राजस्थान के प्रमुख वाद्य यंत्र
● राजस्थान में लोक संगीत, लोक नृत्य एवं लोक नाट्यों का प्रचलन सम्भवत: सैकड़ों वर्षों से है। बिना वाद्य संगीत सूना है। प्राचीन काल से ही वाद्य यन्त्रों का सम्बन्ध देवी-देवताओं के साथ स्थापित किया जाता रहा है, जैसे कृष्ण के साथ बांसुरी, सरस्वती के साथ वीणा, शिव के साथ डमरू, नारद के साथ एकतारा आदि। हमारे लिए यह उचित होगा कि हम राजस्थान के ग्रामीण अंचलों में सुदीर्घ काल से प्रचलित वाद्य यन्त्रों का परिचय प्राप्त करें।
● सामान्यजन में प्रचलित वाद्ययंत्र को ‘लोक वाद्ययंत्र’ कहा जाता है।
● लोक वाद्ययंत्रों को सामान्यतः चार प्रकार से जाना जा सकता है
(1) तत् वाद्ययंत्र (2) घन वाद्ययंत्र
(3) अवनद्ध वाद्ययंत्र (4) सुषिर वाद्ययंत्र
घन वाद्ययंत्र – चोट,आघात से स्वर उत्पन्न करने वाले वाद्ययंत्र मंजीरा, झांझ, रमझौल, करताल, खड़ताल, झालर, घुँघरू घुरालियां, भरनी, श्रीमंडलकागरच्छ, लेजिम, तासलीडांडिया, घंटा |
अवनद्ध – चमड़े से मढ़े हुए लोक वाद्ययंत्र चंग, डफ, धौंसा, तासा, खंजरी, मांदल, मृदंग, पखावज, डमरू, ढोलक, नौबत, दमामा, टामक (बंब), नगाड़ा |
सुषिर वाद्ययंत्र – जो वाद्ययंत्र फूँक से बजते हो बाँसुरी, अलगोजा, शहनाई, पूंगी, सतारा, मशक, नड़, तरपी, कानी, मोरचंग, सुरणाई, भूंगलमुरली, बांकिया या नागफनी, करणा, टोटो, तुरही |
तत् वाद्ययंत्र – तारों के द्वारा स्वर उत्पन्न करने वाले वाद्ययंत्र जन्तर, इकतारा, रावणहत्था, चिंकारा, सारंगी, कामायचा, सुरिन्दा, रबाज, तन्दूरा, रबाब, दुकाको, भपंग, सुरमण्डल, केनरा, पावरा |
घन वाद्ययंत्र
● ये वाद्ययंत्र धातु से निर्मित होते हैं, जिनको आपस में टकराकर या डण्डे की सहायता से बजाया जाता हैं।
घुँघरू
● लोक नर्तकों एवं कलाकारों का प्रिय वाद्ययंत्र ‘घुँघरू’ पीतल या काँसे का बेरनुमा मणि का होता है। इसका नीचे का भाग कुछ फटा हुआ होता है तथा अन्दर एक लोहे, शीशे की गोली या छोटा कंकर डाला हुआ होता है जिसके हिलने से मधुर ध्वनि निकलती है।
● भोपे के कमर में बाँधने वाले घुँघरू काफी बड़े होते हैं।
● बच्चों की करघनी तथा स्त्रियों की पायल आदि गहनों में लगने वाले घुँघरू बहुत छोटे होते हैं। उनमें गोली नहीं होती वरन् परस्पर टकराकर ही छम-छम ध्वनि करते हैं। नर्तक (स्त्री-पुरुष) के पैरों में घुँघरू होने से छम-छम की आवाज बहुत मधुर लगती है।
करताल (कठताल)
● नारद मुनि के नारायण-नारायण करते समय एक हाथ में इकतारा तथा दूसरे साथ में करताल ही होती है।
● यह युग्म साज है।
● हाथ (कर) से बजाए जाने के कारण ‘करताल’ तथा लकड़ी की बनी होने के कारण इसे ‘कठताल’ कहते हैं।
● राजस्थान के लोक कलाकार इन्हें इकतारा व तंदूरा की संगत में बजाते हैं।
● इसके एक भाग के बीच में हाथ का अँगूठा समाने लायक छेद होता है तथा दूसरे भाग के बीच में चारों अँगुलियाँ समाने लायक लम्बा छेद होता है। इसके ऊपर-नीचे की गोलाई के बीच में, लम्बे-लम्बे छेद कर दो-दो झांझे बीच में कील डालकर पिरोई जाती हैं। दोनों भागों को अँगूठे और अँगुलियों में डालकर एक ही साथ में पकड़ा जाता है तथा मुट्ठी को खोलने-बंद करने की प्रक्रिया से इन्हें परस्पर आघातित करके बजाया जाता है।
● बाड़मेर क्षेत्र में इसका वादन गैर नृत्य में किया जाता है।
● ‘खड़ताल’ लोक वाद्ययंत्र इससे भिन्न है।
रमझौल
● लोक नर्तकों के पाँवों में बाँधी जाने वाली घुँघरूओं की चौड़ी पट्टी ‘रमझौल’ कहलाती है।
● रमझौल की पट्टी पैर में पिण्डली तक बाँधी जाती है।
● राजस्थान में होली के अवसर पर होने वाले नृत्य, उत्सव तथा ‘गैर’ नृत्यों में इसका प्रयोग किया जाता है।
● गौडवाड़ क्षेत्र के लोक-नर्तक ‘समर नृत्य’ करते समय पाँवों में रमझौल तथा हाथों में तलवारे लेकर नाचते हैं। इसमें युद्धकला के भाव भी दिखाए जाते हैं।
● मवेशियों के गले में बाँधी जाने वाली रमझौल को ‘घूँघरमाल’ कहा जाता है।
