Sexual reproduction in flowering plants पुष्पीय पौधों में लैंगिक जनन

पुष्पीय पौधों में लैंगिक जनन

पुष्प (Flower)

पुष्प की परिभाषा:-

 “पुष्प एक विशिष्ट संघनित प्ररोह या शाखा है जो विशेष रूप से पौधों के प्रजनन का कार्य करता है।”

– आकारिकी की दृष्टि से पुष्प रूपान्तरित प्ररोह (Modified shoot) है। ऐन्जियोस्पर्म में पुष्प एक बहुत महत्त्वपूर्ण संरचना है।

प्रारूपिक पुष्प की रचना:-

सहपत्र (Bract):-

– जिस पत्ती या पत्ती के समान रचना के कक्ष (Axil) से एक पुष्प निकलता है, उसे सहपत्र (Bract) कहते हैं।

– वे पुष्प जो सहपत्र के कक्ष से निकलते हैं उन्हें सहपत्री पुष्प (Bracteate flowers) कहते हैं; जैसे मटर (Pea)

– जिन पुष्पों में सहपत्र नहीं पाया जाता है उन्हें सहपत्र रहित (Ebracteate) पुष्प कहते हैं; जैसे सरसों।

– यदि सहपत्र और पुष्प के बीच में पुष्पवृंत पर कोई और पत्ती के समान रचना या शल्क के आकार की रचना होती है, तो उन्हें सहपत्रिकाएँ (Bracteoles) कहते हैं।

– सहपत्र, पुष्प की कलिका की अवस्था में धूप और वर्षा से रक्षा करता है। जब कभी सहपत्र रंगीन होते हैं तो कीटों (Insects) को परागण क्रिया के लिए आकर्षित भी करते हैं, जैसे बोगेनविलिया। विन्यास (Arrangement) रंग व आकार के आधार पर सहपत्र निम्नलिखित प्रकार के होतें हैं-

सहपत्रों के प्रकार (Types of Bracts):-

(i) पर्णवत या पर्णी सहपत्र (Leafy bract):- जब सहपत्र बड़े, चपटे तथा पत्ती के समान होते हैं, जैसे- केपेरिस जेलेनिका (Capparis zeylanica)

(ii) शल्कीय सहपत्र (Scaly bract):- जब सहपत्र बहुत छोटे, पतले और रंगहीन (Colourless) होते हैं;

– जैसे- सूर्यमुखी के बिम्ब पुष्पक (Disc florets of Helianthus annuus)

(iii) स्पेथ (Spathe):- जब सहपत्र बहुत बड़े, रंगीन हो जाते हैं और पुष्पों के समूह अर्थात् पुष्पक्रम को पूर्ण रूप से ढकेलते हैं; जैसे-केला (Musa paradisiaca)

(iv) दलाभ सहपत्र (Petaloid bract):- जब सहपत्र, दल के समान रंगीन हो जाते हैं, जैसे -बोगेनविलिया (Bougainvillea)

(v) निचक्र (Involucre):- जब पुष्प या पूरे पुष्पक्रम के चारों ओर सहपत्रों का एक चक्र या घेरा होता है; जैसे- सूर्यमुखी (Sunflower)

(vi) अनुबाह्यदल (Epicalyx):- जब सहपत्र या सहपत्रिकाएँ चक्र के रूप में बाह्यदलपुंज के बाहर पाई जाती है, जैसे-गुड़हल (Hibiscus rosa sinensis)

(vii) तुषसहपत्र (Glumes):- जब सहपत्र, छोटे, सूखे व भूरे रंग के होते हैं, तो उनको तुषसहपत्र कहते हैं। जैसे घास कुल (Grass family) के पादप, गेहूँ (Triticum aestivium)।

पुष्पवृन्त (Pedicel):-

– किसी प्रारूपिक पुष्प (Typical flower) में एक पतला डण्ठल होता है जिसके द्वारा पुष्प शाखा या पुष्पावलीवृन्त (Peduncle) पर स्थित होता है, उस वृन्त को पुष्पवृन्त (Pedicel) कहते हैं।

– ऐसा पुष्प जिसके साथ वृन्त उपस्थित हो उसे सवृन्त (Pedicillate) कहते हैं, जैसे गुड़हल। ऐसा पुष्प जिसमें वृन्त का अभाव हो उसे अवृन्त (Sessile) कहते हैं, जैसे-ऐडहेटोडा (Adhatoda)

बाह्यदलपुंज (Calyx):-

– पुष्प के सबसे बाहर वाले चक्र को बाह्यदलपुंज (Calyx) कहते हैं तथा इसके प्रत्येक पुष्प पत्र को बाह्यदल कहते हैं। आकृति एवं आकार में लगभग पर्ण के समान (Sepal) ही होते हैं। सामान्यतया इनका रंग हरा होता है।

– बाह्यदलपुंज में जब सारे बाह्यदल (Sepals) अलग-अलग होते हैं, तो इस प्रकार के बाह्यदलपुंज को पृथक् बाह्यदलीय (Polysepalous : poly= कई) कहते हैं, जैसे सरसों, गुलाब, मूली आदि।

– जब सारे बाह्यदल जुड़ जाते हैं तो उसे संयुक्त बाह्यदलीय (Gamosepalous; Gamo= संयुक्त) कहते हैं, जैसे- मटर, गुड़हल आदि।

– बाह्यदलपुंज, पुष्प की कलिकावस्था में धूप, पानी, शीत, फफूँदी और हानिकारक कीटों से रक्षा करता है।

दलपुंज (Corolla):-

– पुष्प का दूसरा चक्र दलपुंज कहलाता है। इसके प्रत्येक पुष्प पत्रक को दल या पंखुड़ी (Petal) कहते हैं। दल प्रायः रंगीन और सुगंधयुक्त होते हैं।

– इनका मुख्य कार्य परागण के लिए कीटों को अपने रंग और सुगंध द्वारा आकर्षित करना है।

– दलपुंज के सदस्य जब एक-दूसरे से पृथक् हों तो पृथक्दली (Polypetalous) और जब एक-दूसरे से संयुक्त रहते हैं तो संयुक्तदली (Gamopetalous) कहलाता है।

पुष्पदल विन्यास (Aestivation):-

– पुष्पकलिका की अवस्था में बाह्यदलपुंज और दलपुंज में, एक बाह्यदल का दूसरे बाह्यदल के साथ और एक दल का दूसरे दल के साथ पारस्परिक संबंध (लगे रहने के क्रम) को पुष्पदल विन्यास (Aestivation) कहते हैं। पुष्पदल विन्यास मुख्यतः निम्नलिखित प्रकार के हो सकते हैं–

