प्रमुख व्यक्तित्व
महाराणा कुंभा

– शासनकाल – 1433 – 1468 ई.
– मोकल व रानी सौभाग्यवती का पुत्र।
– राणा कुम्भा के शासन की जानकारी ‘एकलिंगमहात्म्य’, ’रसिकप्रिया’ व ’कुम्भलगढ़ प्रशस्ति’ से मिलती हैं।
– कुम्भा की प्रमुख उपाधियाँ – अभिनव भरताचार्य, हिंदू सुरताण, हाल गुरु, राणो रासो, टोडरमल, चाप गुरु।
– कुंभा द्वारा निर्मित प्रमुख मंदिर – कुंभश्याम मंदिर, विष्णु मंदिर, एकलिंगजी, कुशाल माता मंदिर (बदनोर)।
– कुम्भा के प्रमुख दरबारी विद्वान मंडन, नाथा, गोविंद आदि थे।
– कुम्भा की प्रमुख रचनाएँ ̶ संगीतराज, संगीत मीमांसा, सूड़ प्रबंध, गीत गोविंद की टीका ‘रसिकप्रिया’।
– सारंगपुर युद्ध (1437 ई.) – कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम को पराजित कर बंदी बनाया।
– 1453 ई. में कुंभा ने मारवाड़ से मण्डोर छीन लिया।
– आँवल-बावल की संधि (1453 ई.) – जोधा व कुंभा के बीच हुई।
– नागौर के शासक शम्स खाँ को पराजित किया।
– चंपानेर की संधि (1456 ई.) – मालवा शासक महमूद खिलजी प्रथम और गुजरात शासक कुतुबुद्दीन के मध्य राणा कुंभा के विरुद्ध हुई।
– कुम्भा के पुत्र उदा ने 1468 ई. में कुम्भा की हत्या की।
महाराणा सांगा

– शासनकाल – 1509-1528 ई.
– सांगा 1509 ई. में मेवाड़ के शासक बने।
– उपाधियाँ – 1. हिन्दूपत
2. सैनिक भग्नावशेष (कर्नल जेम्स टॉड द्वारा प्रदत्त)
– मालवा-मेवाड़ के मध्य युद्ध हुआ। महमूद खिलजी द्वितीय पराजित हुआ तथा सांगा ने उसे बंदी बना लिया।
– खातौली का युद्ध (1517 ई. कोटा) ̶ सांगा ने इब्राहिम लोदी को पराजित किया था। युद्ध में इब्राहिम लोदी ने खुद भाग लिया था।
– बांडी/बाड़ी का युद्ध (1518 ई. धौलपुर) ̶ सांगा ने पुनः इब्राहिम लोदी को पराजित किया।
– गागरोन का युद्ध (1519 ई. झालावाड़) ̶ सांगा ने महमूद खिलजी-द्वितीय मालवा को पराजित किया था।
– सांगा ने गुजरात के महमूद बेगड़ा को पराजित किया।
– 1520 ई. में सांगा ने गुजरात के बादशाह को पराजित किया।
– 1526 ई. में पानीपत के युद्ध में बाबर ने इब्राहिम लोदी को पराजित कर आगरा पर अधिकार कर लिया।
– बयाना का युद्ध (16 फरवरी, 1527 भरतपुर) ̶ सांगा ने बाबर की सेना को पराजित किया।
– खानवा का युद्ध (17 मार्च, 1527) ̶ बाबर ने तोपखाने एवं तुलुगमा युद्ध पद्धति का प्रयोग कर सांगा को पराजित किया था।
– खानवा युद्ध में राणा सांगा के पक्ष में भाग लेने वाले प्रमुख हिंदू शासक – कल्याणमल (बीकानेर), मालदेव (मारवाड़), भारमल (ईडर), वीरमदेव (मेड़ता), मेदिनीराय (चंदेरी), पृथ्वीसिंह (आमेर), झाला सज्जा (गोगुंदा), झाला अज्जा (सादड़ी)।
– झाला अज्जा ने युद्ध में सांगा के युद्ध भूमि छोड़ने पर राजचिह्न धारण किया था।
– राव मालदेव घायल सांगा को ‘बसवा’(दौसा) लेकर गए।
– चंदेरी के युद्ध में भाग लेने के लिए जा रहे सांगा को मेवाड़ी सरदारों ने कालपी (उ.प्र.) स्थान पर विष दे दिया।
– मृत्यु – 30 जनवरी, 1528 को बसवा (दौसा) में हुई, जहाँ पर ‘सांगा का स्मारक/चबूतरा’ बना है।
– सांगा का अंतिम संस्कार मांडलगढ़ (भीलवाड़ा) में किया गया।
– सांगा के बड़े पुत्र भोजराज का विवाह मेड़ता के रतनसिंह की पुत्री मीराबाई से हुआ।
– कर्नल टॉड के अनुसार 7 उच्च श्रेणी के राजा, 9 राव व 104 सरदार सदैव सांगा की सेवा में उपस्थित रहते थे।
महाराणा प्रताप

– जन्म – 9 मई, 1540
– जन्म स्थान – बादल महल (कटारगढ़) कुंभलगढ़ दुर्ग
– पिता – महाराणा उदयसिंह
– माता – जयवंता बाई (पाली नरेश अखैराज सोनगरा की पुत्री)
– विवाह – 1557 ई. को अजबदे पँवार के साथ हुआ।
– शासनकाल – 1572-1597 ई.
