
संत एवं सम्प्रदाय
● राजस्थान का जनजीवन अनेक धार्मिक मान्यताओं और आस्थाओं में गूँथा हुआ है। राजस्थान की भौगोलिक परिस्थतियों, मध्यकालीन राजनीतिक संक्रमण, इस्लाम के प्रवेश एवं तुर्क आक्रमणों, उत्तर भारत के भक्ति आन्दोलन आदि ने राजस्थान के जनमानस को भी उद्वेलित किया।
● हिन्दू धर्म, राजस्थान प्रदेश का मुख्य धर्म है। हिन्दू धर्म के अंतर्गत ‘विष्णु पूजक’ अर्थात् वैष्णव धर्म में आस्था रखने वाले लोगों की संख्या सर्वाधिक है। वैष्णवों के अतिरिक्त शैव एवं शाक्त मतावलम्बी भी प्रदेश में न्यूनाधिक संख्या में निवास करते हैं। वैष्णव, शैव एवं शाक्त तीनों ही मत अनेक पंथों एवं सम्प्रदायों में बँटे हुए हैं।
● वैष्णव एवं शैव उपासकों को उपासना पद्धति के आधार पर दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-
(1) सगुण संप्रदाय – इसमें ईश्वर को सर्वस्व मानकर ईश्वर के मूर्त रूप की पूजा – आराधना की जाती है।
(2) निर्गुण संप्रदाय – इस मत के समर्थक ईश्वर को निराकार एवं निर्गुण परमसत्ता मानकर उसकी भक्ति करते हैं।
सगुण सम्प्रदाय | निर्गुण सम्प्रदाय |
रामानुज सम्प्रदाय | विश्नोई सम्प्रदाय |
वल्लभ सम्प्रदाय | जसनाथी सम्प्रदाय |
निम्बार्क सम्प्रदाय | दादू पंथ |
नाथ सम्प्रदाय | रामस्नेही सम्प्रदाय |
गौड़ीय सम्प्रदाय | परनामी सम्प्रदाय |
पाशुपत सम्प्रदाय | निरंजनी सम्प्रदाय |
मीरादासी सम्प्रदाय | कबीरपंथी सम्प्रदाय |
लालदासी सम्प्रदाय |
नोट : संत चरणदासजी को मिश्रित भक्ति धारा के संत माना जाता है।
वैष्णव धर्म एवं उसके सम्प्रदाय :-
● भगवान विष्णु व उनके दस अवतारों को प्रधान देव मानकर उसकी आराधना करने वाले वैष्णव कहलाए।
● वैष्णव धर्म के विषय में प्रारम्भिक जानकारी उपनिषदों से मिलती है।
वैष्णव धर्म को ‘भागवत धर्म’ भी कहा जाता है।
● प्रवर्तक – वासुदेव श्रीकृष्ण
विष्णु के चौदह अवतार हैं। मत्स्य पुराण में इसके दस अवतारों का वर्णन है।
● राजस्थान में वैष्णव धर्म का सर्वप्रथम उल्लेख द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व के घोसुण्डी अभिलेख में मिलता है।
● वैष्णव धर्म के सम्प्रदाय
1. रामानुज सम्प्रदाय 2. रामानन्दी सम्प्रदाय
3. निम्बार्क सम्प्रदाय 4. वल्लभ सम्प्रदाय
5. ब्रह्म या गौड़ीय सम्प्रदाय
रामानुज सम्प्रदाय
● प्रवर्तक – रामानुजाचार्य
● जन्म – 1017
● जन्म स्थान – तिरुपति नगर (तमिलनाडु)
● गुरु- यमुनाचार्य
● रचित भाष्य- ‘श्रीभाष्य’
● प्रवर्तित दर्शन – ‘विशिष्टाद्वैतवाद’
● श्रीरामानुजाचार्य ने ‘श्री सम्प्रदाय’ चलाया।
● इस दर्शन में राम को परब्रह्म मानकर उसकी पूजा-आराधना की जाती है इसलिए इसे रामावत संप्रदाय भी कहते हैं।
● रामानुजाचार्य मुक्ति का मार्ग ज्ञान को नहीं मानकर भक्ति को मानते हैं। वे सगुण ब्रह्म की उपासना में विश्वास रखते हैं।
● भक्ति परंपरा के अधीन दक्षिण में (कर्नाटक) ग्यारहवीं सदी में रामानुज ने विष्णु की पूजा पर जोर दिया।
● रामानुज के क्रियाकलापों का प्रमुख केन्द्र ‘श्रीरंगपट्टनम्’ एवं ‘कांची’ था।
● रामानुज सम्प्रदाय की उत्तर भारत में प्रमुख पीठें-
अयोध्या मठ एवं गलताजी (जयपुर) है। गलताजी को ‘उत्तर तोताद्रि’ भी कहते है।
रामानन्दी सम्प्रदाय
● रामानन्द भक्ति आंदोलन के क्षेत्र में उत्तर एवं दक्षिण के बीच एक कड़ी के समान थे।
● ये उत्तरी भारत के भक्ति आंदोलन के प्रवर्तक माने जाते हैं।
● रामानन्द द्वारा उत्तरी भारत में प्रवर्तित मत ‘रामावत’ या ‘रामानन्दी सम्प्रदाय’ कहलाया।
● इस सम्प्रदाय में ‘ज्ञानमार्गीय राम भक्ति की प्रधानता’ थी।
● रामानंद की भक्ति ‘दास्य भाव’ की थी।
● इस सम्प्रदाय में श्रीराम-सीता की शृंगारिक जोड़ी की पूजा की जाती है।
● रामानन्द ऊँच-नीच, जाति-पाति एवं छुआछूत के विरोधी थे।
● रामानन्द के शिष्य – संत कबीर (जुलाहा), पीपा (दर्जी), धन्ना (जाट), रैदास (चर्मकार), सैना (नाई), सुरसुरी, पद्मावती व सुखानंद आदि।
● इनके 12 शिष्यों में एक महिला शिष्या थी।
● रामानन्द के गुरु श्रीराघवानंद जी थे।
● प्रमुख पीठ – गलताजी (जयपुर)
● राजस्थान में रामानंदी सम्प्रदाय का प्रवर्तन संत श्री कृष्णदास जी ‘पयहारी’ ने किया, जो अनन्तानंद जी के शिष्य थे।
● राजस्थान में रामानन्दी सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ गलताजी (जयपुर) में है।
● सवाई जयसिंह ने रामानन्दी सम्प्रदाय को प्रश्रय दिया तथा राजकवि श्रीकृष्ण भट्ट कलानिधि से ‘राम रासो’ ग्रन्थ की रचना करवाई तथा इसमें भगवान राम और सीता की प्रेम कहानी है।
● आमेर के राजा पृथ्वीराज तथा उनकी रानी बाला बाई कृष्णदास पयहारी के अनुयायी थे।
● रामानन्द संप्रदाय में तोताद्रि का जो महत्त्व है वही रामानन्दी संप्रदाय में गलता जी का महत्त्व है। इसे उत्तर तोताद्रि कहा जाने लगा।
● पयहारी के शिष्य अग्रदास जी ने 16वीं सदी में रेवासा (सीकर) में रामानंदी सम्प्रदाय की अन्य पीठ स्थापित की।