(i)  कोरस्पर्शी (Valvate):- बाह्यदल व दलपुंज एक चक्र में व्यवस्थित होते हैं तथा यह एक सीमा पर एक-दूसरे को छूते हैं। उदाहरण – अकेशिया, केलोट्रॉपिस

(ii)  व्यावर्तित (Twisted or Contorted):- इस प्रकार के विन्यास में एक बाह्यदल एवं दलपुंज की सीमा दूसरे बाह्यदल व दलपुंज को अधिव्यापित करती है और दूसरी सीमा आगे वाली को अधिव्यापित करती है। उदाहरण – गुडहल/हिबिस्कस

(iii)  कोरछादी (Imbricate):- इसमें बाह्यदल तथा दलपुंज का अधिव्यापन होता है परन्तु उसकी दिशा निश्चित नहीं होती है। उदाहरण – अमलतास

(a) सरल कोरछादी (Simple Imbricate):- जब एक सदस्य पूर्णतः ढका हुआ तथा एक पूर्णतः बाहर तथा शेष तीन व्यावृत स्थिति में होते हैं।

(b) अवरोही कोरछादी या ध्वजीय (Descending Imbricate or Vexillary):- इसमें पश्च दलपुंज सबसे बड़ा तथा दो पार्श्व दलपुंजों को ढकता है तथा दो अग्र छोटे दलपुंज होते हैं।

(c) आरोही कोरछादी (Ascending Imbricate):- जब पश्चतम सदस्य पूर्णतः ढके हुए तीन सदस्यों की पश्च सतहें (किनारे) बाहर व अग्र सतहें ढकी हुई जबकि अग्रतम एक सदस्य की दोनों सतहें (किनारे) बाहर होती हैं। उदाहरण – केशिया।

(d) क्विन्कुशियल (Quincuncial):- इसमें पाँच बाह्यदल तथा दलपुंज में दो पूर्ण रूप से अन्दर तथा दो पूर्ण रूप से बाहर तथा एक आधा अन्दर तथा आधा बाहर होता है। उदाहरण – कुकुरबिटा

पुमंग (Androecium):-

– पुमंग पुष्प का नर जननेन्द्रिय चक्र (Male reproductive whorl) होता है। इसके प्रत्येक सदस्य को पुंकेसर (Stamen) कहते हैं। पुंकेसर भी रूपान्तरित पत्तियाँ (Modified leaves) हैं। पुंकेसर परागकण (Pollen grains) या लघुबीजाणुओं (Microspores) को उत्पन्न करते हैं।

– प्रत्येक पुंकेसर के तीन भाग होते हैं –

(i) पुतन्तु (Filament)

(ii) योजी (Connective)

(iii) परागकोष (Anther)

– पुतन्तु एक पतले वृन्त के समान संरचना होती है। इसका निचला सिरा पुष्पासन से जुड़ा रहता है और ऊपर वाला सिरा योजी में विस्तारित हो जाता है।

– पुतन्तु के शीर्षस्थ भाग पर परागकोष होता है। परागकोष में दो पालियाँ (Lobes) होती हैं।  जो योजी द्वारा जुड़ी रहती हैं। प्रत्येक पालि में दो कोष्ठ  (Chambers) होते हैं, जिन्हें परागपुट (Pollen sacs) कहते हैं।  इस प्रकार प्रत्येक परागकोष में चार परागपुट होते हैं, जिनमें  परागकण (Pollen grains) भरे रहते हैं।

पुंकेसरों का ससंजन (Cohesion of stamens):-

– सामान्यतया पुमंग में पुंकेसर एक-दूसरे से अलग-अलग रहते हैं। इस अवस्था को पृथक् पुंकेसरी (Polyandrous) कहते हैं।

– कुछ पौधों में पुंकेसर के कुछ भाग या पूर्ण पुंकेसर परस्पर एक-दूसरे से संयुक्त हो जाते हैं। इसे ससंजन (Cohesion) कहते हैं। यह मुख्यतया पाँच प्रकार की होती है-

(I)  एकसंघी पुंकेसर (Monadelphous):- इस अवस्था में पुमंग के सभी पुंकेसरों के पुतंतु संयुक्त होकर एक संघ या नलिका बनाते हैं जिसे पुंकेसरी नाल (Staminal tube) कहते हैं। इनके परागकोष पृथक् रहते हैं। उदाहरण-माल्वेसी कुल के पौधे; जैसे – कपास, भिण्डी, गुडहल आदि।

(ii)  द्विसंघी पुंकेसर (Diadelphous)– अवस्था में पुंकेसरों के पुतन्तु दो संघों या समूहों में ससंजित हो जाते हैं और परागकोष स्वतन्त्र रहते हैं। उदाहरण-मटर कुल (पपिलियोनेटी कुल) के पादप; जैसे-सेम, मटर आदि।

(iii) बहुसंघी पुंकेसर (Polyadelphous):- इस अवस्था में पुंकेसरों के पुतन्तु दो से अधिक समूहों में जुड़ जाते हैं परन्तु परागकोष पृथक् रहते हैं। उदाहरण- समल, नीबू, संतरा आदि।

(iv) युक्तकोशी पुंकेसर (Syngenesious):- इस अवस्था में पुंकेसर के परागकोष आपस में संयुक्त हो जाते हैं लेकिन पुतन्तु पृथक् रहते हैं, उदाहरण- सूरजमुखी कुल के पादप; जैसे – सूर्यमुखी, ट्राइडेक्स (Tridax) आदि।

(v)  संपुमंगी पुंकेसर (Synandrous):- इस अवस्था में पुंकेसर पूर्ण लम्बाई में जुड़े रहते हैं अर्थात् पुतन्तु और परागकोष दोनों ही जुड़े हों, उदाहरण- कुकुरबिटा, (Cucurbita) खीरा आदि।

पुंकेसरों का आसंजन (Adhesion of stamens):-

– पुष्प के दो भिन्न चक्रों जैसे पुमंग व दलपुंज अथवा अन्य का आपस में संयुक्त हो जाना आसंजन कहलाता है।

– आवृतबीजी पुष्पों में आसंजन की तीन अवस्थाएँ मिलती हैं–

(i) दललग्न पुंकेसर (Epipetalous):- जब पुतन्तु का आधार भाग, दल से संयुक्त हो; जैसे – धतूरा, आलू आदि।

(ii)  परिदललग्न पुंकेसर (Epiphyllous):- जब पुतन्तु का आधार भाग, परिदल के पत्रों से संयुक्त हो जाता है, जैसे-प्याज, लहसुन आदि।