लेजिम
● ‘लेजिम’ गरासिया जाति के लोगों का वाद्ययंत्र है। इसका वादन वे नाच-गान के आयोजनों में करते हैं।
● बाँस की धनुषाकार बड़ी लकड़ी में लोहे की जंजीर बाँध दी जाती है और उसमें पीतल की छोटी-छोटी गोल-गोल पत्तियाँ लगा दी जाती है।
टंकोरा/टिकोरा/घंटा/घड़ियाल
● यह वाद्ययंत्र काँसे, ताँबे, जस्ते के मिश्रण से बनी एक मोटी गोल पट्टिका होता है। इसे आगे-पीछे हिलाते हुए, लकड़ी के डंडे से बजाया जाता हैं।
● इसके अन्य नाम घंटा, घड़ियाल भी है।
● हर घण्टे बजने व समयसूचक होने से ‘घंटा-घड़ियाल’ तथा टन-टन आवाज में बजने से ‘टंकोरा’ कहलाया।
वीर घंटा
● घंटा धातु से बना भारी व दलदार घंटा। घंटे के मध्य भाग में एक छोटी सी घण्टी लगी रहती है। इसे हाथ या रस्सी से हिलाने पर घण्टे के भीतरी भाग पर आघात करने से ध्वनि निकलती है।
● मुख्यतः मंदिरों में बजने वाला वाद्ययंत्र।
श्रीमण्डल
● राजस्थान के लोक वाद्यों में यह बहुत पुराना वाद्ययंत्र माना जाता है।
● खड़े झाड़नुमा इस वाद्ययंत्र में चाँद की तरह के गोल-गोल छोटे-बड़े टंकोरे लटकते हुए लगे रहते हैं।
● इसका वादन मुख्यतः वैवाहिक अवसरों पर बरात के समय में किया जाता है।
● हाथों में दो पतली डंडी लेकर बजाए जाने वाला यह वाद्ययंत्र ‘तरंग वाद्ययंत्र’ है।
झालर
● प्रदेश के देव मंदिरों में प्रात: सायं आरती के समय बजाई जाने वाली ‘झालर’ खड़ी किनारों की छोटी थाली होती है। इसका निर्माण ताँबा, पीतल, जस्ते इत्यादि मिश्र धातुओं की मोटी परत से किया जाता है।
मंजीरा
● मंजीरा डूँगरपुर क्षेत्र का प्रसिद्ध वाद्ययंत्र है। यह पीतल व कांसे की मिश्रित धातु का गोलाकार रूप होता है। दो मंजीरों को आपस में घर्षित करके ध्वनि उत्पन्न की जाती है। यह निर्गुण भजन और होली के गीत के साथ तथा तन्दूरे एवं इकतारे के साथ भी बजाया जाता है। रामदेवजी के भोपे, कामड़ जाति एवं तेहर ताली नृत्य में मंजीरों का प्रयोग किया जाता है।
झाँझ
● इसका प्राचीन नाम कांस्यताल है।
● यह शेखावाटी क्षेत्र का प्रसिद्ध वाद्य है। इसका आकार मंजीर से बड़ा होता है। इसे कच्छी घोड़ी नृत्य में ताशे के साथ बजाते हैं।
चिमटा (चींपीया)
● जन सामान्य द्वारा भजन कीर्तन तथा भक्ति संगीत में बजाया जाने वाला ‘चिमटा’ वाद्ययंत्र रसोईघर के चिमटे के आकार-प्रकार में बड़ा होता है।
● एक बड़ी-लम्बी पत्ती को दोहरा मोड़कर, पीछे के भाग में कड़ा डालने की गोलाई रखते हुए इसे बनाया जाता है। इसकी पत्ती सामान्य चिमटे की पत्ती से कुछ मोटी होती है।
● इन पत्तियों के बाहरी तरफ, करीब दो-दो इंच के फासले से कीलें लगाकर उनमें खंजरी जैसी झांझें डाली जाती हैं। इनकी संख्या प्रायः छह-छह होती हैं।
● इसको बजाने के लिए एक हाथ में कड़े वाले भाग को पकड़ा जाता है तथा दूसरे हाथ के अँगूठे तथा अँगुलियों से दोनों परों को परस्पर टकराया जाता है। इससे छम-छम की आवाज होती रहती है। प्रायः ढोलक व मंजीरा की संगत में बजाया जाता है। फेरी वाले साधुलोग भी इसे बजाते हुए भजन-कीर्तन करते भिक्षाटन करते हैं।
● इसे ‘डूचको’ भी कहा जाता है।
हांकल
● इस वाद्ययंत्र का प्रयोग आदिवासियों के धर्मगुरु भोपा लोगों द्वारा उनके देवी-देवता या इष्ट को प्रसन्न करने अथवा उनके प्रकोप को शान्त करने बाबत की जाने वाली उपासना के समय किया जाता है। यह उपासना एक प्रकार से तांत्रिक क्रिया जैसी होती है। ‘हांकल’ शब्द सांकल का ही देशज नाम है।
● यह, पाँच छह लोहे की (कुछ लंबी) शृंखलाओं का झुमका (झुण्ड-समूह) होता है, ये सांकलें लोहे की एक मोटी कड़ी में पिरोई जाकर लटकती रहती हैं। सांकलों के आगे तीखी-तीखी पत्तियाँ भी लगी रहती हैं। मोटी कड़ी के ऊपर एक दस्तानुमा (हैण्डल) लंबी कड़ी लगाई जाती है जिसे हाथ में पकड़कर इसका प्रयोग किया जाता है।