● अग्रदास जी ने रसिक सम्प्रदाय की स्थापना की, इस संप्रदाय को जानकी संप्रदाय, सिया संप्रदाय तथा रहस्य संप्रदाय भी कहा जाता है।
● रसिक सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रन्थ – ध्यान मंजरी (अग्रदास द्वारा रचित)
निम्बार्क सम्प्रदाय
● अन्य नाम – हंस सम्प्रदाय या सनकादि सम्प्रदाय
प्रवर्तक – आचार्य निम्बार्क (12 वीं सदी में)
● रचित भाष्य – वेदान्त पारिजात।
● प्रवर्तित दर्शन – द्वैताद्वैत या भेदाभेद।
● प्रमुख पीठ – सलेमाबाद (अजमेर)।
● इस पीठ की स्थापना आचार्य परशुराम जी देवाचार्य द्वारा की गई। सर्वप्रथम यह संप्रदाय वृंदावन में प्रसारित हुआ।
● इस सम्प्रदाय में राधा को श्रीकृष्ण की परिणीता माना जाता है तथा युगल स्वरूप की मधुर सेवा की जाती है।
● आचार्य निम्बार्क द्वारा लिखित ग्रंथ – दशश्लोकी। (राधा एवं कृष्ण की भक्ति पर बल)
● मारवाड़ में निम्बार्क सम्प्रदाय को ‘नीमावत’ के नाम से जाना जाता है।
● सखी सम्प्रदाय :- निम्बार्क सम्प्रदाय के संत हरिदासजी ने कृष्ण भक्ति के ‘सखी सम्प्रदाय’ का प्रवर्तन किया।
● इनके अनुयायी श्रीकृष्ण की भक्ति उन्हें सखा मानकर करते हैं।
वल्लभ (पुष्टिमार्ग) सम्प्रदाय
● प्रवर्तक – वल्लभाचार्य (16वीं सदी में)
● पिता – लक्ष्मण भट्ट
● माता – इल्लमागारु
● रचित भाष्य – अणु भाष्य
प्रवर्तित दर्शन – शुद्धाद्वैतवाद
● ‘पुष्टिमार्ग’ सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया।
● ‘पुष्टिमार्ग’ का अर्थ होता है – ईश्वर की कृपा।
● वल्लभाचार्य को विजयनगर शासक कृष्णदेवराय ने महाप्रभु’ की उपाधि से विभूषित किया।
● वल्लभाचार्य को वैश्वानरावतार(अग्नि का अवतार) कहा गया है।
● वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ जी ने ‘अष्टछाप कवि मंडली’ का संगठन किया।
● अष्टछाप कवि मण्डली के संत –
1. कुम्बनदास 2. सूरदास 3. परमानंददास 4. कृष्णदास
5. नंददास 6. चतुर्भुजदास 7. गोविंदस्वामी 8. छीतस्वामी
● विट्ठलनाथ ने सूरदास जी को ‘पुष्टिमार्ग का जहाज’ की संज्ञा दी।
● प्रमुख पीठ – नाथद्वारा (बनास नदी के तट पर बसा)।
● 1669 ई. में मेवाड़ महाराणा राजसिंह के समय श्रीनाथजी की प्रतिमा वृन्दावन से सिंहाड़ (नाथद्वारा) लाई गई।
● इस सम्प्रदाय में मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा या स्थापना न करके कृष्ण के बालरूप की उपासना ‘सेवा’ के रूप में की जाती है।
● इस सेवा पद्धति में सात प्रकार के दर्शन होते हैं। ये दर्शन हैं- मंगला, ग्वाल, राजभोग, उत्थापन, भोग, आरती और शयन
● ऐसी ही सात रंग की ध्वजाएँ हैं इसलिए श्री नाथ जी को सात ध्वजा का नाथ कहा जाता है।
● दर्शन के समय गायक परंपरागत रूप में वाद्य वादन के साथ अष्टछाप के कवियों के पद गाते हैं। यह गायिकी ‘हवेली संगीत’ कहलाती है।
● श्रीनाथजी के स्वरूप के पीछे कृष्ण लीला विषयक चित्रावली से युक्त जो पट लगाया जाता है वह पिछवाई कहलाती है।
● श्राद्ध पक्ष में यहाँ के कमल चौक में केले के पत्तों की साँझी बड़ी आकर्षक और अनूठे रूप में बनाई जाती है।
● वल्लभ सम्प्रदाय से सम्बन्धित वल्लभ घाट पुष्कर में है।
● ’84 वैष्णवों की वार्ता’ एवं ’52 वैष्णवों की वार्ता’ ग्रन्थ, वल्लभ सम्प्रदाय से सम्बन्धित हैं।
● वल्लभ सम्प्रदाय (पुष्टिमार्ग) की सात पीठें –
1. मथुरेश जी – कोटा
2. मदनमोहन जी – कामां (भरतपुर)
3. गोकुलचन्द्र जी – कामां (भरतपुर)
4. विट्ठलनाथ जी – नाथद्वारा (राजसमन्द)
5. द्वारकाधीश जी – कांकरोली (राजसमन्द)
6. बालकृष्ण जी – सूरत (गुजरात)
7. गोकुलनाथ जी – गोकुल (उत्तरप्रदेश)
ब्रह्म या गौड़ीय सम्प्रदाय
● प्रवर्तक – स्वामी मध्वाचार्य (12वीं सदी में)
● रचित भाष्य – पूर्ण प्रज्ञ भाष्य
● प्रवर्तित दर्शन – द्वैतवाद
● उनके अनुसार ईश्वर सगुण है तथा वह भगवान विष्णु है। उसका स्वरूप सत, चित और आनन्द हैं।
● इस सम्प्रदाय को नया रूप देकर प्रवर्तित करने व जन-जन तक फैलाने का कार्य बंगाल के ‘गौरांग महाप्रभु चैतन्य’ ने किया।
● चैतन्य का जन्म नदिया (बंगाल) में हुआ तथा बचपन का नाम निमाई था।
● गौडीय संप्रदाय चैतन्य महाप्रभु की परम्परा से जुड़ा है इसलिए इस पर ओडिशा के जगन्नाथपुरी के रीति-रिवाजों की छाप स्पष्ट है।
● प्रमुख पीठ – गोविन्द देवजी का मंदिर (जयपुर)
● इस मंदिर का निर्माण सवाई जयसिंह ने करवाया था। श्री गोविन्द देवजी, जयपुर नगर के अधिपति हैं, कच्छवाहा वंश के राजा उनके दीवान थे।
● गौड़ीय सम्प्रदाय में ‘राधा-कृष्ण’ के युगल स्वरूप की पूजा की जाती है।
● गौड़ीय सम्प्रदाय का अन्य प्रसिद्ध मंदिर करौली में ‘मदनमोहन जी का मंदिर’ है।
● ‘सहज पंथ’ गौड़ीय सम्प्रदाय की एक शाखा है जिसमें भजन व साधना के लिए एक सुन्दर व परकीया स्त्री की आवश्यकता होती है।
● आमेर के राजा मानसिंह इस सम्प्रदाय के अनुयायी थे।
● राधावल्लभ सम्प्रदाय के प्रवर्तक – गोस्वामी हितहरिवंश।
