राजस्थानी कहावतें

राजस्थानी कहावतें

● राजस्थान के लोक-जीवन में सरसता, उत्साह, प्रफुल्लता और व्यवहार- पटुता सदियों से रही है। बुजुर्गों का परामर्श और दार्शनिक कवियों के नीति-परक दोहे जन-जन की जुबान पर पाते रहते हैं। यही कारण है कि राजस्थान में कहावतों का प्राचुर्य देखने को मिलता है। यहाँ जीवन के हर क्षेत्र में उद्बोधन के  रूप में चिरकाल से कहावतें उपयोगी रही हैं। कहावतों की भाषा इतनी समृद्ध और सरल होती है कि वह सुनने वाले पर यथोचित प्रभाव डालती है। राजस्थानी कहावतों ने राजस्थानी साहित्य में स्फूर्ति का संचरण किया है। उसकी भाषा को सजीव, सटीक बनाया है और संवारा है। राजस्थानी कहावतों में देश विदेश, जाति- विशेष, रीति-रिवाज, सदाचार, शिष्टता, नैतिक आदर्श तथा सामाजिक संगठन के संबंध में उक्तियाँ होती है।

● सामान्य लोक जीवन में कहावतों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ग्रामीण-व्यक्तियों के लिए कहावतें वेद और शास्त्रों का काम देती हैं। अपने मत को, पक्ष को स्पष्ट करने के लिए वे बहुधा कहावतों का प्रयोग करते हैं। कहावतों में ऐसी अद्भुत शक्ति पाई जाती है कि वे प्रयोग कर्ताओं की ओर से अपने प्रति आस्था और विश्वास के भाव उत्पन्न करा लेती हैं। कुछ पुराणपंथी और रूढ़िग्रस्त कहावतें भी राजस्थानी लोक-जीवन में प्रचलित हैं। वे समाज में जड़ता व्याप्त कर लोक-जीवन के सुमचित विकास में बाधक सिद्ध होती हैं। धीरे-धीरे ऐसी कहावतों का प्रचलन बंद हो जाता है। प्रगति मानवीय सभ्यता के विकास की आवश्यक शर्त है।

● राजस्थान के गाँवों में कला-कौशल, कृषि, गो-पालन, घोड़ों, गायों, ऊँटों आदि का क्रय-विक्रय के संबंध में जनता कहावतों पर ही निर्भर रही है। राजस्थानी कहावतों के अध्ययन से इस प्रांत की सभ्यता और संस्कृति पर अच्छा प्रकाश पड़ सकता है। प्रतिसद्ध कवि और दार्शनिक बेकन की निम्न उक्ति राजस्थान के लिए अति-उपयुक्त है।

● राजस्थानी कहावतों में विभिन्न जातियों के प्रति भाव, स्त्री जाति के प्रति भाव, शकुन-संबंधी बहुत-से विश्वास, कृषि और वर्षा संबंधी अनेक सिद्धांत, खेती में संबंध में कहावतों की अधिकता, ऊंट-भैंस के पर्याय शब्दों का आधिक्य, कन्या जन्म के संबंध में मनोवृत्ति आदि ऐसी अनेकानेक बातें हैं जिनसे राजस्थानी संस्कृति पर प्रकाश पड़ता है। संस्कृति के भग्नावशेष इन लोकोक्तियों में छिपे पड़े हैं। भारतीय संस्कृति की अखण्डता के दर्शन राजस्थानी कहावतों में स्पष्ट होते हैं–

1. अंबर के थेगली कौनी लागै।

(फटे आकाश को सिया नहीं जा सकता)

2. अक्कल कोई कै बाप की कोनी ।

(बुद्धि किसी की बपौती नहीं ।)

3. अक्कल बिना ऊंट उभाणा फिरै ।

(मूर्ख बुद्धि का अभाव होने के कारण साधनों का प्रयोग नहीं कर पाते।)

4.  अक्कल मैं खुदा पिछाणो ।

(वस्तु को बुद्धि से समझो।)

5.  अणदेखी नै दोख, बीनै गति न मोख।

(जो निरपराध पर दोष लगावे, उसे गति या मोक्ष कुछ न मिले ।)

6. अणमांग्या मोती मिलै, मांगै मिलै न भीख।

(बिना माँगे मोती भी मिल जाते हैं और माँगने पर भीख नहीं मिलती।)

7 अनहोणी होणी नहीं, होणी होय सो होय ।

(जो होना है, वह होकर रहेगा।)

8. अभागियो टावर त्युंहार नै रूसै।

(मनभागी सुअवसर से लाभ नहीं उठा पाता है।)

9. अम्मर को तारो हाथ सैं कोनी टूटै।

(आकाश का तारा हाथ से नहीं टूटता।)

10.  अरडावतां ऊंट लदै ।

(किसी की दीन पुकार पर भी ध्यान न देना।)

11. अल्ला अल्ला खैर सल्ला

(शिष्टाचार के अतिरिक्त कुछ न देना।)

12.  असो म्हं भोळो कोनी जको भूखो भैसां में जाऊं।

(मैं ऐसा मूर्ख नहीं है जो भूखा ही भैंस चराने जाऊँ।)

13. आँख कान को च्यार आंगल को फरक है।

(सुनी-सुनाई बात पर बिना प्रत्यक्ष प्रमाण के विश्वास नहीं करना चाहिये।)

14.  आँख मीच्यां अंधेरो होय

(आँख मूँदने पर अँमेरा हो जाता है अर्थात् दुनिया के

दुःखों की ओर से तटस्थ हो जाना।)

15.  आँख्याँ देखी परसराम, कदे न झूठी होय ।

(प्रत्यक्ष देखी हुई बात कभी झूठी नहीं होती है।)

16. आँ तिलों में तेल कोनी।

(इन तिलों में तेल नहीं अर्थात् यहां कोई सार नहीं।)

