्रों में भी खेती की जा सकती है।
– अनार का बीजावरण व बाहरी आवरण एन्थोसाइनिन के कारण लाल रंग की होती है।
– बीजावरण सहित सूखे फल को अनार दाना कहते हैं।
– अनार का जूस कुष्ठ रोगियों के लिए उत्तम होता है।
– जंगली अनार को दाड़म कहा जाता है।
– भारत में सर्वाधिक अनार महाराष्ट्र में तथा राजस्थान में बाड़मेर अग्रणी है।
– राष्ट्रीय अनार अनुसंधान संस्थान – केसान सोलापुर, महाराष्ट्र
– अनार में स्वाद सिट्रिक अम्ल के कारण होता है।
– अनार के पौधे में टेनिन पाया जाता है।
– अनार में प्रोटोएण्ड्री एवं विषमवर्तिकात्व की समस्या पाई जाती है।
– जंगली अनार (प्यूनिका प्रोटोप्यूनिका) को मूलवृन्त में काम लेते हैं।
प्रवर्द्धन:-
– अनार में कठोर काष्ठ कलम विधि काम लेते हैं। प्रवर्द्धन हेतु जनवरी-फरवरी उपयुक्त तथा पौध रोपण हेतु फरवरी तथा वर्षा ऋतु में।
– अनार के पौधों को 5 × 5 मीटर की इसी पर लगाया जाता है।
अनार में बहार:-
– अम्बे बहार – पुष्पन – फरवरी-मार्च, फलन – जुलाई-अगस्त
– हस्त बहार – पुष्पन – सितम्बर-अक्टूबर, फलन – मार्च-अप्रैल
– मृग बहार – पुष्पन – जुलाई-अगस्त, फलन – नवम्बर-दिसम्बर
– शुष्क व कम पानी वाले क्षेत्रों में मृग बहार उपयुक्त है लेकिन रोग/व्याधियों का ज्यादा प्रकोप।
– हस्त बहार वाले फल उच्च गुणवत्ता युक्त होते हैं।
– अधिक उपज अम्बे बहार से मिलती है।
दैहिक विकार:-
1. Internal Break down/Blackening of arils- फल दानों का काला होना – पके दानों का अंदर ही फटना व यह समस्या अम्बे बहार में ज्यादा।
2. फलों का फटना- बोरॉन की कमी – 0.3-0.5 बोरेक्स का प्रयोग-मृग बहार में ज्यादा समस्या।
रोग/कीट:-
1. अनार की तितली – ड्यूडोरिक्स आइसोक्रेटेस मुख्य कीट
2. जीवाणु धब्बा (जेन्थोमोनास एक्सोनोपॉडिस) – महाराष्ट्र में 2007 में प्रकोप
3. उकठा/willt – (Ceratocystis fimbriata)
4. पत्ती धब्बा व फल सड़न – कवक जनित – सर्कोस्पोरा पुनीकी
किस्में:-
– गणेश, जालोर सीडलेस, मृदुला, जोधपुर रेड G-137, भगवा (सिंदुरी), फूले अरक्ता, कंधरी, मस्कट, ज्योति, वन्डर, डोलका, काबुल, बेदाना सीडलेस कंधरी मस्कट रेड, पेपर शेल, वेलाडू, रुबी, अमलीदाना, स्वरवर्बिल, गोमा खेट्टा, हयोति
– CAZRI से विकसित जालोर सीडलेस
– CIAH से विकसित गोमा खट्टा
– IIHR से विकसित रूबी
पपीता
– वंडर फ्रूट ऑफ ट्राफिक्स एण्ड सबट्रॉपिक्स/ट्री मेलन/बैकयार्ड ट्री
– भारत में पपीते का आगमन 16वीं शताब्दी में पुर्तगालियों द्वारा
– वानस्पतिक नाम – केरिका पपाया
– कुल – केरिकेसी
– गुणसूत्र – 2n = 2x = 18
– खाया जाने वाला भाग – मिजोकार्प
– उद्गम स्थल – उष्ण अमेरिका (मैक्सिको)
– फल का प्रकार – बेरी/सरस
– पुष्पक्रम – सोलिटरी
– शीघ्र बढ़ने वाला पादप व एक वर्ष में फलन देता है।
– पपीता विटामिन A का अच्छा स्रोत है। (2000 IU/100 g)
– पपीता के फलों से जैम/कैण्डी, सिरप बनाया जाता है।
– पपीता के फलों का पीला रंग केरिकाजेन्थीन तथा लाल गुदा लाइकोपिन के कारण होता है।
– पपीता का पौधा जल भराव व तेज आँधी के प्रति अतिसंवेदनशील है, पानी का भराव होने पर आर्द्र गलन रोग की समस्या
– पपीते में TSS की मात्रा 10 से 12° ब्रिक्स होती है।
जलवायु:-
– पपीता उष्ण जलवायु का पौधा, पाला हानिकारक औसत तापमान 22-26oC उपयुक्त व उचित अंकुरण हेतु 30oC, तथा उचित वानस्पतिक वृद्धि हेतु 21-33oC
– पेपेन का उपयोग दवा उद्योग, प्रोटीन पचाने, चूइंगम बनाने में, एल्कोहॉल उद्योग में काम लेते हैं।
– पेपेन को पेड़ से सुबह के समय निकाला जाता है (6.9 बजे) इसे मिट्टी या Al के बर्तन में इकट्ठा करते हैं।
– पेपेन निकाले फलो से, जैम/मुरब्बा/कैडी बनाया जाता है।
– पेपेन को 50-60oC तापमान पर सुखाया जाता है तथा अधिक समय तक सुरक्षित रखने हेतु KMS 350 PPM का प्रयोग करते हैं।
– पेपेन में 72.2 प्रतिशत प्रोटीन पाई जाती है।
– पपीता की पत्तियों से ‘कारपीन’ नामक तत्त्व निकाला जाता है।
– पपीता का प्रवर्धन बीज द्वारा होता है जिसमें 250-300 gm प्रति हेक्टेयर बीज काम में लेते हैं।
– टूटी-फूटी एक कैन्डी का प्रकार है।
– पपीता एकलिंगाश्रयी (डायोसियस) पादप है लेकिन इसमें नर, मादा व उभयलिंगाश्रयी तीनों तरह के पुष्प आते हैं। (पॉलीगेमस)
– भारत में सर्वाधिक पपीता आंध्रप्रदेश में तथा विश्व में भारत अग्रणी है।
– राजस्थान में सिरोही अग्रणी है। (2018-2019 & 2019-2020)
– पपीता के पौधों की आपसी दूरी 2.0 × 2.0 मीटर रखी जाती है तथा पूसा नन्हा किस्म को 1.25 × 1.25 मीटर की दूरी पर रखा जाता है।
– पपीता के बीजों पर एक चिपचिपी चमकीली परत पाई जाती है जो कि जिलेटीननुमा होती है जिसे सरकोटेस्टा कहते हैं।
– पपीता व खजूर में मेटाजिनिया प्रभाव देखा जा सकता है।
– पपीता में GA3 के प्रयोग से मादा फूलों की संख्या बढ़ाई जा सकती है।
– पपीता एकलिंगी (Diocious) पौधा है इसलिए इसे मादा व नर पौधों का अनुपात 10:1 रखते हैं।
– पपीते में मई से सितम्बर तक फूल आते हैं।
बीज दर:-
– गायनोडायसियस किस्मों हेतु 250-300 ग्राम प्रति हैक्टेयर।
– डायोसियस किस्मों के लिए 400-500 ग्राम प्रति हैक्टेयर।
– पपीते की नर्सरी अप्रैल-मई में तैयार की जाती है तथा 2 महीने में पौधा रोपण हेतु तैयार हो जाता हे।
– इसका पौधा रोपण- जुलाई-अगस्त में करते हैं।
मृदा:-
– पपीता के लिए अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त रहती है।
– पपीता आर्द्र गलन के प्रति बहुत अधिक संवेदनशील होता है। इसलिए जल निकास उचित होना चाहिए।
– उपयुक्त pH – 6.5-7.5
– प्रवर्धन के लिए उपयुक्त समय – फरवरी-मार्च।
बीज उपचार:-
– आर्द्रगलन से बचाव के लिए प्रति किलो बीजों को 3 ग्राम थायरम अथवा कैप्टान से उपचारित करते हैं।
गड्डे का आकार:-
– 45 × 45 × 45 सेमी.
सिंचाई:-
– गर्मियों में 5-7 दिन के अंतराल में तथा सर्दियों में 10-15 दिन के अंतराल में करते हैं।
कीट व रोग:-
1. पपाया रिगस्पॉट वायरस (PRSV/PRV):-
– पपाया मौजेक वायरस – यह एफिड (एपिस गोसीपाई) व मायजस परीसीकी से फैलता है – भारत की प्रमुख समस्या है।
2. पपीता का लीफ कर्ल वायरस:-
– वाहक सफेद मक्खी (बमेसिया टेबेकाई) उत्तर भारत की समस्या
3. एन्थ्रोक्नोज (Fruit surface rot & stem-
end not):-
– भण्डारण की समस्या
4. पपाया मीलिबग –
5. Footrot/Collarrot/Stem rot:-
– पीथियम अफेनीमेटिम व फाइटोफ्थोरा पलमीवोरा नियंत्रण – कॉपर ऑक्सी क्लोराइड 0.3 प्रतिशत व बोर्डों मिश्रण का प्रयोग करते हैं।
किस्म:-
पेपेन उत्पादक किस्म:-
– पूसा मैजेस्टी, Co-5 , Co-2
उभयलिंगी किस्म:-
– पूसा डेलिसियस, पूसा मैजेस्टी, सूर्या सनराइज सोलो, ताइवान, रेडी लेडी, कुर्ग हनीड्यू
पारस्परिक किस्म:-
– बरवानी लाल, वाशिंगटन, राँची
किस्म:-
– हनीड्यू (मधु बिंदु), Co-1 to Co-8, पंजाब स्वीट, पूसा जॉयन्ट, पूसा ड्वार्फ, ताइवान-786 पूसा गैन्ट (टूटी-फूटी), अर्का सूर्या, पिंक फ्लेश स्वीट, राँची
ट्रांसजैनिक किस्म – सनअप, रेनबो, हवाई
बेर
– शुष्क फलों का राजा/गरीब आदमी का फल/Summer deciduous fruit
– वा. नाम – जिजिपस मोरीसियाना
– कुल – रेम्नेसी
– गुणसूत्र संख्या – 2n = 2× = 48
– उद्गम स्थल – इण्डो – चायना
– फल का प्रकार – अष्ठिल/ड्रूप
– खाया जाने वाला भाग – फलभित्ति (पेरीकार्प)
– बेर का प्रयोग छुआरा, शर्बत, जैम, मुरब्बा, केडी, आचार, चटनी
– बेर में विटामिन A, B, C का पोषण मान भरपूर होने के कारण इसे गरीबों का सेब कहा जाता है।
– बेर के पौधो पर लाख के कीटों का पालन किया जाता है
– लाखकल्चर – लाख के कीटों का पालन
जलवायु:-
– शुष्क व अर्द्ध शुष्क जलवायु
– इसकी खेती क्षारीय व लवणीय मृदाओं में आसानी से की जा सकती है।
– बेर का पौधा उत्तरी भारत में गीष्म ऋतू में (मई-जून) में सुषुप्तावस्था में जब दक्षिण भारत में वर्ष भर वृद्धि।
प्रवर्द्धन:-
– बेर में प्रवर्द्धन “T” कलिकायन तथा वलय कलिकायन दोनों विधियाँ काम में ली जा सकती है।
– व्यावसायिक प्रवर्द्धन वलय कलिकायन से
– प्रवर्द्धन वर्षा ऋतू (जुलाई-अगस्त) उपयुक्त
– प्रवर्द्धन के लिए मूलवृन्त हेतु देशी बोरडी (जीजीपस रोटेन्डीफोलिया) काम में ली जाती है।
– जीजीपस जुजुबा – पाला सहनशील मूलवृन्त
– जीजीपस न्यूम्यूलेरिया – बौना मूलवृन्त
– जीजीपस रोटेन्डीफोलिया मूलवृन्त फल मक्खी से अवरोध है,
– बेर के पौधों का पौध रोपण 6 × 6 मी. की दूरी पर जुलाई-अगस्त माह में किया जाता है।
– पौधे लगाने हेतु गड्डो का आकार 1×1×1 मीटर का रखा जाता है।
संघाई व कटाई-छँटाई (Training & Pruning):-
– पौधो को उचित आकार देने हेतू यह क्रिया अनिवार्य है।
– बेर में अन्य फलदार पौधों की अपेक्ष्य भारी प्रुनिग की आवश्यकता होती है।
– बेर में प्रुनिग का कार्य 15 अप्रैल से 15 मई के मध्य किया जाता है।
कीट व रोग:-
1. फल मक्खी:- कारपोमिया वेसुबेनिया- यह बेर का मुख्य कीट है, जो कि जब फल छोटे व हरे होते हैं, तभी इनका आक्रमण होता है। नियंत्रण हेतू क्यूनालफांस का प्रयोग करते हैं।
2. छाछ्या रोग (पाउडरी मिल्ड्यू):- ओडियम स्पे. – यह मुख्य रोग है
3. फल सड़न – अल्टरनेरिया स्पे.