● चतु:सम्प्रदाय – वैष्णव भक्ति के लिए प्रसिद्ध चार सम्प्रदाय
(i) श्री (ii) ब्रह्म (iii) रुद्र (iv) सनक।
शैव सम्प्रदाय :-
● भगवान शिव के उपासक।
● ऋग्वेद में शिव के लिए रुद्र देवता का उल्लेख है।
● अथर्ववेद में शिव को भव, पशुपति या भूपति कहा गया है।
● शिवलिंग पूजा का पहला स्पष्ट वर्णन मत्स्य पुराण में मिलता है।
● इस संप्रदाय के संस्थापक आचार्य लकुलीश हैं।
● नयनार – दक्षिण भारत में शैव धर्म का प्रचार-प्रसार करने वाले नयनार कहलाते हैं। नयनार सन्तों की कुल संख्या 63 थीं।
● शैव मत के चार सम्प्रदाय –
1. कापालिक 2. पाशुपत
3. लिंगायत (वीरशैव) 4. काश्मीरक
कापालिक सम्प्रदाय
● इस सम्प्रदाय में भैरव को शिव का अवतार मानकर पूजा की जाती है।
● इस सम्प्रदाय के साधु तांत्रिक व श्मशानवासी होते हैं और अपने शरीर पर भस्म लपेटते हैं।
● इनके छ: चिह्न माला, भूषण, कुण्डल, रत्न, भस्म एवं यज्ञोपवीत /जनेऊ मुख्य हैं।
पाशुपत सम्प्रदाय
● प्रवर्तक – लकुलीश।
● इस मत में लकुलीश को शिव का 28 वाँ एवं अंतिम अवतार माना जाता है।
● मेवाड़ के हारित ऋषि लकुलीश सम्प्रदाय के थे।
● बप्पा रावल द्वारा निर्मित मेवाड़ के आराध्य देव एकलिंगजी का शिव मंदिर पाशुपत सम्प्रदाय का प्रमुख मंदिर है। सुण्डा माता मंदिर में भी भगवान शिव की मूर्ति लकुलीश सम्प्रदाय की है।
लिंगायत सम्प्रदाय
● स्थान – कर्नाटक
प्रवर्तक – बासव द्वारा
काश्मीरक सम्प्रदाय
● स्थान – कश्मीर
नाथ सम्प्रदाय :-
● प्रवर्तक – नाथ मुनि।
● पंथ के प्रमुख साधु – मत्स्येन्द्र नाथ, गोपीचंद, भर्तृहरि, गोरखनाथ।
● हठ योग प्रणाली के जन्मदाता – गोरखनाथ जी।
राजस्थान में नाथ पंथ की शाखाएँ :-
(1) बैराग पंथ
मुख्य केन्द्र – राताडूंगा (पुष्कर)।
प्रथम प्रचारक – भर्तृहरि
(2) माननाथी पंथ
मुख्य केन्द्र – महामंदिर
● राठौड़ शासक मानसिंह द्वारा मंदिर निर्माण।
● गुरु आयस देवनाथ मानसिंह के गुरु माने जाते हैं।
● जालोर में नाथपंथी साधु जालन्धरनाथ के मंदिर का निर्माण करवाया गया।
● ‘कानपा पंथ’ – योगी जालन्धरनाथ के शिष्य कानपानाथ ने कानपा पंथ का प्रवर्तन किया।
● कालबेलिया जाति इन्हें अपना गुरु मानती है।
राजस्थान के प्रमुख संत :-
संत जाम्भोजी
● जन्म –1451ई. (विक्रम संवत् 1508) में
भाद्रपद कृष्ण अष्टमी (जन्माष्टमी) को
● जन्म स्थान – पीपासर गाँव (नागौर)
● पिता – लोहटजी पंवार
● माता – हंसा बाई
● जाति – राजपूत
● गौत्र – पंवार
● बचपन का नाम – धनराज
● गुरु – गोरखनाथजी
● विश्नोई संप्रदाय – 1485 ईस्वी को कार्तिक कृष्ण अष्टमी के दिन समराथल (बीकानेर) में विश्नोई सम्प्रदाय की स्थापना की थी।
● यहाँ ऊँचा टीला विश्नोई संप्रदाय में धोक धोरे के नाम से प्रसिद्ध है।
● जाम्भोजी ने अपने अनुयायियों को उनतीस सिद्धान्तों (बीस+नौ) का पालन करने का आदेश दिया। इन्हीं सिद्धांतों का पालन करने वाले विश्नोई कहलाए।
● समाधि- 1536 ई. में जम्भोजी ने मुकाम गाँव में मार्गशीर्ष कृष्ण नवमी समाधि ली।
● मुकाम (नोखा तहसील, बीकानेर) में प्रतिवर्ष आश्विन एवं फाल्गुन अमावस्या को मेला आयोजित होता है।
● उपनाम –
(1) पर्यावरण वैज्ञानिक
(2) गुंगा गेहला
(3) विष्णु का अवतार
● जाम्भोजी द्वारा रचित ग्रंथ –
(1) जम्भसागर (29 नियम)
(2) शब्दावली
(3) जम्भवाणी/शब्दवाणी (120 शब्द संगृहीत है)
(4) जम्भसंहिता/जम्भगीता – जाम्भोजी के अनुयायी 151 शब्दों के इस संकलन को पाँचवाँ वेद एवं उन्नीसवाँ पुराण मानते हैं।
(5) विश्नोई धर्मप्रकाश
● विश्नोई सम्प्रदाय के अन्य आराध्य स्थल –
(1) पीपासर (नागौर) – इसे खड़ाऊ की पूजा की जाती है।
(2) लालासर (बीकानेर) – जाम्भोजी का निर्वाण (निधन) स्थल।
(3) रामड़ावास (जोधपुर)
(4) जांगलू (बीकानेर)
(5) जाम्भा (जोधपुर)
महत्त्वपूर्ण शब्दावली–
● पाहल – जाम्भोजी द्वारा तैयार अभिमंत्रित जल।
● इसे पिलाकर जाम्भोजी ने आज्ञानुवर्ती समुदाय को विश्नोई पंथ में दीक्षित किया था।
● साथरी – विश्नोई सम्प्रदाय का उपदेश स्थल ‘साथरी’ कहलाता है।
● जाम्भोजी का मूलमंत्र – ‘हृदय से विष्णु का नाम जपो और हाथ से कार्य करो।‘
● कथा जैसलमेर की – संत कवि वील्होजी द्वारा लिखित प्रसिद्ध कविता।
● वील्होजी, जाम्भोजी के बाद विश्नोई सम्प्रदाय के अध्यक्ष बने थे।
● इसमें जाम्भोजी के समकालीन 6 राजाओं के बारे में जानकारी मिलती है, जो उनके अनुयायी थे-
1) सिकन्दर लोदी (दिल्ली बादशाह) 2) नवाब मोहम्मद खाँ नागौरी
3) राव दूदा (मेड़ता) 4) राव जैतसी (जैसलमेर)
5) राव सातलदेव (मारवाड़) 6) राणा सांगा (मेवाड़)
जसनाथजी
● जन्म – 1482 ई. (विक्रम संवत् 1539) में कार्तिक शुक्ल एकादशी (देवउठनी एकादशी) को
● जन्म स्थान – कतरियासर गाँव (बीकानेर)
● पिता – हम्मीरजी जाणी
● माता – रूपादे
● जाति – जाट
● बचपन का नाम- जसवंतसिंह
● गुरु – गोरखनाथ
● प्रधानपीठ – कतरियासर (बीकानेर)