– उपनाम – 1. कीका, 2. हिन्दुआ सूरज
– राज्याभिषेक – 28 फरवरी, 1572 को महादेव बावड़ी (गोगुन्दा)
– राणा प्रताप का विधिवत् राज्याभिषेक कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ।
– प्रताप का घोड़ा – चेतक
हाथी – रामप्रसाद व लूणा
– अकबर द्वारा राणा प्रताप के पास भेजे गए 4 संधि प्रस्तावक/शिष्ट मण्डल – 1. जलाल खाँ कोरची – नवम्बर, 1572
2. मानसिंह – जून, 1573
3. भगवन्तदास – अक्टूबर, 1573
4. टोडरमल – दिसम्बर, 1573
● हल्दीघाटी का युद्ध (राजसमन्द) – 18 जून, 1576
– अकबर ने युद्ध की व्यूह रचना मैगजीन दुर्ग में रची थी।
– मुगल सेना का प्रधान सेनानायक – मिर्जा मानसिंह (आमेर)
– मानसिंह ने पहले माण्डलगढ़ तथा फिर मोलेला गाँव (राजसमन्द) में पड़ाव डाला।
– राणा प्रताप ने युद्ध की योजना कुम्भलगढ़ दुर्ग में बनाई और अपनी सेना का पड़ाव लोसिंग गाँव (राजसमन्द) में डाला।
– राणा प्रताप की हरावल सेना का नेतृत्व – हकीम खाँ सूर
चंदावल सेना का नेतृत्व – राणा पूंजा
– मुगल सेना के हरावल भाग का नेतृत्व – सैय्यद हाशिम
– प्रताप पक्ष – रामशाह तँवर, झाला मानसिंह, झाला बीदा, जयमल मेहता, पुरोहित गोपीनाथ, शंकरदास, चारण जैसा, कृष्णदास, भीमसिंह डोडिया, रावत किशनदास, रामदास मेड़तिया, और भामाशाह।
– इतिहासकार बदायूँनी युद्ध में मुगल सेना के साथ उपस्थित था।
– हकीम खाँ सूर के नेतृत्व में राजपूतों ने पहला वार इतना भयंकर किया कि मुगल सेना भाग खड़ी हुई।
– उसी समय मुगलों की आरक्षित सेना के प्रभारी मिहत्तर खाँ ने यह झूठी अफवाह फैलाई कि – “बादशाह अकबर स्वयं शाही सेना लेकर आ रहे हैं।” यह सुनकर मुगल सेना फिर युद्ध के लिए आगे बढ़ी।
– रामप्रसाद हाथी को मुगलों ने अपने अधिकार में ले लिया, जिसका बाद में अकबर ने नाम बदलकर ‘पीरप्रसाद’ कर दिया।
– राणा प्रताप ने पठान बहलोल खाँ पर ऐसा प्रहार किया कि उसके घोड़े सहित दो टुकड़े हो गए।
– प्रताप ने भाले से मानसिंह पर वार किया लेकिन मानसिंह बच गया। इस दौरान चेतक हाथी के प्रहार से घायल हो गया।
– राणा प्रताप के घायल होने पर झाला बीदा ने राजचिह्न धारण किया तथा युद्ध लड़ते हुए वीर गति प्राप्त की।
– घोड़े चेतक की एक नाले को पार करने के बाद मृत्यु हो गई। बलीचा गाँव में चेतक की समाधि बनी हुई है।
– बदायूँनी कृत ‘मुन्तखब उत्त तवारीख’ में हल्दीघाटी युद्ध का वर्णन।
– इस युद्ध को अबुल-फजल ने ‘खमनौर का युद्ध’, बदायूँनी ने ‘गोगुन्दा का युद्ध’ तथा कर्नल टॉड ने ‘हल्दीघाटी का युद्ध’ कहा।