17. आँधा में काणो राव।

(अन्धों में काना राजा)

18.  आगो थारो पीछो म्हारो,

(आपके आगे हमारी पीठ, चाहे जो कीजिए।)

19.  आ छाय तो ढोलबा जोगी ही थी।

(निरुपयोगी वस्तु के नाश पर खेद न होना।)

20. आज मरयो, दिन दूसरो।

 (जो गया सो गया।)

21.  आज हमां अर काल थमां।

(आज जो हम पर बीत रही है, वह कल तुम पर भी बीत सकती है।)

22. आडा आया, मा का जाया।

(सहोदर भाई ही संकट के समय सहायक होते हैं।)

23. आडू चाल्या हाट, न ताखड़ी न बाट ।

(मूर्ख का काम अव्यवस्थित होता है ।)

24. आदै पाणी न्याव होय ।

(बेईमानी का फल मिल ही जाता है।)

25.  आप कमाया कामड़ा, दई न दीजै दोस।

(अपने किये हुए कर्मों के लिए दैव को दोषी नहीं ठहराना चाहिए।)

26.  आपकी छोड़ पराई तक्कै, आवै ओसर कै धक्कै।

(जो अपनी छोड़ पराई की ओर दृष्टि रखता है, उसे समय का आघात सहना पड़ता है।)

27.  आप गुरुजी कातरा मारै, चेलां ने परमोद सिखावै।

(स्वयं गुरुजी तो कातरे मारते हैं और शिष्यों को उपदेश देते हैं।)

28. आप मरयाँ बिना सुरग कठै?

(अपने हाथ से काम करने पर ही काम पूरा पड़ता है।)

29.  आम खाणा क पेड़ गिणना?

(मनुष्य को अपने काम से मतलब रखना चाहिए।)

30. आ रै मेरा सम्पटपाट! मैं तनै चाटूं, तू मनैं चाट।

 (दो निकम्मे व्यक्तियों का समागम निरर्थक होता है।)

31. इब ताणी तो बेटी बाप कै ही है।

 (अभी कुछ नहीं बिगड़ा है।)

32. इसे परथावां का इसा ही गीत।

 (ऐसे विवाहों के ऐसे गीत होते हैं।)

33  ई की मा तो ई नै ही जायो।

(इसकी माता नै तो इसे ही पैदा किया है अर्थात् यह अद्वितीय है।)

34.  उठे का मुरदा उठे बळैगा, अठे का अठे।

(एक स्थान की वस्तु किसी अन्य स्थान पर काम नहीं दे सकती।)

35.  उत्तर पातर, मैं मियां तु चाकर।

(उऋण होने में जो आत्म-संतोष है, उसके संबंध में गर्वोक्ति है।)

36.  उल्टो पाणी चीळां चढ़ै।

(जहाँ अनहोनी होती हो, वहाँ इस उक्ति का प्रयोग किया है।)

37.  ऊँखली में सिर दे जिको धमकां सैं के डरै।

(जिसको कठिन से कठिन काम करना है, विघ्नों से उसे डरने की आवश्यकता नहीं।)

38.  ऊतां कै के सींग होय हैं।

(मूर्खों के सींग नहीं होते।)

39. एक करोट की रोटी बळ उठै।

(रोटी यदि एक ही ओर रखी रहे हो जलने लगती है। जीवन में नवीनता की आवश्यकता है।)

40.  एक घर तो डाकण ही टाळ है।

(बुरे से बुरे व्यक्ति को भी कहीं न कहीं लिहाज रखना पड़ता है।)

41.  एक नन्नो सौ दुख हरै।

(एक नहीं कह देने से सौ दुःख दूर हो जाते हैं।)

42.  एक हाथ में घोड़ो, एक हाथ में गधो ।

(भलाई-बुराई दोनों मनुष्य के साथ हैं।)

43.  ऐं बाई नै घर घणा।

(योग्य पुरुष का सर्वत्र ही आदर होता है।)

44. ओछा की प्रीत कटारी सूं मरबो ।

(ओछे मनुष्य की प्रीति और कटारी से मरना दोनों समान हैं।)

45. ओसर चूक्या नै मोसर नहीं मिलै

(गया हुआ अवसर दुबारा हाथ नहीं आता।)

46. ओ ही काळ को पड़बो, ओ ही बाप को मरबो।

(विपत्तियाँ एक साथ आती हैं।)

47.  कंगाल छैल गांव नै भारी

(गरीब शौकीन गाँव के लिए भार स्वरूप होता है ।)

48. कनफड़ा दोन्यू दीन बिगाड्याँ।

(निकृष्ट साधु दोनों दीन से गये ।)

49. कबूतर नै कुवो ही दीखै ।

(गरीब अपनी रक्षार्थ शरणदाता के पास जाता है।)

50. कमजोर से हिमायती हारै।

(कमजोर का पक्ष लेने वाला हारता है।)

51.  कमाऊ आवै डरतो, निखट्टू आवै लड़तो।

(कमाऊ डरता हुआ आता है और निकम्मा लड़ता हुआ।)

52. कमेड़ी बाज नै कोनी जीतै।

(निर्बल सबल को नहीं जीत सकता।)

53. कळह कलासै पैंडै को पाणी नासै।

(गृह-कलह के कारण परींडे का पानी भी नष्ट हो जाता है क्योंकि घर में फूट पड़ने के कारण कुएं से पानी कौन लाये ?)

