लोक कलाएँ

लोक कलाएँ

● कलाएँ जीवन की सुरुचिपूर्ण अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम हैं। आमजन अर्थात् सभी लोगों के मध्य विकसित एवं संचारित कला को लोक-कला कहा जाता है। जनमानस की सांस्कृतिक इच्छाएँ एवं आकांक्षा जब कलात्मक सौन्दर्य के साथ सहज अभिव्यक्ति पाती है एवं उपलब्ध वस्तुओं की सहायता से अनूठे रूप में प्रस्तुत की जाती है तो वह लोक कला का स्वरूप ग्रहण करती है। राजस्थान की लोक कलाओं ने विश्व बाजार और कला प्रेमियों के मन में अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई हैं।

● आम इंसान के द्वारा बिना किसी ताम-झाम व प्रदर्शन से जब अपनी स्वाभाविक कलाकारी को चित्र संगीत नृत्य आदि के रूप में पेश किया जाता है, तो वह लोककला कहलाती है। वास्तव में लोककला ही संस्कृति की वास्तविक वाहक व प्रस्तुतकर्ता होती है।

फड़ चित्रण

● रेजी अथवा खादी के कपड़े पर लोक देवताओं की जीवन गाथाएँ, धार्मिक व पौराणिक कथाएँ व ऐतिहासिक गाथाओं के चित्रित स्वरूप को ही ‘फड़’ कहा जाता है।

● मोटे सूती कपड़े (रेजा) पर गेहूँ या चावल के मांड में गोंद मिलाकर कलफ पर पाँच या सात रंगों से बनी छ: ग्रामीणों के सरलतम विवरणात्मक क्रमबद्ध कथन का सुंदर प्रतीक है।

● फड़ चित्रण का मुख्य केन्द्र – शाहपुरा (भीलवाड़ा)  

● फड़ चित्रण का उद्गम मेवाड़ चित्रशैली के भित्ति चित्रण से माना जाता है।

 ● शाहपुरा (भीलवाड़ा) का जोशी परिवार फड़ चित्रण हेतु सम्पूर्ण देश में प्रसिद्ध है।

● श्रीलाल जोशी ने ‘फड़’ चित्रकला को राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई है। श्रीलाल जोशी को वर्ष 2006 में पद्‌मश्री से सम्मानित किया गया है।

● श्रीलाल जोशी के शिष्य जयपुर निवासी प्रदीप मुखर्जी ने फड़ शैली में नए प्रयोग कर महत्त्वपूर्ण पौराणिक आख्यानों (श्रीमद‌्‌भागवत, गीत-गोविन्द आदि) का चित्रण किया।

● वर्तमान में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त फड़ कलाकार – विजय जोशी।

● श्रीमती पार्वती जोशी – कन्हैयालाल जोशी की पत्नी, जो देश की प्रथम फड़ चितेरी महिला है।

विशेषताएँ-

● फड़ चित्रण में लाल व हरे रंग का प्रयोग किया जाता है।

● फड़ कथा में मुख्य चरित्रों की वेशभूषा लाल एवं खलनायक की वेशभूषा हरे रंग की होती है।

● चित्र संयोजन में मुख्य आकृति को सबसे बड़ा बनाकर प्रधानता दी जाती है।

● फड़ का वाचन ‘भोपों’ द्वारा किया जाता हैं।

● चातुर्मास में फड़ का वाचन नहीं होता है क्योंकि देवता सो जाते हैं। पुन: देवउठनी ग्यारस (कार्तिक शुक्ल ग्यारस) से फड़ चित्रण का कार्य आरम्भ हो जाता है।

● फड़ का वाचन प्राय: मनौती के रूप में किसी अनिष्ट की आशंका को दूर करने हेतु सामूहिक रूप से प्राय: देवी-देवताओं से संबंधित तिथि पर ही किसी खुली जगह या चौपाल में पूर्ण आस्था व श्रद्धा के साथ होता है।

● फड़ ठंडी करना :- फड़ के फट जाने या जीर्णशीर्ण हो जाने पर पुष्कर सरोवर में विसर्जित कर दिया जाना। इस अवसर पर भोपे समाज में ‘सवामणी’ का आयोजन करते हैं।