– अक्टूबर, 1577 से नवम्बर, 1579 तक शाहबाज खाँ ने तीन बार मेवाड़ पर असफल आक्रमण किया।
– 3 अप्रैल, 1578 को शाहबाज खाँ ने कुम्भलगढ़ दुर्ग पर अधिकार किया।
– राणा प्रताप ने कुंभलगढ़ दुर्ग पर पुन: अधिकार कर भाण सोनगरा को किलेदार नियुक्त किया।
– भामाशाह (पाली) ने महाराणा प्रताप की आर्थिक सहायता की थी।
– मेवाड़ का उद्धारक व दानवीर – भामाशाह
– 1580 में अकबर ने अब्दुल रहीम खानखाना को प्रताप के विरुद्ध भेजा। कुँवर अमरसिंह ने शेरपुर के मुगल शिविर पर आक्रमण कर खानखाना के परिवार की महिलाओं को बंदी बना लिया।
– दिवेर का युद्ध (अक्टूबर, 1582 ई.) – कुँवर अमरसिंह ने सेरिमा सुल्तान का वध कर दिवेर पर अधिकार किया।
– कर्नल जेम्स टॉड ने इस युद्ध को ‘प्रताप के गौरव का प्रतीक’ और ‘मेवाड़ का मैराथन’ कहा।
– दिसम्बर, 1584 को अकबर ने जगन्नाथ कच्छवाहा को प्रताप के विरुद्ध भेजा। जगन्नाथ भी असफल रहा।
– 1585 ई. से 1597 ई. के मध्य प्रताप ने चित्तौड़ एवं माण्डलगढ़ को छोड़कर शेष सम्पूर्ण राज्य पर पुन: अधिकार कर लिया था।
– 1585 ई. में लूणा चावण्डिया को पराजित कर प्रताप ने चावण्ड पर अधिकार किया तथा इसे अपनी नई राजधानी बनाई।
– मृत्यु -19 जनवरी, 1597, चावण्ड
– प्रताप की 8 खम्भों की छतरी – बांडोली
– प्रताप की मृत्यु पर अकबर के दरबार में उपस्थित कवि दुरसा आढ़ा ने एक दोहा सुनाया –
गहलोत राणो जीत गयो दसण मूँद रसणा डसी।
नीसास मूक भरिया नयन तो मृत शाह प्रताप सी।।
राव जोधा

– शासनकाल – 1438-1489 ई.
– 15 वर्षों के अथक् परिश्रम के पश्चात् 1453 ई. में मारवाड़ पर अधिकार कर लिया।
– आँवल-बावल की संधि (1453 ई.) – हंसाबाई की मध्यस्थता से कुंभा व जोधा के बीच हुई।
– अपनी पुत्री शृंगार देवी का विवाह कुंभा के पुत्र रायमल से किया।
– 12 मई, 1459 को जोधपुर नगर की स्थापना की एवं उसे अपनी राजधानी बनाया।
– दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोदी की एक सेना को पराजित कर जोधा ने प्रतिष्ठा प्राप्त की।
– चिड़ियाटूँक पहाड़ी पर मेहरानगढ़ दुर्ग बनवाया। दुर्ग की नींव करणी माता के हाथों रखी गई थी।
– रानी जसमादे ने मेहरानगढ़ दुर्ग में राणीसर तालाब का निर्माण करवाया।
– मारवाड़ में सामंत प्रथा का वास्तविक संस्थापक।
– डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने राव जोधा को ‘मारवाड़ का प्रथम प्रतापी शासक’ माना है।
राव मालदेव

– शासनकाल – 1531 – 1562 ई.