● उपासना के समय भोपे लोग इसे हाथ में पकड़कर इष्ट के आगे खड़े हो जाते हैं फिर सांकलों और पत्तियों को अपनी गर्दन के पीछे जोर-जोर से मारते हैं। उस समय भोपों का उत्साह अत्यन्त उग्र एवं प्रचण्ड हो जाता है। पत्तियों और सांकलों के निरन्तर जोर-जोर के आघात से बड़ी कर्कश ध्वनि उत्पन्न होती है। इससे वातावरण में एक भयावह संगीत का सृजन होता रहता है।
डांडिया
● राजस्थान के लोकनृत्य ‘घूमर’, ‘गैर’, ‘गीदड़’ तथा गुजरात के ‘गरबा’ नृत्य करते समय बजाई जाने वाली दो छोटी-पतली लकड़ियाँ काम आती हैं। इन्हें ही डांडिया के नाम से जाना जाता है।
● ‘डांडिया’ नामक इस लौकिक युग्म साज की डंडिया प्रातः बाँस, बबूल, कैर अथवा खैर की सूखी पतली लकड़ियाँ होती हैं।
● होली त्योहार तथा नवरात्र के दिनों में ‘डांडिया गैर’ का आयोजन किया जाता है।
खड़ताल
● खड़ताल शब्द करताल से बना है। बाड़मेर क्षेत्र के प्रसिद्ध कलाकार सद्दीक खाँ खड़ताल बजाने में दक्ष है, इन्हें खड़ताल का जादूगर भी कहा जाता है। खड़ताल कैर व बबूल की लकड़ी से बना होता है। इसमें दो लकड़ी के टुकड़ों के बीच में पीतल की छोटी-छोटी तश्तरियाँ लगी रहती है। खड़ताल को इकतारा से बजाया जाता है। भक्तजनों व साधु-संतों द्वारा खड़ताल का प्रयोग किया जाता है।
● खड़ताल का जादूगर – सदीक खाँ ‘मिरासी’ (झांफली, बाड़मेर)
घड़ा/मटका/घट
● प्रभावशाली प्राकृतिक वाद्ययंत्र माना जाता है।
● इसे गोद में रखकर एक हाथ की अँगुलियों से तबले की तरह तथा दूसरे हाथ की हल्की थाप से लयात्मक ध्वनि तथा गातें बजाई जाती है। कभी-कभी अँगुलियों में धातु की अँगुठियाँ भी पहनी जाती है।
● इसका मुख बहुत संकुचित होने के कारण अन्दर हवा का दबाव रहता है, इसलिए इसे बजाते समय बीच-बीच में हथेली से इसके मुँह पर बड़ी अद्भुत रीति से हल्का आघात किया जाता है जिससे ‘भम्-भम्’ की आकर्षक ध्वनि उत्पन्न होती है।
अवनद्ध वाद्ययंत्र
● ऐसे वाद्यों को ‘चमड़े’ से मढ़कर बनाया जाता है, जिसे हाथ या डण्डे की सहायता से बजाया जाता है।
चंग
● शेखावाटी क्षेत्र में होती के अवसर पर चंग वाद्य बजाया जाता है, जो लकड़ी के गोल घेरे के रूप में होता है। चंग में एक तरफ बकरे की खाल होती है, जिसे दोनों हाथों से बजाया जाता है। चंग को कालबेलियाँ जाति के व्यक्ति बजाते है।
घेरा
● ‘घेरा’ वाद्ययंत्र इस प्रदेश के लोक संगीत के चंग, डफ आदि वाद्यों की श्रेणी का अन्य वाद्ययंत्र है। इसका घेरा (वृत्त) चंग से बड़ा तथा ‘अष्ट कोणी वृत्ताकार’ होता है। यह लकड़ी की आठ नौ इंच लम्बी तथा पाँच-छह इंच चौड़ी पट्टियों को परस्पर जोड़कर बनाया जाता है।
● यह मेवाड़ क्षेत्र के मुसलमानों का प्रमुख वाद्ययंत्र है।
ढफ/ढप/डफ
● यह वाद्ययंत्र चंग से मिलती-जुलती आकृति का पर उससे बड़ा होता है। इसका घेरा लोहे की परत से बनाया जाता है। घेरे का व्यास करीब तीन फुट या इससे अधिक होता है।
● चंग की तरह इसके घेरे का एक मुख बकरे की खाल से मढ़ा जाता है लेकिन चमड़े को घेरे पर चिपकाया नहीं जाता वरन् चमड़े की बन्दी (पतली डोरी) से घेरे के चारों ओर कसकर बाँध दिया जाता है।
● कोटा, झालावाड़ क्षेत्र के लोग इसे बजाकर होली के दिनों में इसकी आवाज के साथ नाच गान करते हैं।
खंजरी
● राजस्थान में खंजरी वाद्ययंत्र का प्रचलन कालबेलियों व जोगियों में अधिक है लेकिन भजन-कीर्तन के आयोजनों में भी इसका प्रचलन आम तौर पर देखा जाता है।
● चंग या डफ की तरह इसका एक मुख चंदन-गौह या बकरी की खाल से मढ़ दिया जाता है। घेरे की गोलाई में लंबे-लंबे छेद कर उनमें छोटी-छोटी दो-दो, तीन-तीन, झांझें (पीतल की चकरियाँ) कील लगाकर पिरो दी जाती है। हाथ की थाप से वादन करते समय इन झाँझेंसे छन्-छन् की मधुर झंकार होती रहती है।
● ट्रेन में अक्सर कलाकार को गीत के साथ ‘खंजरी’ बजाते देखा होगा।
● खाल से मंडित होने के कारण यह अवनद्ध वाद्ययंत्र माना जाता है तथा झाँझें या घुँघरू संलग्न कर देने के कारण इसमें घन वाद्ययंत्र के लक्षण भी सम्मिलित हो गए हैं।