(iii)  पुंजायांगी पुंकेसर (Gynandrous):- जब पुंकेसरों के पुतन्तु (Filament) जायांग के किसी भाग से संयुक्त हो जाते हैं, जैसे-आक (Calotropis)

जायांग (Gynoecium):-

– जायांग (Gynoecium-Gyne= मादा “Female”) या स्त्रीकेसर (Pistil) का आकार मूसल के समान होता है।

– यह पुष्प का मादा जननेन्द्रिय चक्र (Female reproductive whorl) होता है।

– यह एक या एक से अधिक अण्डपों (Carpels) या गुरुबीजाणुपर्णों (Megasporophylls) से मिलकर बनता है। पुंकेसर के समान ये भी विशेष प्रकार की पत्तियों के रूपान्तरण हैं जो मादा बीजाणु (Female spores) या गुरुबीजाणु (Megarpose) उत्पन्न करते हैं।

– पुंकेसरों की तुलना में अण्डपों या गुरुबीजाणुपर्णों की संख्या सदैव कम होती है। अण्डप के तीन प्रमुख भाग होते हैं-

1. अण्डाशय

2. वर्तिका

3. वर्तिकाग्र

– अण्डप का नीचे वाला फूला हुआ भाग अण्डाशय (Ovary) कहलाता है। इसका आधार भाग पुष्पासन पर जुड़ा रहता है। इसका शीर्ष भाग एक कोमल, पतले वृन्त के समान संरचना में परिणित रहता है जिसे वर्तिका (Style) कहते हैं। वर्तिका का ऊपरी सिरा कुछ फूला हुआ, गोलाकार, चपटा, अवतल या पालियों युक्त होता है। इसे वर्तिकाग्र (Stigma) कहते हैं।

– कुछ पुष्पों; जैसे मटर, सेम, चना आदि में केवल एक होता है, ऐसे जायांग को (Monocarpellary) कहते हैं।

– जब जायांग में कई अण्डप हैं, तो इसे बहुअण्डपी (Polycarpellary) कहते हैं।

– बहुअण्डपी जायांग में जब सभी अण्डप एक-दूसरे से पृथक् रहते हैं, तो अवस्था को वियुक्ताण्डपी (Apocarpous) कहते हैं, जैसे-गुलाब, चम्पा, कमल आदि।

– पुंकेसरों के समान अण्डप रूप से या इनके कुछ भाग परस्पर संयुक्त हो जाते हैं, ऐसे जायांग को युक्ताण्डपी (Syncarpous) कहते हैं; जैसे-गुड़हल।

बीजाण्डन्यास (Placentation):-

– अण्डाशय में जिस स्थान पर बीजाण्ड परिवर्धित होता है उसे बीजाण्डासन (Placenta) कहते हैं। अण्डाशय में बीजाण्डासन के विन्यास को बीजाण्डन्यास कहते हैं। यह मुख्यतः निम्नलिखित प्रकार का होता है-

1. सीमान्त (Marginal):-

– इस प्रकार के बीजाण्डान्यास में एकअण्डपी (Monocarpellary) जायांग मिलता है। अण्डाशय एककोष्ठीय (Unilocular) होता है में बीजाण्डासन, एक ही अण्डप (Carpel) के दोनों किनारों के जोड़ (संयुक्त फलक कोर) पर स्थित होते हैं। इन्हीं बीजाण्डासनों पर बीजाण्डों का परिवर्द्धन होता है; उदाहरण- मटर, चना, सेम।

2. स्तम्भीय (Axile):-

– इस प्रकार का बीजाण्डान्यास द्वि या बहुअण्डपी, युक्ताण्डपी, कोष्ठीय अण्डाशय में मिलता है। अण्डपों के संयुक्त कोर, वृद्धि का अण्डाशय के केन्द्र भाग में परस्पर संयुक्त हो जाते हैं। परिणामत: केन्द्र में एक अक्ष बन जाता है और अण्डाशय कई प्रकोष्ठों में बँट जाता है। प्रत्येक प्रकोष्ठ में बीजाण्ड, केन्द्रीय अक्ष पर उत्पन्न होते हैं; उदाहरण- गुडहल, टमाटर, प्याज।

3. मुक्तस्तम्भीय (Free central):-

– इस प्रकार का बीजाण्डन्यास बहुअण्डपी, युक्ताण्डपी एवं एककोष्ठीय अण्डाशय में पाया जाता है। इसमें बीजाण्ड केन्द्रीय अक्ष (Central axis) पर लगे रहते हैं; जैसे प्रिमरोज (Primula), डायरेथस।

4. भित्तीय (Parietal):- इस प्रकार बीजाण्डन्यास बहुअण्डपी, एवं सदैव युक्ताण्डपी एककोष्ठी अण्डाशय में मिलता है। बीजाण्ड अण्डाशय की परिधि (भित्ति) पर अण्डपों के संधि स्थल पर लगे होते हैं; जैसे सरसों, मूली, सत्यानाशी।

5. आधारलग्न (Basal):-

– इस प्रकार का बीजाण्डन्यास बहुअण्डपी, युक्ताण्डपी, एक कोष्ठीय अण्डाशय में पाया जाता है। केवल एक बीजाण्ड, अण्डाशय के आधार भाग पर परिवर्धित होता है; जैसे–सूर्यमुखी (Sunflower), मैरीगोल्ड (Tagetes)।

6. परिभित्तीय (Superficial):-

– इस प्रकार का बीजाण्डन्यास, बहुअण्डपी, युक्ताण्डपी एवं बहुकोष्ठीय अण्डाशय में मिलता है। बीजाण्ड कोष्ठों की भित्तियों पर लगे होते हैं; जैसे-कमल, जललिली।

अण्डाशय की स्थिति (Position of ovary):-

1.  उर्ध्ववर्ती (Superior):- जब अण्डाशय पुष्पासन पर सबसे शीर्ष पर स्थित हो अर्थात् पुष्प अधोजायांगी या जायांगाधर (Hypogynous) होता है; जैसे- नीबू (Citrus), सरसों आदि।

2.  अर्द्धअधोवर्ती (Half inferior):- जब अण्डाशय प्यालेनुमा पुष्पासन के भीतर केन्द्र में स्थित हो, लेकिन पुष्पासन व अण्डाशय संयुक्त नहीं होते अर्थात् पुष्प परिजायांगी (Perigynous) होता है; जैसे- प्रिमरोज, गुलाब आदि।

3.  अधोवर्ती (Inferior):- जब अण्डाशय पुष्पासन से संयुक्त एवम् अन्य चक्र ऊपर हो अर्थात् पुष्प जायांगोपरिक (Epigynous) होता है; जैसे- ट्राइडेक्स (Tridax) अमरूद।