– मालदेव ने राणा सांगा के पक्ष में खानवा का युद्ध लड़ा।
– मारवाड़ के राठौड़ वंश का प्रथम पितृहंता।
– राज्याभिषेक – 21 मई, 1531 को सोजत में।
– हिन्दुओं का सहयोगी होने के कारण हिन्दू बादशाह भी कहा जाता है।
– अबुल फज़ल एवं निजामुद्दीन ने ‘हशमत वाला राजा’ कहा था।
– बदायूँनी ने ‘भारत का महान पुरुषार्थी राजकुमार’ तथा फरिस्ता ने ‘हिन्दुस्तान का सबसे शक्तिशाली राजा’ कहा है।
– हीराबाड़ी (नागौर) का युद्ध (1533 ई.) – नागौर के शासक दौलत खाँ व मालदेव के मध्य हुआ। मालदेव विजयी हुआ।
– 1535 ई. में मेड़ता पर आक्रमण कर वीरमदेव को पराजित किया। वीरमदेव भागकर शेरशाह की शरण में चला गया।
– मालदेव ने 1536 ई. में जैसलमेर के राव लूणकर्ण की पुत्री उमादे से विवाह किया, जो इतिहास में रूठीरानी के नाम से प्रसिद्ध हुई।
– पाहेबा/साहेबा का युद्ध (1541 ई.) – सेनापति जैता व कूँपा के नेतृत्व में राव जैतसी के साथ हुआ। राव जैतसी मारा गया।
– गिरी-सुमेल का युद्ध – 5 जनवरी, 1544 को सेनापति जैता व कूँपा तथा अफगान शेरशाह सूरी के बीच हुआ। युद्ध समाप्त होते-होते शेरशाह सूरी को यह कहना पड़ा कि “एक मुठ्ठी भर बाजरे के लिए मैं हिन्दुस्तान की बादशाहत खो बैठता।” युद्ध में जैता व कूँपा मारे गए। शेरशाह सूरी की विजय हुई। मालदेव सिवाणा दुर्ग चला गया।
– मालदेव ने जोधपुर, पोकरण, फलोदी, बाड़मेर, कोटड़ा, जालोर व मेड़ता पर पुन: अधिकार कर लिया।
– हरमाड़ा का युद्ध (1557 ई.) – मेवाड़ के शासक उदयसिंह को पराजित किया।
– मृत्यु – दिसम्बर, 1562
– उमादे मालदेव की पगड़ी के साथ सती हुई।
महाराजा जसवंतसिंह

– शासनकाल – 1638 – 1678 ई.
– गजसिंह का दूसरा पुत्र।
– आगरा पहुँचने पर शाहजहाँ ने जसवंतसिंह को शाही टीका और खिलअत देकर सम्मानित किया।
– इसी अवसर पर शाहजहाँ ने इसे ‘महाराजा’ की उपाधि प्रदान की।
– शाहजहाँ ने जसवंतसिंह को 4000 जात व सवार का मनसब प्रदान किया था।
– 1648 ई. में कंधार अभियान के दौरान इसकी वीरता से प्रभावित होकर शाहजहाँ ने इसका मनसब 6 हजार कर दिया।
– धरमत का युद्ध (1657-58 ई.) – मुगल उत्तराधिकारी संघर्ष में जसवंतसिंह ने दाराशिकोह के पक्ष में औरंगजेब व मुराद के विरुद्ध युद्ध लड़ा था। कासिम खाँ के विश्वासघात के कारण दारा परास्त हुआ और जसवंतसिंह को मारवाड़ लौटना पड़ा।
– 1659 ई. में इसे गुजरात का सूबेदार बनाया गया।
– 1673 ई. में जसवंतसिंह को काबुल भेजा गया।
– रचित ग्रंथ – भाषा-भूषण, अपरोक्ष सिद्धान्त सार व प्रबोध चन्द्रोदय।
– जसवंतसिंह के दरबारी – सूरत मिश्र, नरहरिदास, नवीन कवि, बनारसीदास, वीर दुर्गादास राठौड़ व मुहणोत नैणसी आदि थे।
– मृत्यु – 1678 ई. में जमरूद, अफगानिस्तान में
– जसवंतसिंह की मृत्यु पर औरंगजेब ने कहा कि “आज कुफ्र का दरवाजा टूट गया।”
– जसवंतसिंह की मृत्यु के बाद औरंगजेब ने मारवाड़ को खालसा घोषित कर दिया।