● फड़ चित्र का वाचन भोपों द्वारा किसी विशेष वाद्य यंत्र की सहायता से किया जाता हैं।

पाबूजी की फड़-

● फड़ वाचक जाति- ‘नायक’ या ‘थोरी जाति’ के भोपे।

● वाद्य यंत्र- रावणहत्था।

● सबसे लोकप्रिय फड़।

● इस फड़ में मुख के सामने ‘भाले का चित्र’ होता है एवं युद्ध के दृश्यों का चित्रांकन आकर्षक होता हैं।

● पाबूजी की घोड़ी ‘केसर कालमी’ को काले रंग से चित्रित किया जाता है।

● इस फड़ का वाचन रात्रि में किया जाता है।

देवनारायण जी की फड़-

● फड़ वाचक जाति- गुर्जर जाति के भोपे।

● वाद्य यंत्र- जंतर

● यह फड़ सबसे लम्बी (24 हाथ लम्बी), सबसे पुरानी, सर्वाधिक चित्रांकन वाली एवं सर्वाधिक समय लगने वाली फड़ है।

● देवनारायणजी की फड़ में 335 गीत हैं। जिनका लगभग 1200 पृष्ठों में संग्रह किया गया है एवं लगभग 1500 पंक्तियाँ हैं।

● फड़ के मुख के सामने सर्प का चित्र होता है तथा इनकी घोड़ी ‘लीलागर’ को हरे रंग से चित्रित किया जाता है। इस फड़ का वाचन दो या दो से अधिक भोपों द्वारा रात्रि में किया जाता हैं।

● श्रीलाल जोशी द्वारा बनाई गई देवनारायणजी की फड़ पश्चिमी जर्मनी के एक संग्रहालय में रखी हुई है।

● भारतीय डाक विभाग ने 1992 में देवनारायण जयन्ती के अवसर पर देवनारायण जी की फड़ पर 2 X 2 सेमी. के आकार में डाक टिकट जारी किया गया।

● देवनारायणजी की फड़ में नाट्य, गायन, मौखिक साहित्य, चित्रकला एवं लोकधर्म का अनूठा संगम मिलता है।

रामदेवजी की फड़-

● फड़ वाचक जाति- कामड़ जाति के भोपे।

● वाद्य यंत्र :- रावणहत्था।

● इस फड़ का सर्वप्रथम चित्रांकन चौथमल चितेरे ने किया।

● यह फड़ मेघवाल, कोली, चमार, बलाई तथा अन्य रामदेवजी की भक्त जातियों में प्रचलित है।

रामदला – कृष्णदला की फड़ :-

● फड़ वाचक जाति :- भाट जाति के भोपे।

● इस फड़ का वाचन बिना वाद्य यंत्र के किया जाता है।

● इस फड़ का सर्वप्रथम चित्रण  धूलजी चितेरे ने किया था।

● यह फड़ राम व कृष्ण भगवान के प्रसंगों पर आधारित होती है।

● इस फड़ का वाचन सर्वाधिक हाड़ौती अंचल में होता है।

● इस फड़ का वाचन दिन में होता है।

भैंसासुर की फड़-

 ● यह फड़ ‘बावरी’ या ‘बागरी’ जाति के लोग रखते हैं जो चोरी के लिए जाते समय शुगन के रूप में पूजते हैं।

● इस फड़ का वाचन नहीं किया जाता है।

साँझी

● साँझी श्राद्धपक्ष (भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या) में बनाई जाती है।

● साँझी बनाने की परम्परा भगवान श्रीकृष्ण ने प्रारम्भ की थी।

● राजस्थान में साँझी बनाने की परम्परा वृंदावन से आई।

● कुँवारी लड़कियाँ साँझी को पार्वती मानकर अच्छे घर व वर के लिए कामना करती है।

● अंतिम पाँच दिनों में बड़े आकारों में साँझी बनाई जाती है जिसे कोट साँझी कहते हैं।

● नाथद्वारा के श्रीनाथ के मंदिर में ‘केले की साँझी’ (कदली पत्तों की साँझी) बनाई जाती है जो सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध है।

