
सिंचाई व जल निकास
● पौधों को वृद्धि एवं विकास के लिए कृत्रिम रूप से पानी देने की क्रिया सिंचाई कहलाती है।
फसलोत्पादन में सिंचाई का महत्त्व :-
● अनियमित, अपर्याप्त एवं अनिश्चित वर्षा वाले क्षेत्रों में कृषि सिंचाई द्वारा ही संभव है।
● बीजों के अंकुरण के लिए नमी की आवश्यकता होती है। सिंचाई द्वारा मृदा में पर्याप्त नमी रखी जाती है।
● पौधों की जड़ों के विकास के लिए हाइड्रोजन व ऑक्सीजन की आपूर्ति सिंचाई द्वारा संभव है।
● सिंचाई के माध्यम से अधिक भूमि पर खेती की जा सकती है।
● सिंचाई से मिट्टी में पोषक तत्त्वों की उपलब्धता पौधों के लिए बढ़ जाती है। सिंचाई से फसलों के उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि होती है।
● एक वर्ष में दो या तीन फसलें उगाई जा सकती है।
● सूखे एवं अकाल की अवधि के दौरान सिंचाई एक सुरक्षात्मक भूमिका निभाती है।
सिंचाई की विधियाँ:-
A. सतही सिंचाई विधियाँ:-
1. क्यारी विधि/चौकेबार द्रोण विधि (Check basin method)
● सिंचाई की सर्वाधिक प्रचलित विधि है।
● इस विधि में सर्वप्रथम खेत को समतल कर लिया जाता है, फिर उसे आयताकार या वर्गाकार क्यारियों में बाँट लिया जाता है।
● क्यारियों में सिंचाई के लिए नालिया बनाई जाती है।
● यह मुख्यत- गेहूँ, जौ, चना, कपास आदि में अपनाई जाती है।
● खेत में क्यारी बनाने के लिए अधिक मजदूरों की आवश्यकता होती है।
● क्यारी विधि की जल उपयोग दक्षता बाढ़ विधि से अधिक होती है।
● भूमि का कुछ हिस्सा बुआई के काम नहीं आता।
2. प्रवाह विधि (Flood Method)
● प्रवाह विधि में पानी का नुकसान बहुत अधिक होता है।
● जहाँ सिंचाई जल की मात्रा अधिक होती है ऐसे क्षेत्रों में इस विधि से सिंचाई की जाती है।
उदाहरण – धान व जुट वाले खेत में इस विधि को अपनाया जाता है।
3. बोर्डर पट्टी सिंचाई विधि (Border strip method)
● गेहूँ, जौ आदि वे फसलें जिनमें पौधों के बीच की दूरी कम रखी जाती है, इनमें बोर्डर पट्टी सिंचाई विधि को अपनाया जाता है।
● इस विधि में ढाल के अनुरूप लम्बी-लम्बी पटि्टयाँ बनाई जाती है जो एक-दूसरे के समानान्तर होती है। इस विधि द्वारा जल की मात्रा व प्रवाह की आसानी से प्रयुक्त किया जा सकता है।
● धान में इस विधि को काम में नहीं लिया जाता है।
4. कूँड सिंचाई विधि (Furrow Irrigation method)
● यह विधि बलुई मिट्टी के लिए उपयुक्त नहीं है।
● अधिक ढाल वाले क्षेत्रों में प्रचलित है।
● जल की हानि कम होती है।
● मेडो पर लवण एकत्र होने से पौधों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
5. छल्ला विधि (Ring basin method)
● यह विधि उद्यानिकी फसलों में अपनाई जाती है।
● यह विधि अपनाने से रोगों के संक्रमण से बचाव किया जा सकता है।
6. थाला विधि (Basin method)
● यह विधि भी उद्यानिकी फसलों में अपनाई जाती है।
● इस विधि द्वारा सिंचाई करने पर रोगों को संक्रमण का खतरा रहता है।
Note:-
● फलवृक्षों के लिए उपयुक्त विधि- बूँद-बूँद सिंचाई विधि > वलय > थाला विधि
B. अधोभूमि सिंचाई विधि (Sub surface irrigation method):-