नगाड़ा
● नगाड़ा दो प्रकार का होता है और छोटा और बड़ा। छोटे नगाड़े के साथ नगाड़ी भी होती है। बड़ा नगाड़ा धातु की लगभग चार-पांच फुट गहरी अर्द्ध अंडाकार कुंडी को भैंसे की खाल मंढकर चमड़े की डोरियों से कसा जाता है। इसे बम या टामक भी कहते हैं।
● लोक नाट्यों में नगाड़े के साथ शहनाई बजाई जाती है। लोक नृत्यों में नगाड़ा की संगत के बिना रंगत नहीं आती है। यह युद्ध के समय अधिक बजाया जाता था।
टामक/बंब/बम
● टामक वाद्ययंत्र इस प्रदेश के लोक वाद्यों में सबसे बड़ा वाद्ययंत्र है। यह अवनद्ध श्रेणी का भांड वाद्ययंत्र है (Kettle Drum) जो एक बहुत बड़ा नगाड़ा होता है। इसका ढाँचा लोहे की मोटी परतों को जोड़कर, बड़ी कड़ाही की तरह बनाया जाता है। इसके मुख का व्यास करीब चार फुट तथा गहराई भी चार फुट के करीब होती है। इसके पैंदे वाले भाग की गोलाई क्रमशः छोटी होने के कारण यह खड़े अण्डे की शक्ल में लगता है।
● इसके मुख पर भैंस के मोटे चमड़े की (परत) पुड़ी, गजरा (कुण्डल) बनाकर नगाड़े की तरह मढ़ी जाती है। पुड़ी को चमड़े की बद्धी (डोरी) से चारों ओर खींच कर बाँधा जाता है।
● ताल वाद्यों में यह सबसे बड़ा वाद्ययंत्र है। इसे तिपाही पर रखकर दो डंडों से आघातित कर बजाया जाता है। प्राचीन काल में इस वाद्ययंत्र को दुर्ग की प्राचीर आदि पर रखकर या युद्ध स्थल में बजाया जाता था।
● वर्तमान में इसका वादन, अलवर, भरतपुर, सवाई-माधोपुर क्षेत्र में बसंत पंचमी एवं होली के उत्सवों पर गुर्जर, जाट, अहीर आदि पुरुष-महिलाओं के नृत्य-गायन के साथ किया जाता है। ढोलक, मंजीरा, चिमटा, झील आदि इसकी संगत में बजाए जाते हैं।
● इसे बंब और धौंसा भी कहा जाता है।
नौबत/नौपत
● एक छोटी नगाड़ी और दूसरा बड़ा नगाड़ा जो प्रायः शहनाई के साथ बजाया जाता है, इस युग्म वाद्ययंत्र को नौबत या नौपत कहा जाता है।
● बड़े नगाड़े को नर तथा छोटे को मादा कहा जाता है।
● मादा पर मढ़ी जाने वाली खाल की झिल्ली पतली होती है। इस कारण इसका स्वर ऊँचा तथा आवाज पतली होती है।
● नर पर मढ़े जाने वाली खाल की झिल्ली मोटी होती है। इस कारण इसका स्वर नीचा तथा आवाज गंभीर होती है।
● इसका वादन लकड़ी की नोकदार दो डंडियों से किया जाता है।
कुंडी
● चाक पर बनी मिट्टी की सामान्य कुंडी (कुंडा का छोटा रूप) के ऊपरी भाग पर बकरे की खाल का मढ़ाव होता है। वादक इसे दो छोटी डंडियों के माध्यम से बजाते हैं। इसे आदिवासी नृत्यों के साथ बजाई जाती है। राजस्थान के आदिवासी बाहुल्य (खासतौर से मेवाड़ व सिरोही) क्षेत्र में प्रयुक्त।
ताशा
● ताशा को ताँबे की चपटी परत पर बकरे का पतला चमड़ा मढ़कर बनाया जाता है और इसे बाँस की खपच्चियों से बजाया जाता है। इसे मुसलमान लोक अधिक बजाते हैं।
ढोलक
● इस वाद्ययंत्र को आम, शीशम, सागवान, नीम, जामुन आदि की लकड़ी से बनाया जाता है।
● इस वाद्ययंत्र के दोनों मुख पर बकरे की खाल मढ़ी रहती है। यह खाल डोरियों द्वारा कसी जाती है। डोरियों में छल्ले रहते हैं, जो खाल और डोरियों को कसते हैं।
● इसे बजाते समय दोनों हाथों का प्रयोग किया जाता है।
पाबूजी के माटे
● दही बिलौने की मथनी जैसा बड़े मुख वाला मिट्टी का बड़ा मटका या पात्र जिसे ‘भांड-वाद्ययंत्र’ भी कहा जाता है।
● यह युग्म वाद्ययंत्र है, जिसके दोनों पात्र बराबर होते हैं।
● पश्चिमोत्तर राजस्थान के जोधपुर, नागौर, बीकानेर क्षेत्र के रेबारी, थोरी, नायक (भील) जाति के लोग इस वाद्ययंत्र को बजाकर लोक देवताओं (पाबूजी आदि) के ‘पावड़े’ गाते हैं।
● इन दोनों वाद्ययंत्रों को अलग-अलग दो व्यक्ति बजाते हैं।
ढोल
● राजस्थानी लोक वाद्यों में ढोल महत्त्वपूर्ण है।
● इसके लोहे या लकड़ी के गोल घेरे पर दोनों ओर चमड़ा मढ़ा होता है।
● इसे मांगलिक अवसरों पर अधिक बजाते हैं।
● भीलों के गैर नृत्य, शेखावाटी के कच्छी घोड़ी नृत्य और जालौर के ढोल नृत्य में विशेष रूप से इसका प्रयोग होता है।