पुष्पक्रम (Inflorescence)

–  पुष्पों का निर्माण केवल आवृतबीजी पादपों (Angiospermic plants) में होता है तथा इनका निर्माण पुष्प कलिका (floral bud) द्वारा होता है। 

–  पादप में पुष्पों के क्रम या व्यवस्था को पुष्पक्रम (inflorescence) कहते हैं।

–    एक पुष्पक्रम में सभी पुष्प जिस आधार पर व्यवस्थित होते हैं, उस अक्ष को पुष्पावलीवृन्त (peduncle) कहते हैं।

–   एक पुष्प के वृन्त को पुष्पवृन्त (pedicel) कहते हैं।

पुष्पक्रम निम्नलिखित प्रकार के होते हैं–

(A)  असीमाक्ष (Raemose)

(B)  ससीमाक्ष (Cymose)

(C)  विशेष प्रकार का (Special type)

(A)  असीमाक्ष पुष्पक्रम (Racemose type):-

 पुष्पावली वृन्त की लम्बाई अथवा आकार के आधार पर असीमाक्ष पुष्पक्रम का अध्ययन निम्नलिखित तीन शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है–

(I)  पुष्पक्रम जिनमें पुष्पावलीवृन्त लम्बा होता है।

(II)  पुष्पक्रम जिनमें पुष्पावलीवृन्त अपेक्षाकृत छोटा होता है।

(III) पुष्पक्रम जिनमें पुष्पावलीवृन्त चपटा या तश्तरीनुमा (अवतल या उत्तल) होता है।

(I)  असीमाक्ष पुष्पक्रम जिनमें पुष्पावलीवृन्त लम्बा होता है:-

(i) असीमाक्ष (Raceme):- पुष्पक्रम सरल, सुदीर्घित, द्विलिंगी व सवृन्त पुष्प अग्राभिसारी क्रम में व्यवस्थित होते हैं, उदाहरण-मूली, सरसों, अमलतास आदि।

(ii) यौगिक असीमाक्ष (Compound raceme or Panicle):- कई असीमाक्षों से निर्मित असीमाक्ष उदाहरण-गुलमोहर (Delonix regia), युक्का।

(iii) कणिश या शूकी (Spike):- जब लम्बी अशाखित, पुष्पावलीवृंत्त पर अनेक वृन्तहीन पुष्प अग्राभिसारी क्रम में व्यवस्थित होते हैं, कणिश कहलाता है। उदाहरण- चौलाई (Amarantinus), काली मिर्च (Piper longum) आदि।

(iv) कणिशिका या अनुशूकी (Spikelet):- एक सूक्ष्म स्पाइक जिसमें शुष्क व खुरदरे सहपत्र (Bract) लगे होते हैं। उदाहरण-गेहूँ (Triticum), दूब (Cynodon) आदि।

(v) मंजरी या नतकणिश (Catkin):- इसमें पुष्पावलीवृन्त दुर्बल या कोमल, लम्बा व लटका हुआ होता है। पुष्पावली वृन्त पर अनेक वृन्तहीन, एकलिंगी पुष्प लगे रहते हैं। उदाहरण शहतूत (Morus Indica), ऑक (Quercus) इत्यादि।

(vi) स्पेडिक्स (Spadix):- पुष्पावली वृन्त लम्बा, मोटा व मांसलदार (fleshy) होता है। इस पर अनेक वृन्तहीन (sessile), एकलिंगी (unisexual) पुष्प समान रूप से लगे होते हैं। सम्पूर्ण पुष्प एक बड़ी रंगीन या हरे रंग की सहपत्र (bract) से ढका होता है, जिसे स्पेथ कहते हैं। स्पेथ पुष्पों की रक्षा करने के साथ-साथ परागण हेतु कीटों को आकर्षित करता है, उदाहरण- केला (Musa), मक्का (Zea mays), खजूर (Date palm) आदि।

(II) असीमाक्ष पुष्पक्रम जिनमें पुष्पावलीवृन्त अपेक्षाकृत छोटा होता है:-

(i) समशिख (Corymb):- पुष्पक्रम अक्ष अपेक्षाकृत लम्बा, सवृंत द्विलिंगी पुष्प अग्राभिसारी क्रम में व्यवस्थित नीचे के पुष्पों के पुष्पवृन्त लम्बे तथा ऊपर के पुष्पों के पुष्पवृन्त छोटे होते हैं जिससे सभी पुष्प एक समान स्तर पर उठे रहते हैं। उदाहरण कैन्डीटपट (Iberis amara)

(ii) पुष्पछत्र (Umbel):- पुष्पावलीवृन्त छोटा परन्तु इसके शीर्ष पर से अनेक सवृन्ती पुष्प निकलते हैं। इनके पुष्पवृन्त (pedicel) की लम्बाई लगभग समान होती है जिस कारण सभी पुष्प एक ही तल में रहते हैं। इनमें प्रत्येक पुष्प के उद्गम स्थान पर सहपत्र (bract) का एक चक्र होता है जो सहपत्र (involucre) बनाते हैं; उदाहरण- ब्राह्मीबूंद (Centella asiatica)

(iii) यौगिक पुष्पछत्र (Compound umbel):- यह कई पुष्पछत्रों से बना पुष्पछत्र पुष्पक्रम है। पुष्पछत्रों के आधार पर स्थित सहपत्रों के चक्र को सहपत्रचक्र (involucre) पुष्पवृन्तों के आधार पर स्थित सहपत्रों के चक्र को सहपत्रिकाचक्र (involucel) कहते हैं; उदाहरण- धनिया (Coriandrum), सौंफ (Foeniculum) आदि।

(III)  असीमाक्ष पुष्पक्रम जिनमें पुष्पावलीवृन्त चपटा होता है:-

(i) मुंडक या केपिटुलम (Head or Capitulum):- पुष्पावली वृन्त चपटा, तश्तरीनुमा अवतल या उत्तल होता है तथा इस पर अनेक छोटे अवृन्त पुष्प सघन रूप में व्यवस्थित रहते हैं। इन छोटे पुष्पों को पुष्पक (florets) कहते हैं। केन्द्रीय पुष्पों को बिम्ब पुष्पक (disc florets) तथा परिधि वालों को रे पुष्पक (ray florets) कहते हैं। उदाहरण–कम्पोजिटी या एस्टेरेसी के पादप, जैसे—सूर्यमुखी (Heliantinus)

(B) सीमाक्ष पुष्पक्रम (Cymose inflorescence):-

(i)  एकल (Solitary):- पादप शीर्ष या शाखाओं के शीर्ष पर स्थित शीर्षस्थ कलिका पुष्प में रूपान्तरित हो जाती है-