54. कसो हाक मार्यां कूवो खुदै है

(केवल चिल्लाने से काम नहीं होता, काम तो करने से ही होता है।)

55. कांदे वाला छीलका है, उचींदै जितणी ई बास आवै।

(बुराई की जितनी तह में जायेंगे, उतनी ही अधिक बुराई नजर आयेगी।)

56. कागलां कै काछड़ा होता तो उड़ता कै नीं दीखता।

 (गुण यदि मनुष्य में हो तो साफ दिखाई देते हैं।)

57. काटर कै हेज घणों ।

(दूध न देने वाली गाय अपने बछड़े से अधिक प्रेम दिखलाती है।)

58. काणती भेड़ को ग्वाड़ो ही न्यारो ।

(विशिष्ट पुरुषों में स्थान न मिलने के कारण निकृष्ट व्यक्ति अपना संगठन अलग कर लेते हैं।)

59.  काम अर लाम को बैर है।

(शीघ्रता करने से काम बिगड़ जाता है।)

60. काम की मा उरैसी, पूत की मा परैसी।

(काम करने वाला अच्छा लगता है, नहीं काम करने वाला सुन्दर और प्रिय भी अच्छा नहीं लगता।)

61. काळा कनै बैठया काट लागे

(दुर्जन का संग करने से कलंकित होना पड़ता है।)

62.  किसाक बाजा बजैं, किसाक रंग लागै।

कैसे बाजे बजते हैं, कैसे रंग खिलते हैं यानि भविष्य अनिश्चित है।

63.  कुकर क्यूं घुसै है, कै टुकड़ै खातर।

(ओछे आदमी की जरूरत उसके अनुरूप ही होती है।)

64.  कूवै में पड़कर सूको कोई बी नीकळै ना।

(कार्य के अनुरूप फल मिलता है।)

65.  के बेरो ऊँट कै करोट बैठे?

(भविष्य की असंदिग्धता पर क्या पता किस करवट बैठे ?)

66.  के अम्बर कै थेगली लगावैगो।

(क्या महान कार्य करेगा)

67.  कोड़ी कोड़ी करता बी लंक लागै है।

(कौड़ी-कौड़ी करके भी धन की बड़ी राशि खर्च हो जाती है।)

68. क्यूं आंधो न्यूतै, क्यूं दो बुलावै।

 (ऐसे काम नहीं करना चाहिए जिससे व्यर्थ का झंझट बढ़े।)

69. खर घूघू मूरख नरा सदा सुखी।

 (गधा, उल्लू और मूर्ख मनुष्य सदा सुखी रहते है, क्योंकि उनको किसी प्रकार की भी चिन्ता नहीं सताती।)

70.  खऴ गुड़ एकै भाव ।

(न्याय-अन्याय का कोई विचार नहीं।)

71.  खाज पर आंगळी सीदी जाय।

(अपनी कमजोरी की ओर पहले दृष्टि जाती है।

72.  खारी बेल की खारी तूमड़ी।

(वंशानुगत स्वभाव नहीं छूटता।)

73.  खावै पूणू, जीणै दूणू

(जो पूरा पेट न भर कर चतुर्थांश खाली रखता है, उसकी आयु दुगुनी हो जाती है।)

74. खिजूर खाय सो झाड़ पर चढ़ै।

(जिसे लाभ की आकांक्षा हो, वही खतरा मोल लेता है।)

75.  खेती धणियाँ सेती।

(खेती मालिक की निगरानी से ही फलदायिनी होती है।)

76.  खैरात बटै जठै मंगता आपै ही पूंच ज्यावै।

(जहाँ खैरात बंटती है, वहां भिक्षुक अपने आप ही पहुंच जाते हैं।)

77. खोयो ऊंट घड़ा में ढूंढे।

(यदि किसी मनुष्य की कोई चीज़ खो जाय, उसका नुकसान हो जाय अथवा यदि वह बुरी तरह ठगा जाय तो वह इतना विकल हो जाता है कि उसे संभव – असंभव का ज्ञान नहीं रहता।)

78.  समन्दर तूतिये में कोनी नावड़ै।

(समुद्र मिट्टी के छोटे-से बर्तन में नहीं समा सकता )

79. गई भू गयो काम, आई भू आयो काम।

(काम किसी के भरोसे नहीं रुकता।)

80. गैरी छाप पड़ी।

 (गहरा प्रभाव पड़ना)

81.  गणगोर्या नै ही घोड़ा न दौड़े तो कद दोड़ै?

(यदि मौके के दिन ही आनन्द न मनाया जाएगा तो कब मनाया जाएगा।)

82.  गधा नै घी कुण दे?

(निकृष्ट मनुष्य को अच्छी वस्तु कौन दे?)

83. गधा नै घी दियो तो कै आँख फोड़ै है।

(नासमझ के साथ उपकार करने का जो परिणाम होता है, उसके संबंध में यह उक्ति कही जाती है।)

84. गधेड़ो कुरड़ी पर रंजै।

(बुरे मनुष्य की तृप्ति बुरे स्थान पर ही होती है।)

85.  गरजवान की अक्कल जाय, दरदवान की सिक्कल जाय।

(जिसको किसी चीज की गरज होती है, उसमें उचित अनुचित का ज्ञान नहीं रह जाता। जो किसी दर्द से दुःखी है, उसके चेहरे का रंग जाता रहता है।)

86. गांव करै सो पगली करै।

(जो गाँव करता है, वही पगली करती है।)

87. गाडा नै देख कर पाडा का पग सूजगा।

(संकट को देखकर महीप के भी पैर सूज गये।)

88.  गाडै लीक सो गाड़ी लीक ।

 (छोटे बड़ों का ही अनुसरण करते हैं।)

89.  गादड़ै री मारयोड़ी सिकार नार थोड़ा ई खाय।

(उद्योगी पुरुष किसी की आशा नहीं करते ।)

90.  गीत में गाण जोगो ना, रोज में रोवण जोगो ना।

(सब तरह से निकम्मा।)

91. गुड़ गीलो हो तो मांखी कदेस की चाट ज्याती।

(यहाँ पोल नहीं है।)

92.  गुड़ देतां मरै, बीन झैर क्यूं देणूं?