● जसनाथजी ने बीकानेर के गोरखमालिया नामक स्थान पर 12 वर्ष तपस्या की थी।
● स्थापना – जसनाथी सम्प्रदाय
● 1504 ई. में जसनाथजी ने जसनाथी सम्प्रदाय की कतरियासर (बीकानेर) में स्थापना की।
● इस सम्प्रदाय में कुल 36 नियम होते हैं।
● इस सम्प्रदाय के लोग गले में काले रंग का धागा बाँधते हैं।
● जाल वृक्ष तथा मोर के पंख को पवित्र मानते हैं।
● 1506 ई. में जसनाथजी ने आश्विन शुक्ल सप्तमी को कतरियासर बीकानेर में समाधि ली, इस दिन प्रतिवर्ष यहाँ पर मेला भरता है।
● अग्नि नृत्य – जसनाथी सम्प्रदाय के अनुयायी धधकते हुए अंगारों पर नृत्य करते हैं तथा अग्नि नृत्य करते समय ‘फतै-फतै’ का जयघोष करते हैं।
● इस नृत्य को बीकानेर के महाराजा गंगासिंह ने संरक्षण दिया था।
● परमहंस- जसनाथी सम्प्रदाय के अनुयायी, जो पूरी तरह से इस संसार से विरक्त हो गए वे परमहंस कहलाए।
● सिद्ध – जसनाथी सम्प्रदाय के अनुयायी, जिन्होंने भगवा धारण किया, वे ‘सिद्ध’ कहलाए।
● दिल्ली के बादशाह सिकन्दर लोदी ने जसनाथजी के चमत्कारों से प्रभावित होकर कतरियासर (बीकानेर) में 500 बीघा जमीन भेंट की थी।
● इस सम्प्रदाय के प्रमुख ग्रंथ –
(1) सिंभूधड़ा – जसनाथजी के उपदेशों का संकलन
(2) कोंडा
(3) जलम झूमरो
(4) सिद्ध जी रो सिरलोको
(5) जसनाथी पुराण (36 नियम)
● जसनाथी सम्प्रदाय के प्रमुख शिष्य –
(1) लालनाथ जी (2) रामनाथ जी (3) रूस्तम जी
● जसनाथी सम्प्रदाय की अन्य पीठें –
(1) मालासर (बीकानेर) (2)लिखमादेसर (बीकानेर)
(3) पुनरासर (बीकानेर) (4) बामलु (बीकानेर)
(5) पाँचला (नागौर)
संत दादूदयाल जी
● जन्म -1544 ई. में फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को
● जन्म स्थान – अहमदाबाद (गुजरात)
● लोक मान्यता के अनुसार दादूदयालजी साबरमती नदी में लोदीरामजी नामक एक ब्राह्मण को संदूक में मिले थे इसलिए साबरमती नदी को दादू पंथ में ‘पुत्रवाहिनी’ कहा जाता है।
● लोदीरामजी एवं उनकी पत्नी सावित्री देवी ने इनका पालन-पोषण किया था।
● उपनाम – ‘राजस्थान का कबीर’
● गुरु- बुड्ढ़नजी (वृद्धानंदजी)
● प्रधानपीठ – नरायणा (जयपुर)
● स्थापना – दादू पंथ
● दादूदयालजी ने 1574 ई. में सांभर
में दादू पंथ/निपख सम्प्रदाय/ब्रह्म
सम्प्रदाय की स्थापना की थी।
● दादूदयालजी 19 वर्ष की आयु में राजस्थान आए तथा 1568 ई. में सांभर में इन्होंने प्रथम उपदेश दिया था।
● ‘अलख दरीबा’- दादू पंथ में सत्संग स्थल को ‘अलख दरीबा’ कहते हैं।
● उन्होंने निर्गुण भक्ति का संदेश दिया।
● इनके मंदिर को दादूद्वारा कहा जाता है
● 1585 ई. में दादूदयालजी ने आमेर के राजा भगवंतदास के साथ फतेहपुर सीकरी (उत्तरप्रदेश) में मुगल सम्राट अकबर से मुलाकात की थी।
● 1602 ई. में दादूदयालजी नरैना या नारायणा (फुलेरा) आ गए थे। यहीं पर 1603 ई. में ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी को उनका निधन हुआ।
● दादूदयालजी के शव को जयपुर स्थित भैराणा की पहाड़ियों में जिस गुफा के सामने रखा गया, उसे ‘दादूखोल’ या ‘दादूपालका’ कहा जाता है। दादूपंथ में मृत व्यक्ति को जलाते या दफनाते नहीं है बल्कि खुले मैदान में पशु-पक्षियों के खाने के लिए रख दिया जाता है।
● मुख्य मेला- फाल्गुन शुक्ल अष्टमी
● दादू पंथ के पंचतीर्थ स्थल-
1. कल्याणपुर 2. सांभर
3. आमेर 4. नरायणा
5. भैराणा।
● दादूदयालजी के प्रमुख ग्रंथ –
(1) दादू री वाणी (2) दादू रा दूहा
(3) दादू हरड़े वाणी
● इनके साहित्य की भाषा ढूँढाड़ी (सधुक्कड़ी) है।
● सुप्रसिद्ध ‘कायाबेलि’ ग्रन्थ की रचना दादूदयाल ने की।
● दादूदयालजी की मृत्यु के पश्चात् दादू पंथ 5 शाखाओं में विभक्त हो गया था, जो निम्नलिखित हैं-
(1) खालसा – गरीबदासजी की आचार्य परम्परा से संबंधित साधु, जो मुख्य पीठ नरायणा में रहते हैं।
(2) विरक्त – घूम-घूम कर दादू पंथ का उपदेश देने वाले साधु।
(3) उत्तरादे या स्थानधारी – वे साधु जो राजस्थान को छोड़कर उत्तरी भारत में दादू पंथ का प्रचार-प्रसार करने गए। इस शाखा के संस्थापक दादूजी के शिष्य बनवारीदासजी थे।
(4) खाकी – वे साधु जो अपने शरीर पर भस्म लगाते हैं एवं लम्बी जटा रखते हैं।
(5) नागा – इस शाखा के प्रवर्तक सुन्दरदासजी थे। ये साधु कृषि व व्यापार का कार्य करते थे एवं शस्त्र रखते थे, सवाई जयसिंह ने इनके शस्त्र रखने पर रोक लगा दी थी।
● इस शाखा के संतों ने मराठा आक्रमण के समय जयपुर के शासक सवाई प्रतापसिंह की सहायता की थी।
● इन संतों के रहने के स्थान को ‘छावनी’ कहते हैं।
● दादूदयालजी के कुल 152 शिष्य थे।
इनमें से 100 शिष्य एकांतवासी(वितरागी) हुए अर्थात् उन्होंने दादूपंथ के प्रचार-प्रसार हेतु कोई कार्य नहीं किया।
● 52 शिष्यों ने घूम-घूमकर अपने दादू द्वारों की स्थापना की, जो दादू पंथ में 52 थाम्बें (स्तम्भ) कहलाए। 52 शिष्यों में इनके दो पुत्र गरीबदासजी व मिस्किनदासजी थे।
● दादूदयाल जी के प्रमुख शिष्य –
(i) गरीबदासजी-