(a)  एकल कक्षस्थ (Solitary axillary):- पत्ती के कक्ष में उपस्थित कक्षस्थ कलिका (axillary bud) का पुष्प में  रूपान्तरण एकल कक्षस्थ पुष्प कहलाता है; उदाहरण-गुड़हल (Hibiscus rosa sinensis)।

(b)  एकल अन्तस्थ (Solitary terminal):- शाखा के शीर्ष पर स्थित शीर्षक कलिका (terminal bud) का पुष्प में परिवर्तन एकल शीर्षस्थ पुष्प कहलाता है; उदाहरण सत्यानाशी (Argemome:maxicana), कुमुदनी (Lily) आदि।

(ii)  एकशाखी ससीमाक्ष (Uniparous or monochasial cymose):- पुष्पक्रम अक्ष के शीर्ष पर एक पुष्प होता है तथा इसके नीचे किसी भी एक सतह पर नया पुष्प विकसित होता है। यह पुन: मुख्य दो प्रकार का हो सकता है।

(a) कुण्डलनी ससीमाक्ष (Helicoid cyme):- यदि पुष्पावली वृन्त से सभी शाखाएँ एक ही तरफ विकसित हो तो इसे कुण्डलनी ससीमाक्ष (Helicoid cyme) कहते हैं; उदाहरण-हीलियोट्रोपियम (Heliotropium)

(b) कुटिल ससीमाक्ष (Scorpioid cyme):- यदि पुष्पावली वृत्त पर शाखा सीढ़ीनुमा क्रम में हो तो इस पुष्पक्रम को कुटिल या वृश्चिकी ससीमाक्ष (Scorpioid cyme) कहते हैं; उदाहरण-बिगोनिया (Begonia), हेमीलिया (Hamelia) आदि।

(iii) द्विशाखी ससीमाक्षी (Biparous or dichasial cymose):-

– पुष्पक्रम अक्ष के शीर्ष पर एक पुष्प होता है तथा इसके नीचे सम्मुख रूप से दो पुष्प (दोनों सतहों पर एक-एक) उत्पन्न होते हैं। उदाहरण – डाएन्थस (Dianthus), सेपोनेरिया (Saponaria), इक्जोरा (Exora) आदि।

(iv)  बहुशाखी ससीमाक्ष (Multiparous or polychasial cymose):- पुष्पक्रम अक्ष के शीर्ष पर एक पुष्प होता है तथा इसके नीचे एक ही स्थान पर दो से अधिक पुष्प उत्पन्न होते हैं; उदाहरण – ऑक हेमिलिया।

(C) विशेष प्रकार के पुष्पक्रम:-

(i)  साएथियम (Cyathium):-

– इस प्रकार का पुष्पक्रम मुख्यत: यूफोर्बियेसी कुल में पाया जाता है। सम्पूर्ण पुष्पक्रम एक पुष्प के समान प्रदर्शित होता है। इसके प्रत्येक पुष्प सहपत्रयुक्त (bracteate) होते हैं। समस्त सहपत्र मिलकर एक प्यालेनुमा संरचना बनाते हैं जिसे सहपत्रचक्र (involucre) कहते हैं। सहपत्रचक्र के बाहर किनारे पर एक मकरन्द ग्रन्थि (nectar gland) होती है जिसमें मकरन्द स्त्रावित होता है।

– मादा पुष्प के चारों ओर अनेक नर पुष्पों का समूह होता है। साएथियम पुष्पक्रम वस्तुतः ससीमाक्ष पुष्पक्रम का रूपान्तरण है; उदाहरण – यूफोर्बिया पल्चेरिमा (Euphorbia pulcherima), लाल पत्ता या पोइनसिटिया (Poinsettia or Euphorbia splendens)

(ii) कूटचक्रक (Verticillaster):-

– यह द्विशाखी ससीमाक्ष (biparous cymose) पुष्पक्रम का संघनित रूप है प्रत्येक पत्ती के कक्ष से एक पुष्पक्रम निकलता है। पुष्पक्रम में सभी पुष्प अवृत्ती, छोटे तथा सन्निकट होते हैं, उदाहरण-पुदीना (Mentha arvensis), तुलसी (Ocimum), ल्यूकास (Leucas)।

(iii) हाइपैन्थोडियम (Hypanthodium):-

– हाइपैन्थोडियम में पुष्पासन (thalamus) मांसल, मोटा, नाशपतीदार, अत्यधिक संकरे मुखवाला, खोखले प्यालेनुमा संरचना वाला होता है। पुष्प छोटे व एकलिंगी होते हैं जो खोखले प्याले की भीतरी सतह पर लगते हैं। छिद्र के समीप वाले नर पुष्प होते हैं तथा आधार की ओर मादा पुष्प लगते हैं। यह पुष्पक्रम वस्तुतः मुण्डक (capitulum) का रूपान्तरण है। यह पुष्पक्रम फाइकस (Ficus) जाति; जैसे – बरगद, अंजीर, पीपल व गूलर इत्यादि में पाया जाता है।

बीज (Seed):-

– अनावृतबीजी पादपों व आवृतबीजी पादपों दोनों में बीज बनते हैं।

– आवृतबीजी पादपों में निषेचन के फलस्वरूप बीजाण्ड से बीज बनते हैं जो फलों में व्यवस्थित व सुरक्षित रहते हैं।

– बीज में एक बीजावरण तथा भ्रूण होता है। प्रत्येक भ्रूण में एक भ्रूणीय अक्ष तथा एक  अथवा दो बीजपत्र होते हैं। ध्रूवीय अक्ष (Axis) का ऊपरी सिरा प्रांकुर (Plumule) निचला सिरा मूलांकुर (Radicle) कहलाता है।

– बीजाण्ड से बीज बनने के दौरान होने वाले परिवर्तन इस प्रकार हैं–

निषेचन से पूर्वनिषेचन के पश्चात्
बीजाण्ड (Ovule)बीज (Seed)
बाह्य अध्यावरणबाह्य बीजचोल (Testa)
अंतः अध्यावरणअंतः बीजचोल (Tegmen)
बीजाण्ड वृन्तनष्ट हो जाता है
बीजाण्डकायनष्ट हो जाता है या परिभ्रूणपोष (Perisperm) बनाता है।
अण्डकोशिकाभ्रूण (Embryo)

– बीजपत्रों की उपस्थिति के आधार पर बीज दो प्रकार के होते हैं–

(i)  द्विबीजपत्री (Dicotyledonous seed)

(ii)  एकबीजपत्री (Monocotyledonous seed)