(मीठे बोलने से काम चले, वहाँ कटु क्यों बोला जाय?)

93. गुण गैल पूजा ।

(गुणों के अनुसार प्रतिष्ठा होती है।)

94. गेर दी लोई तो के करैगो कोई?

(जब मर्यादा छोड़ दी तो कोई क्या कर लेगा)

95.  गैली सारां पैली।

(अयोग्य आदमी का हर काम टाँग अड़ाना।)

96. गोद को छोरो, राखणूँ दोरो।

(गोद लिये हुए लड़के का रखना बड़ा मुश्किल है)

97.  घटतोला मिठ बोला।

(जो कम तोलता है, वह मीठा बोलता है।)

98. घड़ै ही गडुओ, होगी भेर।

(काम का आरम्भ तो छोटे रूप में ही हुआ था किन्तु अन्त में जाकर उसने विस्तृत रूप धारण कर लिया।)

99.  घण जायां घण ओळमा, घण जायां घण हाण।

(अधिक बच्चों के होने से अधिक उपालम्भ मिलते हैं और गालियाँ सुननी पड़ती हैं।)

100.  घण जायां घण नास।

(सन्तान की अधिकता कुटुम्ब की एकता का नाश करती है ।)

101.  घण बूठां कण हाण।

(अधिक वर्षा अन्न का नाश करती है।)

102.  घण मीठा में कीड़ा पड़ै।

(अति प्रेम में अन्त में कभी-कभी कटुता बढ़ती देखी गई है।)

103. घणी सूधी छिपकली चुग-चुग जिनावर खाय।

(ऊपर से सीधा-सादा दिखलाई पड़ने वाला ही कभी कभी बड़ा घातक सिद्ध होता है।)

104. घणूं बळ भयाँ घूंडो पड़ै।

(खैंचातानी से वैमनस्य बढ़ जाता है।)

105. घर की आदी ई भली।

(विदेश की कमाई से घर की आधी कमाई ही अच्छी।)

106.  घर गैल पावणूँ या पावणा गैल घर।

(घर की जैसी हैसियत हो उसी के अनुरूप आतिथ्य सत्कार किया जा सकता है, मेहमान की हैसियत अनुसार नहीं।)

107.  घर-घर माटी का चूला।

(घर-घर सभी की सामान्य आर्थिक स्थिति है ।)

108  घर तो नागर बेल पड़ी, पाड़ोसण को खोसै फूस । (अपने पास सब कुछ होते हुए भी दूसरे की तुच्छ वस्तुओं को भी हड़पता है।)

109.  घी ढुल्यो मूंगां कै मांय।

(घी मूंगों में ही बिखरा, व्यर्थ नहीं गया।)

110.  घी खाणूं तो पगड़ी राख कर नीं खाणूं।

(घी खाना हो तो इज्जत रखकर नहीं खाना चाहिए।)

111.  घूमटा सैं सती नहीं, मंडाया सैं जती नहीं।

(कोई स्त्री घूँघट निकालने में ही सती नहीं हो जाती,और मूँड मुँडा लेने से ही कोई संन्यासी नहीं हो जाता ।)

112.  घोड़ी तो ठाण बिकै।

(गुणी की उपयुक्त जगह पर ही कीमत होती है।)

113.  घोड़ै की लागत सूं घोड़ो थोड़ी ही मरै।

(समान शक्ति वालों के पारस्परिक प्रहार से विशेष नुकसान नहीं होता।)

114.  चणा चाब कर कहै, म्हे चावल खाया, नहीं छान पर फूस, म्हे हेली सै आया।

(पास में कुछ नहीं और आडम्बर बहुत है ।)

115.  चणूं उछल कर किसो भाड़ नै फोड़ गेरसी।

(क्षुद्र व्यक्ति रुष्ट होकर भी कोई बड़ी क्षति नहीं कर सकता।)

116.  चतर नै चौगणी, मूरख नै सौ गणी।

(लक्ष्मी दूसरे के पास चतुर मनुष्यों को चौगुणी दिखलाई पड़ती है, और मूर्ख को सौ गुनी।)

117. चाए जिता पाळो, पाँख उगतां ही उड़ ज्यासी।

 (पक्षी के बच्चों को चाहे जितना पालो, पंख उगते ही वे उड़ जाएंगे।)

118.  चाकरी सैं सूं आकरी ।

(नौकरी सबसे कठिन है ।)

119.  चालणी में दूद दुवै, करमां नै दोस देवै।

(स्वयं मूखर्ता करता है और व्यर्थ में भाग्य पर दोषारोपण करता है।)

120. चावळा को खाणो फलसै ताँई जाणो।

(जो चावल खाता है, उसमें बल नहीं होता, वह केवल द्वार तक जा सकता है।)

121.  चिड़ा-चिड़ी की के लड़ाई, चाल चिड़ा मैं आई। (चिड़िया और चिड़े की परस्पर कैसी लड़ाई है? हे चिड़े! चलो मैं आई। यानि दम्पत्ति की लड़ाई स्थायी नहीं होती ।)

122.  चीकणै का सै लगवाऴ।

(धनवान से सभी लोग कुछ लेने की इच्छा करते हैं।)

123.  चीकणैं घड़ै पर बूंद न लागै, जै लागै तो चीठो।

(चिकने घड़े पर पानी नहीं ठहरता, पर मैल जम सकता है)

124.  चून को लोभी बातां सूं कद मानै

(आटे का लोभी बातों से कैसे मान सकता है?)