किस्म:-
1. अगेती किस्म:- गोला – लवण प्रतिरोध थार सेविका, थार भुवराज
– यह जनवरी के प्रथम सप्ताह में पकती है, = थार सेविका = सेव × कत्था
2. मध्यम किस्म:- सेब, मुण्डिया, जोगिया, कैथली, चौमूलोकल, बनारसी टिकड़ी – पकाव जनवरी का अंतिम सप्ताह
3. पछेती किस्म:- उमरान (काठा)- यह त्रिगुणित किस्म है, इलायची – बीज रहित किस्म
– गोमा कीर्ति, बागवाड़ी, नारनौल, पठानी
– गोमा कीर्ति किस्म को उमरान के क्लोन से तैयार किया गया है।
– असंगतता तथा स्वनिषेचयता देखी जा सकती है।
– कत्था किस्म सेब की तरह की।
– थाई एप्पल किस्म
– बेर में बीजीय सुषुप्तावस्था पायी जाती है, क्योंकि सख्त एंडोकार्प पाया जाता है।
– थार सेविका (सेब × कत्था) – CIAH से विकसित
– थार भुवराज – इस किस्म को भरतपुर की भूसावर के स्थानीय किस्मों से विकसित किया गया CIAH द्वारा।
– थार मालती:- CIAH से विकसित
– काजरी बेर 2018 – CAZRI से विकसित – गोला से चयनित
– CAZRI से विकसित किस्म:- सेब/गोला/मुड़िया
खजूर
– ट्री ऑफ लाइफ/सिर में आग पानी में पैर
– वानस्पतिक नाम – फीनिक्स डक्टाइलीफेरा
– कुल – पामेसी / एरेकेसी
– गुणसूत्र संख्या – 2x = 36
– उद्गम स्थल – खाड़ी देश – ईराक
– फल प्रकार – अष्ठिल/डुप
– खाया जाने वाला भाग – फल भित्ति/पैरीकार्प
– खजूर एकबीजपत्री व शाखाविहीन पौधा है।
– खजूर एकलिंगाश्रयी (डायोसियस) पादप है: उदाहरण पपीता/अंजीर
– खजूर कार्बोहाइड्रेट का एक अच्छा स्रोत है लगभग 67.00%
– खजूर का पुष्पक्रम – स्पेडिक्स प्रकार का
जलवायु:-
– खजूर के लिए गर्म जलवायु उपयुक्त मानी जाती है।
– फल पकाव के समय मौसम वर्षा रहित होना चाहिए।
– खजूर के लिए 3300 ऊष्मा इकाई (हीट यूनिट) पुष्पन से लेकर फलन तक अच्छी रहती है।
– मृदा गहरी, रेतीली, दोमट अच्छी मानी जाती है।
– लवणीय व क्षारीय मृदाओं में अच्छा फलन – 8-10 pH मान पर भी लगाया जा सकता है।
– पुष्पन व फलन के समय तापमान उचित। वेसे खजूर
तापमान तक सहन कर सकती है।
प्रवर्द्धन:-
– खजूर का प्रवर्द्धन बीज द्वारा भी किया जाता है।
– गुणवत्ता युक्त पौधों के लिए कायिक प्रवर्द्धन किया जाता है।
– पवर्धन के लिए अन्त: भूस्तारियों (ऑफ शूट) का प्रयोग करते हैं।
– ऑफ शूट का न्यूनतम वजन 6 Kg से कम नहीं होना चाहिए।
– ऑफ शूट का आदर्श वजन 8-12 Kg माना जाता है।
– खजूर के पौधे ऊतक संवर्द्धन से भी तैयार किये जाते है जिसमें सोमाक्लोन विविधता देखी जा सकती है।
– ऊतक संवर्द्धन प्रयोगशाला – अतुल प्राइवेट लिमिटेड (ARAD) – 2011
– खजूर अनुसंधान संस्थान – बीकानेर
– खजूर उतकृष्टता केन्द्र – सागरा भोजका (जैसलमेर)
– खजूर में नर: मादा = 1 : 10 रखा जाता है
– प्रवर्द्धन तथा पौधों को लगाने का उचित समय वर्षा ऋतु जुलाई – अगस्त
– गड्डों का आकार 1×1×1 मीटर
– पौध रोपण दूरी 8×8 मीटर
– खजूर की भारत में फीनिक्स सिल्वेस्ट्रिस प्रजाति पायी जाती है।
– खजूर के प्रतिकिलोग्राम फल से 3000 कैलोरी ऊर्जा प्रदान होती है।
– भारत में खजूर अनुसंधान की शुरुआत 1955-1962 में अबोहर (पंजाब) से मानी जाती है।
– खजूर से पुष्पन जनवरी-मार्च में लेकिन भारत में फलन वर्षा ऋतु से (जुलाई-अगस्त) पूर्व ही डोका अवस्था में तोड लिए जाते हैं।
खजूर की फल अवस्था:-
1. हब्बाक – परागण से 4 सप्ताह – अपरागित कार्पलस गिरते हैं।
2. गंडोरा (कीमारी) – 9 सप्ताह तक – फल हरे, नमी 85%
3. डोका (खलल) – 4 से 5 सप्ताह – फल कठोर (भारत में फलों को इस अवस्था में तोड़ा जाता है।)
4. डेग (रूतब) – 4 सप्ताह तक – फलों के खाने योग्य अवस्था
5. पिण्ड (तमर) – एक सप्ताह – फल पूर्ण परिपक्कव
– भारत में खजूर के फलों को डोका अवस्था में तोड़ा जाता है।
– खजूर के फलों को खाने योग्य अवस्था – डेग (रूतब) होती है। फलों में नमी 35-40% तक होती है व फला मुलायम होते हैं।
– खजूर के फल पिण्ड (तमर) अवस्था में पूर्ण रूप से पक जाते हैं।
– खजूर के सूखे फलों को छुआरा कहा जाता है।
– खजूर में मेटाजिनिया प्रभाव देखा जाता है।
– खजूर में प्रोटोएड्री भी देखी जा सकती है।
– खजूर में हस्त परागण (कृत्रिम परागण) होता है।
– पिण्ड खजूर हेतु फलों को डोका अवस्था में तोड़ा जाता है।
किस्में:-
(i) ताजा खाने हेतू – हलावी, खुनैजी (लाल रंग) बरही, खलास
(ii) मुलायम फल वाली – जाहिदी, हलावी, जगजूल (जगलूल), खदरावी ये किस्में पिण्ड खजूर हेतु उपयुक्त
(iii) छुआरा हेतु/सुखे फल – आकार बड़ा/गुदा अधिक चाहिए जाहिदी, मेड़जूल, शामरान
(iv) प्रसंस्करण हेतु – हियानी (रंगीन), चीप-चेप, सूरिया, जामली सगाई
(v) नरमंझरी हेतू – बनामी, मधसरी, आलन सीटी
– हलावी किस्म भारत/राजस्थान के लिए उपयुक्त किस्म
– फलों को शीघ्र पकाने हेतु ईथ्रेल 500-1000 PPM का प्रयोग करे।
आँवला
– 21वीं सदी का फल/इण्डियन गूज बेरी/अमृतफल/स्केयर्ड पौधा
– वानस्पतिक नाम – एम्बीलिका ऑफिसिनेलस
– कुल – यूफोरबिएसी
– गुणसूत्र संख्या – 2n = 2x = 28
– खाया जाने वाला भाग – पेरीकार्प व कैप्सूल
– आँवला विटामिन-C का एक अच्छा स्रोत है जिसमें बारबाडोस चेरी के बाद सर्वाधिक विटामिन-C पाया जाता है।
– आँवला का प्रयोग मुरब्बा व चटनी में होता है।
– आँवला का प्रयोग च्यवनप्राश, त्रिफला व आयुर्वेदिक दवाओं में प्रयोग होता है।
– सर्वाधिक आँवला उत्पादन उत्तर प्रदेश में होता है तथा उत्तर प्रदेश का प्रतापगढ़ जिला आँवला उत्पादन में प्रसिद्ध है।
जलवायु:-
– उष्ण/उपोष्ण जलवायु से लेकर शुष्क जलवायु तक।
– क्षारीय भूमियों में pH 7-9 तक की आसानी से खेती की जा सकती है।
प्रवर्द्धन:-
– आँवला के प्रवर्द्धन में व्यावसायिक रूप से पैच कलिकायन विधि काम में लेते हैं।
– पुराने पौधों को सुधारने हेतु शिखर रोपण काम में लेते हैं।
– प्रवर्द्धन का कार्य वर्षा ऋतु में जून-जुलाई में किया जाता है।
– पौधों का रोपण 8 × 8 मीटर की दूरी पर जून-अगस्त तथा फरवरी-मार्च में रोपण किया जाता है।
– आँवला में पुष्पन मार्च-अप्रैल माह में तथा फलन नवम्बर-दिसम्बर माह में होता है। आँवला में पुष्पन सुषुप्तावस्था पाई जाती है जो कि वापस वर्षा ऋतु में सक्रिय होती है।
– आँवला में स्व-असंगतता पाई जाती है जो कि स्पोरोफाइटिक होती है।
– गड्डों का आकार 1 × 1 × 1 मीटर होता है।
रोग:-
1. रस्ट/रोली (Rust):-
– रिविनेलिया एम्बिलिका मुख्य रोग
2. छाल:-
– भक्षक कीट – (इंडरबेला टेट्रोनिस) – मुख्य कीट
किस्म:-
– अगेती किस्म – बलवन्त, गोमा, ऐश्वर्या, नरेन्द्र आँवला-9 बनारसी
मध्यम किस्म:-
– फ्रेन्सिस (हाथीझुल), नीलम (NA7), कंचन (NAU), कृष्णा (NAS), अमृत (NAb)
– पछेती – चकैया, भावनी सागर
CIAH से आँवला की विकसित किस्म:-
1. गोमा ऐश्वर्या:-
– NA7 (नीलम से चयन) – अगेती व शुष्क क्षेत्र हेतु उपयुक्त
– आँवला में कसैलापन टैनिन के कारण होता है।
अँगूर
– वानस्पतिक नाम – विटिस विनिफेरा
– कुल – विटेसी
– गुणसूत्र संख्या – 2n = 2x = 40
– उद्गम स्थल – आर्मेनिया (एशिया माइनर)
– फल का प्रकार – सरस/बेरी, पुष्पक्रम – पेनीकल
– खाया जाने वाला भाग – फल भित्ति व प्लेसेन्टा (पेरीकार्प एवं प्लेसेन्टा)
– अँगूर एक प्रकार की पर्णपाती बेल है।
– अँगूर में ग्लूकोज (8-13 प्रतिशत) व फ्रक्टोज (7-21 प्रतिशत) शर्करा पाई जाती है।
– अँगूर की खेती का अध्ययन विटीकल्चर कहलाता है तथा शराब का वैज्ञानिक अध्ययन एवं शराब प्रोसेसिंग का अध्ययन इनोलॉजी के अंतर्गत किया जाता है।
– अँगूर का कुल उत्पादन का लगभग 80 प्रतिशत भाग शराब में (वैश्विक स्तर) तथा किशमिश बनाने, कैनिंग, मुनक्का आदि में प्रयोग होता है।
– भारतीय अँगूर ताजा खाने में प्रयोग किया जाता है।
– भारत में अँगूर का आगमन मुस्लिमों द्वारा (ईराक/अफगान) 13वीं सदी में तथा फ्रांस की ईसाई मिशनरियों द्वारा दक्षिण भारत में 19वीं सदी में लाई गई थी।
जलवायु:-
– गर्मियों में गर्मी अधिक तथा सर्दियों में सर्दी अधिक, पाला रहित तथा पकते समय वर्षा रहित मौसम उपयुक्त रहता है।
– मृदा का आदर्श pH-6.5-7.5 के मध्य होना चाहिए।
प्रवर्द्धन:-
– अँगूर में प्रवर्द्धन का सबसे अच्छा तरीका कलम द्वारा जिसमें भी कठोर काष्ठ कलम काम ली जाती है जो कि लगभग 1 साल पुरानी हो।
– अँगूर एक पर्णपाती पादप है इसलिए प्रवर्द्धन जनवरी-फरवरी माह में करना चाहिए।
– क्षारीय भूमि में अँगूर की खेती के लिए क्षार प्रतिरोधी मूलवृन्त: साल्ट क्रीक, टेलकी-5ए, डॉगरिज, 1616 व 1613 का उपयोग करना चाहिए।
– अँगूर में पुष्पन हेतु आदर्श तापमान 18-21oC तथा उचित वृद्धि हेतु 28-32oC तापमान अच्छा रहता है।
– डॉगरिज नेमोटोड व लवणीय सहनशील मूलवृन्त है तथा यह सर्वाधिक काम में लिया जाने वाला मूलवृन्त है।
– रिपारिया क्लोरी व सेण्ट जॉर्ज मूलवृन्त फाइलोक्जरा के प्रति सहनशील है। फाइलोक्जरा एक भूरा पीले रंग का रस चूसक है।
– अँगूर के उत्पादन में वैश्विक स्तर पर चीन, भारत में महाराष्ट्र तथा राजस्थान में श्रीगंगानगर अग्रणी है।
– अँगूर में टार्टरिक अम्ल की प्रधानता पाई जाती है तथा मैलिक अम्ल भी पाया जाता है।
– अँगूर नॉन-क्लाइमैट्रिक फल है।
– अँगूर के फलों का रंग (लाल, बैंगनी) एन्थोसाइनीन के कारण तथा फलों में हल्का पीलापन क्यूरेसीटीन के कारण होता है।
– अँगूर के फलों में सुगंध मिथाइल सेलीसिलेट के कारण होती है।
– उत्तरी भारत में कृन्तन (Pruning) कटाई-छँटाई एक आवश्यक कार्य है जो कि दिसम्बर-जनवरी माह में किया जाता है।
– दक्षिण भारत में साल में दो बार प्रूनिंग की जाती है। पहली अक्टूबर-नवम्बर (सर्दी की शुरुआत) जिसे फारवर्ड प्रूनिंग कहते हैं तथा दूसरी अप्रैल माह में जिसे बैक या फाउण्डेशन प्रूनिंग कहते हैं।