● इसे अवपृष्ठीय सिंचाई विधि भी कहते हैं। इस सिंचाई विधि में जल की आपूर्ति खुली नालियों या रन्ध्रयुक्त पाइपों द्वारा की जाती हे।
● धरातल के नीचे एक निश्चित गहराई पर कृत्रिम जल स्तर बनाया जाता है जिससे पौधों की जड़ों द्वारा जल का उपयोग किया जा सके।
C. सूक्ष्म सिंचाई विधियाँ:-
1. फव्वारा सिंचाई विधि (Sprinkler irrigation method) :-
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● इस विधि में पानी को बौछार के रूप में भूमि पर गिराया जाता है। यह भूमि पर कृत्रिम वर्षा की तरह होता है।
● सर्वाधिक फव्वारा द्वारा सिंचाई हरियाणा में की जाती है।
● राजस्थान में फव्वारा द्वारा सर्वाधिक सिंचाई झुंझुनूँ जिले में होती है।
● भारत में फव्वारा सिंचाई विधि का प्रयोग 1980 से प्रारंभ हुआ।
● इस विधि में दबाव 2.5-4.5 Kg/cm2 रखा जाता है।
● पाइप से पाइप की दूरी = 12 मीटर
● राइजर की लम्बाई = 1 मीटर
● नोजल का एक सेट 1 घण्टे में 4000-5000 लीटर जल उपलब्ध करवाता है।
● फव्वारा सिंचाई विधि को पहली बार नर्मदा नहर परियोजना में अनिवार्य किया गया है।
नोट = बौछार/फव्वारा विधि में पानी का छिड़काव नोजल या ओरिफिस द्वारा होता है।
लाभ:-
● बलुई मृदा के लिए सबसे उपयुक्त विधि है।
● मृदा कटाव व उबड़-खाबड़ भूमि के लिए उपयुक्त विधि है।
● फव्वारा विधि से पानी की लगभग 30-50 प्रतिशत तक की बचत होती है।
● इस सिंचाई विधि में मेड़ व नालियाँ बनाने की आवश्यकता नहीं होती है।
● फव्वारा सिंचाई विधि से पौधों को पाले व लू से बचाया जा सकता है।
हानियाँ:-
● ज्यादा गति से हवा चलने पर यह विधि उपयुक्त नहीं है। (13-15 किमी/घण्टा से ज्यादा)
● लवणीय जल हेतु उपयुक्त विधि नहीं है।
● इस विधि का प्रयोग पुष्पन के समय करने से पौधे की पुष्पन क्रिया प्रभावित होती है।
● आरम्भिक खर्च अधिक होता है।
● अधिक जलमाँग वाली फसलों के लिए अनुपयुक्त विधि है।
2. बूँद-बूँद सिंचाई विधि (Drip Irrigation system) :-
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● यह विधि इजरायल से विकसित की गई है।
● इसकी खोज सिमचा ब्लास ने 1940 में की।
● अन्य नाम – ट्रिकल विधि या ड्रिप विधि
● ड्रिपर व ई-मीटर ड्रिप विधि से संबंधित है।
● ड्रिप विधि द्वारा सर्वाधिक सिंचाई महाराष्ट्र में होती है।
● इस विधि द्वारा पानी पौधों की जड़ों में दिया जाता है।
● जड़ क्षेत्र में पानी की कमी नहीं होती व मृदा संतृप्त अवस्था में रहती है।
● ड्रिप विधि द्वारा पानी की बचत लगभग 50-70% तक होती है।
● इस विधि में दबाव 1.5-2.5 Kg/cm2 रखते हैं।
● बूँद-बूँद सिंचाई विधि में 1-8 लीटर/ड्रिपर/घण्टा डिस्चार्ज रेट होती है।
● ग्रीन हाउस में सिंचाई की सर्वोत्तम विधि है।
● इस विधि में राजस्थान में चूहों द्वारा सर्वाधिक समस्या आती है ये ड्रिपर को नुकसान पहुँचाते हैं।
विधि | जल उपयोग क्षमता | जल बचत | दबाव |
---|---|---|---|
बूंद-बूंद सिंचाई विधि | 90-95% | 50-70% | 1.5-2.5Kg/cm² |
फव्वारा सिंचाई विधि | 80-85% | 25-50% |
क्लोगिंग:-
● जल में अधिक लवण तथा शैवाल होने के कारण ई-मीटर/ड्रिपर बंद हो जाते हैं जिससे जल का आना बंद हो जाता है।