डेरू
● डमरू से कुछ बड़ा पर ढोल से छोटा यह अवनद्ध वाद्ययंत्र समूह का एक विशेष वाद्ययंत्र है। इसकी आकृति डमरू जैसी लगती है, इसके दोनों सिरे के मुँह चमड़े से मढ़े जाते हैं। इसे बजाने हेतु पतली छोटी लकड़ी जिसका एक सिरा कुछ मुड़ा हो उसे काम में लिया जाता है।
● माताजी, गोगाजी एवं भैरुजी के भोपे, इन लोक देवताओं के भजन, पावड़े आदि गाते समय इस वाद्ययंत्र को बजाते हैं।
मांदल
● इसकी आकृति मृदंग के समान होती है, जो मिट्टी से निर्मित होता है। इसे हिरण या बकरे की खाल से मढ़ा जाता है।
● मांदल का एक मुँह छोटा और दूसरा मुँह बड़ा होता है। इसे मढ़ी खाल पर जौ का आटा चिपकाकर बजाया जाता है और साथ में थाली भी बजाई जाती है। भील गवरी नृत्य में इसको बजाते हैं।
भीलों की मादल
● राजस्थान के लोक वाद्यों में अवनद्ध-वाद्ययंत्र समूह में एक नाम है – ‘मादल’। इस वाद्ययंत्र के दो रूपों का वर्णन किया गया है। (1) ‘भीलों की मादल’ (2) रावलों की मादल’। वाद्ययंत्र एक ही है लेकिन बनावट में किंचित अन्तर होने के कारण दोनों को अलग-अलग मान कर अलग पहचान तथा अलग नाम दिए गए हैं। ऐसी स्थिति कतिपय अन्य वाद्यों में भी पाई जाती है। यथा-‘चंग’ व ‘ढफ’, ‘नगाड़ा’ तथा ‘बंब’ इत्यादि।
● यह मुख्यतः आदिवासियों का वाद्ययंत्र है। इसलिए इसके नाम आदिवासी जातियों के नामों से वर्गीकृत है। यह सीधी खोल वाले ढोल वाद्यों के अन्तर्गत आता है। ‘भीलों की मादल’ का खोल मिट्टी का बना होता है, जो कुम्हारों द्वारा कुशलता से बनाया जाता है। खोल की बनावट बेलनाकार, सीधी, छोटे ढोल की तरह होती है। कुछ खोल ढाल-उतार, एक तरफ से कुछ चौड़े तथा दूसरी तरफ से कुछ संकरे मुँह वाले भी होते हैं।
रावलों की मादल
● इस प्रदेश के चारणों के याचक रावल लोगों का प्रमुख वाद्ययंत्र।
● इस ‘मादल’ का खोल गोपुच्छाकृत काठ से बनाया जाता है। यह ढोलकनुमा खोल वाला वाद्ययंत्र है, पर इसका खोल ढोलक से बड़ा होता है। इसका एक मुख चौड़ा तथा दूसरा क्रमशः संकरा होता है। दोनों मुख चमड़े की पुड़ियों से मंढे जाते हैं। पुड़ियों की बनावट तबले की पुड़ियों जैसी दोहरी परत की होती है।
● रावल लोग रम्मत (लोक-नाट्य) व गायन के समय इसका वादन करते हैं। रावलों का प्रमुख वाद्ययंत्र होने के कारण इसे ‘रावलों की मादल’ कहा जाता है।
वृन्द वाद्ययंत्र – गड़गड़ाटी
● यह एक वृन्द वाद्ययंत्र (Orchestra) है, जिसमें मिट्टी के खोल वाली छोटी ढोलक, मिट्टी का कटोरा तथा कांसी की थाली तीन वाद्ययंत्र होते हैं।
● इसकी ढोलक की खोल मिट्टी की बनी होती है। खोल की लम्बाई लगभग एक से सवा फुट की तथा गोलाई का व्यास करीब 10 इंच का होता है। इसके दोनों मुख चमड़े की झिल्लियों से मंढ दिए जाते हैं। पुड़ियों के गजरे नहीं बनाए जाते वरन् डोर को पुड़ियों में छेद कर कसा जाता है। छेद दूर-दूर होने से डोरी कुछ छितराई हुई लगती है। डोरी में कड़ियाँ या गट्टे नहीं डाले जाते।
● दूसरा वाद्ययंत्र मिट्टी का कटोरा होता है जिसके मुख पर चमड़े की झिल्ली मढ़ी जाती है। तीसरा वाद्ययंत्र काँसी की थाली होती है। तीनों एक साथ बजाए जाते हैं जिसे ‘गड़गड़ाटी’ कहते हैं।
● यह हाड़ौती अँचल में प्रचलित ताल वाद्ययंत्र (वृन्द वाद्ययंत्र) है। इसका वादन प्रायः मांगलिक अवसरों पर किया जाता है।
● यद्यपि थाली घन वाद्ययंत्र है किन्तु अन्य दोनों वाद्ययंत्र अवनद्ध वाद्ययंत्र होने के कारण इस वाद्ययंत्र को अवनद्ध श्रेणी में माना गया है।
सुषिर (फूँक) वाद्ययंत्र
● ये वाद्ययंत्र वादक द्वारा मुँह से फूँक मारकर बजाए जाते हैं।
बाँसुरी/बंसरी/बांसरी/बांसुली/बंसी
● यह वाद्ययंत्र बाँस की नलिका से निर्मित होने के कारण इस वाद्ययंत्र का नाम बाँसुरी या बंसरी पड़ा।
● शास्त्रीय संगीत के वर्गीकृत वाद्यों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है।