– तमिलनाडु में प्रूनिंग कार्य दिसम्बर-जनवरी व मई-जून में किया जाता है।
– अँगूर में मस्कट-फ्लेवर सुगंध उसमें पाए जाने वाले मिथाइल एन्थ्रानीलेट के कारण है। मस्कट अँगूर की एक किस्म भी है।
– अँगूर में स्टेनोपर्मोकार्पी प्रकार का अनिषेकफलन पाया जाता है, लेकिन अनाब-ए-शाही किस्म में नहीं होता है क्योंकि इस किस्म में बीज पाए जाते हैं।
– अँगूर में पुष्पन मार्च-अप्रैल माह में तथा फलन अप्रैल-मई माह में होता है।
– अँगूर में फलों का विरलीकरण तथा फल आकार बढ़ाने हेतु GA3 का प्रयोग किया जाता है।
– अँगूर लाल किस्मों तथा रेड वाइन में ‘Resveratrol’ एक प्राकृतिक एंटीऑक्सिडेन्ट पाया जाता है, जिसमें एंटी-कारसीनोजेनिक गुण पाया जाता है।
– अँगूर में पुष्पन व फलन प्रक्रिया के समय ‘Cap like Structure’ बन जाती है जिसे केलिप्टरा कहते हैं।
– अँगूर के पौधों को उचित आकार देने के लिए संघाई (Training) की जाती है- पंडाल विधि/परगोला/बोअर कहा जाता है, भारत में यह विधि सर्वाधिक अपनाई जाती है इस विधि में 4-6 मीटर की दूरी पर खम्बे लगातार तारों का जाल बनाया जाता है जिस पर लताओं को साधा जाता है।
Overhead/टेलीफोन विधि:-
– पंडाल विधि से उत्तम है लेकिन अधिक महँगी होने के कारण कम अपनाई जाती है।
– उत्तरी भारत में ट्रैलिस विधि तथा दक्षिणी भारत में पंडाल विधि मुख्यत: काम में ली जाती है।
– संघाई की शीर्ष व निफिन तथा कोर्डन विधि भी लेकिन कम काम में ली जाती है, (निफिन विधि 1850 से विलियम निफिन ने दी)
– अँगूर में Nipping का कार्य भी किया जाता है जिससे पार्श्व कलिकाओं में वृद्धि होती है।
वर्जेन (Veraison):-
– फलों का हरे से पीले या लाल होना अर्थात् फलों के पकने की अवस्था को वर्जेन कहा जाता है।
मिलारेन्डेज (Millerandage):-
– अण्डाशय की उपस्थिति के बाद भी फल का छोटा व उचित आकार न होना।
कोल्यूर (Coulure):-
– अँगूर के पुष्प गुच्छों का अच्छी प्रकार से फल ठहराव न होना।
– अँगूर के पौधे लगाने का उचित समय जनवरी-फरवरी माह है।
– पौधों को 3 × 3 मीटर की दूरी पर लगाया जाता है।
– किशमिश के लिए आदर्श TSS – 22-23oBric
– अँगूर के निर्यात के लिए TSS – 18° Bric
– अँगूर के उगाने वाले क्षेत्रों में Mg व Fe की कमी होती है।
अँगूर के दैहिक विकार:-
1. पिंक बेरी फॉर्मेशन – थॉम्पसन किस्म में (महाराष्ट्र)
2. मिलारेन्डेज व शॉट बेरीज – परलेट किस्म – बोरॉन की कमी
3. हेन एण्ड चिकन – बोरॉन की कमी
4. कोल्यूर – B की कमी
5. BER (Blossom End Rot) – Ca की कमी
6. इन्टरवेनियल क्लोरोसिस – Mg, Zn, Fe की कमी
7. Bunch necrosis – ताज ए गणेश
कीट व व्याधि:-
1. अँगूर का भृंग/पत्ती-बीटल- सेलोनेन्टा स्ट्रीगीकोलीस-मुख्य कीट- लट (ग्रब) वयस्क अवस्था नई कलिका खाँसी है।
2. थ्रिप्स – रिफिफोथ्रिप्स क्य्रून्टस
3. मृदुरोमिल (डाउनी मिल्ड्यू) – प्लाज्मोफोरा बाइटीकोला – प्रमुख बीमारी कवक जनित बीमारी
4. छाछ्या रोग (Powdery Mildew) – एरीसाइपी विटी/अनसितुला नेक्टर कवक जनित रोग
5. एंथ्रोक्नोज (श्यामवर्ण) – एल्सीनोई एम्पीलीना – कवक जनित तना, शाखा, पत्तियों व फलों पर भूरे रंग के धब्बे।
किस्में:-
– क्रिमसन सीडलेस (USA) – रंगीन व बीजरहित फ्लेम सीडलेस, ब्यूटी सीडलेस, फेन्टेसी सीडलेस, थाम्पसन सीडलेस (भारत में सर्वाधिक बोई जाने वाली किस्म, किशमिश, कैनिंग व शराब में काम आती है।)
– परलेट, अर्कावती, अर्का नीलमणि, शरत सीडलेस, सोनाका सीडलेस ताज-ए-गणेश
– अर्का कंचन, अर्का श्याम, अर्का हंस (white wine), अनाब-ए-शाही पचाद्रक्श, मस्कट, बेंगलुरु ब्लू, रेड ग्लोब।
– पूसा उर्वशी, पूसा नवरंग (Teinturier किस्म), पूसा स्वर्णिका, पूसा अदिति, पूसा तरिशार
– अर्का श्वेता, अर्का मेजेस्टिक, अर्का चित्रा, अर्का सोमा, अर्का त्रिश्ना, अर्का कृष्णा
– किशमिश हेतु थॉम्पसन सीडलेस, अर्कावती
रसदार किस्म:-
– बेंगलुरु ब्लू, ब्यूटी सीडलेस, अर्का कृष्णा, अर्ली मस्कट, चैम्पियन, डिलाइट।
शराब में:-
– ब्लैक चम्पा, अर्का हंस, अर्का श्याम, अर्का कंचन, चीमा साहेबी, रुबी रेड, रेड प्रिन्स।
लसौड़ा
– वानस्पतिक नाम: कोरडिया मिक्सा
– कुल – बोरेन्जसी/ऐरिथिएसी
– उत्पत्ति – भारत व बर्मा
– फल का प्रकार – अष्ठिल
– खाने योग्य भाग – मिजोकार्प
– लसौड़ा ने फाइटिक अम्ल व टेनिन पाया जाता है। किस्म – थार बोल्ड
– प्रवर्द्धन – व बीज व कलम (शील्ड कलिकायन)
– दूरी 6 × 6
– गड्ढ – 1×1×1m
– फलों की तुड़ाई – अप्रैल-मई के महीने में करना चाहिए।
– उपज – 50-60 किग्रा/पौधा
बेल पत्र (Beal)
– उपनाम – श्रीफल/बंगाल क्वीस
– वानस्पतिक नाम – एगल मार्मेलोस
– उत्पत्ति – भारत
– फल का प्रकार – एम्फीसार्का
– 2n = 18
– खाने योग्य भाग – आंतरिक फल भित्ति (Succulent placenta)
– भगवान शिव का फल है, पत्तियां पूजा के रूप में चढ़ाते हैं।
– बेल का फल Vitamin B2 (Riboflavin) का अच्छा स्रोत है।
मिट्टी-
– बेल पत्र के लिए दोमट मिट्टी उचित रहती है। यह 6-10 pH पर आसानी से उगाया जा सकता है।
– किस्में-
– नरेन्द्र 1, 2, 5, 7, 9, कागजी गांडा, दरोगा, कागजी इटावा, पन्त अर्पण।
– पन्त सुजाता, पंत शिवानी, पंत उर्वशी, CISHB-1, गोमा, चशी, थार दिव्या, थार नीलकण्ठ
प्रर्वधन-
– पेंच बडिंग (Patch Budding)
– दूरी – 6 × 6
– गढ्ढ़ा – 1 × 1 × 1m
फल पकने का समय-
– 10 से 11 महीने लगते, पकने में सबसे ज्यादा समय लेती है,
– पकने का समय अप्रैल-मई।
– तुड़ाई – बेल का पौधा 4-5 साल बाद फल देने लग जाता है।
– उपज – 100-400 फल प्रति पौधा
– भण्डारण – पर और नमी 85%
ओलेरीकल्चर
– इसके अंतर्गत सब्जियों का अध्ययन किया जाता है।
– लिबर्टी हाइडे बेली को सब्जी विज्ञान का जनक भी कहा जाता है।
– ICMR (भारतीय औषधीय अनुसंधान परिषद्) नई दिल्ली के अनुसार स्वस्थ व्यक्ति को प्रतिदिन 300 ग्राम सब्जियों की आवश्यकता होती है जिसमें 125 ग्राम हरी पत्तेदार 100 ग्राम जड़/कंद तथा 75 ग्राम अन्य सब्जियों की जरूरत होती है।
उपलब्धता:-
– सब्जियों की उपलब्धता – 286 gm/Net
– फलों की उपलब्धता – 126 gm/Net
कुल उपलब्धता:-
– सब्जियों की उपलब्धता – 378 gm gross
– फलों की उपलब्धता – 200 gm gross
राजस्थान में उपलब्धता:-
– सब्जियों में – 51 gm
– फलों में – 25 gm
– नीदरलैण्ड सब्जियों का सबसे बड़ा निर्यातक राष्ट्र है।
– सब्जी उत्पादन में चीन > भारत > यू.एस.ए. अग्रणीय देश हैं।
– प्रथम संकर (F1) सब्जी वाली फसल बैंगन (1924) जापान ने विकसित की।
– परम्परागत (Traditional) सब्जियाँ – प्याज, आलू, भिण्डी, करेला, मिर्च।
– बलुई चिकनी मिट्टी सब्जियों की खेती के लिए सर्वोत्तम है।
– भारत में प्रथम संकर किस्म वर्ष 1973 में टमाटर (कर्नाटक) तथा मिर्च (भारत) का विकास भारत-अमेरिकी कंपनी ने किया।
– वैश्विक स्तर पर सब्जियों में सोलेनेसी (30%) कुकरबिट्स (21%) जड़/कंद (16%) ब्रेसीकेसी (13%) की मुख्य भागीदारी है।
– सार्वजनिक क्षेत्र में प्रथम संकर किस्म लौकी की (पूसा मेघदूत, पूसा मंजरी) IARI द्वारा विकसित की गई।
– प्याज, लहसुन में सल्फर तत्त्व पाए जाते हैं जो कालेस्ट्रॉल को कम करते हैं।
– कॉल क्रॉप्स में इंडोल्स और डाईथायोलिथिओनस जो कि कैंसर के बचाव में उपयोगी है।
– करेला में चेरीटिन जो कि डायबिटीज में उपयोगी है।
– प्याज में डाईफिनायल एमीन, क्यूरेसीटिन, एलीसीन यौगिक पाए जाते हैं जो कि क्रमश: डायबिटीज कैंसर व एंटी जीवाणु प्रकृति के होते हैं।
– लहसुन में क्यूरेसीटिन (बायोफ्लेवीनोइड्स) जो कि कैंसर से बचाव के काम आता है।
– पत्तागोभी (Cabbage) – इण्डोल 3 – कार्बीनोल जो कि कैंसर बचाव।
– बैंगन में नासूनीन (Nasunin) (एंथोसाइनीन) एंटी कैंसर प्रकृति।
– मटर के परिपक्व बीजों में फाइटिक अम्ल का विषैला प्रभाव।
– आलू में विषैला तत्त्व सोलेनिन
– तरबूज में विषैला तत्त्व सेरोटोनीन
– कॉल क्रॉप्स में विषैला तत्त्व सीनिग्रीन
– टमाटर में विषैला तत्त्व सोपोनीन व टोमेटीन
– कद्दू वर्गीय में विषैला तत्त्व कूकरबीटासिन
– गाजर की पूसा असिता (एन्थोसाइनीन), पूसा रुधिरा (लाइकोपीन), पूसा नयनज्योति (B-कैरोटीन) मूली की प्लम हृदय (एन्थोसाइनीन) टमाटर की पूसा रोहिणी (लाइकोपिन), कद्दू की अर्का चंदन (B-कैरोटीन) की अधिकता पाई जाती है।
– प्याज, गाजर, खरबूजा, परवल में प्रोटोएण्ड्री का प्रभाव।
– मिर्च, कॉल क्रॉप्स, भिण्डी में प्रोटोगायनी का प्रभाव होता है।
– टमाटर पत्तेदार सब्जियों, आलू, दलहन में सिट्रिक अम्ल होता है।
– ब्रोकली, गाजर व प्याज में मैलिक अम्ल।
टमाटर
– गरीब का संतरा/Love of Apple/Wolf peach कहा जाता है।
– वानस्पतिक नाम – लाइकोपर्सिकोम एस्कुलेन्टम/सोलेनम लाइकोपर्सिकम
– कुल – सोलेनेसी
– उत्पत्ति – दक्षिणी अमेरिका/उष्ण अमेरिका/पेरु-मैक्सिको
– टमाटर को संरक्षी खाद्य माना जाता है।
– टमाटर का लाल रंग लाइकोपीन के कारण व पीला रंग कैरोटिन के कारण होता है।
– टमाटर में फलों व सब्जियों में सर्वाधिक लाइकोपीन पाई जाती है।
– टमाटर भारत में पुर्तगालियों द्वारा लाया गया था।
– टमाटर विटामिन-A, B, C का अच्छा स्रोत है।
जलवायु:-
– टमाटर उष्ण जलवायु का पौधा है तथा पाले के प्रति अतिसंवेदनशील है।
– टमाटर की फसल में तापमान 16oC से कम व 28oC से अधिक तापमान नुकसानदायक होता है।
– अंकुरण के लिए इष्टतम तापमान – 21-26oC
– टमाटर की फसल में अच्छे लाइकोपीन का निर्माण 21o-24oC तथा 27oC से अधिक तापमान होने पर लाइकोपीन का निर्माण कम हो जाता है तथा तापमान 30oC से अधिक होने पर लाइकोपीन निर्माण बंद हो जाता है तथा फल पीले रंग के हो जाते हैं।