● लवणों की क्लोगिंग के लिए – H2SO4/HCl
● शैवालों की क्लोगिंग के लिए – ब्लिचिंग पाउडर
लाभ:–
● इस विधि से सिंचाई करने पर खरपतवारों की समस्या भी कम हो जाती है।
● कीट व रोगों की समस्या भी कम हो जाती है।
● फलदार वृक्षों में ड्रिप विधि द्वारा सिंचाई सबसे उपयुक्त है।
● इस विधि द्वारा उद्यानों, सब्जियों, गन्ना, कपास आदि में सिंचाई की जाती है।
● इस विधि द्वारा सिंचाई जल के साथ उर्वरकों का प्रयोग आसानी से किया जा सकता है।
● बार-बार सिंचाई करने से लवणों का निक्षालन हो जाता है।
● इस विधि की सर्वाधिक जल उपयोग दक्षता होती है।
● लवणीय व क्षारीय मृदाओं के लिए सबसे उपयोगी विधि है।
3. रेनगन द्वारा सिंचाई:-
● मुख्यतया लॉन (lawn) व गन्ने की फसल के लिए यह विधि अपनाई जाती है।
● यह फव्वारा विधि का बढ़ा हुआ रूप है इसमें एक गन्ना 25-60 मीटर क्षेत्र के लिए पर्याप्त होती है।
● इसमें दबाव 2 से 7.5 किलो/cm2 रखा जाता है।
4. कैब सिंचाई (Cab irrigation):-
· यह सिंचाई की ऑटोमेटिक विधि है
5. टायफून विधि:-
· महाराष्ट्र में गन्ने में उपयोग की जाती है।
6. सर्ज विधि (Surge Method):-
· सर्ज विधि ऑन व ऑफ विधि कहलाती है।
7. ताइवान विधि :-
· धान की फसल में उपयोग की जाती है।
8. मटका विधि:-
· काजरी द्वारा विकसित
· शुष्क क्षेत्रों में फलवृक्षों में लवणीय जल का प्रयोग
सिंचाई के साधन :-
1. रहट (Persian wheal):-
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● राजस्थान में कुओं एवं नलकूपों से सबसे अधिक सिंचाई होती है।
● यह सिंचाई का सर्वाधिक पुराना साधन है इसमें छोटी-छोटी बाल्टियाँ लोहे के एक बड़े पहिये पर घूमती रहती है और लगभग 10-12 मीटर गहराई से पानी उठाया जाता है। इसे चलाने के लिए एक आदमी तथा एक जोड़ी बैल या ऊँट काम में लेते हैं। 10,000 लीटर/घंटा पानी उठाया जाता है।
2. चरस:-

● इसे मोट/पुर नाम से भी जानते हैं।
● 6000 लीटर पानी प्रति घंटा निकालता है।
● 30 फीट गहरे कुएँ से पानी निकाला जाता है यह भी पुराना साधन है।
● सामान्यतया इसमें एक जोड़ी बैल काम में लिए जाते हैं यदि दो जोड़ी बैल काम में लिए जाए तो पानी की मात्रा बढ़ाई जा सकती है।
3. ढेकली:-

● यह कम गहराई लगभग 1-3 मीटर गहराई से पानी उठाती है।
● 2000-2300 लीटर प्रति घंटा
● वर्तमान में सबसे अधिक प्रचलित सिंचाई का साधन सबमर्सिबल पम्प सेट है।
4. बेड़ी:-

● इसको दोलन टोकरी भी कहते हैं।
● इस विधि द्वारा तालाब, नदी, झील, नहर आदि से पानी उठाते हैं इसके द्वारा लगभग 1 मीटर ऊँचाई तक पानी उठाया जा सकता है।
● बेड़ी द्वारा 3600 से 5000 लीटर पानी प्रति घंटा निकाला जा सकता है।
5. पवन चक्की:-

● पवन चक्की को चलाने के लिए आदमी या बैलों की आवश्यकता नहीं होती है। यह हवा की गति द्वारा चलाई जाती है।
● पवन चक्की को ऐसे क्षेत्र में लगाना चाहिए जहाँ हवा की गति में कोई रुकावट न हो।
● इसे चलाने के लिए हवा की गति कम से कम 16 मील प्रति घंटा होनी चाहिए।
● पवन की गति द्वारा इस पर लगे पहिए को घुमाया जाता है जिससे पंप चलता है व पाइप द्वारा पानी निकाला जाता है।