– द्विबीजपत्री बीज की संरचना (Structure of Dicotyledonous seed):-

– सामान्यीकृत द्विबीजपत्री बीज के निम्नलिखित भाग होते हैं–

1.  बीजावरण (Seed coat):-

– बीजावरण की दो सतहें होती हैं, बाहरी सतह बीज का सबसे ऊपरी छिलका होता है जो कि विभिन्न रंगों का हो सकता है, उसे बाह्य बीजचोल (Testa) और भीतरी सतह जो कि श्वेत पतली बीजपत्रों (Cotyledones) को घेरे हुए, एक भ्रूणीय झिल्ली के रूप में होती है, उसे अंतः बीजचोल (Tegmen) कहते हैं।

– प्रत्येक बीज में एक छोटा छिद्र बीजाण्ड (Micropyle) होता है।

2.  भ्रूण (Embryo):-

 बीजावरण को हटाने पर भ्रूण की एक अक्ष और दो गुद्देदार बीजपत्र होते हैं। अक्ष (Axis) का एक सिरा प्रांकुर (Plumule) तथा दूसरा मूलांकुर (Radicle) कहलाता है। प्रांकुर वृद्धि कर प्ररोह (Shoot) तथा मूलांकुर वृद्धि कर जड़ (Root) बनाता है।

3.  भ्रूणपोष (Endosperm):-

– भ्रूणपोष एक भोजन संग्राहक ऊत्तक है जो द्विनिषेचन के फलस्वरूप बनता है तथा कई बीजों में उपस्थित रहता है। चना मटर, सेम में भ्रूणपोष प्रारम्भिक अवस्था में पाया जाता है, लेकिन परिपक्व बीजों में यह उपभोगित हो जाता है।

 एकबीजपत्री बीज की संरचना (Structure of monocotyledonous seed):-

– मक्का का बीज एक बीजपत्री बीज है। जिसमें बीजावरण (Seed coat) व एक छोटी, सफेद, लम्बी अण्डाकार रचना होती है, जिसमें भ्रूण तक के दाने की अनुदैर्ध्य काट (Longitudinal स्थित होता है। एकबीजपत्री बीज के अनुदैर्ध्य काट में निम्नलिखित रचनाएँ देखने को मिलती हैं–

1. बीजावरण (Seed coat):-

 यह बीज चारों ओर पीले रंग की पतली झिल्ली के रूप में होता है। वास्तव में बीजावरण व फलभित्ति पूर्णतः आपस में संयुक्त होते हैं।

2.  भ्रूणपोष (Endosperm):-

– भ्रूणपोष बीज का ऊपरी बड़ा व चपटा भाग है जो प्रायः पीले या सफेद रंग का होता है तथा इसमें भोज्य पदार्थ स्टार्च  के रूप में रहता है। भ्रूणपोष की सबसे बाहरी सतह प्रोटीन की बनी होती है इसे एल्यूरोन सतह (Aleurone layer) कहते हैं।

3.  भ्रूण (Embryo):-

– भ्रूणपोष के ठीक नीचे, खाँचे में भ्रूण (Embryo) स्थित होता है। इसमें एक बड़ा तथा ढालाकार बीजपत्र होता है जिसे वरूथिका (Scutellum) कहते हैं।

बीजों के प्रकार (Type of seeds):-

– भ्रूणकोष के आधार पर बीज तीन प्रकार के होते हैं-

1.  भ्रूणपोषी बीज (Endospermic seeds):-

 जब बीज में भ्रूण परिवर्धन के दौरान भ्रूणपोष का अधिकांश भाग शेष रहता है तो ऐसे बीज भ्रूणपोषी बीज कहलाते हैं; जैसे- अरण्डी, नारियल आदि।

2.  अगूणपोषी बीज (Non endospermic seeds):-

– सामान्यतः द्विबीजपत्री पादपों के बीजों में परिपक्वन क्रिया के दौरान सम्पूर्ण भ्रूणपोष समाप्त हो जाता है। अतः ऐसे बीज अभ्रूणपोषी कहलाते हैं; जैसे – चना, मटर, आदि।

3.  परिभ्रूणपोषी बीज (Perispermic seeds):-

– इस प्रकार के बीजों में बीजाण्ड का बीजाण्डकाय (Nucellus) पतली झिल्ली के रूप में शेष रह जाता है, जिसे परिभ्रूणपोष (Perisperm) कहते हैं तथा बीज परिभ्रूणपोषी कहलाते हैं, जैसे- कालीमिर्च।

पादप शारीरिकी

पादप ऊतक

– वनस्पति विज्ञान की शाखा जिसमें पादपों की आन्तरिक संरचनाओं व संगठन का अध्ययन किया जाता है उसे पादप शारीरिकी (plant anatomy) कहते हैं।

– उत्पत्ति, संरचना व कार्य में समान कोशिकाओं का समूह ऊतक कहलाता है।

– ऊतक शब्द का प्रयोग एन ग्रीव ने किया था जिसे ‘पादप आन्तरिकी का जनक’ (Father of plant anatomy) के नाम से जाना जाता है।

1. विभज्योतकी ऊतक

2. स्थायी ऊतक

1.  विभज्योतकी ऊतक (Meristematic Tissues):-

– विभज्योतक भ्रूणीय ऊतक का एक भाग है। विभज्योतक ऊतक पत्तियाँ, शाखाएँ, पुष्प आदि उत्पादित करता है। इस प्रकार युवा कोशिकाओं युक्त स्थानीकृत समूह जिसमें सतत विभाजन करने की क्षमता बनी रहती है, विभज्योतकी ऊतक के नाम से जाना जाता है तथा क्षेत्र विभज्योतक (meristem) कहलाता है। (अविभेदित ऊतक)

विभज्योतकीय कोशिकाओं के लक्षण:-

– विभज्योतकीय कोशिकाएँ समव्यासी, छोटी तथा पतली भित्ति युक्त होती हैं।

– ये सघन रूप से व्यवस्थित, अन्तर कोशिकीय स्थान अनुपस्थित होते हैं।

– इनमें सघन कोशिकाद्रव्य तथा स्पष्ट केन्द्रक होता है।

– रिक्तिकाएँ छोटी या अनुपस्थित होती हैं।

– अन्तः प्रद्रव्यी जालिका पूर्ण विकसित नहीं होती है।

– प्राथमिक विभज्योतक (Primary meristem):- यह भ्रूण स्तम्भ मूल तथा उपांगों के शीर्ष पर स्थित होता है। यह प्राक्विभज्योतक का व्युत्पन्न है जो निरन्तर विभाजित होता है तथा बाद में यह स्थायी ऊतकों में विभेदित हो जाता है।