– टमाटर की खेती के लिए मृदा का pH मान 6-7 अच्छा माना जाता है।
– टमाटर की नर्सरी तैयार की जाती है जिसके लिए 250m2 में नर्सरी तैयार करते हैं (12th बोर्ड में 100-125m2)
– बीज की मात्रा सामान्य किस्मों के लिए 400-500 ग्राम तथा संकर किस्मों के लिए 150-200 ग्राम होती है।
बुवाई का समय:-
– जून-जुलाई (अगेती), सितम्बर-अक्टूबर (मध्यम), मार्च-अप्रैल (पछेती) व पहाड़ी क्षेत्रों के लिए।
उर्वरक:-
– सामान्य किस्मों में – 60:80:60 Kg/h
100:80:80 Kg/h
– संकर किस्मों में – 200:100:80 Kg/h
– पौधों की आपसी दूरी 45 × 45 सेमी. व संकर किस्मों में 90 × 90 सेमी. दूरी रखी जाती है।
– फलों के निर्माण व विपरीत जलवायु में PCPA (पैराक्लोसी फेनाक्सी) एसीटिक अम्ल का प्रयोग करते हैं।
– टमाटर की फसल को गिरने से बचाने हेतु सहारा (Staking) किया जाता है।
– सर्वाधिक संकर बीज भारत में टमाटर की फसल में प्रयोग करते हैं।
– टमाटर, बैंगन, मिर्च, भिण्डी दिवस निष्प्रभावी पौधे हैं इसलिए वर्ष में तीनों ऋतुओं में खेती की जाती है।
दैहिक विकार:-
1. ब्लॉसम एंड रॉट (BER):-
– फल पर काले रंग का धब्बा, कैल्सियम की कमी से होता है, नियंत्रण 0.2 प्रतिशत कैल्सियम क्लोराइड।
2. फफीनैस (Puffiness):-
– फल पूर्ण विकसित नहीं होते खाली रह जाते हैं। यह समस्या संकरण के कारण होती है जिसमें अण्डाशय से पूर्ण फल का निर्माण नहीं, कम व अधिक तापमान का होना। इसको Pocket भी कह देते हैं।
3. फल का फटना (Fruit cracking):-
– बोरॉन की कमी, मृदा ताप का प्रभाव, 0.3-0.4% बोरेक्स का छिड़काव।
4. सन स्केल्ड (Sun Scald):-
– सूर्यताप के सम्पर्क वाला फल हल्का सफेद बाकी सामान्य, अधिक तापमान के कारण होता है।
5. गोल्डन फ्लेक (golden flake):-
– फल पर हल्के पीले धब्बे व गोल्डन कलर का होना। फल में कैल्सियम ऑक्जेलेट के जमा/अधिकता के कारण होता है। Low K : Ca की अधिकता।
6. ब्लोची रिपनिंग (Blotchyripening) (Gray wall):-
– पोटाश की कमी
7. Cat face:-
– लक्षण BER के समान, कम व अधिक तापमान के कारण।
8. Russetting:-
– त्वचा का खुरदरा होना, विशेषत: फल जुड़ाव के पास
9. Zipper scar:-
कीट व व्याधियाँ:-
1. डेम्पिंग ऑफ (पिथियम राइजोक्टोनिया, फाइटोफ्थेरा):-
– नर्सरी की कवक जनित मुख्य समस्या।
2. Early (अल्टरनेरिया सोलेनाई) Late blight
(फाइटोफ्थेरा इंफेस्टेन्स):-
– कवक जनित बीमारी
3. पाउडरी मिल्ड्यू:-
– ओडियम लाइकोपरसिकी – ग्रीन हाउस की समस्या कवक जनित
4. बैक्टिरियल ब्लाइट (स्युडोमोनास सोलेनेसेरम):-
– जीवाणु जनित बीमारी टमाटर की मुख्य बीमारी पौधा अचानक झलस जाता है। कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 1.3 प्रतिशत, स्ट्रेप्टोसाइक्लोन 0.1 g/cit का प्रयोग।
5. टोमेटो लीफ कर्ल वायरस:-
– वाहक White fly (बमेसिया टेबेकाई)
6. टोमेटो मोजेक वायरस:-
– वाहक Machanical fransmission – green house में समस्या
7. फल छेदक – हेलीकर्वपा आर्मीजरा – मुख्य कीट
8. सफेद मक्खी
9. तम्बाकू सुंडी
किस्म:-
– विदेशी-रोमा, सियोक्स, मार्वल, बेस्ट ऑफ आल, मनीमेकर पूसा रेड प्लम, पूसा रूबी (सियोक्स × इम्प्रूवड मारुती), पूसा अर्ली ड्वार्फ, पूसा रोहिणी, पूसा शीतल, पूसा सदाबहार
– अर्का विकास, अर्का आलोक, अर्का आभा, अर्का अभीजित, अर्का आशीष, अर्का शौरभ, अर्का आहूति, अर्का मेघाली, अर्का वरदान, काशी विशेष, काशी शरद, काशी अनुपम, काशी हेमन्त, हिसार अरुण, हिसार लालिमा, हिसार ललित, हिसार अनमोल, पंजाब छुआरा, फूले राजा, धनश्री
उत्परिवर्तित किस्म:-
– Co-3 (मरुथम) S-12, PKM-1, पूसा लाल मारुती
संकर किस्म:-
– अर्का विशाल, अर्का वरदान, अर्का श्रेष्ठ, अर्का सम्राट, अर्का रक्षक, अर्का अन्नया, अर्का अभिजीत, पूसा दिव्या (Ist F1) पूसा रूबि, पूसा रोहिणी, Pusa-120, पूसा उपहार उत्तर भारत के लिए उपयोगी।
– निर्धारित मुख्य किस्म – पूसा शीतल, पंजाब छुआरा, रोमा
– अनिर्धारित मुख्य किस्म – पूसा रूबि, सियोक्स, मारग्लोब, बेस्ट ऑफ आल।
– पहाड़ी क्षेत्रों के लिए – सियॉक्स, बेस्ट ऑफ ऑल, मारवलोष।
– पार्थेनोकॉर्पी किस्म – सिवेरियन (Severianin)
– बैक्टिरियल Wilt अवरोधी – अर्का आलोक, अर्का अभिजीत, अर्का श्रेष्ठ।
– अर्का सम्राट – TLCV, Bactyerial wilt, early blight सहनशील।
– पारकर – फल छेदक किस्म
– फ्लेवर सेवर – जैव प्रौद्योगिकी द्वारा विकसित पहली किस्म।
– अंगुरलता – बैल वाली किस्म।
बैंगन
– अन्य नाम – Egg Plant, Aubergine, Poor Men’s CUSP
– वानस्पतिक नाम – सोलेनम मेलोनजिना।
– कुल – सोलेनेसी
– उत्पत्ति – भारत
– गुणसूत्र – 2n = 24
– फल का प्रकार – सरस (Berry)
– यह दिवस निष्प्रभावी पौधा है, पाले के प्रति संवेदनशील है। इसके लिए 21 से 27oC तापमान उचित रहता है।
– बैंगन में असतृंप्त वसीय अम्ल पाए जाते हैं (Pufa-Poly unsaturated fatty acid) हृदय रोगी के लिए अच्छा माना जाता है।
– बैंगन विटामिन-C का स्रोत है। सफेद बैंगन मधुमेह रोगी के लिए अच्छा रहता है।
– बैंगन का नीला रंग (Anthocynin) एन्थोसाइनिन के कारण होता है।
– बैंगन में कड़वापन ग्लूकोलाइड के कारण होता है।
– बैंगन में विषाक्त पदार्थ सोलोसोडाइन
– सबसे ज्यादा पश्चिमी बंगाल में होता है।
– किस्में – लम्बे फलों वाली – पूसा परपल लोंग – अगेती किस्म हे।
– पूसा परपल कलस्टर, पूसा क्रांति, पन्त सम्राट, पंजाब बरसाती, फ्लेरिडा मार्केट।
– पूसा अनुपम – पूसा क्रांति × पीपीसी, पंजाब बरसती अर्काशील आदि।
– ब्लैक ब्यूटी – सूत्रकृमि के प्रति प्रतिरोधी किस्म।
– गोल फलों वाली – पूसा परपल राउण्ड, टाइप-3, पंजाब बहार, अर्का कुसमकार, अर्काशामली, बाहरमासी, पूसा उपकार, पंजाब सदाबहार।
– बैंगन में ऑक्जेलिक अम्ल (क्लोरोजेनिक) पाया जाता है।
– आदर्श तापमान – 13-21oC, नर्सरी हेतु – 20oC
– बैंगन का फल खाया जाता है।
– सूखा बैंगन घैंघा रोग, उदर बीमारियों, अनिद्रा में सहायक।
– पन्त ऋतुराज दोनों ऋतुओं में उगाया जा सकता है।
अण्डाकार:-
– अर्का नवनीत – IIHR × सुप्रीम का संकरण है (सर्वाधिक उपज वाली किस्म)।
– पूसा अनमोल, पूसा उत्तम, पूसा बिन्दु, भाग्यमती, अर्का शिरीष, आजाद क्रांति।
– दूधिया – भुरटा बनाने के लिए उपयुक्त।
खाद व उर्वरक:–
– 120:80:60
बुवाई का समय:-
– खरीफ – जून-जुलाई – अगेती
– रबी – नवम्बर-दिसम्बर – मध्यम
– फरवरी-मार्च – पछेती
बीज दर:-
– सामान्य – 400-500 ग्राम
– संकर – 150-200 ग्राम
– रोपणी क्षेत्रफल – 125-150m2
– स्थानांतरण – 5-6 सप्ताह के बाद करते हैं (3-4 पत्ती या 12-15 सेमी. ऊँचाई)
– लंबे बैंगन – 60 × 60, गोल में – 75 × 60 सेमी.
– (Fruit Set) फल के विकास के लिए NAA 60 ppm का छिड़काव करते हैं।
– उपज – 200 – 250 क्विंटल/हेक्टेयर
कीट:-
बैंगन का तना व फल छेदक:-
– ल्यूसिनोडस अरबोनिलस।
– यह बैंगन का मुख्य कीट है। इसकी सुंडी तने को अंदर से खाकर खोखला कर देती है जिसे (Dead Heart) डेड हर्ट कहते हैं।
नियंत्रण:-
– कार्बेरिल 0.1 प्रतिशत छिड़काव करते हैं।
– प्रतिरोधक किस्म अर्का कुसमकार उगाते हैं।
2 हाडा बीटल:-
– फसल की शुरुआत पर नुकसान पहुँचाता है।
– नियंत्रण – कार्वोरिल 0.1 प्रतिशत का छिड़काव करते हैं।
– सफेद मक्खी – ये पत्तियों का रस चूस कर नुकसान पहुँचाती है और पौधों को कमजोर कर देती है इमडाक्लोरपिड का छिड़काव 0.3 प्रतिशत का घोल बनाकर करते हैं।
व्याधियाँ (Disease):-
1. छोटी पत्ती (Little leaf):-
– यह बीमारी माइकोप्लाज्मा से होती है इसका वाहक फूद कीट होता है।
– नियंत्रण – फसलों पर डायमिथोएट 0.2 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़कते हैं।
– रोग रोधी किस्में – अर्काशील, मजरी गोटा आदि।
2. फोसमोपसीस ब्लाईट:-
– यह मुख्य बीमारी है। बीज को बाबस्टीन या थिराम 3 ग्राम/किलो की दर से उपचारित करते हैं।
– प्रतिरोधी किस्में उगाते हैं – पूसा भैरव, फ्लोरिडा मार्केट आदि।
मिर्च
– वानस्पतिक नाम – कैप्सिकम एनम – यह चिरपिरी या मसाले वाली मिर्च के नाम से जानी जाती है।
– कैप्सीकम फ्रुटसीन – शिमला – बेल पिपर
– कुल – सोलेनसी
– उत्पत्ति – उष्ण अमेरिका
– यह विटामिन-C का अच्छा स्रोत है।
– फल का प्रकार सरस है।
– नॉन क्लाइमेट्रिक सब्जी है, दिवस निष्प्रभावी पौधा है।
– मिर्च में तीखापन – केप्सेसिन – C18H27NO3
– लाल रंग कैप्सेथिन – C40H56O3
– चिल्ली से ओलेरायसीन प्राप्त होता है।
जलवायु:-
– गर्म व आर्द्र जलवायु की आवश्यकता पड़ती है उपयुक्त तापमान फल बनते समय 24 डिग्री सेल्सियम चाहिए। पाले के प्रति संवेदनशील है।
किस्में:-
तीखी मिर्च की किस्में | मीठी मिर्च की किस्में |
पूसा ज्वाला, ज्वालामुखी | येलो वन्डर, कैलिफोर्निया वंडर |
पंजाब लाल, मथानिया लौंग | अर्कामोहिनी, हाइब्रिड भारत |
पूसा सदाबहार (निर्यात हेतु व बहुवर्षीय) | अर्का गौरव, भारत, निशांत |
पटना रोड, पूरी रेड | स्वीट बनाना |
पंजाब गुच्छेदार | Bull Nose (बुल नोज) |
कल्याणपुर मोहिनी | अर्का बसन्त, हीरा |
सिंधुर | किंग ऑफ नार्थ |
भाग्य लक्ष्मी, भास्कर, अपर्णा | पूसा दीप्ति-F1 |
कल्याणपुर चमन | |
पन्त सी-1 व अग्नि |
– सब्जियों में सर्वाधिक रेशा 6.8 gm/100gm
– पूसा सदाबहार बहुवर्षीय किस्म है।
– हैंगरियन वैक्स पीले रंग की किस्म है।
– बुवाई का समय – वर्ष में तीन बार की जाती है। खरीफ – मई-जून में करते हैं। गर्मी में फरवरी में करते हैं।
– दूरी – गर्मी में 60 × 45 सेमी., साधारण दूरी – 45 × 45 सेमी., संकर – 75 × 60 सेमी.