● उदयपुर का मछन्दरनाथ मंदिर, साँझियोंके लिए प्रसिद्ध है, उसका नाम ही ‘संझ्या मंदिर’ पड़ गया है।

● जयपुर के लाडली जी का मंदिर में श्राद्ध पक्ष में प्रतिदिन आकर्षक साँझी बनाई जाती है।

पाने

● राजस्थान में विभिन्न पर्व त्योहारों एवं मांगलिक अवसरों पर कागज पर बने देवी-देवताओं के चित्रों को प्रतिष्ठित किया जाता है, जिन्हें ‘पाने’ कहा जाता है।

● ये पाने शुभ, समृद्धि व आनन्द के द्योतक माने जाते हैं।

● राजस्थान में लक्ष्मीजी, गणेशजी, राम-कृष्ण, श्रवण कुमार, श्रीनाथजी रामदेवजी, गोगाजी, देवनारायण जी, के पाने प्रमुख हैं।

● श्रीनाथ जी का पाना सबसे अधिक कलात्मक है, जिसमें 24 शृंगारों का चित्रण हैं।

● घर में सुख-समृद्धि व विवाह के अवसर पर गणेशजी के ‘पाने’ का प्रयोग करते हैं। दीपावली पर लक्ष्मीजी का पाना प्रयोग में लाया जाता है।

● पानों में गुलाबी, लाल एवं काले रंग का मुख्यत: प्रयोग किया जाता है।

मांडणा

● मांडणा का अर्थ – चित्रित अथवा लिखित चित्र।

● माण्डणे अत्यन्त सर, अमूर्त व ज्यामितीय शैली का सुंदर सम्मिश्रण हैं।

● ‘मांडणे’ श्री एवं समृद्धि के प्रतीक माने जाते हैं।

● सबसे छोटा मांडणा स्वस्तिक चिह्न होता है जो गणेशजी का प्रतीक है।

● ‘माडणा’ माँगलिक अवसरों पर महिलाओं द्वारा घर-आँगन को लीपपोत कर खड़िया, गेरू से अनामिका की सहायता से निर्मित किए गए ज्यामितीय अलंकरण है।

● विभिन्न क्षेत्रों में मांडणा के नाम –

 उत्तरप्रदेश  –  सोन या चौक पूरना

   गुजरात  – सातियाँ

  महाराष्ट्र  – रंगोली

   बंगाल  – अल्पना

  भोजपुरी – थापा

  तेलगु  – मोगु

  केरल  – अत्तापु

  तमिल  – कोलम

  बिहार – अरिपन

  ब्रज – सांझा

ताम

 ●  विवाह के समय लग्न मंडप में तैयार किया गया मांडणा।

चौकड़ी

● होली के अवसर पर बनाया गया मांडणा, जिसमें चार कोण होते हैं।

मोरडी

● दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान में मीणा जनजाति की महिलाओं द्वारा घरों में बनाई जाने वाली मोर की आकृति का मांडणा।

पगल्या

● मांडणे को पूजा-पाठ के अवसर पर आराध्य देव के घर में पर्दापण की अभिलाषा में उनके पदचिह्नों को प्रतीक रूप में तथा उनके स्वागत हेतु घर के आँगन व पूजा के स्थान पर चित्रित किया जाता है। राजस्थान के मांडणों में इनका चित्रण सर्वाधिक होता हैं।

गोदना

● किसी तीखे औजार से शरीर की ऊपरी चमड़ी खोदकर उसमें काला रंग भरने से चमड़ी में पक्का निशान बन जाता है, जिसे गोदना कहा जाता है।

● गोदने की कला का आरम्भ भगवान श्रीकृष्ण ने किया था।

● गोदना सौंदर्य के साथ अंधविश्वासों से भी जुड़ा हुआ है। माना जाता है कि अनगुदा शरीर असुरक्षित होता है।

● गोदने के अलंकरण जाति विशेष व रुचि पर आधारित होते हैं।

मेहंदी

● मेहंदी महिलाओं के सौन्दर्य प्रसाधन की प्रमुख रचनाओं में गिना जाता है। राजस्थान में मेहंदी को सुहाग एवं सौभाग्य का शुभ चिह्न माना जाता है।