6. पम्प सेट:-

● अधिक गहराई से पानी निकालने के लिए इस तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है।
● नलकूप से पानी निकालते समय अधिकांशत: इसी पम्प का उपयोग किया जाता है।
● बनावट के आधार पर पम्प के प्रकार-
1. मोनो ब्लॉक पम्प:- इसमें मोटर व पंखा एक ही ब्लॉक में उपस्थित होते हैं।
2. डबल ब्लॉक पम्प:- इसमें मोटर व पंखा अलग-अलग भाग में उपस्थित होते हैं। इंजन पम्प सामान्यत: इसी प्रकार के होते हैं।
3. सबमर्सिबल पम्प:- यह पम्प पानी में डूबा रहता है।
सिंचाई के स्रोत:-
● वे स्थान जहाँ पर जल एकत्र होता है सिंचाई के स्रोत कहलाते हैं इन्हें जल भंडार भी कहा जाता है, उदाहरण- कुआँ, बावड़ी, तालाब, झील, सीवर, नहरें, नदियाँ आदि।
कुएँ (Wells):-
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● राजस्थान में कुएँ सिंचाई के प्रमुख स्रोत हैं। यहाँ कुओं द्वारा परंपरागत रूप से सिंचाई की जाती है। यह अधिक खर्चीली विधि है जिसमें परिश्रम की आवश्यकता भी अधिक होती है। कुओं के निम्नलिखित प्रकार है–
1. स्थायी कुआँ:- स्थायी कुआँ दो प्रकार के होते हैं–
(i) कच्चा कुआँ:- जिन क्षेत्रों में चट्टानें होती है या मिट्टी की प्रकृति कठोर होती है, उन क्षेत्रों में इस प्रकार के कुएँ बनाए जाते हैं।
(ii) पक्का कुआँ:- यह कुआँ ईंट या पत्थर से बना होता है। इसकी गहराई 25 फीट से अधिक रखते हैं।
2. अस्थायी कुआँ:- यह कुएँ 1 या 2 वर्ष ही काम में आते हैं, इन कुओं की गहराई 15-20 फीट तक होती है यह कुएँ ऐसे क्षेत्रों में बनाए जाते हैं जहाँ भूमि का जलस्तर ऊँचा होता है।
3. पाताल तोड़ कुआँ:- पाताल तोड़ कुओं से भूमिगत जल स्वत: ही अपने दबाव के कारण भूमि से बाहर निकलता है। इस प्रकार के कुएँ तराई क्षेत्र (उत्तरांचल राज्य) में मिलते हैं।
नलकूप (Tubewell):-
● नलकूप से पानी सबमर्सिबल पम्प द्वारा निकाला जाता है अधिक गहराई (120 मीटर से अधिक) से पानी निकालने के लिए लोहे के मजबूत पाइप डाले जाते हैं।
नहरें (Canals):-
● सिंचाई करने के लिए नदियों पर बाँध बनाकर नहरें निकाली जाती हैं।
● नहरों के निर्माण में काफी धन व समय खर्च होता है।
● नहरों के दो प्रकार है-
(i) नित्यवाही नहरें:-
● इन्हें बारहमासी नहर भी कहते हैं। यह पूरे वर्ष पानी उपलब्ध कराती है; उदाहरण- इंदिरा गाँधी नहर, गंग नहर
(ii) अनित्यवाही नहरें:-
● जब नदियों में जल की मात्रा अधिक हो जाती है तो इस प्रकार की नहरों में पानी को छोड़ा जाता है जो सिंचाई के काम में लिया जाता है ये नहरें वर्ष भर सिंचाई जल उपलब्ध नहीं करवाती है, इन्हें ‘बरसाती नहरें’ भी कहते हैं।
झीलें:-
● प्राकृतिक रूप से भूमि पर जल एकत्र हो जाता है, उस स्थान को झील कहते हैं।
● यह 2 प्रकार की होती है-
(i) मीठे पानी की झील
(ii) खारे पानी की झील
झरनें :-
● पहाड़ों पर वर्षा के दिनों में पानी एकत्र हो जाता है।
● यह पानी पहाड़ों से धीरे-धीरे नीचे गिरता है और झरने का रूप ले लेता है।
बावड़ी :-