– खरीफ में 45 × 30 सेमी.
– स्थानांतरण – 4 से 5 सप्ताह पुरानी पौध का करते हैं।
– बीज दर – 1 से 1.5 किलो रखते हैं।
– भारत का सबसे बड़ा उत्पादक, उपभोगकर्ता, निर्यातक देश है।
– भारत में आंध्र प्रदेश, राजस्थान में जयपुर है।
– शिमला मिर्च की शुरुआत शरदकालीन बुवाई अगस्त-सितम्बर तक की जाती है।
– मिर्च की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए पोटैशियम का प्रयोग करते हैं।।
– संकर 200-250 ग्राम बीज
– उर्वरक – 80:40:80
– उपज – तीखी मिर्च हरी अवस्था – 75 क्विंटल/हेक्टेयर व मिर्च का तीखापन Scoville Heat unit से मापा जाता है।
– सूखी मिर्च – 15-20 क्विंटल/हेक्टेयर
– मीठी मिर्च – 200-300 क्विंटल/हेक्टेयर
– सूखी मिर्च में – 6 प्रतिशत (Stalk) डंडी, 40 प्रतिशत ऊपर की सतह (Pericarp), 54 प्रतिशत बीज पाया जाता है।
– मिर्च में फल बढ़ाने के लिए – NAA 50 PPM का छिड़काव करते हैं, फलों को झड़ने से भी रोकता है।
रोग:-
1. लीफ कर्ल/पूर्ण कुंचन:-
– यह रोग सफेद मक्खी द्वारा फैलता है यह वायरस जनित रोग है।
– नियंत्रण – रोग रोधी किस्में – पूसा ज्वाला, पूसा सदाबहार जनित रोग है।
– डाइमिथोएट या इमिडाक्लोरापिड का 0.2 प्रतिशत का छिड़काव करते हैं।
2. मोजेक:-
– पौधा छोटा पत्तियाँ मोटी, पत्तियों का गुच्छा बनना, फूलों का झड़ना आदि लक्षण पाए जाते हैं।
– यह रोग मोयला कीट द्वारा फैलाया जाता है।
– नियंत्रण – प्रतिरोधक किस्म उगाते हैं – पंजाब लाल आदि।
– मेलाथियान या डाइमिथोएट या इमडोक्लोरापिड का छिड़काव करते हैं।
3. आर्द्रगलन:-
– यह रोग रोपणी अवस्था में होता है।
– नियंत्रण – बीज कैप्टान या थिरान 2 ग्राम/किलो बीज से उपचारित करके बोए रोपणी का फार्मेलिन (1.7 पानी) से उपचारित करना चाहिए।
कीट:-
1. थ्रिप्स:-
– यह रस चुसक कीट है।
– यह लीफ कर्ल रोग फैलाता है।
– मुख्य कीट है (सिरटोथ्रिप्स डोरसेलिस)
2. सफेद मक्खी:-
– यह भी रस चुसक कीट है।
– नियंत्रण – सफेद मक्खी व थ्रिप्स के नियंत्रण के लिए इमिडाक्लोरपिड या डाइमिथाएट का 0.2 घोल बनाकर छिड़कते हैं।
कॉल क्रॉप्स
– ‘Cole’ शब्द ‘Caulis’ से बना है जिसका अर्थ Stem होता है।
– कॉल क्रॉप्स में मुख्यत: छ: प्रमुख सब्जियाँ शामिल है।
1.पत्तागोभी (Cabbage):-
– ब्रेसिका ओलिरेसिया किस्म केपीटाटा गुणसूत्र संख्या 2n = 2x = 18 आर्थिक भाग रूपांतरित शीर्ष कलिका (हैड-खाए जाने योग्य भाग)
2. ब्रुसलेस:-
– बेसिका ओलिरिसिया किस्म गेमीफेरा – आर्थिक भाग – पार्श्व कलिका
3. कुलगोभी:-
– ब्रेसिका ओलिरिसिया किस्म बोटूीटिस – आर्थिक भाग – पुष्पक्रम (रूपांतरित)
4. ब्रोकली:-
– ब्रेसिका ओलिरिसिया किस्म इटालिका – आर्थिक भाग – रूपांतरित पुष्पक्रम
5. नोल-खोल:-
– ब्रेसिका ओलिरिसिया किस्म गोंगीलोड्स – आर्थिक भाग फूला हुआ तना
6. केली:-
– ब्रेसिका ओलिरिसिया किस्म ऐसीफेला – आर्थिक भाग – रूपांतरित वत्ति भाग
– कॉल क्रॉप्स ब्रेसीकेसी कुल व उपकुल ‘पपेवरऐसी’ है।
– Cauliflower लैटिन भाषा नोल-खोल-जर्मन भाषा, ब्रोकली-इटालियन भाषा के शब्द है।
– कॉल क्रॉप्स की उत्पत्ति जंगली पत्तागोभी या Cole worts से (ब्रेसिका ओलिरिसिया किस्म सिलवेस्ट्रिस) से हुआ है।
– कॉल क्रॉप्स के अधिक सेवन से घैंघा रोग बढ़ता है।
– फूलगोभी व पत्तागोभी उत्पादन में चीन > भारत
– कॉल क्रॉप्स बीजोत्पादन के दृष्टिकोण से द्विवर्षीय तथा प्रयोग की दृष्टि से एकवर्षीय है।
– ‘Cole crops’ पुस्तक Nieuwhof ने लिखी।
– ’Tomato’ पुस्तक डॉ. G. कलो ने लिखी।
– टमाटर का जनक डॉ. G. कलों को कहा जाता है।
– गोभीवर्गीय सब्जियों का उत्पत्ति स्थल – भूमध्यसागरीय क्षेत्र है।
– सभी कॉल क्रॉप्स प्रोटोगायनी है व स्वअसंगतता पाई जाती है।
– कॉल क्रॉप्स का मुख्य कीट डायमण्ड बैक मोथ (DBM) है (Plutella Xylostella)
फूल गोभी
– यह भारत में 1822 में जेनसन द्वारा चलाई गई।
– वानस्पतिक नाम – ब्रेसिका आलेरिसिया बार बोट्राइटिस
– कुल – क्रुसीफेरी
– गुणसूत्र – 2n = 18
– उत्पत्ति – भूमध्य सागर का क्षेत्र
– खाने योग्य भाग – Curd
– पुष्पक्रम – रेसीमोस
– भारत का चीन के बाद दूसरा स्थान है।
– फूल गोभी शीत और नम जलवायु की फसल है। (शीतोष्ण जलवायु)
– Curd के निर्माण के लिए उपयुक्त तापमान 20o से 27oC होता है। (अगेती)
किस्में:-
अगेती किस्में:-
– पूसा केतकी, पूसा दिपाली, अर्ली कुँवारी, अर्लीपटना।
मध्यम किस्में:-
– पूसा शुभ्रा, पूसा अगानी, पूसा हिमज्योति, पन्त शुभ्रा, इम्प्रूव्ड जापानीज।
पछेती किस्में:-
– स्नोबल-16, पूसा स्नोबल-1, पूसा स्नोबल-2, लता, डानिया
पूसा हिमज्योति:-
– अकेली किस्म है जो पहाड़ों पर अप्रैल से जुलाई तक उगाई जाती है।
– पूसा शुभ्रा व स्नोबल K-1 ब्लैक रोट के प्रति प्रतिरोधक है।
फसल | बीज की बुवाई का समय | बीज दर (ग्राम में) | उपज (q/h) |
अगेती | जून-जुलाई | 600-700 | 100-150 |
मध्य | जुलाई-अगस्त | 350-400 | 450-200 |
देरी | सितम्बर-अक्टूबर | 355-400 | 200-300 |
– नर्सरी – 200-250 m2
स्थानांतरण:-
– 3 से 4 सप्ताह पुरानी पौध को खेत में स्थानांतरण करते हैं 5 से 6 पत्ती अवस्था पर करते हैं।
उद्यानिकी क्रियाएँ:-
ब्लांचिंग:-
– Curd को ढकना, ताकि धूप के कारण Curd सफेद और सुगंधित बना रहता है। इसकी जयादा जरूरत अगेती किस्म को होती है।
– पूसा हिमज्योति – Self blanching किस्म है।
स्कुपिंग:-
– बीज उत्पादन करने के लिए Curd का बीच वाला भाग हटा देते हैं जिसे स्कुपिंग कहते हैं।
कार्यिक के प्रकार:-
1. बोल्टिंग:-
– अपरिपक्व बीज का बनना बोल्टिंग कहलाता है यह गर्म मौसम, अशुद्ध बीज, तापमान में अत्यधिक बदलाव के कारण होता है।
2. बटनिंग:-
– Curd कर्ड बहुत छोटा रह जाता है बटन के आकार का हो हो जाता है।
कारण:-
– नाइट्रोजन की अनुचित आपूर्ति/कमी।
– जब पिछेती किस्मों की जगह अगेती और अगेती जगह पिछेती किस्में उगाई जाती है।
रिसीनेस व फयूजीनेस:-
– कर्ड छोटा व मुलायम हो जाता है।
– कारण – अत्यधिक तापमान, N का अधिक प्रयोग के कारण।
भूरापन:-
– इसमें कर्ड भूरे रंग का हो जाता है। कारण – यह बोरान की कमी से होता है।
Whiptail:-
– यह रोग मोल्बिडेनम की कमी से होता है तथा भूमि अम्लीय होती है।
तने का खोखला होना:-
– यह रोग बोरॉन की कमी से और नत्रजन का अत्यधिक उपयोग से होता है।
पत्तागोभी
– ब्रेसिका ओलेरेशिया वे. केपिटाटा
– कुल – क्रुसीफेरी
– पत्तागोभी में एन्टीकेंसर विशेषता इण्डोल 3-कार्बीनॉल तत्त्व के कारण होती है।
– पत्तागोभी का खाने वाला भाग – हैड कहलाता है जो पत्तियों द्वारा बनी गाँठनुमा संरचना होती है।
– पत्तागोभी में फल बनने के लिए ठण्डा जलवायु (6-7oC) उपयुक्त है।
– फूलगोभी एवं पत्तागोभी का फल प्रकार – सिलिकुआ है।
– पत्तागोभी का पुष्पक्रम केटकेन कहलाता है।
– पत्तागोभी में वृद्धि एवं हैड बनने हेतु उचित तापमान 12-18oC है पत्तागोभी की रोपाई हेतु दूरी –
अगेती किस्मों के लिए – 60 × 30 सेमी.
पछेती किस्मों के लिए – 60 × 45 सेमी.
बीज दर:- 500g/ha.