125.  चोखो करगो नाम धरगो ।

(जो अच्छा कर गया, उसका हमेशा के नाम हो गया।)

126.  चोरी को धन मोरी जाय।

(चोरी का धन लाभप्रद नहीं होता ।)

127.  च्यार दिना री चानणी, फेर अंधेरी रात।

(वैभव क्षणभंगुर है।)

128.  छाज तो बोलै सो बोलै पण चालणी बी बोलै जैं कै ठोतरसो बेज।

 (निर्दोष तो दूसरे को कुछ कह सकता है किन्तु जो स्वयं दोषी हो, वह दूसरे को क्या कह सकता है।)

129.  जगत को चोर, रोकड़ को रुखालो।

 (दूध को रखवाली, बिल्ली के सुपूर्द।)

130. जबान में ही रस अर जबान में ही विस।

 (बोली में ही रस है और बोली में ही विष रहता है।)

131. जल को डूब्यो तिर कर निकळै, तिरिया डूब्यो वह ज्याय।

 (जल का डूबा हुआ बच कर निकल सकता है, लेकिन जो नारी में आसक्त है, वह अवश्य डूब जाता है।)

132. जहर खायगो सो मरैगो।

 (जो जहर खायेगा, वह मरेगा।)

133. जां का मरग्या बादस्याह, रुलता फिरै वजीर।

 (जिनके बादशाह मर जाते हैं, उनके वजीर यों ही फिरते हैं। समर्थ स्वामी के अभाव में अनुचरों की दुर्दशा होती है।)

134. जावो कलकतै सूं आगै, करम छांवळी सागै।

 (कहीं चले जाओ, भाग्य साथ जाता है।)

135. जावो लाख, रहो साख।

 (चाहे लाखों रुपये चले जायँ, साख न जानी चाहिए।)

136. जी की खाई बाजरी, ऊँकी भरी हाजरी।

 (जिसका अन्न खाय, उसी की खुशामद की जाती है।)

137. जीबडल्याँ घर ऊजड़ैं जीवडल्यां घर होय।

 (कटु भाषा से घर उजड़ जाते है, मधुर भाषा से घर बस जाते हैं।)

138. जीवती माँखी कोन्या गिटी जाय।

 (जान-बूझकर कोई बुरा काम नहीं किया जा सकता।)

139. जुग देख जीणूं है।

 (समयानुसार चलना चाहिए।)

140. घर फूट्यां स्यार मरै।

 (संगठन टूटने से ही नाश होता है।)

141. जेठा बाजरा राम दे तो पावै।

 (ज्येष्ठ मास में बढ़ा हुआ बाजरा भाग्य से ही मिलता है।)

142. जेर सैंई सेर हुआ करै है।

 (छोटे बच्चों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, वे कालांतर में बलवान हो जाते हैं।)

143. जोजरै घड़े की जोजरी आवाज।

 (कमजोर घड़े की वैसी ही आवाज)

144. ज्यादा लाड सैं टाबर बिगड़ै?

 (अधिक लाड से बच्चे बिगड़ जाते हैं।)

145.  झगड़ै ही झगड़ै, तेरी कींणू तो देख।

 (तुम दूसरों से ही झगड़ते हो, अपने अवगुण तो देखो।)

146. झूठ की डागळा तांई दौड़।

 (झूठ की छत तक दौड़ होती है, झूठ अधिक नहीं चल सकती।)

147. झूठै की के पिछाण, कै बो सोगन खाय।

 (झूठे की क्या पहचान? और, वह सौगन्ध खाता है।)

148.  टकै की हांडी फूटी, दुष्ट री पिछाण हुई।

(हमारी तो थोड़ी-सी हानि हुई, किन्तु दुष्ट के स्वभाव का पता चल गया।)

149.  टुकड़ा दे दे बछड़ा पाल्या, सींग हुआ जद मारण चाल्या।

(टुकड़ा दे-देकर बछड़ों का पालन-पोषण किया, जब वे बड़े हुए तो मारने आये। यह उक्ति कृतघ्न आश्रितों के लिए है।)

150.  टूटी की बूटी कोनी।

(जब आयु शेष नहीं रह जाती तो कोई दवा काम नहीं देती ।)

151.  ठंडो लोह ताता नै काटै।

(शीलसम्पन्न मनुष्य अपने शील से दूसरे की उग्रता को दूर कर देता है।)

152.  ठांगर कै हेज घणूं, नापेरी कै तेज घणूं।

        (दूध न देने वाली निकम्मी गाय बछड़े के प्रति अधिक स्नेह करती है और उसके पीहर न हो, वह अधिक झल्लाती है।)

153.  ठाडै के धन को बोजो-बोजो रुखालो है।

शक्तिशाली के धन को कोई जोखिम नहीं

154.  ठालै बैठ्या काम नीं सरै।

(बेकार बैठे रहने से काम नहीं चलेगा ।)

155.  ठोकर खार हुंस्यार होय।

(मनुष्य ठोकर खाकर ही होशियार होता है।)

156.  डर तो घणै खाये को है।

(डर तो अधिक खाने में है।

157.  डाकण बेटा ले क दे?

(बुरे आदमी से भलाई की आशा नहीं की जा सकती।)

158.  डूंगर नै छाया कोनी होय।

(महापुरुषों की मदद करना साधारण आदमियों का काम नहीं, वे अपनी मदद स्वयं ही करते हैं या ईश्वर उनकी मदद करता है।)

159.  ढबां खेती, ढबां न्याव।

(ढंग से ही खेती होती है और ढंग से ही न्याय होता है ।)

160.  डींगा कतरा ही घलाले, पतासो एक घालूं ना।

       (बात चाहे जितनी करवालो किन्तु निहाल किसी को नहीं करूंगा।)

161.  तंगी में कुण संगी।

(जब पैसा पास में नहीं रहता तो कोई साथ नहीं देता ।)

162.  तवै की काची नै, सासरै की भाजी नै, कठेई ठोड़ कोनी।

(तवे पर जो रोटी कच्ची रह जाती है तथा जो स्त्री सुसराल से भग जाती है, इन दोनों का कहीं ठौर-ठिकाना नहीं रहता।)

163. ताता पाणी सै कसी बाड़ बलैं?