● इसे बदियाँ भी कहते हैं। यह चौकोर आकार की होती है यह आकार में बड़ी होती है तथा इनमें सीढ़ियाँ बनी होती है।
● राजस्थान में सर्वाधिक बावड़ियों का प्रचलन शेखावाटी क्षेत्र में है।
● वर्षा के पानी को संगृहीत करने की परंपरागत विधि है।
जलमाँग :-
● जल की वह मात्रा जो फसल की बुआई से कटाई तक सामान्य वृद्धि एवं उत्पादन के लिए आवश्यक होती है।
● जल माँग – सिंचाई + वाष्पोत्सर्जन + पादप उपापचय में प्रयुक्त जल + सिंचाई में जल की हानि
जलमाँग को प्रभावित करने वाले कारक :-
1. मृदा
● बलुई मृदा में फसलों की जलमाँग अधिक होती है जबकि क्ले मृदा में फसलों की जलमाँग कम होती है।
2. फसल प्रबन्धन
● समय-समय पर खरपतवार नियंत्रण करने से जलमाँग कम होती है।
● मल्चिंग/पलवार से जलमाँग कम होती है।
● फसल सघनता कम होने पर जलमाँग घटती है।
3. जलवायु
4. फसल की प्रकृति
सिंचाई जल की आवश्यकता :-
1. मृदा में आवश्यक नमी की पूर्ति हेतु।
2. मृदा में उपस्थित लवणों के निक्षालन या उसे तनु करने हेतु।
3. फसलों को पाले से सुरक्षित करने हेतु।
4. फसलों को सूखे से बचाने हेतु।
5. प्लाऊ लेयर को नरम कर उसे कर्षण क्रियाओं के लिए अनुकूल बनाने हेतु सिंचाई जल की आवश्यकता होती है।
सिंचाई का समय :-

1. पौधों के आधार पर :-
अ. पौधों की बाह्य स्थिति देखकर
● जब पौधे में पानी की कमी होती है तो पत्तियाँ मुरझाने लगती है इस समय सिंचाई करे।
ब. फसलों की क्रांतिक अवस्था के आधार पर (Critical stage)
● फसल की वह अवस्था जिस पर यदि पौधे को पानी न दिया जाए तो उपज में भारी कमी होती है तथा पौधे को क्षति पहुँचती है, क्रांतिक अवस्था कहलाती है।
● इस अवस्था पर पानी देना बहुत आवश्यक होता है।
क्र.सं. | फसल | क्रांतिक अवस्था |
---|---|---|
1. | धान | कल्ले निकलते समय, फूल आने से पहले व फूल आते समय |
2. | गेहूँ | शीर्ष जड़ निकलना (CRI) 1 कल्ले फूटना, गाँठ अवस्था, बालिया निर्माण, दूधिया अवस्था व दाना पकने की अवस्था |
3. | जौ | बुआई के 30 दिन बाद, दाने भरते समय |
4. | गन्ना | अंकुरण के समय, कल्ले निकलते समय व बढ़वार के समय |
5. | मक्का | टेसलिंग व सिल्किंग आते समय |
6. | कपास | डोडे वाली शाखाएँ बनते समय |
7. | मूँगफली | फूल आते समय, डोडे बनते समय, सूइयाँ बनने से मूँगफली बनना शुरू होने तक (पेंगिग) |
8. | चना, सरसों, अलसी | फूल आने से पहले, फलियाँ बनते समय |
9. | आलू | अंकुरण के समय, कंद बनने का प्रारम्भिक समय |
10. | तम्बाकू | चुटाई के समय |
11. | मूँग, मोठ | पुष्पन, फली बनते समय |
12. | सूरजमुखी | फूल आने से पहले तथा बाद में |
13. | सोयाबीन | पुष्पन तथा बीज बनते समय |
14. | बाजरा | शीर्ष जमाव व पुष्पन से पूर्व |
15. | ज्वार | बुटिंग, ब्लुमिंग, दुधिया अवस्था |
16. | तिल | पुष्पेन से लेकर पकने तक |
स. पत्तियों का तापमान ज्ञात करके
● पत्तियों का तापमान मापने के लिए इन्फ्रारेड थर्मामीटर की सहायता ली जाती है।
● जब पौधे में पानी की कमी होती है तो पर्णरन्ध्र बन्द होने लगते हैं जिससे वाष्पोत्सर्जन में कमी आती है व पत्तियों का तापमान बढ़ने लगता है। इस समय सिंचाई के समय का निर्धारण करें।