● दादूदयालजी के पुत्र थे, जो दादूदयालजी की मृत्यु के पश्चात् नरैना गद्दी पर बैठे थे।
● प्रमुख रचनाएँ:-
(1) आध्यात्म बोध
(2) अनभै प्रबोध
(3) साखी पद
(ii) संत रज्जब जी –
● जन्म- सांगानेर (जयपुर)
● प्रधान पीठ- सांगानेर (जयपुर)
● रज्जबजी परिणय सूत्र में बँधने जा रहे थे परन्तु रास्ते में दादूदयालजी के उपदेश सुनकर सांसारिक मोह-माया का त्याग करके दादूदयालजी के शिष्य बन गए।
● रज्जबजी जिन्दगी भर दूल्हे के वेश में रहे थे।
● रज्जबजी की मृत्यु सांगानेर में हुई थी।
● रज्जबजी के निवास स्थान को ‘रज्जब द्वार’ कहा गया।
● इनके शिष्यों को ‘रज्जबपंथी कहा जाता है।
● प्रमुख रचनाएँ- (1) रज्जब वाणी व सर्वंगी।
(iii) सुन्दरदासजी – जन्म – 1596 ई. में दौसा में।
● पिता- परमानंद जी खण्डेलवाल
● माता – सती
● प्रधान पीठ- दौसा
● सुन्दरदासजी को ‘दूसरा शंकराचार्य’ कहा जाता है।
● संत सुंदरदास ने दादू पंथ में नागा साधु वर्ग का प्रवर्तन किया।
● इनके द्वारा 42 ग्रंथों की रचना की गई थी, जिनमें प्रमुख हैं-
(1) सुन्दर विलास (2) ज्ञान समुन्दर
(3) ज्ञान सर्वेया (4) सुन्दर सार
(5) सुन्दर ग्रंथावली
● इनके ग्रंथों की भाषा पिंगल थी।
● वर्ष 1707 में इनकी मृत्यु सांगानेर में हुई थी।
(iv) बखनाजी
(v) मिस्किनदासजी
(vi) माधोदासजी
चरणदासजी
● जन्म- विक्रम संवत् 1760 में (1703ई.) भाद्रपद शुक्ल तृतीया
● जन्म स्थान- डेहरा गाँव (अलवर)
● पिता- मुरली धर
● माता- कुँजो बाई
● गुरु- सुखदेवजी
● बचपन का नाम- रणजीतसिंह
● प्रधान पीठ – नई दिल्ली
● एकमात्र संप्रदाय जिसकी प्रधानपीठ
राजस्थान से बाहर स्थापित है।
● निधन – 1782 (नई दिल्ली)
● मेला- बसंत पंचमी (समाधि पर, नई दिल्ली)
स्थापना – चरणदासी सम्प्रदाय
● चरणदासजी ने भाद्रपद शुक्ल तृतीया के दिन इस सम्प्रदाय की स्थापना की थी।
● यह सम्प्रदाय निर्गुण एवं सगुण भक्ति का मिश्रण है।
● इस सम्प्रदाय में कुल 42 नियम बताए गए हैं।
● इस सम्प्रदाय का अत्यधिक प्रभाव मेवात क्षेत्र एवं दिल्ली में है।
● जयपुर के कच्छवाहा वंश के शासक सवाई प्रतापसिंह चरणदासजी के अनुयायी थे।
● चरणदासजी ने नादिरशाह के आक्रमण की भविष्यवाणी की थी।(1739 ई. में आक्रमण किया था।)
● चरणदासजी के प्रमुख ग्रंथ –
(1) ब्रह्म ज्ञान सागर (2) भक्ति सागर
(3) ब्रह्म चरित्र (4) ज्ञान सर्वोदय
● प्रमुख शिष्याएँ –
(1) दयाबाई-
जन्म – डेहरा गाँव (अलवर)
प्रमुख ग्रंथ – दयाबोध, विनय मालिका
(2) सहजोबाई-
जन्म – डेहरा गाँव (अलवर)
● सहजोबाई ने भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति की थी, इन्हें ‘मत्स्य मीरा’ कहा जाता है।
प्रमुख ग्रंथ- सहज प्रकाश, सबद वाणी व सोलह तिथि
संत मावजी
● जन्म -1714 ई. में माघ शुक्ल पंचमी
● जन्म स्थान – साबला गाँव (डूँगरपुर)
● पिता- दालम ऋषि
● माता- केसर बाई
● प्रधानपीठ- साबला गाँव (डूँगरपुर)
● संत मावजी भगवान कृष्ण की भक्ति करते थे।
● स्थापना – निष्कलंक सम्प्रदाय
● मावजी को भगवान विष्णु का दसवां ‘कल्कि अवतार’ माना जाता है।
● इन्होंने कर्म, भक्ति और योग पर बल दिया था।
● संत मावजी ने सोम, माही व जाखम नदियों के संगम पर बेणेश्वर धाम की स्थापना की थी जहाँ पर प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा को बेणेश्वर मेला आयोजित होता है जिसे आदिवासियों का कुम्भ कहते हैं।
● चौपड़ा – संत मावजी की वाणियाँ ‘चौपड़ा’ कहलाती है, इनकी भाषा वागड़ी है, इसमें भगवान श्रीकृष्ण की लीलाएँ वर्णित हैं चौपड़े दीपावली के दिन ही बाहर निकाले जाते हैं एवं मकर सक्रांति को इनका वाचन होता है।
● इस पुस्तक में तीसरे विश्व युद्ध की भविष्यवाणी है।
● मावजी के अनुयायियों को ‘साध’ कहा जाता है।
संत रामचरणजी
● जन्म- 1719 ई. में माघ शुक्ल चतुर्दशी
● जन्म स्थान- सोडा गाँव (जयपुर)
● पिता- बखतारामजी
● माता- देवजी या देऊजी
● पत्नी- गुलाब कँवर
● गुरु – कृपारामजी,
● बचपन का नाम – रामकिशन
● प्रधान पीठ- शाहपुरा (भीलवाड़ा)
● स्थापना – रामस्नेही संप्रदाय
● रामचरण जी भीलवाड़ा में साधना करते समय मूर्ति पूजकों द्वारा परेशान करने पर कुहाड़ा गाँव चले गए। शाहपुरा के शासक रणसिंह के निमंत्रण प्राप्त होने पर रामचरण जी शाहपुरा पहुँचे और इन्होंने शाहपुरा में सन् 1751 में रामस्नेही सम्प्रदाय की मुख्य गद्दी स्थापित की।
● शाहपुरा में चैत्र कृष्ण द्वितीया से पंचमी तक फूलडोल उत्सव का आयोजन होता है।
● इन्होंने भगवान राम की निर्गुण उपासना की थी।
अणभै वाणी (अणर्भवाणी) – इस ग्रंथ में संत रामचरणजी के उपदेश संकलित है।
● इनके संत गुलाबी वस्त्र धारण करते हैं।
● रामचरणजी के 12 प्रधान शिष्य थे।
● 1798 ई. में शाहपुरा में रामचरणजी का देहान्त हुआ था।
● प्रार्थना स्थल को ‘रामद्वारा’ कहते हैं।
● राजस्थान में रामस्नेही सम्प्रदाय की अन्य पीठें हैं-
(1) रैण शाखा – मेड़ता सिटी, नागौर
● संस्थापक- संत दरियावजी
● जन्म – 1676 ई.