वीर दुर्गादास

– जन्म – 13 अगस्त, 1638 को सालवा गाँव में हुआ।
– पिता – आसकरण (जसवंतसिंह के मंत्री)
– महाराजा जसवंतसिंह की जमरूद में मृत्यु हो गई।
– इस समय औरंगजेब ने जोधपुर को खालसा घोषित कर दिया और मारवाड़ के दल को दिल्ली पहुँचने का आदेश भेजा।
– लाहौर में जसवंतसिंह की दोनों रानियों ने दो पुत्रों को जन्म दिया। एक पुत्र की मृत्यु हो गई तथा दूसरे का नाम अजीतसिंह रखा।
– दुर्गादास, अजीतसिंह व रानियों को लेकर दिल्ली पहुँचे और औरंगजेब से मारवाड़ राज्य अजीतसिंह को देने का आग्रह किया।
– बादशाह ने इस्लाम स्वीकार करने पर राज्य देने की शर्त रखी। दिल्ली में अजीतसिंह की जान को भी खतरा था।
– ऐसी स्थिति में दुर्गादास, अजीतसिंह को मुगलों की कैद से बचाकर मारवाड़ ले आए।
– अजीतसिंह को सिरोही के शासक वैरीसालसिंह की देखरेख में कालन्द्री गाँव के जयदेव ब्राह्मण की पत्नी ने पाला।
– दुर्गादास ने संघर्ष बढ़ता देख मेवाड़ महाराणा राजसिंह से अजीतसिंह को संरक्षण देने का आग्रह किया, जिसे महाराणा ने सहज स्वीकार किया।
– औरंगजेब की दक्षिण भारत में मृत्यु होने की सूचना मिलते ही राठौड़ों ने अजीतसिंह के नेतृत्व में मारवाड़ पर अधिकार कर लिया।
– दुर्गादास मारवाड़ लौट आए लेकिन उन्हें अजीतसिंह से उत्साहवर्धक स्वागत नहीं मिला।
– अजीतसिंह द्वारा दुर्गादास पर शक करने और राजनीतिक षड्यंत्रों के कारण ये मेवाड़ चले गए।
– मेवाड़ महाराणा ने दुर्गादास का सम्मान करते हुए रामपुरा की जागीर दी तथा वहाँ का प्रशासक भी नियुक्त किया।
– 1717 ई. में दुर्गादास उज्जैन चले गए। वहीं 12 नवम्बर, 1718 को इनकी मृत्यु हो गई।
महाराजा मानसिंह प्रथम

– जन्म – 1550, मौजमाबाद
– शासनकाल – 1589-1614 ई.
– इसने अकबर व जहाँगीर दो मुगल शासकों की सेवा की।
– उपाधि – ‘फर्जन्द’ (अकबर द्वारा प्रदत्त)
– अकबर द्वारा इसे 7000 का मनसब प्रदान किया गया।
– मानसिंह, अकबर के नवरत्नों में शामिल था।
– 1576 ई. में इसने हल्दीघाटी युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व किया।
– हल्दीघाटी युद्ध के परिणामों से नाराज अकबर ने मानसिंह के मनसब में 2000 की कटौती की और ड्योढ़ी बंद कर दी।
– मानसिंह को 1587 ई. में बिहार की सूबेदारी मिली।
– राज्याभिषेक – 15 जनवरी, 1590 को पटना में
– 1592 ई. में उड़ीसा जीतकर पहली बार उसे मुगल साम्राज्य का अंग बनाया।
– मानसिंह ने बंगाल शासक केदारनाथ को हराया। बंगाल से शीलादेवी की मूर्ति लाकर उसे आमेर में प्रतिष्ठित करवाया।
– पुष्कर में मान महल तथा आमेर के पंचमहल का निर्माण करवाया।
– इसके समय में मुरारीदान ने ‘मानचरित्र महाराजकोष’, ‘मानप्रकाश’ व जगन्नाथ ने ‘मानसिंह कीर्ति मुक्तावली’ नामक ग्रंथों की रचना की।
– मृत्यु – 6 जुलाई, 1614 को इलिचपुर, महाराष्ट्र में
– छतरी – हाड़ीपुर (आमेर)
सवाई जयसिंह

– शासनकाल – 1700 – 1743 ई.