द. पत्तियों में जल विभव (जल मात्रा) के आधार पर
● सैद्धांतिक रूप से सबसे उपयुक्त विधि है।
2. मृदा नमी के आधार पर :-
● मृदा नमी में कमी वाष्पीकरण एवं वाष्पोत्सर्जन के कारण होती है जिससे पौधे की वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
● मृदा में उपलब्ध जल की ऊपरी सीमा क्षेत्र क्षमता (Field capacity) तथा निचली सीमा स्थाई म्लानी बिन्दु (Permanent wilting point) कहलाती है।
सिंचाई की मात्रा :-
● किसी फसल के लिए जल की मात्रा की आवश्यकता विभिन्न कारकों पर निर्भर करती है; जैसे – फसल की किस्म, जलवायु, बुआई का समय आदि।
विभिन्न फसलों की जलमाँग
क्र. सं. | फसल | जलमाँग (mm) |
---|---|---|
1 | धान | 900-2500 |
2. | गन्ना | 1500- 2500 |
3. | कपास | 700-1300 |
4. | गेहूँ | 450-650 |
5. | ज्वार | 450-650 |
6. | मक्का | 500-800 |
7. | मूँगफली | 500-700 |
8. | सोयाबीन | 450-700 |
9. | आलू | 500-700 |
10. | बाजरा | 250-300 |
Note:–
● इकाई समय में सर्वाधिक जलमाँग धान की होती है।
● सबसे अधिक जलमाँग (फसल अवधि के आधार पर) गन्ना की होती है।
जल उपयोग दक्षता (Water use efficiency) :-
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● वाष्पन वाष्पोत्सर्जन के माध्यम से पौधों द्वारा प्रति इकाई पानी खर्च पर जितनी उपज प्राप्त होती है इस अनुपात को जल उपयोग दक्षता कहते हैं।
● जल उपयोग दक्षता के 2 प्रकार होते हैं–
नोट:-
● CWUE- Crop water use effeciency
● FWUE- Field water use efficiency
● ET – Evapo-transpiration
● WR – Water requirement
सिंचाई परियोजनाएँ
क्र.सं | परियोजना | सिंचित क्षेत्र | लागत |
---|---|---|---|
1. | वृहद् सिंचाई परियोजना | 10,000 hec. | >5 करोड़ |
2. | मध्यम सिंचाई परियोजना | 2000-10,000 hec. | 25 लाख से 5 करोड़ |
3. | लघु सिंचाई परियोजना | <2000 hec.<2000 hec.=”” td=””></2000> | <25 लाख |
विभिन्न फसलों की जल उपयोग दक्षता (WUE)
क्र.सं. | फसलें | जल उपयोग दक्षता |
---|---|---|
1. | चावल | 3.7 |
2. | बाजरा | 8 |
3. | मक्का | 8 |
4. | ज्वार | 9 |
5. | मूँगफली | 9.2 |
6. | गेहूँ | 12.6 |
7. | रागी | 13.4 |
नोट- जल उपयोग दक्षता को मापने की इकाई kg/ha mm है।
● धान की जल उपयोग दक्षता सबसे कम होती है।
● सर्वाधिक जल उपयोग दक्षता रागी की होती है।
भारत में सिंचित क्षेत्र (2018-2019) :-
1. कुल सिंचित क्षेत्र (Gross Irrigated Area) = 102.67 (मिलियन हेक्टेयर)
2. शुद्ध सिंचित क्षेत्र (Net irrigated Area) = 71.55 (मिलियन हेक्टेयर)
राजस्थान में सिंचित क्षेत्र :-
1. कुल सिंचित क्षेत्र (Gross Irrigated Area) = 11.78 (मिलियन हेक्टेयर)
2. शुद्ध सिंचित क्षेत्र (Net irrigated Area) = 8.82 (मिलियन हेक्टेयर)
राजस्थान में सिंचाई के स्रोत (2019-20)
क्र.सं. | स्रोत | क्षेत्र प्रतिशत |
---|---|---|
1. | नहरों द्वारा (Canal) | 30.25 प्रतिशत |
2. | नलकूप (Tubewell) | 46.89 प्रतिशत |
3. | कुएँ (Wells) | 20.66 प्रतिशत |
4. | टेंक (Tank) | 0.68 प्रतिशत |