(केवल क्रोध भरे वाक्यों से किसी का अनिष्ट नहीं हो सकता ।)

164.  ताळी लाग्यां ताळो खुलै।

(युक्ति से ही काम होता है।)

165.  तावळी सो बावळी ।

(जो शीघ्रता करता है, वह पागल है।)

166.  तेल तो तिल्यां सूं ही निकलसी।

(तेल तो तिलों से ही निकलेगा।)

167.  थोथो चणो बाजै घणो।

(जिनमें गुण नहीं होते, वह ही बढ़-बढ़ कर बातें करते हैं।)

168.  थोथो संख पराई फूँक सैं बाजै।

(जिसमें स्वयं की बुद्धि नहीं होती, वह स्वतः कोई कार्य नहीं कर सकता।)

169. दलाल कै दिवाळो नहीं, महजीत कै ताऴो नहीं।

(दलाल के दिवाला नहीं होता, मस्जिद के ताला नहीं होता क्योंकि मस्जिद में रखा ही क्या है जो ताला लगाया जाये ?)

170  दिन दीखै न फूड़ पीसै।

(जब तक धूप नहीं निकलती, फूहड़ पीसना प्रारम्भ नहीं करती।)

171.  दुनिया देखे जसी कहदे।

(दुनिया जैसा देखती है, वैसा कह देती है।)

172.  दूध को दूध, पाणी को पाणी।

 (यथोचित न्याय।)

173. दूध भी राख, दुहारी भी राख।

 (इज्जत भी बनी रहे, पैसा भी बना रहे)

174. दूसरां को माल तूंतड़ा की धड़ में जाय।

 (दूसरों का धन लापरवाही से व्यय किया जाता है।)

175. देखते नैणां, चालतै गोडां।

(आँखों में देखने की तथा पैरों में चलते रहने की शक्ति रहते ही मृत्यु हो जाय तो सुखद है।)

176. देबा नै लेबा नै कीं नीं।

(देने-लेने के लिए कुछ नहीं है।)

177.  दोनूं हाथ मिलायां ही धुपैं ।

(दोनों ओर से कुछ झुकने पर ही समझौता होता है।)

178.  धन खेती, धिक चाकरी।

(खेती धन्य है, नौकरी को धिक्कार है।)

179  धानी धन की भूखी कै साका की?

(धानी धन की भूखी नहीं, वह स्पर्धा (होड़) की भूखी है।)

180.  धरम को धरम, करम को करम।

(जब स्वार्थ- परमार्थ दोनों सिद्ध हों।)

181.  धायो बड़ी बातां करै

(तृप्त व्यक्ति बाते बनाता है।)

182.  धीणोड़ी कै सागै हीणोड़ी मर ज्याय।

(दुधारी गाय के साथ बिना दूधवाली को कोई नहीं पूछता।)

183.  धोबी की हांते गधो खाय।

(निकृष्ट का धन निकृष्ट खाता है।)

184.  नंदी परलो-जद, कद होण बिणास।

(नदी-तट पर स्थित वृक्ष चाहे जब नष्ट हो जाता है।)

185.  नकटा नीं डरै।

(इज्जत वाला ही डरता है ।)

186.  न कोई की राई में, न कोई की दुहाई में।

(वह अपने काम से काम रखता है!)

187.  नगारां में तूती की आवाज कुण सुणै?

(जहाँ बड़े आदमियों की चलती है, वहाँ छोटों को कौन पूछता है?)

188.  नर नानेरै, घोड़ों दादेरै।

(आकृति-प्रकृति में पुरुष मातृकुल का अनुसरण करता है और घोड़ा पितृकुल का।)

189.  नरूका नै नरूको मारै, के मारै करतार

(जबरदस्त को या तो जबरदस्त ही मार सकता है या ईश्वर।)

190.  नांव मोटा, घर में टोटा।

(नाम बड़ा है किन्तु घर में तंगी है)

191.   नांव राखै गीतड़ा या भींतड़ा।

(मनुष्य का यश चिरस्थायी रहता है या तो काव्य-निर्माण से या भवन निर्माण से)

192.  नागा को लाय में के दाजै?

(नंगे का आग में क्या जले? अर्थात् नंगे के घर में आग लगती है, तब उसके घर में वस्त्रादि न होने के कारण उसका कुछ नहीं बिगड़ता।)

193.  नांव लेवा न पाणी देवा।

(उसके पीछे न उसका नाम लेने वाला है, न कोई पानी देने वाला है।)

194.  नाजुरतिये की लुगाई, जगत की भोजाई।

(सामर्थ्यहीन की लुगाई, जगत की भोजाई।)

195.  नानी कसम करै, दूयती नै डंड।

(नानी तो दूसरा पति करती है ओर दोहिती को दंड मिलता है।)

196.  नारनोल की आग पटीकड़ै दाजै।

(अपराध कोई करता है और फल किसी और को मिलता है।)

197.  निकळी होठां, चढ़ी कोठा।

(बात मुँह से निकलते ही सब जगह फैल जाती है।)

198.  नीत गैल बरकत है।

(ईमानदारी से ही धन की वृद्धि होती है।)

199. नेम निमाणा, धर्म ठिकाणा।

(नियम और धर्म नियमी और धर्मी के पास ही रहते हैं।)

200.  न्यारा घरां का न्यारा बारणा।

(अपने-अपने घर की अपनी-अपनी रीति होती है)

201.  पड़-पड़ कै ई सवार होय है।

(गलती करते-करते ही मनुष्य होशियार हो जाता है।)

202.  पर नारी पैनी छुरी, तीन ओड सैं खाय,

धन छीजै, जोबन हडै, पत पंचा में जाय ।

(परनारी पैनी छुरी के समान है। वह तीन ओर से खाती है-धन क्षीण होता है, यौवन का नाश करती है और लोकोपवाद होता है।)

203.  पांच आंगळिया पूंच्यो भारी।

(एकता में बल है।)

204.  पांचू आंगळी एक सी कोनी होय।

(सब भाई समान नहीं होते ।)

205.  पांव उभाणै जायसी, कोडीधज कंगाल ।

(धनी गरीब सभी मरने के समय नंगे पैर जायेंगे ।)

206.  पान पंड़तो यूं कहै, सुन तरुवर बनराय ।

इबका बिछड्या कद मिला, दूर पड़ांगा जाय ।।

(गिरता हुआ पत्ता कहता है कि हे तरुवर! अब दूर जा पडूंगा, पता नहीं बिछुड़ने पर फिर कब मिलना हो !)