– पछेती 350-400 ग्राम
– बुवाईका समय – अगस्त से दिसम्बर (मैदानों में)
किस्में:-
क्र.सं. | अगेती किस्में | संकर किस्में |
1. | गोल्डन एकर | पूसा ड्रमहेड (ब्लेक लेग व गलन प्रतिरोधी) |
2. | कोपेन्हेगम मॉर्केट | पूसा मुक्ता (ब्लेक रोट प्रतिरोधी) |
3. | प्राइड ऑफ इण्डिया | पूसा रेड |
4. | पूसा अगेती | पूसा संबंध (अत्यधिक घनत्व वाली) |
कीट:-
1. डायमण्ड बेक मोथ:-
– प्लूटेला जाइलोस्टेला
– यह पत्तागोभी का प्रमुख कीट है।
– इसकी लटे पत्तियों पर सुरंगें बनाती है।
– यह कीट बाजार में उपलब्ध सामान्यत: सभी प्रकार की कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोधी हो चुका है।
2. सरसों की आरा मक्खी:-
– एथालिया प्रोक्सीमा
– यह हाइमोनोप्टेरा गण का एकमात्र कीट है जो फसलों को नुकसान पहुँचाता है।
3. केबेज सेमी लूपर:-
– प्लूरिया आरिकेल्सिया
1. क्लब रोट:-
– प्लाज्मोडिफोरा ब्रेसिकी
– यह रोग pH मान 5-7 पर सर्वाधिक होता है।
– पत्तागोभी की प्रमुख बीमारी है।
2. काला सड़न:-
– जैन्थोमोनॉस कम्प्रेस्ट्रीज
3. बोल्टिंग:-
– यह दैहिक विकार है।
– पत्तागोभी में हैड बनने से पहले बीज हेतु डण्टल निकलना, बोल्टिंग कहलाता है।
– यह जल्दी बुवाई एवं अधिक गर्मी पड़ने से होता है।
भिण्डी
वानस्पतिक नाम – Abelmoschus esculentus
कुल – मालवेसी
उत्पत्ति स्थल – अफ्रीका
गुणसूत्र संख्या – 2n=130
उपयोगी भाग – फल
फल का प्रकार – केप्सूल
● भिण्डी को Okra/Lady finger भी कहते हैं।
● भारत भिण्डी उत्पादन में विश्व में अग्रणी देश है।
● भिण्डी दिवस निष्प्रभावी पादप है।
● भिण्डी का उपयोग गुड़ को साफ करने में किया जाता है।
● भिण्डी विटामिन-A, B तथा आयोडीन का अच्छा स्रोत है।
जलवायु:-
● यह उष्ण जलवायु की फसल है।
● गर्म एवं आर्द्र जलवायु की फसल है।
● भिण्डी के अंकुरण के लिए 25-35° सेल्सियस तापमान उपयुक्त होता है।
बीजदर:-
● ग्रीष्मकालीन भिण्डी की फसल के लिए 18-20 किलो प्रति हेक्टेयर।
● वर्षा ऋतु की फसल के लिए 8-10 किलो प्रति हेक्टेयर।
पौधरोपण दूरी:-
● ग्रीष्मकालीन फसल – 45×30cm
● वर्षा ऋतु फसल – 60×30cm
मृदा:-
● बलुई दोमट मृदा उपयुक्त मानी जाती है जिसका pH मान 6-7 हो।
खाद व उर्वरक:-
● गोबर की खाद – 20-25 टन प्रति हेक्टेयर
● नाइट्रोजन – 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
● फॉस्फोरस – 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
● पोटाश – 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
सिंचाई:-
● सिंचाई फसल की जलमाँग व वर्षा को ध्यान में रखते हुए करते हैं।
● सामान्यत: गर्मियों में 5-6 दिन के अंतराल में सिंचाई की जाती है।
किस्में:-
परभनी क्रांति:-
● यह किस्म Abelmoschus esculentus cv. पूसा सावनी × Abelmoschus Manihot के संकरण से तैयार की गई है। यह किस्म येलो वाइन मोजेक वायरस के प्रतिरोधी है।
पंजाब पद्मिनी:-
● यह किस्म Abelmoschus esculentus × Abelmoschus Manihot ssp. Manihot के संकरण से तैयार की गई है।
● यह किस्म कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना पंजाब द्वारा विकसित की गई है।
● यह किस्म येलो वाइन मोजेक वायरस के प्रतिरोधी व कॉटन बॉल वर्म के प्रति सहनशील है।
पूसा सावनी:-
● यह किस्म भारत में भिण्डी की प्रसिद्ध किस्म है।
● यह जायद व खरीफ दोनों ऋतुओं में लगाने के लिए उपयुक्त है।
पूसा मखमली:-
● शुद्ध वंशक्रम द्वारा तैयार किस्म है।
● येलो वाइन मोजेक वायरस के प्रतिरोधी है।
पंजाब-8:-
● यह किस्म पूसा सावनी में उत्परिवर्तन द्वारा तैयार की गई है।
● यह फल छेदक के प्रति सहनशील व येलो वाइन मोजेक वायरस के प्रतिरोधी है।
वर्षा उपहार (HRB 9-2):-
● यह किस्म पत्ती के फुदके के प्रति सहनशील व YVMV के प्रतिरोधी है।
हिसार उन्नत (HRB-55):-
● यह खरीफ व जायद दोनों के लिए उपयुक्त किस्म है व YVMV के प्रतिरोधी है।
येलो वाइन मोजेक वायरस (YVMV) की प्रतिरोधी किस्में:-
● अर्का अनामिका (Selection-10), अर्का अभय, आजाद क्रांति, जर्नादन, पूसा A-4, Co-1
खरपतवार नियंत्रण:-
● भिण्डी की फसल में रासायनिक खरपतवारनाशी फ्लूक्लोरालिन (1.5kg/ha) का प्रयोग करते हैं।
● बुवाई के 40-45 दिन बाद निराई-गुड़ाई की जाती है।
तुड़ाई:-
● जब भिण्डी की लंबाई 6-8cm (कच्ची अवस्था में) हो जाए तो तुड़ाई कर लेनी चाहिए।
बीज उत्पादन:-
● 10-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर
मुख्य कीट:-
● सफेद मक्खी, फल छेदक, जेसिड आदि।
मुख्य रोग:-
● येलो वाइन मोजेक वायरस (YVMV) – यह भिण्डी का सबसे खतरनाक रोग है।
● इस रोग का वाहक सफेद मक्खी है।
प्याज
– वानस्पतिक नाम – एलियम सीपा एल
– कुल – एलिएसी
– गुणसूत्र – 2n = 16
– उत्पत्ति – मध्य एशिया (अफगानिस्तान)
– सब्जियों द्वारा प्राप्त विदेशी मृदा में 70 प्रतिशत प्याज द्वारा प्राप्त होती है।
– सबसे ज्यादा निर्यात होने वाली सब्जी है।
– प्याज पर परागित फसल है। परागण मधुमक्खियों से होता है।
– शल्क कंदों के निर्माण के लिए 15-20oC तापमान की जरूरत होती है।
– अंकुरण के समय 20-25oC
– गंध – एलाइल प्रोपाइल डाई सल्फाइड के कारण
– प्याज का पीला रंग – क्यूरेसटीन के कारण होता है।
– प्याज में फफूँद प्रतिरोधी रसायन Catechol होता है।
किस्में:-
सफेद रंग वाली:-
– नासिक सफेद, सफेद ग्लोव, पंजाब – 48, उदयपुर 102, प्याज कंचन, पूसा व्हाइट राउण्ड
लाल रंग वाली:-
– हिसार-2, अर्का परगती, N-53, अर्का निकेतन, उदयपुर 101, 103, पूसा रत्नाकार
पीले रंग की किस्में:-
– अर्का पिताम्बर, फूल स्वर्ण, अर्ली ग्रानो आदि।
प्याज का बीज उत्पादन:-
– आधार दूरी – 1000 मीटर
– प्रमाणित – 500 मीटर
अर्का परगती:-
– रबी और खरीफ दोनों में उगा लेते हैं।
अर्का बिंदु:-
– ज्यादा निर्यात होने वाली किस्म है।
एन-53:-
– महाराष्ट्र राउरी में विकसित की गई।
एग्रीफाउण्ड डार्क रेड:-
– खरीफ व बुवाई के लिए।
खाद व उर्वरक:-
– 30 टन – F.Y.M
– 80-120 किलो नत्रजन
– 50-75 किलो फॉस्फोरस
– 80-125 किलो पोटाश
– आँखों में आँसू प्रोपिनाईल सल्फोनिक अम्ल
– प्याज में एलीनेज एल्जाइम पाया जाता है।
– खरीफ प्याज – अलवर, अजमेर
बीज दर:-
– छिड़काव विधि से – 20-25 किलो प्रति हेक्टेयर
– नर्सरी – 8 से 10 किलो प्रति हेक्टेयर (रबी), खरीफ – 12-15 किग्रा.
– रबी – अक्टूबर-नवम्बर
– खरीफ – मई-जून
– शल्क कन्दों की मात्रा – 10-12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर
रोपणी:-
– नर्सरी का क्षेत्र 500m2
– स्थानांतरण – 6-7 सप्ताह पुरानी
– दूरी – 15 × 7 सेमी.
कार्यिक विकार:-
शल्क कंदों का भण्डारण में अंकुरण:-
– नियंत्रण उपाय – 2500-3000 ppm MH का छिड़काव करते हैं। खुदाई से 15 दिन पहले करते हैं।
– बोल्टिंग – बीज का पहले बनना जो कि शल्क कंदों पर नकारात्मक प्रभाव डालती है।
– कारण – लम्बे समय तक कम तापमान तथा नाइट्रोजन की कमी।
– उपज – 100-125 क्विंटल प्रति हेक्टेयर
– प्याज का परिपक्वता का लक्षण – नेक फॉल
लहसुन
– वानस्पतिक नाम – एलियम सेटाइवम।
– कुल – एलिएसी।
– उत्पत्ति – मध्य एशिया
– लहसुन में तीखापन – डाइएलिल डाइसल्फाइड के कारण होता है।
– एलीन जल में घुलनशील अमीनो अम्ल पाया जाता है।
किस्में:-
– यमुना सफेद, जी-1, 2 एग्रीफाउन्ड व्हाइट (जी-41), नासिक लहसुन एग्रीफाउन्ड पार्वती (जी-313) जी-50, भीमा ओमकार, पंत लोहिल, भीमा पर्पल
बीज दर:-
– 400-500 किलो प्रति हेक्टेयर cloves. Cloves का आकार – 8 से 10 मिमी.
– दूरी 15 सेमी. पंक्ति से पंक्ति
– 7.5 सेमी. पौधे से पौधे
– 5.0 सेमी. गहराई
बुवाई का समय:-
– अक्टूबर-नवम्बर
पौधरोपण दूरी:-
– 15 × 7-8cm
प्रवर्द्धन:-
– 1 हेक्टेयर में 8-10mm आकार के 5 क्विंटल क्लोव की आवश्यकता होती है।
– क्लोव को 5-7.5 सेमी. गहराई पर लगाया जाता है।
खाद व उर्वरक:-
– गोबर की खाद – 20-25 टन प्रति हेक्टेयर
– नाइट्रोजन – 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
– फॉस्फोरस – 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
– पोटैशियम – 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
खरपतवार नियंत्रण:-
– खरपतवार को रासायनिक नियंत्रण के लिए पैंडीमेथालिन खरपतवारनाशी का उपयोग करते हैं।
उपज:-
– 10-20 टन प्रति हेक्टेयर
भंडारण:-
– 60-70% अपेक्षित आर्द्रता व 0.5 से 2% तापमान पर भंडारित किया जाता है।
कायिक विकार:-
– स्प्राउटिंग – इसके निंयत्रण के लिए 2500PPM मैलिक हाइड्रेजाइड का छिड़काव करते हैं।
मटर
– वानस्पतिक नाम- Pisum Saltivum Var. Hortense (उद्यान मटर)
– Pisum Sativum Var. arvense (फिल्ड मटर)
– कुल-फैबैसी
– उत्पत्ति स्थल- भूमध्य सागर
– गुणसूत्र संख्या- 2n= 14
फल का प्रकार:- फली
– इसमें 22.5% प्रोटीन व 1.8% वसा, 62% कार्बोहाइड्रेट्स पाया जाता है।
– इसकी दाल व हरी सब्जी दोनों के लिए खेती की जाती है।
– इसकी परिपक्वता की जाँच Tendrometer से की जाती है।
– मटर डिब्बाबंदी के लिए सर्वाधिक उपयुक्त मानी जाती है।
वर्गीकरण:-
– यह दो प्रकार की होती है-
1. Garden Pea (Pisum Sativum Var. hortense):-
– इसे उद्यान मटर भी कहा जाता है इसे कच्ची अवस्था में तोड़ लिया जाता है।
– इसके बीच बड़े व झुर्रीदार होते हैं यह डिब्बाबंदी में काम आती है।
Field Pea (Pisum Sativum Var. arvense):-
– इसके परिपक्व बीज काम में लिए जाते हैं।
– यह चारे व हरी खाद के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है।
जलवायु:-
– यह ठण्डे जलवायु की फल है।
– इसके अंकुरण के लिए 22°C तापमान तथा वृद्धि के लिए 13-18°C तापमान उपयुक्त माना जाता है।
मृदा:-
– इसके लिए उचित जल निकास वाली दोमट मृदा उपयुक्त मानी जाती है।
– इसका pH मान 6.0-7.5 के मध्य होना चाहिए।
किस्में:-
– अपर्णा- भारत की प्रथम संकर किस्म है।
अगेती किस्म:-
– पूसा प्रगति, कँवरी, अर्ली वंडर, हरभजन, हिसार हरित, जवाकर मटर, अर्ली सुप्रभा लिटिल, मार्वल।
मध्यम व पछेती किस्म:-
– जवाहर मटर-2, जवाहर मटर-87, जवाहर मटर-87, अर्का अजीत, आजाद मटर-1, बॉनविल, पंत उपहार, काशी शक्ति।
बीज दर:- अगेती के लिए- 100-120 Kg/ha
पछेती के लिए 80-90 Kg/ha.
बुवाई का समय:-
– मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर
पौधरोपण दूरी:-
– 30×10 cm
– बुवाई के समय बीज की गहराई 4-5 सेमी रखना चाहिए।
खाद व उर्वरक:-
– बुवाई से पूर्व 20-25 टन अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद प्रयोग करनी चाहिए।
– नाइट्रोजन- 20-30 Kg/ha.
फॉस्फोरस- 60-80 Kg/ha.
पोटाश- 50-60 Kg/ha.
सिंचाई:-
– सिंचाई आवश्यकतानुसार 10-15 दिन के अन्तराल पर करनी चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण:-
– बुवाई के 25-45 दिन में निराई-गुडाई कर देनी चाहिए।
– इसके लिए रासायनिक नियंत्रण हेतु एलाक्लोर 0.75 Kg/हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें।
उपज:-
– बीज उत्पादन- 20-25 क्विंटल/हेक्टेयर
अगेती किस्म उपज- 25-40 क्विंटल/हेक्टेयर
मध्यम किस्म की उपज- 60-75 क्विंटल/हेक्टेयर
पछेती किस्म की उपज- 80-100 क्विंटल/हेक्टेयर
Shelling percentage- 35-50%
मुख्य रोग:-
– चूर्णी फफूँद (Powdery mildew)- Erysiphe pisi)
– तुलासिता रोग (Downy mildew)- Peronospora viciae)
– जड़ विगलन रोग (Foot and root root)- Fusarium solani
गाजर
वानस्पतिक नाम – Daucus carota
कुल – अम्ब्रेलीफेरी
उत्पत्ति स्थल – अफगानिस्तान
गुणसूत्र संख्या – 2n = 18
उपयोग भाग – जड़
फल का प्रकार – सिजोकार्प
पुष्पक्रम का प्रकार – अम्बेल
● गाजर का पीला रंग केरोटिन व लाल रंग एंथोसाइनिन वर्णक के कारण होता है।
● गाजर में कड़वापन का कारण आइसोक्यूमेरिन है।
● गाजर परपरागित फसल है इसमें प्रोटोएंड्री पाई जाती है व परागण मधुमक्खी द्वारा होता है।
● काली गाजर द्वारा कानजी नामक पेय पदार्थ बनाया जाता है।
जलवायु:-
● सामान्यत: गाजर ठंडी जलवायु की फसल है।
● जलवायु के आधार पर दो प्रकार की किस्में पाई जाती है–
1. उष्ण जलवायु/एशियाटिक किस्में – इन किस्मों में बीज उत्पादन उष्ण व उपोष्ण जलवायु में होता है।
2. शीतोष्ण जलवायु/यूरोपियन किस्में – इन किस्मों में बीज उत्पादन केवल शीतोष्ण जलवायु में होता है जबकि ये किस्में तीनों ही प्रकार की जलवायु (उष्ण, उपोष्ण व शीतोष्ण) में लगाई जा सकती है।
तापमान:-
● बीज अंकुरण के लिए – 7.2-23.9° सेल्सियस
● जड़ बनने के लिए – 18-22° सेल्सियस
● केरोटिन बनने के लिए – 15.5-21° सेल्सियस
मृदा:-
● गाजर की फसल के लिए गहरी बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त मानी जाती है।
● मिट्टी का pH मान – 6.5
बुवाई का समय:-
● उष्ण जलवायु/एशियाटिक किस्में – अगस्त से नवंबर के मध्य
● शीतोष्ण जलवायु/यूरोपियन किस्में – अक्टूबर से नवंबर के मध्य
बीजदर:-
● 5-6 kg/ha.