– द्वितीयक विभज्योतक (Secondary meristem):- प्राथमिक विभज्योतक द्वारा निर्मित स्थायी ऊतक बाद में विभज्योतकी हो सकता है उदाहरण के लिए परिरम्भ एक स्थायी ऊतक है बाद में यह विभज्योतक होकर द्वितीयक विभज्योतक। जैसे कॉर्क एधा (cork cambium) बनाता है।

– शीर्षस्थ विभज्योतक (Apical meristems):- ये मूल तथा स्तम्भ के शीर्ष पर स्थित होते हैं। इस विभज्योतक में विभाजन के फलस्वरूप पादप दीर्घित होकर लम्बाई में बढ़ते हैं। इस प्रकार के विभज्योतक मे प्राक विभज्योतक तथा प्राथमिक विभज्योतक शामिल हैं।

– पार्श्व विभज्योतक (Lateral meristem):- संवहन एधा (vascular cambium) तथा कॉर्क एधा (Cork cambium) पार्श्व विभज्योतक के दो उदाहरण हैं जो पादप के केन्द्रीय अनुदैर्ध्य अक्ष के पार्श्व में स्थित होते हैं। संवहन एधा द्वितीयक संवहनी ऊतकों के निर्माण द्वारा पादप का घेरा (girth) या मोटाई बढ़ती है। कॉर्क एधा का निर्माण बाद में स्थायी ऊतक के पुनर्विभेदीकरण द्वारा होता है। पार्श्व विभज्योतक उत्पत्ति में प्राथमिक व द्वितीयक दोनों प्रकार की होती है।

– प्राथमिक पार्श्व विभज्योतक में दो प्रकार शामिल हैं–

1. सीमान्त विभज्योतक (Marginal meristem):- यह पर्ण के किनारों पर पाया जाता है इसकी सक्रियता से पर्ण की चौड़ाई बढ़ती है। इस पर्ण की कुल वृद्धि अन्तर्वेशी सीमान्त वृद्धि कहलाती है।

2. अन्तः पूलीय एधा (Intra fascicular cambium) या पूलीय एधा (fascicular cambium):- इसको छोड़कर सभी एधाएँ उत्पत्ति में द्वितीयक होती हैं।

अन्तर्वेशी विभज्योतक (Intercalary meristem):-

– अन्तर्वेशी विभज्योतक शीर्षस्थ विभज्योतक से दूर दो विभेदात्मक क्षेत्रों के बीच स्थित होती है। यह पर्ण में, अनेक एकबीजपत्रियों के पर्वों में, कुछ जातियों में पुष्प स्केप व पुष्पवृन्त में, मूँगफली (Arachis) के गायनोफोर में, पुदीने में पर्वसंधि के नीचे, पाइनस में पर्ण के आधार पर पाया जाता है। वास्तव में घासों में स्तम्भ का विवर्धन अन्तर्वेशी विभज्योतक की सक्रियता से होता है। शीर्षस्थ व अन्तर्वेशी दोनों मेरिस्टेम प्राथमिक मेरिस्टेम हैं, क्योंकि वे पौधों की प्रारम्भिक अवस्था में ही आ जाते हैं वे प्राथमिक (पूर्ववर्ती) पादपकाय बनाने में सहायता करते हैं।

– प्रोटोडर्म (Protoderm):- यह सबसे बाहरी स्तर है जो एपीडर्मिस बनाती है।

– प्रोकैम्बियम या प्राक्एधा (Procambium):- इस क्षेत्र की कोशिकाएँ उदग्र रूप से लम्बी होती हैं। ये प्राथमिक संवहन ऊतक जाइलम व फ्लोएम बनाती है।

– भरण ऊतक (Ground tissue):- इस क्षेत्र की कोशिकाएँ बड़ी पतली भित्ति युक्त तथा समव्यासी होती हैं। इनके द्वारा अधश्चर्म (Hypodermis), वल्कुट (cortex), अन्तश्चर्म (Endodermis), परिरम्भ (Pericycle) मज्जा किरणें (Medullary rays) तथा मज्जा (Pith) उत्पन्न होती है। इस प्रकार का संगठन मुख्य रूप से विकसित भ्रूण तथा प्ररोह व मूल के शीर्षों के द्वारा प्रदर्शित होता है।

शीर्षस्थ विभज्योतक (Apical Meristem):-

– शीर्षस्थ विभज्योतक मुख्य तथा पार्श्व प्ररोह व मूलों के शीर्ष पर स्थित होता है। यह सबसे पहले बनने वाला विभज्योतक है जो कि भ्रूणीय प्ररोह तथा भ्रूणीय मूल में विकसित होता है। पादप के सभी प्राथमिक ऊतक प्ररोह तथा मूल के शीर्षस्थ विभज्योतक से व्युत्पन्न होते हैं।

 उदाहरण:- उच्चशैवाल (Higher algae) जैसे सरगासम, फ्यूकस), ब्रायोफाइटस और कुछ टेरिडोफाइट्स। फर्न, जिम्नोस्पर्म और एन्जियोस्पर्म में शीर्षस्थ विभज्योतक कई कोशिकाओं से मिलकर बनी होती है।

 ऊतकजन सिद्धान्त (Histogen theory):- इस सिद्धान्त का प्रतिपादन हेन्स्टीन (1870) ने किया। इसके अनुसार एन्जियोस्पर्म में तीन स्पष्ट विभज्योतक क्षेत्र होते हैं। जिन्हें ऊतकजन (Histogen) कहते हैं।

(a)  त्वचाजन (Dermatogen):- यह सबसे बाहरी एक स्तरीय परत है। कोशिकाएँ केवल अपनत तल में विभाजित होती हैं तथा एपीडर्मिस में विकसित होती हैं।

(b)  वल्कुटजन (Periblem):- यह त्वचाजन के भीतर स्थित होता है तथा समव्यासी कोशिकाओं का बना होता है। इसकी कोशिकाएँ सक्रिय रूप से विभाजित होती हैं तथा प्राथमिक कॉर्टेक्स (वल्कुट) में विकसित होती हैं।

(c)  रंभजन (Plerome):- यह सबसे भीतरी ऊतक जन स्तर है। इसकी कोशिकाएँ सभी तलों में विभाजित होती हैं। रंभजन संवहनी सिलेण्डर में विकसित होता है।

 उदाहरण – प्राथमिक जाइलम तथा फ्लोएम, मज्जा किरणें तथा मज्जा।

 ऊतक जन सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया गया है क्योंकि यहाँ त्वचाजन तथा वल्कुटजन के बीच स्पष्ट विभेदन नहीं है। एक विशिष्ट ऊतकजन द्वारा बनने वाले नियत ऊतक कभी-कभी अन्य ऊतकजन द्वारा भी निर्मित हो जाते हैं; उदाहरण – त्वचाजन जिसके द्वारा केवल एपीडर्मिस का निर्माण होता है वह वल्कुट के भी कुछ भाग का निर्माण करता है।