207.  पाप को घड़ो भर कर फूटै।

(पाप अन्त में प्रकट हो ही जाता है।)

208.  पीरकां की आस करै, जकी भाईड़ा नै रोवै

(जहाँ से कुछ मिलने की आशा न हो, वहाँ से आशा रखना व्यर्थ है।)

209.  पीसो पास को, हथियार हाथ को।

(पास में हुआ पैसा और हाथ का हथियार ही समय पर काम देते हैं।)

210.  पुल का बाया मोती निपजै।

(अवसर पर किया हुआ काम ही फलदायी होता है।)

211.  पूत का पग पालणै ही दीख्यावै।

(बाल्यावस्था में ही बालक के भविष्य की कपल्पना कर ली जाती है।)

212.  पेट टूटै तो गोड़ा नै भारी ।

(पेट टूटता है तो घुटनों पर ही बोझ पड़ता है अर्थात् अपना कुपात्र अपने को ही भारी होता है।)

213.   फाड़णियै नै सीमणियूं कोनी नावड़ै।

(जहाँ बेहद खर्च होता हो, वहाँ कमाने वाला कहाँ तक कमाये।)

214.  बड़ै लोगां कै कान होय हैं, आँख नहीं।

(बड़े लोग सुनी हुई बात पर विश्वास कर लेते हैं, क्योंकि वे स्वत: जाँच-पड़ताल नहीं कर पाते ।)

215.  बड़े-बड़े गाँव जाऊ, बड़ा-बड़ा लाडू खाऊं ।

(मनुष्य को अपने परिश्रम का ही फल मिलता है, फिर भी वह अपनी आकांक्षाओं की तृप्ति के लिए हवाई किले बाँधता रहता है।)

216.  बदी को सिर नीचो।  

(बुराई करने वाले का सिर नीचा होता है। आखिर उसको लज्जित होना ही पड़ता है।)

217.  बदी राम बैर ।

(बुराई करने वाले का भगवान से बैर होता है।)

218.  बाड़ के सहारे दूब बधै।

 (कमजोर मनुष्य भी आश्रय पाकर बढ़ता है।)

219. बादल की छाया सैं कै दिन काम सरै।

 (बादल की छाया से कितने दिन काम चल सकता है।)

220. बाबो सै न लड़ै, बाबा नै कुण लड़ै?

 (बाबा सबको दोष देता है, बाबा को दोष कौन दे? बड़े छोटों को दोष देते हैं।)

221. बारह बरस तांई बेड़ी में रह्यो, घड़ी तांई थोड़ी ही तुड़ासी।

 (बारह बरस तक कैद में रहने के बाद अब मुक्त होने वाला है, इसलिए घड़ी भर के लिए निकल भागना कहाँ तक उचित है।)

222. बालक देखै हीयो, बूडो देखै कीयो ।

(बालक तो हृदय देखता है, प्रेम को पहचानता है, और अवस्था में बड़ा मनुष्य किये हुए काम को देखता है। उसे काम चाहिए, वह केवल भाव का भूखा नहीं ।)

223.  बावै सो लूणे।

(जो जैसा बोता है, वैसा काटता है।)

224.  बिड़दायां बळ आवै।

(प्रोत्साहनार्थ जब किसी की प्रशंसा की जाती है तो उसे व्यक्ति में बल का संचार होता है ।)

225.  बीगङ्योड़ा तीवण कोनी सुधरै ।

(बिगड़े हुए बच्चे नहीं सुधर पाते ।)

226.  बैम की दारू कोनी ।

(बहम की कोई दवा नहीं)

227.  भांखड़ी कै कांटा को आगड़ै तांई जोर।

(भांखड़ी एक छोटा गोक्षुरक पौधा का काँटा अपने उद्ग स्थान तक ही शरीर के अन्दर चुभ सकता है अर्थात वह बहुत छोटा है। यानि, परिमित साधन वाला मनुष्य किसी का बड़ा अहित नहीं कर सकता।)

228.   भाठै सैं भाठो भिड्यां बीज़ली चिमकै ।

(दो दुर्जनों की लड़ाई में नाश ही होता है।)

229.  भाण राड लडूंगी, कुराड नीं लडूंगी।

(हे बहिन! उचित झगड़ा, करूंगी, अनुचित नहीं ।)

230.  महंगो रोवै एक बार, सैंगो रोवै बार-बार

(जो महंगे दामों पर चीजें खरीदता है, वह एक बार कष्ट उठाता है और जो सस्ती चीजें खरीदता है उसे सदा हैरान होना पड़ता है।)

231. मतलब की मनुहार जगत जिमावै चूरमा।

(अपने स्वार्थ के लिए लोग दूसरों की खुशामद करते हैं।)

232.  मन कै पाळ कोनी।

(मन के मर्यादा नहीं होती।)

233.  मांटी की भींत डिगती बार कोनी लगावै

(मिट्टी की दीवार को गिरते देर नहीं लगती।)

234.  मा मरी आधी रात, बाप मर्यो परभात।

(विपत्ति पर विपत्ति आती है।)

235.  माया अंट की, विद्या कण्ठ की।

(अपने पास का ही पैसा काम आता है, विद्या भी जो कण्ठस्थ हो, वहीं मौके पर काम देती है।)

236. मारणूं ऊंदरो, खोदूणं डूंगर

(जरा से काम के लिए बहुत बड़ा कष्ट उठाना बेकार है।)

237. माल सैं चाल आवै।

(धन से ही चाल आती है।)

238.  मींडका नैं तिरणूं कुण सिखावै?