5. | अन्य स्रोत |
नोट- राजस्थान की 2019-20 में सिंचाई गहनता (Irrigation Intensity) 134 प्रतिशत थी।
इकाइयाँ :-
● 1 hec. mm = 10000 लीटर (104)
● 1 hec. cm = 100000 लीटर (105)
● 1 hec. m = 10000000 (107)
● 1 क्यूबिक मीटर (m3) = 1000 लीटर/सेकण्ड
● 1 क्यूसेक = 28.3 लीटर/सेकण्ड
● 1 क्यूमेक = 1000 लीटर/सेकण्ड
नोट- 1 क्यूमेक = ft3/Second या क्यूबिक फीट/सेकण्ड
1 क्यूमेक = m3/Second या क्यूबिक मीटर/सेकण्ड
1. डेल्टा (Delta) – कुल फसल अवधि में खेत में दिए गए पानी की कुल गहराई को डेल्टा कहते हैं।
2. ड्यूटी (Duty) – खेत में दिए गए पानी से कुल कितना क्षेत्र सिंचित हुआ इसका अनुपात ड्यूटी कहलाता है।
3. बेस पीरियड (Base period) – खेत में बुआई की तैयारी से लेकर कटाई से पहले अन्तिम सिंचाई देने तक का समय बेस पीरियड कहलाता है।
4. सिंचाई अवधि (Irrigation period) – किसी खेत या फसल में एक सिंचाई देने में लगा समय Irrigation period कहलाता है।
5. पलको :- फसल बुआई से पूर्व दी जाने वाली सिंचाई को पलको कहा जाता है।
6. कोर वाटरिंग :- फसल बुआई के बाद दी गई प्रथम सिंचाई कोर वाटरिंग कहलाता है।
● राजस्थान में नहरों द्वारा सिंचाई :-
1. इन्दिरा गाँधी नहर (IGNP) –
● इस नहर को ‘राजस्थान की जीवन रेखा’ कहते हैं।
● नहरों में सर्वाधिक सिंचाई इन्दिरा गाँधी नहर द्वारा की जाती है।
● यह नहर पंजाब के सतलज एवं व्यास नदियों के संगम स्थल पर हरिके बैराज बाँध से निकाली गई है।
● इस नहर का अंतिम छोर गडरा रोड़, बाड़मेर है।
2. गंग नहर –
● इसका निर्माण महाराजा गंगा सिंह ने सन् 1927 में करवाया।
● इसके द्वारा श्रीगंगानगर व बीकानेर क्षेत्र में सिंचाई की जाती है।
3. गुड़गाँव नहर परियोजना –
● यह राजस्थान में हरियाणा की संयुक्त परियोजना है।
● इस नहर द्वारा राजस्थान के भरतपुर व अलवर जिलों में सिंचाई की जाती है।
4. चम्बल नहर परियोजना –
● यह नहर चम्बल नदी से निकाली गई है।
● इसके द्वारा कोटा, बूँदी, बाराँ जिलों में सिंचाई की जाती है।
5. भाखड़ा नहर परियोजना –
● यह भारत की सबसे बड़ी नदी घाटी परियोजना है जिसे पंडित जवाहर लाल नेहरू ने विराट वस्तु कहा है।
● इस नहर द्वारा राजस्थान में सर्वाधिक सिंचाई हनुमानगढ़ और श्रीगंगानगर जिले में होती है।
6. नर्मदा नहर –
● यह नहर सरदार सरोवर बाँध से निकाली गई है।
● यह राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश व महाराष्ट्र की संयुक्त परियोजना है।
● इस नहर द्वारा सिंचाई करने हेतु फव्वारा पद्धति का उपयोग करना अनिवार्य है।
● इस नहर द्वारा राजस्थान में जालोर एवं बाड़मेर जिले की कुछ तहसीलों में सिंचाई की जाती है।
7. सिद्धमुख नोहर परियोजना-
● इस नहर परियोजना द्वारा राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले की भादरा व नोहर तथा चूरू जिले की राजगढ़ व तारा नगर तहसीलों में सिंचाई होती है।
महत्त्वपूर्ण बिंदु:-
● फसलों में सिंचाई के निर्धारण के लिए क्रांतिक अवस्था उपयुक्त मानी जाती है।
● पार्शल फ्लूम द्वारा जल की मात्रा ज्ञात की जाती है।
● जल का अधिकतम घनत्व 4°C पर होता है।