● मुँह से बजाए जाने वाले भाग को तिरछी गोलाई में चंचुनुमा काटकर उसमें गुटका लगाकर मुँह को संकरा कर दिया जाता है।
● इस वाद्ययंत्र पर पाँच से आठ तक छेद होते हैं।
● राजस्थान में पाँच छेद वाली बाँसुरी को ‘पावला’ कहा जाता है। छह छेद वाली बाँसुरी ‘रूला’ कहलाती है।
● यह अत्यन्त प्राचीन वाद्ययंत्र है। वैदिक साहित्य, ऋग्वेद, उपनिषद्, पुराणों आदि में इसका संदर्भ निरन्तर मिलता है।
● नाद उत्पन्न करने वाली होने के कारण इसे ‘नादी’ कहा गया है तथा बाँस के कारण इसे ‘वंश’ व ‘वेणु’ कहा गया है।
शहनाई
● यह मांगलिक अवसरों पर विशेष रूप से बजाई जाती है। कभी-कभी लोक नाट्यों के साथ भी बजाई जाती है।
● शहनाई शीशम या सागवान की लकड़ी से बनी होती है। यह आकार में चिलम के समान होती है। इसमें आठ छेद होते हैं। इसका पत्ता ताड़ के पत्ते से बना होता है। शहनाई को बजाने के लिए निरन्तर नाक से श्वास लेना पड़ता है।
● मांगी बाई मेवाड़ की प्रसिद्ध शहनाई वादिका और मांड गायिका है।
● इसे लक्का, नफीरी व टोटो नाम से भी इंगित किया जाता है।
सतारा
● राजस्थान के लोक संगीत वाद्यों में, ‘सतारा’ सुषिर या फूँक वाद्ययंत्र, दो बाँसुरियों वाला युग्म साज है। यह वाद्ययंत्र ‘अलगोजा’ से मिलता-जुलता वाद्ययंत्र है, परन्तु उससे भिन्न है। इसकी बाँसुरियाँ बाँस की नहीं होती वरन् केर की लकड़ी से बनाई जाती है।
● बाँसुरियाँ अगर बराबर लंबाई में रखी जाती हैं तो ‘पावाजोड़ी’ कहलाती है। छोटी बड़ी होने पर ‘डोढ़ा-जोड़ी, कहा जाता है। इनमें प्रत्येक में छह छह छेद होते हैं। एक बाँसुरी आधार स्वर तथा केवल श्रुति के लिए तथा दूसरी को स्वरात्मक रचना में बजाया जाता है। दोनों बाँसुरियाँ साथ-साथ बजती हैं।
नड़
● राजस्थान के जैसलमेर तथा रेगिस्तान क्षेत्र के भोपों का प्रमुख वाद्ययंत्र ‘नड़’ (नढ़/कानी) कगोर की लकड़ी से बनता है।
● इस वाद्ययंत्र की विशेषता यह है कि इसे बजाते समय वादक-गले से आवाज भी निकालते हैं। बजाते समय मुँह पर टेढ़ा रखा जाता है। फूँक के नियन्त्रण से स्वरों का उतार-चढ़ाव होता है।
● प्रमुख कलाकार – कर्णा भील (जैसलमेर)
अलगोजा
● यह राजास्थान का ‘राज्य वाद्ययंत्र’ है।
● यह बाँसुरी की तरह होता है। यह बाँस, पीतल और अन्य किसी भी धातु से बनाया जा सकता है। अलगोजा में स्वरों के लिए छ: छेद होते हैं।
● जयपुर के पद्मपुरा गाँव के प्रसिद्ध कलाकार ‘रामनाथ चौधरी’ नाक से अलगोजा बजाते हैं।
● अलगोजा जैसलमेर, जोधपुर, बाड़मेर, बीकानेर, जयपुर, सवाई माधोपुर एवं टोंक आदि क्षेत्रों में मुख्य रूप से बजाया जाता है।
मुरला/मुरली
● राजस्थान के लोक-संगीत वाद्यों में ‘मुरला’ (मुरली) वाद्ययंत्र सपेरों की पुंगी का विकसित रूप है। इसके तीन भेद होते हैं- आगौर, मानसुरी एवं टांकी।
● वादन के समय इसे लगातार फूँका जाता है। इस प्रक्रिया को ‘नकसासी’ कहा जाता है। इस वाद्ययंत्र से अधिकतर लोक धुनें बजाई जाती हैं।
● यह वाद्ययंत्र सपेरों की पुंगी से धीरे-धीरे विकसित हुआ है। साधारणतया इसे कालबेलिया तथा जोगी लोग बजाते हैं लेकिन लंगा, मांगणियार एवं अन्य पेशेवर लोक कलाकारों का भी यह प्रमुख वाद्ययंत्र है।
पुंगी/बीण/बीन
● पूंगी घीया तुम्बे की बनी होती है, तुम्बे का ऊपरी हिस्सा लम्बा और पतला और नीचे का हिस्सा गोल होता है। तुम्बे के निचले गोल हिस्से में से दो नलियाँ लगाई जाती है। इन नलियों में स्वरों के छेद होते हैं, जिनमें एक नली में स्वर कायम व दूसरी में सवर निकाले जाते हैं।
● यह कालबेलियों व आदिवासी भील जातियों का प्रसिद्ध वाद्य है।
बांकिया
● पीतल का वक्राकार मोटे फाबे वाला सुषिर वाद्ययंत्र, जो होंठों से सटाकर फूँक द्वारा वादित होता है।
● दो या तीन स्वरों तक उपयोग संभव।
● राजस्थान में बहुप्रचलित वाद्ययंत्र जो सरगरा जाति द्वारा वैवाहिक एवं मांगलिक अवसर पर बजाया जाता है।
नागफणी