बीज की गहराई:-
● 1.5-2cm
पौधरोपण दूरी:-
● 30-45 × 8-10cm
खाद एवं उर्वरक:-
● गोबर की खाद – 20-25 टन प्रति हेक्टेयर
● नाइट्रोजन – 120 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
● फॉस्फोरस – 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
● पोटाश – 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
सिंचाई:-
● सामान्यत: 5 से 7 दिन के अंतराल में सिंचाई करें।
किस्में:-
उष्ण जलवायु/एशियाटिक किस्में:-
● इन किस्मों में केरोटिन की मात्रा कम व एंथोसाइनिन की मात्रा अधिक होती है एवं यह अधिक उत्पादन देती है।
● पूसा मेघाली, पूसा केसर, पूसा नयनज्योति, पूसा रूधिरा, अर्का सूरज, पूसा असिता, पूसा पायस, हिसार गार्लिक, सलेक्शन-233, पूसा वृष्टि, गोल्डन बॉल व HC-1, 2 आदि।
शीतोष्ण जलवायु/यूरोपियन किस्में:-
● इन किस्मों में केरोटिन की मात्रा अधिक व एंथोसाइनिन की मात्रा कम पाई जाती है एवं इनका उत्पादन भी कम होता है।
● पूसा यमदागिनी, अर्ली नेण्टिस, इम्पोर्टर, अर्ली जेम इम्पोर्टर
● Chentani:- यह किस्म डिब्बाबंदी व भंडारण युक्त है।
● Zeno:- यह किस्म नीलगिरि पहाड़ियों पर लगाई जाती है।
● Danavers:- यह किस्म ताजा खाने व प्रसंस्करण के लिए उपयुक्त किस्म है।
खुदाई:-
● बुवाई के 65-85 दिन बाद खुदाई करते हैं।
उपज:-
● उष्ण जलवायु/एशियाटिक किस्में:- 20-30 टन प्रति हेक्टेयर
● शीतोष्ण जलवायु/यूरोपियन किस्में:- 10-15 टन प्रति हेक्टेयर
बीज की उपज:-
● 5-6 क्विंटल प्रति हेक्टेयर
मुख्य कीट:-
● एफीड, गाजर की मक्खी, थ्रिप्स
कायिक विकार:-
● कैविटी स्पॉट:- नाइट्रोजन की अधिकता व कैल्सियम की कमी के कारण होता है एवं मृदा में नमी अंसतुलन होने पर कैविटी स्पॉट देखने को मिलता है।
● फोर्किंग:- यह कठोर मृदा के कारण होता है।
● गाजर का फटना (Splitting):- नाइट्रोजन की अधिकता बोरॉन की कमी व मृदा में नमी असंतुलन के कारण होता है।
● कड़वापन (Bitterness):- इथाइलिन हॉर्मोन की अधिकता व देरी से खुदाई करने पर होता है।
मुख्य रोग:-
1. पत्ती झुलसा रोग:-
● रोग कारक -Cercospora carotae and Alternaria dauci
2. पत्ती धब्बा रोग:-
● रोग कारक – Cercospora carotae
3. पौध झुलसा रोग:-
● रोग कारक – Alternaria Radicinum
4. जीवाणु झुलसा रोग:-
● रोग कारक :- Xanthomonas carotae
नोट:- Carrot motley dwarf एक वायरस जनित रोग है जिसका वाहक कीट एफिड है।
मूली
वानस्पतिक नाम – Raphanus sativus
कुल – क्रुसीफेरी
उत्पत्ति स्थल – भू-मध्य सागर
गुणसूत्र संख्या – 2n = 18
उपयोगी भाग – जड़
फल का प्रकार – सिलिकुआ
पुष्पक्रम का प्रकार – रेसिम
● मूली परपरागित फसल है इसमें परागण मधुमक्खी द्वारा होता है।
● मूली में तीखापन आइसोथायोसाइनाइट के कारण होता है।
● मूली का लाल रंग एंथोसाइनिन व बैंगनी रंग साइनेडिन के कारण होता है।
● मूली विटामिन-C का अच्छा स्रोत है इसके द्वारा जापान में टेकॉन आचार बनाया जाता है।
जलवायु:-
● यह ठंडी जलवायु की फसल है।
● जलवायु के आधार पर दो प्रकार की किस्में पाई जाती है–
1. उष्ण जलवायु/एशियाटिक किस्में:- इन किस्मों को उष्ण व उपोष्ण जलवायु में लगाया जाता है व बीज उत्पादित किया जाता है।
2. शीतोष्ण जलवायु/यूरोपियन किस्में:- इन्हें शीतोष्ण, उष्ण व उपोष्ण जलवायु में लगाया जाता है लेकिन बीज उत्पादन के लिए शीतोष्ण जलवायु उपयुक्त रहती है।
मृदा:-
● मूली के लिए दोमट मृदा उपयुक्त रहती है।
● इसका pH मान 5.5-6.8 उपयुक्त माना जाता है।
बुवाई का समय:-
● सितंबर से जनवरी के मध्य करते हैं।
● पहाड़ी क्षेत्रों में बुवाई का समय मार्च से अगस्त है।
बीजदर:-
● उष्ण जलवायु/एशियाटिक किस्में:- इसमें 8 से 10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
● शीतोष्ण जलवायु/यूरोपियन किस्में:- 10 से 12 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
पौधरोपण दूरी:-
● 45 × 6-8 cm (ऐसियेटिक किस्में)
● 30 × 6-8cm (यूरोपियन किस्में)
खाद एवं उर्वरक:-
● गोबर की खाद – 25-30 टन प्रति हेक्टेयर
● नाइट्रोजन – 50-80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
● फॉस्फोरस – 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
● पोटाश – 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
सिंचाई:-
● 5 से 7 दिन के अंतराल में (गर्मियों में)
● 10 से 15 दिन के अंतराल में (सर्दियों में)
किस्में:-
उष्ण जलवायु/एशियाटिक किस्में:-
● इनका उत्पादन अधिक होता है तथा ये 45 से 55 दिन में तैयार हो जाती है।
● पूसा चेतकी:- यह किस्म मध्य मार्ग से अगस्त के मध्य लगाई जाती है अधिक तापमान के प्रतिरोधी है।
● पूसा हिमानी:- इसे पूरे भारत में लगाया जाता है।
● अर्का निशांत:- यह किस्म बोल्टिंग, पिथिनेस तथा फोर्किंग के प्रतिरोधी है।
● पूसा रश्मी:- यह अधिक तापमान के प्रति सहनशील किस्म है।
● पूसा सागरिका:- यह भारत में पहली बैंगनी रंग की किस्म है।
● पूसा देशी:- यह किस्म मध्य अगस्त से अक्टूबर तक लगाई जाती है।
● CO-1:- यह पूरे साल लगाई जा सकती है लेकिन रोली व एफिड के प्रति सवेदनशील किस्म है।
● नाडौनी:- यह किस्म हिमाचल प्रदेश में प्रसिद्ध है।,
● IIHR-1:- यह किस्म बोल्टिंग पिथिनेस, सफेद रोली तथा फोर्किंग के प्रतिरोधी है।
● अन्य किस्में:- जापानीज व्हाइट, कल्याणी व्हाइट, पंजाब सफेद, पंजाब पसंद, जौनपुरी जायंट, काशी स्वेता, पूसा मृदुला, पूसा गुलाबी, काशी हंस, पूसा जामुनी व कल्याणपुर NO-1 आदि।
शीतोष्ण जलवायु/यूरोपियन किस्में:-
● यह किस्में उष्ण जलवायु की किस्मों से कम उत्पादन देती है व 25 से 30 दिन में तैयार हो जाती है यह कम तीखी होती है।
● स्कारलेट ग्लोब
● पूसा हिमानी (ब्लैक×जापानीज)
● चाइनीज पिंक
● रैपिड रेड टिप्पड
● स्कारलेट लॉन्ग
खरपतवार नियंत्रण:-
● मूली में रासायनिक के लिए Tok-E25 (नाइट्रोफेन) 2 किलो प्रति हेक्टेयर मात्रा प्रयोग करते हैं।
● आवश्यकतानुसा निराई-गुड़ाई की जाती है।
उपज:-
● उष्ण जलवायु की किस्में/एशियाटिक:- 25 से 30 टन प्रति हेक्टेयर
● शीतोष्ण जलवायु की किस्में/यूरोपियन:- 7.5 से 10 टन प्रति हेक्टेयर
मुख्य कीट:-
● जेसिड, एफिड, आरा मक्खी (Athalia lugens proxia)
मुख्य रोग:-
1. जड़ गलन रोग:-
● रोग कारक:- Erwinia rhapontici
2. सफेद रोली:-
● रोग कारक:- Albugo candida
3. मोजेक रोग:-
● रोग कारक:- वायरस द्वारा
● इस रोग का वाहक एफिड है।
4. झुलसा रोग:-
● रोग कारक:- Alternaria raphnai
5. फेलोडी रोग:-
● रोग कारक:- वायरस व फायटोप्लाज्मा
● इस रोग का वाहक जैसिड है।
कायिक विकार:-
● पिथीनेश:- यह मृदा में नमी, अधिक तापमान देरी से खुदाई व अधिक N, P, K की मात्रा के कारण होता है।
● Brown heart:- बोरॉन की कमी से
● अकाशिन:- बोरॉन की कमी से
● Hollow root wart:- अधिक तापमान व नमी की कमी के कारण होता है।
पालक
वानस्पतिक नाम – Beta vulgaris var. bengalensis (देशी पालक), Spinacia oleracea (विलायती पालक)
कुल – चिनोपोडियेसी
उत्पत्ति स्थल – भारत व चीन
गुणसूत्र संख्या – 2n = 18 (देशी पालक), 2n = 12 (विलायती पालक)
उपयोग भाग – पत्तियाँ
● पालक परपरागित फसल है इसमें परागण हवा द्वारा होता है।
● यह दीर्घ दिवस पादप (Long day plant) है।
जलवायु:-
● पालक सामान्यत: ठंडी जलवायु की फसल है लेकिन देशी पालक को ठंडी व गर्म दोनों जलवायु वाले क्षेत्रों में उगाया जा सकता है और विलायती पालक केवल ठंडी जलवायु वाले क्षेत्रों में लगाई जाती है।
मृदा:-
● बलुई दोमट मृदा जिसका pH मान 10.5 हो उपयुक्त रहती है।
● जल निकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए।
बीजदर:-
● 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
पौधरोपण दूरी:-
● 25 × 10cm
बुवाई का समय:-
● अगस्त से नवंबर (देशी पालक)
● अक्टूबर से नवंबर (विलायती पालक)
नोट:- पहाड़ी क्षेत्रों में पालक की बुवाई अप्रैल से मई के मध्य करते हैं।
खाद एवं उर्वरक:-
● गोबर की खाद – 20-25 टन प्रति हेक्टेयर
● नाइट्रोजन – 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
● फॉस्फोरस – 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
● पोटैशियम – 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
सिंचाई:-
● 6 से 7 दिन के अंतराल में (गर्मियों में)
● 10 से 15 दिन के अंतराल में (सर्दियों में)
किस्में:-
देशी पालक की किस्में:-
पूसा हरित:-
● यह किस्म IARI नई दिल्ली द्वारा विकसित की गई है।
● यह किस्म चुकंदर व लोकल पालक के संकरण द्वारा तैयार की गई है।
जोबनेर ग्रीन:-
● यह किस्म SKNAU जोबनेर, जयपुर द्वारा उत्परिवर्तन से तैयार की गई है।
● पूसा ज्योति, ऑल ग्रीन, पूसा भारती, पंजाब ग्रीन, Ooty-1, HS-23
विलायती पालक की किस्में:-
● वर्जिनीआ सेवॉय, बनर्जीस जायंट, बडगर सेवॉय, विस्कॉन्सिन ब्लूम्स्डेल, खारा लखनऊ, अली स्मूथ लीफ, खारा पालक
खरपतवार नियंत्रण:-
● पेडिमेथालिन – 0.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करते हैं।
कटाई:-
● बुवाई के 3 से 4 सप्ताह बाद प्रथम कटाई की जाती है।
● कुल 4 से 6 कटाई की जाती है जिनके मध्य 15 से 20 दिन का अंतराल होता है।
उपज:-
● 10 से 15 टन प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है।,
मुख्य कीट:-
● Leaf eating caterpillar, Aphid
मुख्य रोग:-
● तुलासिता रोग, आर्द्र गलन, पत्ती धब्बा रोग
कुष्माण्ड/कुकुरबिटेसी सब्जियाँ
– कुकुरबिटेसी कुल में सब्जियों की अधिक संख्या होने के कारण सब्जियों का बड़ा वर्ग है।