– औरंगजेब ने इसका नाम जयसिंह रखते हुए इसे सवाई का खिताब दिया तथा इसके छोटे भाई का नाम विजयसिंह रख दिया।
– मुगल उत्तराधिकारी संघर्ष, 1707 ई. – जयसिंह ने जाजऊ के मैदान में आजम के पक्ष में युद्ध लड़ा।
– बहादुरशाह ने आमेर पहुँचकर विजयसिंह को आमेर का शासक बना दिया और आमेर का नाम बदलकर ‘इस्लामाबाद’ तथा बाद में ‘मोमिनाबाद’ कर दिया।
– 1708 ई. में देबारी समझौते के तहत जयसिंह ने मेवाड़ के अमरसिंह द्वितीय की पुत्री चन्द्रकुँवरी के साथ विवाह किया।
– 1713 ई. में बादशाह फर्रुखसियर ने मालवा का सूबेदार बनाया।
– जयसिंह ने बदनसिंह को ‘ब्रजराज’ की उपाधि व डीग की जागीर दी।
– 1730 व 1732 में जयसिंह को पुन: मालवा की सूबेदारी मिली।
– हुरड़ा सम्मेलन – 17 जुलाई, 1734 को हुरड़ा नामक स्थान पर सवाई जयसिंह द्वारा आयोजित किया गया।
– 1740 ई. में अश्वमेध यज्ञ का आयोजन करवाया, ऐसा करने वाला वह अंतिम हिन्दू शासक था।
– 1714 ई. में वृन्दावन से गोविन्ददेव जी की मूर्ति लाकर आमेर में स्थापित की एवं गोविन्द देव जी मंदिर का निर्माण करवाया।
– 1727 ई. में जयनगर/जयपुर की स्थापना कर आमेर के स्थान पर इसे अपनी राजधानी बनाई।
– पाँच वैधशालाओं दिल्ली, जयपुर, मथुरा, उज्जैन, बनारस का निर्माण करवाया।
– इसने सात मुगल शासकों की सेवा की।
– 1725 ई. में नक्षत्रों की शुद्ध सारणी बनवाई तथा उसका नाम ‘जीज मोहम्मदशाही’ रखा।
– इसने ज्योतिष ग्रंथ ‘जयसिंह कारिका’ की भी रचना की।
– 1734 ई. में इसने जयपुर में ‘नाहरगढ़/सुदर्शनगढ़’ दुर्ग का निर्माण करवाया।
– मृत्यु – 21 सितम्बर, 1743 को रक्तविकार से आमेर में हुई।
महाराजा गंगासिंह

– शासनकाल – 1887-1943 ई.
– प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों की सहायता की।
– ‘वर्साय’ के शांति सम्मेलन में भाग लिया।
– तीनों ‘गोलमेज सम्मेलनों’ में भाग लिया।
– 1900 ई. में चीन के ‘बॉक्सर विद्रोह’ में अंग्रेजों की मदद की; अत: अंग्रेजों ने उनको ‘केसर-ए-हिंद’ की उपाधि दी एवं ’चीन युद्ध मेडल’ प्रदान किया।
– 1919 ई. ‘पेरिस सम्मेलन’ में देशी रियासतों के रूप में हस्ताक्षर किए।
– 1916 ई. में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए आर्थिक सहायता दी तथा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के आजीवन चांसलर रहे।
– द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों के पक्ष में अपनी विख्यात ‘ऊँटों की सेना (कैमल कॉर्प)’ ब्रिटेन भेजी। इस सेना को ‘गंगा रिसाला’ कहा जाता था।
– मृत्यु – 2 फरवरी, 1943 को बम्बई में
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