● जन्म स्थान- जैतारण (पाली)
● पिता – मानजी धुनिया
● माता – गीगा
● गुरु- प्रेमदास जी
● निधन – 1758 ई.
(2) खेड़ापा शाखा – जोधपुर
● संस्थापक – संत रामदासजी
● जन्म – विक्रम संवत् 1783 (1726 ई.)
● जन्म स्थान – भीकमकोर (जोधपुर)
● पिता– शार्दुलजी
● माता – अणभी
● गुरु – हरिरामदासजी
(3) सिंहथल शाखा – बीकानेर
● संस्थापक – हरिराम दास जी
● जन्म स्थान– सिंहथल (बीकानेर)
● पिता – भाग्यचन्द
● माता – रामी देवी
● गुरु – जैमल दास
● इनकी प्रमुख रचना – निशानी
संत लालदासजी
● जन्म–1504 ई. में श्रावण कृष्ण पंचमी
● जन्म स्थान – धौलीदूब गाँव (अलवर)
● पिता – चाँदमल
● माता – समदा
● पत्नी – मोगरी
● गुरु – फ़कीर गदन चिश्ती
● प्रधानपीठ – नगला (भरतपुर)
● समाधि स्थल – शेरपुर (अलवर)
● स्थापना – लालदासी सम्प्रदाय
● मेला – आश्विन शुक्ल एकादशी एवं माघ पूर्णिमा
● प्रमुख ग्रंथ– लालदासजी की चेतावनियाँ
● लालदासजी, मेव जाति के लकड़हारे थे।
● इन्होंने भगवान राम की निर्गुण उपासना करते हुए हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया था।
● अलवर व भरतपुर की मेव जाति में लालदासजी की अत्यधिक मान्यता है।
● इस सम्प्रदाय में दीक्षित करने हेतु व्यक्ति को सबसे पहले काला मुँह करके गधे पर उल्टा मुँह करके बिठाकर गाँव की गलियों में घूमाया जाता है, ताकि उसके जीवन में कोई भी अभिमान नहीं रहे।
● शाहजहाँ का पुत्र औरंगजेब जब लालदासजी से मिलने आया था, तब लालदासजी ने भविष्यवाणी की थी कि वह दिल्ली का शासक बनेगा, जो अपने भाइयों का वध करेगा।
हरिदास निरंजनी
● जन्म– 1455 ई.
● जन्म स्थान – कापड़ोद (डीडवाना, नागौर)
● गुरु– दादूदयालजी
● मूल नाम – हरिसिंह सांखला
● उपनाम – ‘कलयुग का वाल्मीकि’
● संन्यासी बनने से पहले डाकू थे।
● प्रधान पीठ – गाढ़ा (डीडवाना, नागौर)
● यहाँ पर हरिदासजी ने 1543 में
समाधि ली थी
● मेला – फाल्गुन शुक्ल एकम् से
फाल्गुन शुक्ल द्वादशी तक
● प्रमुख ग्रंथ– मंत्र राजप्रकाश और हरिपुरुष की वाणी
● इन्होंने निर्गुण भक्ति पर जोर दिया तथा बाह्याडम्बरों, मूर्तिपूजा, हिन्दू-मुस्लिम भेदभाव और ऊँच-नीच का विरोध किया।
● स्थापना – निरंजनी या निराला सम्प्रदाय
● इस संप्रदाय में परमात्मा को ‘अलख निरंजन’ या ‘हरि निरंजन’ कहा जाता है।
● इस सम्प्रदाय की शाखाएँ हैं-
● 1. निहंग – ये भिक्षा से उदरपूर्ति करते हैं, खाकी रंग की गुदड़ी गले में डाले रखते हैं।
2. घरबारी – ये गृहस्थ जीवन जीने वाले अनुयायी हैं।
● निरंजनी सम्प्रदाय नाथमल एवं संतमल के मध्य की कड़ी माना जाता है।
संत पीपा
● जन्म – 1425 ई. में चैत्र पूर्णिमा
● जन्म स्थान – गागरोन दुर्ग, झालावाड़
● पिता– कड़ावा राव
● माता – लक्ष्मीवती
● जाति – खींची राजपूत
● गुरु – रामानन्दजी
● बचपन का नाम – प्रतापसिंह
● संत पीपा की छतरी – गागरोन दुर्ग
● संत पीपा की गुफा – टोडा गाँव (टोंक)
● संत पीपा का मंदिर – समदड़ी गाँव (बाड़मेर)
● पीपा जी के अनुरोध पर द्वारिका जाते समय रामानन्द कबीर रैदास सहित अनेक शिष्यों के साथ गागरोन आए इसी समय पीपा भी अपनी छोटी रानी सीता सहित रामानन्दजी के साथ द्वारिका चले गए। इन्होंने राजपाट अपने भतीजे को सौंपकर वैराग्य धारण किया था।
● राज्य त्याग के पश्चात् पीपा जीविका के लिए सिलाई का काम करते थे। इसलिए दर्जी समुदाय के लोग इन्हें अपना आराध्य मानते हैं।
● जब दिल्ली के बादशाह फिरोजशाह तुगलक ने आक्रमण किया था, तब संत पीपा ने उसे पराजित किया था।
● पीपाजी ने बाह्य आडंबरों, कर्मकांडों एवं रूढ़ियों की कटु आलोचना की तथा बताया कि ईश्वर निर्गुण व निराकार है, वह सर्वत्र व्याप्त है।
● ऊँच–नीच की भावना, पर्दा प्रथा का कठोर विरोध उत्तरी भारत में पहली बार किया। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण उन्होंने स्वयं से दिया। अपनी पत्नी सीता सहचरी को आजीवन बिना पर्दे ही रखा, जबकि राजपूतों में पर्दा प्रथा का विशेष प्रचलन था।
श्रद्धानाथजी
● लक्ष्मणगढ़, सीकर
● इन्होंने शेखावाटी क्षेत्र में स्वयं शिक्षित न होते हुए भी जन-जन में शिक्षा की अलख जगाई।
परनामी संप्रदाय
● प्राणनाथ द्वारा स्थापित इस संप्रदाय के अनुयायी निर्गुण विचारधारा का पालन करते हैं।
● प्रधान पीठ – पन्ना, मध्य प्रदेश
● राजस्थान में इसका प्रभाव आदर्शनगर (जयपुर) में है।
● इस सम्प्रदाय के उपदेशों का संग्रह ‘कुजलम स्वरूप’ नामक ग्रंथ में मिलता है।
संत धन्ना
● जन्म स्थान- धुवन गाँव (टोंक)
● जाट परिवार में जन्म हुआ था।
● गुरु – रामानन्द
● उन्होंने राजस्थान में धार्मिक आंदोलन की शुरुआत की थी।