● सर्पाकार पीतल का सुषिर वाद्ययंत्र, जो साधु-संन्यासियों का धार्मिक वाद्ययंत्र है।
करणा
● राजस्थान का लोकवाद्ययंत्र ‘करणा’ तुरही से मिलता-जुलता वाद्ययंत्र है, किन्तु इसकी लंबाई आठ से दस फुट तक की होती है। यह वाद्ययंत्र पीतल की चद्दर से बनता है। इसके तीन-चार भाग होते हैं। जिनको अलग-अलग करके जोड़ा व समेटा जा सकता है। देखने में यह चिलम की शक्ल का लगता है। इसके संकरे भाग में सहनाई की तरह की रीड लगी होती है जिसे होंठों में दबाकर फूंक से बजाया जाता है।
● सुषिर वाद्यों में सबसे लम्बा वाद्ययंत्र।
तुरही
● इस प्रदेश के बड़े मंदिरों तथा दुर्गों में प्रचलित ‘तुरही’ वाद्ययंत्र बिगुल की श्रेणी का वाद्ययंत्र है। इसका निर्माण पीतल की चद्दर को नलिकानुमा (Pipe) मोड़कर किया जाता है। अगला मुख चौड़ा तथा फूलनुमा होता है। पिछला सिरा बहुत संकरा होता है, जिसकी आकृति डिब्बीनुमा, नोकदार होती है। अतः इसकी आकृति हाथ से पीने वाली, ‘चिलम’ की तरह लगती है।
सिंगा
● जोगी संन्यासियों द्वारा वादित सींग के आकार का सुषिर वाद्ययंत्र।
मोरचंग/मुखचंग/मुहचंग
● राजस्थान के लंगा एवं आदिवासी लोगों में प्रचलित यह वाद्ययंत्र स्वरूप में बहुत छोटा, बनावट में सरल है लेकिन राजस्थान सहित प्रायः पूरे भारत की लोक संस्कृति में व्यापक रूप से प्रचलित एवं लोकप्रिय है।
● इसका वादन दाँतों के बीच दबाकर मुख रंध्र से फूँक देकर किया जाता है। बजाते समय इसकी जीभी पर तर्जनी तथा अँगूठे से हल्के आघात कर लयात्मक ध्वनियों व स्वरों का सृजन किया जाता है।
मशक
● मशक चमड़े की सिलाई कर बनाया जाता है। इसमें एक ओर मुँह से हवा भरी जाती है तथा दूसरी ओर नली के छेदों से स्वर निकाले जाते हैं। वादक एक ओर मुँह से हवा भरता है तथा दूसरी ओर दोनों हाथों की उंगलियों से स्वर निकालता है। इसकी ध्वनि पूँगी की तरह है। इसका प्रयोग भैरुजी के भोपे अधिक करते हैं।
तत् (तार) वाद्ययंत्र
● जिन वाद्य यन्त्रों में तार लगे होते हैं उन्हें तत् वाद्ययंत्र कहा जाता है।
● तत् वाद्ययंत्र को अँगुलियों से या मिजराफ से बजाया जाता है।
इकतारा (एक तारा)
● प्राचीन वाद्ययंत्र है।
● इस वाद्ययंत्र को मीराबाई बजाती थी।
● इकतारा गोल तुम्बे में बाँस की डंडी फँसाकर बनाया जाता है। तम्बे का एक हिस्सा काटकर इसे बकरे के चमड़े से मढ़कर निर्मित किया जाता है। बाँस पर दो खूँटियाँ होती हैं, जिन पर ऊपर-नीचे दो तार बँधे रहते हैं। दो तार बँधे रहते हैं। इसका वादन तार उंगली से ऊपरी-नीचे करके किया जाता है। इसको कालबेलियाँ, नाथ साधु-संनयासी आदि बजाते हैं।
तंदूरा
● तंदूरा चार तार का होता है, जिसे चौतारा भी कहा जाता है। इसका निर्माण लकड़ी से होता है। इसके साथ मंजीरा, खड़ताल चिमटा आदि वाद्य बजाए जाते हैं। इसका रामदेवजी के भोपे एवं कामड़ जाति के लोग अधिक प्रयोग करते हैं।
सुरमण्डल
● लकड़ी के तख्ते पर तार कसे हुए होते हैं तथा उन तारों को झंकृत करने पर सूर उत्पन्न होते हैं।
रावण हत्था
● यह भोपों का मुख्य वाद्य है।
● इसका प्रयोग पाबूजी की फड़ को बाँचते समय भोपों द्वारा किया जाता है। बनावट में यह बिल्कुल सरल किंतु स्वर में सुरीला होता है। इसे बनाने के लिए नारियल की कटोरी पर खाल मढ़ी होती है, जो बाँस के साथ लगी होती है। बाँस में जगह-जगह खूँटियों लगा दी जाती हैं, जिनमें तार बँधे होते हैं। यह वायलिन की तरह गज से बजाया जाता है। रावण हत्था को डफ भी कहा जाता है।
जंतर
● यह वीणा के प्रारम्भिक रूप जैसा है। इसके दो तुम्बे होते हैं, जिसकी डॉड बाँस की बनी होती है, जिसमें मगर की खाल के 22 पर्दें मोम से चिपकाते हैं। इसके परदों की ऊपर पाँच या छ: तार लगे होते हैं, इसका बगड़ावतों की कथा कहने वाले भोपे प्रयोग करते हैं। इसका प्रचलन मेवाड़ क्षेत्र में अधिक है। तथा गुर्जर भोपों का प्रचलित वाद्य है।
भपंग