● राजस्थान में मेहंदी के लिए सोजत (पाली) प्रसिद्ध है।

पथवारी

● राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में पथवारी निर्माण की परम्परा सभी जगह दृष्टिगोचर मिलती है। गाँवों में पथरक्षक के रूप में पूजे जाने वाले स्थल को पथवारी कहा जाता है।

● पथवारी में एक ओर काला-गौरा भैरु जी एवं दूसरी ओर कावड़िया वीर (श्रवण कुमार) के चित्र होते हैं। तीर्थ यात्रा पर जाते समय इसकी पूजा की जाती है।   

देवरे

● खुले चबूतरे पर निर्मित मंदिर, जिनकी आकृति त्रिकोणात्मक होती हैं।

● राजस्थान में विभिन्न क्षेत्रों में रामदेवजी, गोगाजी, भैरुजी, तेजाजी आदि के देवरे देखने को मिलते हैं।

थापे

● महिलाओं द्वारा ग्रामीण क्षेत्र में विभिन्न त्योहार व उत्सवों पर परम्परागत रंगों द्वारा किया गया चित्रण ‘थापा’ कहलाता है।

● ‘थापों’ में राजस्थानी धर्म-संस्कृति के प्रतीक देवी-देवताओं के आदर्श स्वरूप परिलक्षित होते हैं।

पिछवाई

● श्रीनाथजी के स्वरूप के पीछे बड़े आकार के कपड़े के पर्दों पर किया गया चित्रण, ‘पिछवाई’ कहलाता है। यह नाथद्वारा चित्रशैली की मौलिक देन है।

● पिछवाई चित्रण का प्रमुख विषय ‘श्रीकृष्ण-लीला’ है।

बटेवड़े या थापड़ा

● सूखे उपलों (गोबर) को सुरक्षित रखने के लिए बनाई गई आकृतियाँ।

वील

 ● ग्रामीण अंचलों में महिलाओं द्वारा गृह सज्जा एवं दैनिक उपयोग की चीजों को सुरक्षित करने के लिए निर्मित मिट्‌टी की महलनुमा चित्रित कलाकृति। मेघवाल जाति की महिलाएँ इस कला में दक्ष होती हैं।

सोहरियाँ

  ● भोजन सामग्री रखने के मिट्‌टी के बने कलात्मक पात्र।

भराड़ी

● भील जनजाति में लड़की के विवाह पर घर की दीवार पर बनाया जाने वाला लोक देवी भराड़ी का मांगलिक चित्र। यह चित्र घर के जंवाई द्वारा चावल के विविधरंगी गोल से बनाया जाता है।

घोड़ा बावसी

● मिट्‌टी के बने कलात्मक घोड़े, जिनकी आदिवासी भील, गरासियों में बड़ी मान्यता है। मनौती पूर्ण होने पर इन्हें पूजकर इष्ट देवता के चढ़ाया जाता है।

हीड़

● मिट्‌टी का बना हुआ पात्र, जिसमें ग्रामीण अंचलों में दीपावली के दिन बच्चे तेल व रूई के बिनौले जलाकर अपने परिजनों के यहाँ जाते हैं और बड़ों का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।

ठप्पा

● देवी-देवताओं की छाया को धातु पर उतारकर उनके छोटे-छोटे ठप्पे या फूल बनाना, जो गले में पहने जाते हैं।

अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य

● नारियल की कलात्मक चूड़ियाँ (पट्‌टे) बनाने का काम भीलवाड़ा व कपासन (चित्तौड़गढ़) में होता है।

● जूट की गुड़ियाँ, पर्स, जूते आदि बनाने का काम दीनानाथ जी की गली जयपुर में होता है।

● हड्डियों की चूड़ियाँ, आभूषण एवं अन्य सजावटी सामान बनाने का कार्य जयपुर में होता है।

● अंता (बाराँ) में कण्ठियाँ (मालाएँ) बनाने का काम बहुतायत से होता है।

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