– ‘कुकुरबिटेसी’ शब्द लिबर्टी हाइडे बेली ने दिया है।
– कुकुरबिटेसी कुल की सब्जियों में मिथियोनीन एमीनो अम्लो की अधिकता होती है, दलहनी फसलों से।
– कुष्माण्ड कुल की सब्जियों में अवसीय अम्ल ओलिक व लिनोलिक पाया जाता है। (विशेषत: कुकमिस और कुकरबिटा)
– परवल (Pointed Gourd) चो-चो (how-how) व कुदरु (Ivy Gaurd) का वानस्पतिक प्रवर्धन होता है।
– करेला में विटामिन-C तथा कद्दू में केरोटिनोइड्स की अधिकता होती है।
– खीरा व घीया में मैटाजीनिया प्रभाव।
– कुकुरबिटेसी कुल की सब्जियों में कड़वापन ‘कुकरबीटासीन’ (टेट्रासाइक्लिक ट्रेटापिन्स) की उपस्थिति के कारण होता है।
– कुष्माण्ड कुल की सब्जियों में पुष्प द्विलिंगाक्षयी या उभयलिंगाक्षयी होते हैं।
– कुष्माण्ड कुल की सब्जियों में नर-मादा अनुपात 15:1 से 25:1 होना चाहिए तथा लिंग निर्धारण अनुपात सिल्वर नाइट्रेट द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है।
– लम्बी अवधि के दिन तथा अधिक तापमान से कुकुरबिटेसी कुल की सब्जियों में नर फूलों की संख्या में वृद्धि होती है।
– कुकुरबिटेसी कुल की सब्जियों में औसतन 40-50 दिन बाद में पुष्पन प्रक्रिया शुरू हो जाती है।
– कुकुरबिटेसी कुल की सब्जियों में इथाइलीन के प्रयोग द्वारा मादा फूलों की संख्या में वृद्धि की जा सकती है।
– सामान्यत: GA3 के प्रयोग से नर फूलों में वृद्धि होती है।
– MH के द्वारा नर बंध्यता उत्पन्न होती है जिससे मादा फूलों में वृद्धि होती है।
– कुकुरबिटेसी कुल की सब्जियों पर परागित होती है जिनमें परागण कीटों द्वारा (एन्टोमोफिलस) होता है।
– कुकुरबिटेसी सब्जियाँ C3 प्रकार की होती है।
– कद्दूवर्गीय सब्जियों में फल का प्रकार पीपो प्रकार का होता है।
– कद्दूवर्गीय सब्जियों द्विलिंगी लेकिन परवल, काकरोल, इवी गार्ड (कुंदरु) बहुवर्षीय प्रकार
– परवल (ट्राइकोसेन्थस डायोका) – किस्म-काशी अलंकार
– भारत में पॉलीहाउस, ग्रीन हाउस में सर्वाधिक खेती खीरा की जाती है।
– कुकुरबिटेसी कुल में सबसे बड़ा हिस्सा तरबूज > खीरा का है।
– भारत में कद्दूवर्गीय सब्जियों की खेती नदियों के पेटे में की जाती है। विशेषत: तरबूज, खरबूजा, लौकी आदि।
– कुष्माण्ड कुल में खीरा (कुकमीस सेटाइवस), खरबूजा (कुकमीस मीलों), तरबूज (सिट्रूलस वलगेरिस सिट्रुलस लेनट्स)। टिण्डा (सिट्रुलस वल्गेरिस Var. फिस्टूलस), करेला (मेमोरडिका चरन्शिया) लौकी घिया (लेजीनेरिया सिसरेरिया), चिंचिड़ा (ट्राइकोसेन्थस कुकुमेरिवा) परवल (ट्राइकोसेन्थस डायोका), तुरई (लुफा सिलेन्ड्रिका, लुफा एक्यूटेंगला) कद्दू (कुकरबिटा मोस्चाटा)।
– कुकुरबिटेसी सब्जियाँ गर्म जलवायु को अधिक पसंद करती है।
कुष्माण्ड की मुख्य बीमारियाँ कीट:-
1. फल मक्खी (डाकस कुकरबीटी):-
– लट (लार्वा) फल के गुद्दे को खाली है।
2. लाल भृंग कीट:-
– रेफिडोपल्पा फोईकोलिस
3. डाउड्नी मिल्ड्यू/तुलासिता:-
– स्यूडोपेरेनोस्पोरा क्यूबेन्सीस – तरबूज, खरबूजा, ककड़ी, खीरा में।
4. छाछ्या रोग/पाउडरी मिल्ड्यू:-
– इरिसाइपी सिकोरेसीयरम
5. ग्रीन मोटेल मोजेक:-
– वायरस द्वारा – वाहक – बीच – खीरा में मुख्यत:।
6. कलिका क्षय (Bud Necrosis):-
– वायरस द्वारा – वाहक – बीज – तरबूज में
– कुष्माण्ड कुल सब्जियों में पृथक्करण दूरी प्रमाणित बीज – 500 मीटर – आधार बीज हेतु – 1000 मीटर
खीरा
– वानस्पतिक नाम – कुकमिस सेटाइवस (Cucumis sativus)
– गुणसूत्र – 2n = 14
– उत्पत्ति – भारत
– सर्वाधिक पानी की मात्रा 96.4 प्रतिशत
– भारत को खीरा का घर भी कहते हैं।
– पिलो बीमारी – Ca की कमी
– बुवाई – फरवरी-मार्च माह में
– गर्म जलवायु की फसल है तापमान 18 से 24oC वृद्धि के लिए और अंकुरण के 25°C तापमान चाहिए।
– औसत तापमान 20°-25oC
– यह नॉन-क्लाइमैट्रिक सब्जी है।
– खीरे के ऊपरी भाग में कड़वाहट – ग्लूकोसाइड के कारण होती है।
– बीजदर – 2 से 2.5 kg/ha
किस्में:-
– बालम खीरा, पोइनसेट, हिमांगी, जैपानीज, लॉन्ग ग्रीन, प्रिया, पूसा संयोग, पूसा उदय, शीतल आदि।
– पूसा संयोग – जैपानीज गाइनोसियम लाइन × ग्रीन बौग नेपल्स के संकरण से तैयार की गई।
– DCH-1, DCH-2
– पोइनसेट – पाउडरी, मिल्ड्यू, डाउनी, मिल्ड्यू, ऐनाथ्रेक्नोज व एनगुलर लीफ के प्रति प्रतिरोधक क्षमता है।
तरबूज
– वानस्पतिक नाम – सिट्रुलस लेटनस
– गुणसूत्र – 2n = 22
– उत्पत्ति – उष्ण अफ्रीका
– खाने योग्य भाग – Endocarp
– कद्दू वर्गीय सब्जियों में तरबूज में सबसे ज्यादा आयरन पाया जाता है।
– पर परागित फसल है लाल रंग Anthyo cynin के कारण।
– तरबूज में लगभग मीठापन – 8-13 प्रतिशत T.S.S. होता है।
– तरबूज में आयरन पाया जाता है।
– पानी की मात्रा 92-95 प्रतिशत
किस्में:-
– सुगर बेबी – यह यू.एस.ए. से लाई गई किस्म है।
– अर्का ज्योति – IIHR – 20 × क्रिसमन स्वीट।
– अर्का मानिक – IIHR 21 × क्रिसमन स्वीट का संकरण।
– थार मानिक – CIAH – बीकानेर से विकसित की गई।
– दुर्गापुरा मीठा, दुर्गापुरा केसर, दुर्गापुरा लाल (शुगर बेबी × K – 3566)
– असही यमेटो, इम्प्रूव्ड सिम्पर, न्यू हैम्पशायर मिडगेट PKM-1
– पूसा बेदाना (ट्रिप्लायड) (2n = 33) – बिना बीज वाली किस्म है ट्रेटा – 2 व पूसा रसेल का क्रॉस है, अर्का मधुरा, अर्का ऐश्वर्या, अर्का आकाश।
– बीजदर – 3.5 से 5 Kg/ha
– बुवाई का समय – फरवरी-मार्च
– दूरी – 2.5 × 1 मीटर (R×P)
– उपज – 400-500 क्विंटल/हेक्टेयर
– PGR – पादप वृद्धि नियंत्रण – TIBA@25 to 250 PPM
– मादा फलों की संख्या बढ़ाना है।
– Matelic sound कच्चे तरबूज का लक्षण होता है।
– White Heart दैहिक विकार
खरबूजा
– वानस्पतिक नाम – कुकुमिस मेलो
– कुल – कुकुरबिरेसी
– गुणसूत्र – 2n = 24
– उत्पत्ति – उत्तरी-पश्चिमी भारत
– खरबूजा क्लाइमैट्रिक फल है।
– खरबूजे के लिए गर्म दिन व रातें ठण्डी होनी चाहिए।
– TSS – 11 – 17 ब्रिक्स
किस्में:-
– दुर्गापुरा मधु व पूसा शरबती (मीठी किस्में और अगेती), पूसा मधुरस, पूसा रसराज
– हरा मधु (पछेती किस्म), पंजाब सुनहरा (अगेती), पंजाब हाईब्रिड (अगेती), पूसा मधुरिमा, पूसा शारदा, हिसार सरस, अर्काजीत
– अर्का राजहंस – पाउडरी मिल्ड्यू के सहनशील किस्म है।
– बीज दर – 1.5 से 2 किलो प्रति हेक्टेयर।
खाद व उर्वरक:-
– गोबर की खाद – 200 Q/hac.
– नत्रजन – 80-120
– फॉस्फोरस – 60-80
– पोटाश – 40-50
बुवाई का समय:-
– मैदानी क्षेत्र – फरवरी-मार्च
– पहाड़ी क्षेत्र – अप्रैल-मई
– तुड़ाई – स्थानीय बाजार के लिए फूल स्लिप अवस्था पर करते हैं परंतु हरा मधु को नेटिंग अवस्था पर तोड़ा जाता है।
वृद्धि नियंत्रक:-
– एथ्रेल 250 PPM का छिड़काव मादा फूलों की संख्या बढ़ाने के लिए करते हैं।
टिण्डा
– वानस्पतिक नाम – सिट्रोलस व्लगैरियस वं. फिस्टूलोसिस
– गुणसूत्र – 2n = 2x = 24
– उत्पत्ति – भारत
– बीजदर – 4 से 5 किलो/हेक्टेयर
– समय – फरवरी-मार्च
– दूरी – 1.5 से 2 मीटर × 0.75 मीटर (R×P)
किस्में:-
– अर्का टिण्डा – फल मक्खी के प्रतिरोधक।
– बीकानेर ग्रीन, दिल पसंद
करेला
– वानस्पतिक नाम – मोमोर्डिका चरेन्टिया
– कुल – कुकुरबिटेसी
– गुणसूत्र – 2n = 22
– उत्पत्ति – उष्ण अफ्रीका/एशिया
– करेले में कड़वापन का गुण ‘मोमोर्डिसन’ के कारण होता है।
– बीज दर 4 से 5 किग्रा./हेक्टेयर
किस्में:-
– पूसा दो मौसमी – अगेती किस्म है।
– फुले ग्रीन – ग्रीन लॉन्ग × दिल्ली लोकल
– पूसा विशेष – उच्च उपज वाली किस्म।
– कोयम्बटूर लॉन्ग, प्रिया, पूसा विशेष, कल्याणपुर बारहमासी, अर्का हरित।
मादा व नर अनुपात:-
– पर फूल के अनुपात को बढ़ाने के लिए MH-50-150 PPM या फिर Cylocel-100-500 PPM का स्प्रे करते हैं।
– एथ्रेल – 25 PPM भी मादा पुष्पों को बढ़ाती है।
लौकी या घीया
– वानस्पतिक नाम – लेजेनेरिया सिसेरेरिया
– कुल – कुकुरबिटेसी
– गुणसूत्र – 2n = 22
– पर परागित फसल है।
– किस्में – पूसा समर प्रोलेफिक राउण्ड
– पूसा समर प्रोलेफिक लोंग
– पूसा नवीन, सम्राट, अर्का बहार, पूसा मेघदूत – PSPL × सेलक – 2, पूसा मंजरी, पूसा संदेश, पूसा समृद्धि, अर्का बहार।
– मैलिक हाइड्राइज्ड (MH) 400 PPM से मादा फूलों में वृद्धि होती है।
बीज दर:-
– 4 से 5 किलो/हेक्टेयर
– वर्षाकालीन – 3 से 4 किलो/हेक्टेयर
– समय – फरवरी-मार्च
चिकनी तौराई
– वानस्पतिक नाम – लूफा साइलेन्ड्रिका
– कुल – कुकुरबिटेसी
– गुणसूत्र – 2n = 26
– उत्पत्ति – भारत
– बीजदर – 4-5 किग्रा.
– दूरी – 1.5 से 3.5 मीटर
– किस्में – पूसा चिकनी, पूसा सुप्रिया, फूले प्रजाक्ता, पूसा स्नेहा आदि।
– Etheral 250 PPM का छिड़काव मादा फलों की संख्या बढ़ाने के लिए करते हैं।
काली तोराई
– वानस्पतिक नाम – लूफा एकूटेन्गूला
– कुल – कुकुरबिटेसी
– गुणसूत्र – 2n = 26
– उत्पत्ति – भारत
– बीज दर – 4 से 5 किलो/हेक्टेयर
– किस्में – पूसा नसदार, पंजाब सदाबहार, पूसा नूतन, सतपुटिया (उभयलिंगी किस्म), कोमल, हरित, सुरेखा, अर्का सुमित, अर्का सुजत, Co-1, PKM-1, स्वर्ण मंजरी, स्वर्ण उपहार
– NAA-200 PPM मादा पुष्पों की संख्या बढ़ता है व Etheral – 300 PPM का भी छिड़काव करते हैं।
कद्दू
– वानस्पतिक नाम – कुकरबिटा – मोस्चाटा
– कुल – कुकुरबिटेसी
– गुणसूत्र – 2n = 40
– उत्पत्ति – उष्ण अमेरिका
किस्में:-
– पूसा विकास, अर्का चन्दन, पूसा विश्वास, पूसा अलंकार, c.m. – 350, नरेन्द्र, अमृत, काशी, हरित, पूसा पसंद, अर्का सूर्यमुखी।
बीज दर:-
– 4 से 5 किलो/हेक्टेयर
– बुवाई का समय – फरवरी-मार्च
– पादप वृद्धि नियंत्रक (PGR) – Ethepon @200 PPM मादा फूलों को बढ़ाने के लिए।
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