(मेंढक को तैरना कौन सिखलाता है अर्थात् कोई नहीं। यह उसका सहज गुण है।)

239. मूं लागी चाट कोन्या छूटै ।

(मुँह लगी हुई चाट नहीं छूटती ।)

240. मे बाबो आयो, सिट्टा-फळी ल्यावो।

(अत्यंत हर्षित होकर खेलते हुए बच्चे इस उक्ति का प्रयोग करते रहते हैं। वर्षा से ही सिट्टे तथा फलियाँ होती हैं।)

241.  मैं कै गलै छुरी

(अहंकार के गले छुरी।)

242.  यारी का घर दूर है।

(प्रेम निभाना बुहत मुश्किल है।)

243.  राख पत, रखाय पत।

(तुम दूसरों का आदर करोगे, तो वे भी तुम्हारी इज्जत करेंगे।)

244.  राड़ को घर हांसी, रोग को घर खांसी।

(हँसी-हँसी में लड़ाई-झगड़ा हो जाता है खाँसी सब रोगों की जड़ है।)

245.  रात च्यानणी, बात आँख्या देखी मानणी।

(रात तो चाँदनी ही अच्छी, आंखों देखी बात पर ही विश्वास करना चाहिए।)

246.  राम कहकर रहीम के कहणू?

(राम और रहीम एक ही हैं।)

247.  रूप की रोवै, करम की खाय।

(रूपवती स्त्री भी दुःखी रहती है किन्तु कुरूप स्त्री भी यदि भाग्यशालिनी हो तो उसे भोजन की कमी नहीं रहती।)

248. रोयां राबड़ी कुण घालै?

(केवल रोने से कुछ नहीं होता। परिश्रम करने से ही कुछ मिलता है।)

249. लंका में किसा दाळदी कोनी बसै।

लंका में क्या दरिद्र नहीं रहते ?)

250.  लंका में सै बावन हाथ का।

(यहां सभी चतुर हैं।)

251.  लागै जठै पीड़।

(आत्मीय के अहित होने पर आत्मीय को ही दुःख होता है ।

252.   लाडू की कोर चाखै जठे ही मीठी।

(प्रकृति के मधुर पुरुष सब तरह मधुर होते हैं।)

253.  लाम को अर काम को बैर है।

(जल्दी करने से काम बिगड़ जाता है।)

254.  लूण- फूट-फूट कर निकळै।

(जो नमकहराम होता है, उसे बुरा फल मिलता है।)

255.  लोहा लक्कड़ चामड़ां, पहळां किसा बखाण

         बहू बछेरा डीकरा, नीमटियाँ पखाण ।

(लोहा, लकड़ी, चमड़ा, इनका पहले कुछ पता नहीं चलता। बहू, घोड़े का बच्चा और लड़के, इन सबका वयस्क होने पर ही पता चलता है।)

256.  संवारता बार लागै, बिगाड़तां कोनी लागै ।

(किसी वस्तु को सुधारते देर लगती है, बिगाड़ते देरे नहीं।)

257.  सगलै गुण की बूज है।

(सभी जगह गुणों का आदर होता है।)

258.  सदा न जुग में जीवणूं, सदा न काला केस।

(हमेशा संसार में जीना नहीं होता और यौवन भी सदा स्थिर नहीं रहता।)

259.  सांच कहै थी मावड़ी, झूठ कहै था लोग।

         खारी लाग्यी मावड़ी, मीठा लाग्या लोग।

(माता का कहना सत्य निकला, अन्य लोग झूठ बोल रहे थे, किन्तु उस समय लोगों के शब्द मधुर जान पड़े और माता के शब्द कटु प्रतीत हुए।)

260. सांप कै मांवसियां की के साख?

(दुष्ट किसी का लिहाज नहीं करता।)

261.  सिर चढ़ाई गादड़ी गाँव ई फूँकै लागी।

        (दुर्जन को जब मुँह लगा लिया जाता है तो वह अनिष्ट करने लगता है।)

262.  सीखड़ल्याँ घर ऊजड़ै, सीखड़ल्या घर होय ।

(बुरी सीख से घर उजड़ जाता है, अच्छी सीख से घर  बस जाता है।)

263.  सोनै के काट कोन्या लागै।

(सज्जन के कलंक नहीं लगता।)

264.  हर बड़ा क हिरणा बड़ा, सगुणा बड़ा क श्याम । अरजन रथ नै हांक दे, भली करै भगवान ।

(हिरण का बायां आना अपशकुन समझा जाता है। हिरणों को बायीं ओर देखकर रथ हाँकने में अर्जुन को हिचकिचाहट होने लगी। इस पर किसी ने कहा, ‘जब भगवान अनुकूल हों तब शकुन का क्या देखना?’)

265.  हाँसी में खाँसी हो ज्याय।

(हँसी-हँसी में लड़ाई जो जाया करती है।)

266.  हाथियाँ की कमाई खातां मींडका की कद खाई।

(जो ऊंचे पद पर काम करके जीविकोपार्जन करता है, वह नीचे पद पर काम नहीं करता।)

267.  हारयो जुवारी दूणूं खेलै।

 (हारा हुआ जुआरी दुगुना खेलता है।)

268. होत की भाण अणहोत को भाई।

 (यदि किसी के पास धन होता है तब तो वह किसी को बहिन बनाता है, यदि स्त्री के पास कुछ नहीं होता तो वह दूसरे को अपना भाई बनाती है।)

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