● एक जल का अणु दूसरे अणु से हाइड्रोजन बंद द्वारा जुड़ा होता है।
● जलभराव के प्रति संवेदनशील फसलें तिल, मक्का आदि हैं।
● धान जलभराव के प्रति प्रतिरोधी फसल है।
● भारत में सर्वाधिक सिंचाई नहरों द्वारा होती है।
● राजस्थान में सर्वाधिक सिंचाई कुओं व नलकूपों द्वारा होती है।
● राजस्थान में नहरों द्वारा सर्वाधिक सिंचाई श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ में होती है।
जल संग्रहण का प्रकार :-
क्र.सं. | जल संग्रहण का प्रकार | क्षेत्रफल (हेक्टेयर) |
---|---|---|
1. | मिनि (Mini) | 1-100 |
2. | माइक्रो (Micro) | 100-1000 |
3. | मिली (Mili) | 1,000-10,000 |
4. | सब मेक्रो (Sub macro) | 10,000- 50,000 |
5. | मेक्रो (Macro) | >50,000 |
जल निकास
● खेत में एकत्र अतिरिक्त जल को कृत्रिम रूप से बाहर निकालना जल निकास कहलाता है।
● जैव जल निकास (Bio drainage) करने वाला पौधा सफेदा (यूकेलिप्टस) है।
महत्त्व :-
1. मृदा में वायु संचार बढ़ता है।
2. मृदा ताप का नियमन होता है।
3. पौधे की जड़ का विकास अच्छा होता है।
4. भू-परिष्करण क्रियाएँ सरलतापूर्वक हो जाती है।
5. लाभदायक जीवाणुओं की क्रियाशीलता बढ़ती है।
6. हानिकारक लवणों का निकास हो जाता है।
विधियाँ:-
पृष्ठीय/सतही जल निकास (Surface drainage):-
● भूमि की सतह पर नालियाँ बनाकर अतिरिक्त पानी को खेत से बाहर निकालते हैं।
● यह विधि कम खर्चीली है।
● इसमें निम्नलिखित प्रकार की नालियाँ बनाई जाती हैं-
(i) स्थायी नालियाँ:-
● जिन क्षेत्रों में जल भराव की समस्या ज्यादा रहती है वहाँ स्थायी नालियाँ बनाई जाती हैं; जैसे- समांतर नालियाँ, रेंडम नालियाँ, वेडिंग नालियाँ, क्रॉस स्लैप नालियाँ।
(ii) अस्थायी नालियाँ:-
● जिन क्षेत्रों में जल निकास की आवश्यकता कम होती है वहाँ अस्थायी नालियाँ काम में ली जाती है।
(iii) कटआउट नालियाँ:-
● यह नालियाँ नहरी क्षेत्र व तालाबों के समानांतर बनाई जाती हैं।
भूमिगत/अधोपृष्ठीय जल निकास (Sub surface drainage):-
● इस प्रकार के जल निकास में नालियाँ भूमि के अंदर बनाई जाती है। नालियाँ 1 से 2 मीटर की गहराई में बनाई जाती है।
● यह विधि अधिक खर्चीली है।
● भारत में यह विधि प्रचलन में नहीं है।
● इसमें निम्नलिखित प्रकार की नालियाँ बनती है–
(i) पाइप नालियाँ
(ii) टाइल नालियाँ
(iii) रबिल नालियाँ
(iv) मोल नालियाँ
(v) पत्थर व ईंटों की नालियाँ
● रबिल नालियाँ:- मुख्यत: बाँस के टुकड़ों, पत्थर के टुकड़ों द्वारा तथा पत्तियों द्वारा बनाई जाती है।
● मोल नालियाँ:- यह नालियाँ मोल हल के द्वारा बनाई जाती है।
जल निकासी नालियों की व्यवस्था/प्रणाली:-
1. समानांतर प्रणाली:-
● समान जल रिसाव वाले क्षेत्रों में अपनाई जाती है।
2. रेंडम प्रणाली:-
● यह जल निकास की प्राकृतिक विधि है इसमें कोई निश्चित क्रम नहीं होता है।
3. बेडिंग नालियाँ:-
● यह नालियाँ खेत में ढाल के अनुसार बनाई जाती है।
4. गिरीडिरोन प्रणाली:-
● जब खेत की ढाल एकतरफा हो तो इस विधि को अपनाया जाता है।
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