● भपंग मेवात (अलवर) क्षेत्र का प्रसिद्ध वाद्य है। इसका आकार डमरूनुमा होता है, जिसको एक ओर चमड़े से मढ़ते है तथा दूसरी ओर खुला छोड़ दिया जाता है। इसे चमड़े में छेद कर तार को एक खूँटी से बाँध देते हैं। वर्तमान में इसे प्लास्टिक के तंतु से बनाते हैं। इसे कांस्य में दबाकर बजाते हैं। इसमें तान को ढीला करके विभिन्न ध्वनियाँ निकालते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त अलवर निवासी जहुर खाँ (भपंग का जादूगर) इसके प्रसिद्ध कलाकार है।
सारंगी
● बाड़मेर और जैसलमेर क्षेत्र की लंगा जाति द्वारा सारंगी का प्रयोग किया जाता है। सारंगी तत् वाद्य यन्त्रों लकड़ी से बनाई जाती है। इसमें 27 तार होते हैं तथा ऊपर की तांते बकरे की आंतों से बने होते हैं। इसका वादन गज से होता हैं, जो घोड़े की पूँछ के बालों से निर्मित होता है इसे बिरोजा पर घिसकर बजाने पर ही तारों से ध्वनि उत्पन्न होती है। मारवाड़ के जोगियों द्वारा गोपीचन्द, भृर्तहरि, निहालदे आदि के ख्याल गाते समय इसका प्रयोग किया जाता है। इसे बिरोजा पर घिसकर बजाने पर ही तारों से ध्वनि उत्पन्न होती है। मारवाड़ के जोगियों द्वारा गोपीचन्द, भृर्तहरि, निहालदे आदि के ख्याल गाते समय इसका प्रयोग किया जाता है। मिरासी, लंगा, जोगी, मांगणियार आदि राजस्थानी कलाकार सारंगी के साथ ही गाते हैं।
कामायचा
● कामायचा जैसलमेर और बाड़मेर क्षेत्र का प्रसिद्ध वाद्य है। यह सारंगी के समान होता है। इसकी तबली चौड़ी व गोल होती है। तबली पर चमड़ा मढ़ा होता है। कामायचा की ध्वनि में भारीपन और गूँज होती है। इसका प्रयोग मुस्लिम शेख अधिक करते हैं, जिन्हें मांगणियार कहा जाता है।
रवाज
● यह वाद्ययंत्र मुख्यतः चारणों के याचक रावल तथा भाटों का है।
● सारंगी जाति का यह वाद्ययंत्र नखवी (मिजराब) से बजाया जाता है।
● इसके कुल तारों की संख्या चार है।
● इसे रावल लोग अपने लोक नाट्य और ‘रम्मत’ (रावलो की रम्मत प्रसिद्ध) कार्यक्रमों में बजाते हैं।
रबाब
● रबाब भाट अथवा राव जाति का प्रमुख वाद्ययंत्र है।
● इस वाद्ययंत्र का अधिक प्रचलन मेवाड़ में है।
● इस वाद्ययंत्र में कुल पाँच तार होते हैं।
● इसका वादन नखवी (जवा, मिजराब) से किया जाता है।
सुरिंदा
● सुरिंदा वाद्ययंत्र का प्रयोग मारवाड़ के लोक कलाकार, विशेष कर लंगा जाति के लोगों द्वारा विभिन्न वाद्यों की संगत के लिए किया जाता है।
● इस वाद्ययंत्र का ढाँचा रोहिड़ा की लकड़ी से बनाया जाता है।
● इसमें कुल तीन तार होते हैं। इसे गज से बजाया जाता है जिस पर घुंघरू लगे रहते हैं।
● राजस्थान संगीत नाटक अकादमी का प्रतीक चिह्न ‘सुरिंदा’ है।
दुकाको
● दुकाको, भील जाति का वाद्ययंत्र है, जो 6 या 8 इंच की पोली बेलनाकार लकड़ी से बना होता है।
● इस वाद्ययंत्र को बैठकर घुटनों के नीचे दबाया जाता है तथा तार को ऊपर की ओर कसकर पकड़ा जाता है और हाथ से इच्छानुसार लय, ताल में बजाया जाता है।
● दुकाको भील समुदाय द्वारा मुख्यत: दीपावली पर बजाया जाता है।
वादक | सम्बन्धित वाद्ययंत्र |
रामकिशन पुष्कर | नगाड़े का जादूगर |
चाँद मोहम्मद खाँ | शहनाई वादक |
पण्डित जसकरण गोस्वामी | प्रसिद्ध सितार वादक |
सुल्तान खाँ (सीकर) | सारंगी का सुल्तान |
पण्डित विश्वमोहन भट्ट | प्रसिद्ध सितारवादक। भट्ट ने पश्चिमी गिटार में 14 तार जोड़कर इसे ‘मोहनवीणा’ का रूप दिया है जो वीणा, सरोद एवं सितार का सम्मिश्रण है। |
किशन महाराज, उस्ताद जाकिर हुसैन | तबला वादक |
उस्ताद अमजद अली खाँ | सरोद वादक |
पण्डित शिवकुमार शर्मा | संतूर वादक |
पण्डित रामनारायण | सारंगी वादक |
रामनाथ चौधरी | अलगोजा वादक |
हरिप्रसाद चौरसिया, स्व.श्री पन्नालाल घोष | बाँसुरी वादक |
उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ | शहनाई वादक |
करणा भील | नड़ वादक |
जहूर खाँ मेवाती | भपंग वादक |
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