● मुख्य मंदिर – बोरानाडा (जोधपुर)
बालनन्दाचार्य
● मुख्य केन्द्र- लोहार्गल।
● अपने पास सेना रखते थे इसलिए उन्हें लश्कर संत कहा जाता है।
● औरंगजेब के खिलाफ 52 मूर्तियों की रक्षा की थी।
● अपनी सेना भेजकर मेवाड़ के महाराणा राजसिंह तथा मारवाड़ के दुर्गादास राठौड़ की औरंगजेब के खिलाफ मदद की थी।
राजाराम जी
● मुख्य केन्द्र – शिकारपुरा (जोधपुर)
● पटेल जाति के मुख्य सन्त है।
● इन्होंने पर्यावरण संरक्षण का संदेश दिया था।
नवल दास जी
● जन्म स्थान – हरसोलाव (नागौर)
● मुख्य मंदिर – जोधपुर
● स्थापना – नवल संप्रदाय
● पुस्तक – नवलेश्वर अनुभववाणी
स्वामी लाल गिरी
● जन्म स्थान – चूरू
● मुख्य केन्द्र- बीकानेर
● स्थापना – अलखिया सम्प्रदाय
● पुस्तक – अलख स्तुति प्रकाश
सन्त दास जी
● मुख्य केन्द्र – दाँतडा (भीलवाड़ा)
● इन्होंने गुदड़ सम्प्रदाय चलाया था।
संत सुन्दरदास जी
● प्रधान पीठ – फतेहपुर
● संत सुन्दरदास जी ने काशी के 80 घाट पर गोस्वामी तुलसीदास के साथ निवास किया था।
● परमहंस – जसनाथी सम्प्रदाय के विरक्त सन्त।

महिला संत :-
मीराबाई
● जन्म – 1498 में वैशाख शुक्ल तृतीया (आखातीज)
● पिता – रतन जी राठौड़ (बाजोली के जागीरदार)
● माता – वीर कँवर
● दादा – राव दूदा
● बचपन का नाम – पेमल
● गुरु (शिक्षक) – पंडित गजाधर
● उपनाम – राजस्थान की राधा।
● जन्म स्थान – कुड़की (पाली) में।
● विवाह – 1516 ई. में भोजराज से
(राणा सांगा का ज्येष्ठ पुत्र)
● आध्यात्मिक गुरु – संत रैदास व रूप गोस्वामी।
● रचनाएँ – पदावली, नरसी मेहता की हुंडी, रुक्मिणी मंगल, सत्यभामाजी नू रुसणो, राग गोविंद, मीरा री गरीबी, गीत गोविंद की टीका।
● मीरा के निर्देशन में रतना खाती ने ‘नरसी जी रो मायरो’ की रचना ब्रज भाषा में की।
● मीरा बाई ने सगुण भक्ति का सरल मार्ग भजन, नृत्य एवं कृष्ण स्मरण को बताया।
● मीरा की भक्ति माधुर्य भाव की थी।
● मीराबाई ने अपने जीवन के अंतिम दिन गुजरात के डाकोर स्थित रणछोड़ मंदिर में गुजारे।
गवरी बाई
● जन्म – डूँगरपुर के नागर कुल में।
● उपनाम – वागड़ की मीरा।
● रचना – कीर्तन माला।
● इन्होंने कृष्ण को पति के रूप में स्वीकार कर कृष्ण भक्ति की।
● डूँगरपुर के महारावल शिवसिंह ने गवरी बाई के प्रति श्रद्धास्वरूप बालमुकुन्द मन्दिर का निर्माण करवाया था।
संत रानाबाई
● जन्म – 1504 ई.
● जन्म स्थान – हरनावा (नागौर) में।
● दादा – जालिमसिंह
● पिता – रामगोपाल
● माता – गंगाबाई
● गुरु – संत चतुरदास।
● उपनाम – राजस्थान की दूसरी मीरा।
● संत राना बाई ने खोजी जी महाराज से शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की।
राना बाई कृष्ण भक्ति की संत थी।
● रानाबाई वृंदावन से गोपीनाथ और राधा की मूर्ति अपने साथ लेकर आई, हरनावा में मंदिर बनाकर उन्हें प्रतिष्ठित किया।
● राना बाई ने 1570 ई. में फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी के दिन हरनावा में जीवित समाधि ली थी। उनके समाधि स्थल पर प्रतिवर्ष शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को एक विशाल मेला लगता है।
● भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी को रानाबाई को आत्मज्ञान प्राप्त हुआ।
संत करमेती बाई
● पिता – परशुराम कांथड़िया (खण्डेला निवासी)
● मंदिर – खण्डेला (सीकर)
● कृष्ण भक्ति की संत।
● इन्होंने वृन्दावन के ब्रह्मकुण्ड में साधना की।
संत भूरी बाई
● मेवाड़ की महान महिला संत।
● इन्होंने निर्गुण-सगुण समन्वित भक्ति को स्वीकार किया।
● भूरीबाई उदयपुर की अलारखबाई तथा उस्ताद हैदराबादी के भजनों से प्रभावित थी।
संत नन्ही बाई
● खेतड़ी की सुप्रसिद्ध गायिका।
● गुरु – तानरस खाँ (दिल्ली घराना)
संत ज्ञानमति बाई
● कार्यक्षेत्र – गजगौर (जयपुर)
● उनकी ‘50 वाणियाँ’ प्रसिद्ध हैं।
संत रानी रूपादे
● राव मल्लीनाथ की रानी।
● गुरु – नाथजोगी उगमासी भाटी।
● निर्गुण भक्ति उपासिका।
● इन्होंने अलख को पति रूप में स्वीकार कर ईश्वर के एकत्व का उपदेश दिया था।
संत कर्मठी बाई
● कार्यक्षेत्र – बागड़ क्षेत्र।
● वृन्दावन में साधना की।
● कृष्ण उपासिका।
संत जनखुसाली बाई
● गुरु – हल्दिया अखेराम
● रचित ग्रन्थ – सन्तवाणी, गुरुदौनाव, अखैराम।
संत करमा बाई
● जन्म – कालवा गाँव (नागौर)
● भगवान जगन्नाथ की भक्त कवयित्री।
● मान्यता है कि भगवान ने उनके हाथ से खीचड़ा खाया था। उस घटना की स्मृति में आज भी जगन्नाथपुरी में भगवान को खीचड़ा परोसा जाता है।
संत फूली बाई
● कार्यक्षेत्र – जोधपुर।
● जोधपुर महाराजा जसवन्तसिंह ने फूली बाई को धर्मबहिन बनाया था।
जैन संत :-
आचार्य भिक्षु स्वामी
● अन्य नाम – भीखणजी
● जन्म – 1726
● जन्म स्थान – कंटालिया (जोधपुर)
● श्वेताम्बर जैन आचार्य।
● इस सम्प्रदाय के प्रथम आचार्य बने।
● 1760 ई. में जैन श्वेताम्बर के तेरापंथ
सम्प्रदाय की स्थापना की।
● स्वामीजी ने आषाढ़ पूर्णिमा को तेरापंथ धर्म संघ की स्थापना केलवा में की थी।
● राजस्थान की श्वेताम्बर शाखा की स्थानकवासी उपशाखा से विकसित पंथ।
● निधन – गुरुवार 2 सितंबर, 1803 ई. (वि.सं. 1860 भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी) को आचार्य भिक्षु का सिरियारी (पाली) में स्वर्गारोहण हुआ।
● इन्होंने एक आचार्य, एक शिष्य एवं एक विचार के सिद्धांत का प्रतिपादन किया।
आचार्य श्री तुलसी
● जन्म – 20 अक्टूबर, 1914
● जन्म स्थान – लाडनू (नागौर)
● पिता – झूमरमल
● माता – वदनाजी
● तेरापंथ सम्प्रदाय के आचार्य।
● ‘अणुव्रत’ का सिद्धान्त दिया।
● ‘जैन श्वेताम्बर सम्प्रदाय’ के
9वें आचार्य।
● वर्ष 1949 में चूरू जिले के सरदारशहर से ‘अणुव्रत आन्दोलन’ प्रारम्भ किया।
● अणुव्रत की नियमावली के अनुसार इन्होंने 75 नियमों की जानकारी दी।
● वर्ष 1980 में लाडनूं में ‘समण श्रेणी’ को प्रारम्भ किया।
● फरवरी, 1994 में सुजानगढ़ में ‘मर्यादा महोत्सव’ का आयोजन करवाया।
● आचार्य तुलसी का निधन 23 जून, 1997 को गंगाशहर (बीकानेर) में हुआ।
आचार्य महाप्रज्ञ
● जन्म – 14 जून, 1920
● जन्म स्थान – टमकोर (झुंझुनूँ)
● 1970 के दशक में ‘प्रेक्षाध्यान’ सिद्धान्त दिया।
● इस सिद्धान्त के चार चरण हैं – ध्यान,
योगासन एवं प्राणायाम, मंत्र एवं थेरेपी।
● सुजानगढ़ से वर्ष 2001 में ‘अहिंसा यात्रा’
प्रारम्भ की।
● वर्ष 1991 में लाडनूं में ‘जैन विश्व भारती’ डीम्ड विश्वविद्यालय की स्थापना की।
● वर्ष 2003 में जारी ‘सूरत स्प्रिचुअल घोषणा’ (SSD) के नेतृत्वकर्ता।
● रचित पुस्तकें – मंत्र साधना, योग, अनेकांतवाद, Art of thinking Positive, mysteries of Mind, Morror of World.
मुस्लिम संत :-
ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती
● जन्म स्थान – संजरी (फारस)
● पिता – हजरत ख्वाजा सैयद
● माता – बीबी साहेनूर
● अन्य नाम – गरीब नवाज
● गुरु – हजरत शेख उस्मान हारुनी।
● इंतकाल – 1233 में अजमेर में।
● रचित पुस्तक – ‘कंजुल इसरार’ (1215 ई. में)
● ‘आफताबे हिंद’ उपाधि से विभूषित।
● मुहम्मद गौरी ने ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती को ‘सुल्तान-उल-हिन्द’ की उपाधि दी।
● ख्वाजा साहब पृथ्वीराज चौहान तृतीय के काल में राजस्थान आए तथा अजमेर को कार्यस्थली बनाया।
● उन्होंने राजस्थान में चिश्ती सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया।
● अजमेर में ख्वाजा साहब की दरगाह है जहाँ प्रतिवर्ष रज्जब माह की 1 से 6 रज्जब तक उर्स का विशाल मेला भरता है। यह हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक सद्भाव का सर्वोत्तम स्थल है।
● अजमेर में ख्वाजा साहब की दरगाह का निर्माण इल्तुतमिश ने करवाया था।
● चिश्ती सिलसिला संगीत को ईश्वर प्रेम का महत्त्वपूर्ण साधन मानता है।
● मुगल बादशाह अकबर ने ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह की व्यवस्था के लिए 18 गाँव दिए थे।
● ईश्वर प्रेम तथा मानव की सेवा उनके प्रमुख सिद्धान्त थे।
शेख हमीदुद्दीन नागौरी
● कार्यक्षेत्र – नागौर का सुवाल गाँव।
● चिश्ती परम्परा के संत।
● नागौरी ने इल्तुतमिश द्वारा प्रदत्त ‘शेख-उल-इस्लाम’ के पद को अस्वीकार कर दिया।
● नागौरी केवल कृषि से जीविका चलाते थे।
● उपाधि – ‘सुल्तान-उल-तारीकिन’ (संन्यासियों के सुल्तान)
यह उपाधि ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती द्वारा दी गई।
● मृत्यु – 1274 ई.
● उर्स – नागौर
नरहड़ के पीर
● अन्य नाम – हजरत शक्कर बार, बागड़ के धणी
● दरगाह – नरहड़ ग्राम (चिड़ावा, झुंझुनूँ)
● उर्स – जन्माष्टमी (भाद्रपद कृष्ण अष्टमी)
● गुरु – शेख सलीम चिश्ती
● शेख सलीम चिश्ती के नाम पर बादशाह अकबर ने अपने पुत्र का नाम सलीम रखा।
● नरहड़ के पीर की दरगाह भावात्मक राष्ट्रीय एवं सामाजिक एकता का प्रतीक मानी जाती है।
पीर फखरुद्दीन
● दरगाह – गलियाकोट (डूँगरपुर)
● दाउदी बोहरा सम्प्रदाय के आराध्य पीर।
● दाउदी बोहरा सम्प्रदाय का प्रमुख धार्मिक स्थल – गलियाकोट (डूँगरपुर)
संत मीठेशाह की दरगाह – गागरोन दुर्ग |
मलिक शाह पीर की दरगाह – जालोर |
चोटिला पीर दुलेशाह की दरगाह – पाली |
खुदाबक्श बाबा की दरगाह – सादड़ी,पाली |
अमीर अली शाह पीर की दरगाह – दूदू ,जयपुर |
1 thought on “संत एवं सम्प्रदाय”