 उपर्युक्त वर्णित तीन ऊतक जनों के अतिरिक्त ऊतक जन का चौथा प्रकार एकबीजपत्रियों में पाया जाता है इसे गोपकजन (Calyptrogen) कहते हैं। एकबीजपत्रियों में मूलगोप का निर्माण गोपकजन द्वारा किया जाता है। द्विबीज पत्रियों में मूल गोप का निर्माण त्वचाजन द्वारा होता है। मूल गोप की उपस्थिति के कारण, मूल शीर्ष की स्थिति उपशीर्ष (Subterminal) होती है। इसलिए मूल में अधिकतम वृद्धि शीर्ष के पीछे होती है।

ट्यूनिका कॉर्पस सिद्धान्त (Tunica corpus theory):-

– इस सिद्धान्त का प्रतिपादन श्मिट (1924) ने एन्जियोस्पर्म के प्ररोह शीर्ष के अध्ययन के आधार पर किया। यह सिद्धान्त प्ररोह शीर्ष के लिए लागू होता है, मूल शीर्ष के लिए नहीं। इस सिद्धान्त के अनुसार प्ररोह शीर्ष दो क्षेत्रों से मिलकर बना होता है –ट्यूनिका तथा कॉर्पस।

ट्यूनिका (Tunica):-

– यह कोशिकाओं की एक या अधिक परिधीय परतों का बना होता है। ये कोशिकाएँ मुख्यतः अपनत विभाजनों द्वारा विभाजित होती हैं। इसके परिणामस्वरूप प्ररोह शीर्ष की सतह बढ़ती है। यदि ट्यूनिका एक से अधिक स्तरों की होती है तो सबसे बाहरी स्तर से एपीडर्मिस बनती हैं तथा शेष स्तर विभाजन तल में। परिवर्तन द्वारा कॉर्टेक्स के ऊतक तथा पर्ण आद्यक के निर्माण में भाग लेते हैं।

कॉर्पस (Corpus):-

– यह केन्द्रीय बड़ा क्षेत्र है जो बाह्य रूप से ट्यूनिका स्तरों द्वारा घिरा होता है। कॉर्पस की कोशिकाएँ लगभग सभी तलों में विभाजन करती हैं तथा मज्जा संवहन ऊतक तथा कॉर्टेक्स के भाग का निर्माण करती हैं। यह प्ररोह शीर्ष के लिए सबसे अधिक मान्य सिद्धान्त है।

कॉर्पर कैपे सिद्धान्त (Korper-kappe theory):-

– इसका प्रतिपादन श्यप (Scheupp-1917) ने किया था। उसके अनुसार मूलशीर्ष के केन्द्रीय तथा परिधीय भाग की कोशिकाएँ विभाजन के तल में अन्तर दर्शाती हैं। परिधीय क्षेत्र में प्रत्येक कोशिका अनुप्रस्थ रूप से विभाजित होती हैं तथा निचली पुत्री कोशिका अनुदैर्ध्य रूप से विभाजन करती हैं इस प्रकार ‘T’ आकृति बनती है। इन विभाजनों को केपे विभाजन कहते हैं। केन्द्रीय भाग में ‘T’ उल्टा ‘’ होता है क्योंकि दूसरा विभाजन ऊपरी पुत्री कोशिका में होता है। इस प्रकार के विभाजनों को कॉर्पर विभाजन कहते हैं। इन ‘T’ या ‘‘ विभाजनों के परिणामस्वरूप मूलशीर्ष में कोशिकाएँ पंक्तियों में व्यवस्थित रहती हैं। पंक्तियों की संख्या में वृद्धि कैपे विभाजनों के नीचे की ओर व कॉर्पर विभाजनों के ऊपर की ओर होने से होती है।

2. स्थायी ऊतक (Permanent tissues):-

– स्थायी ऊतक कोशिकाओं का समूह है जिसमें विभाजन की क्षमता समाप्त हो जाती है। स्थायी ऊतक में कोशिका विभाजन G1 प्रावस्था में निलम्बित हो जाता है।

– स्थायी ऊतक विभज्योतक कोशिकाओं के व्युत्पन्न है जिनमें ऊत्तरोत्तर विभेदन द्वारा विभाजन की क्षमता खत्म हो जाती है तथा ये विशिष्ट प्रकार की कोशिकाओं में परिपक्व हो जाती है। स्थायी ऊतक जो प्राथमिक विभज्योतक (उदाहरण– प्राक‌्‌ विभज्योतक) से विकसित होते हैं प्राथमिक स्थायी ऊतक (उदाहरण– मृदुतक, स्थूलकोणोतक) कहलाते हैं। इसी प्रकार स्थायी ऊतक जो द्वितीयक विभज्योतक ऊतक (उदाहरण– कॉर्क कैम्बियम) से विकसित होते हैं उन्हें द्वितीयक स्थायी ऊतक (उदाहरण– कॉर्क, द्वितीयक जाइलम, द्वितीयक फ्लोएम) कहते हैं। इसकी कोशिकाएँ जीवित या मृत हो सकती है स्थायी ऊतकों को तीन समूहों में बाँटा जा सकता है।

1. सरल ऊतक  

2. जटिल ऊतक

3. विशिष्ट ऊतक

1.  सरल ऊतक (Simple tissues):-

– एक प्रकार की कोशिकाओं से निर्मित ऊतक सरल ऊतक कहलाते हैं, ये समांगी समूह में प्रकट होते हैं। सरल ऊतकों में मृदुतक, स्थूकोणोतक तथा दृढ़ोतक शामिल हैं।

(a)  मृदुतक (Parenchyma):-

– यह टर्म नेहमिया ग्रीव (Nehemiah Grew) द्वारा दी गई है।

– मृदुतक सरल स्थायी जीवित ऊतक है जो पतली भित्ति युक्त समान समव्यासी कोशिकाओं से निर्मित होती है।

– यह पादपों में सबसे अधिक पाए जाने वाला तथा सबसे सामान्य ऊतक है।

– इसकी कोशिकाएँ बाहर से अण्डाकार, गोलाकार या बहुभुजी हो सकती हैं।

– कोशिका भित्ति सेल्यूलोज की बनी होती है। सामान्यतः इसमें द्वितीयक भित्ति अनुपस्थित होती है।

– गैसीय विनिमय के लिए मृदूतकीय कोशिकाओं के बीच सामान्यतः छोटे अन्तर कोशिका स्थान होते हैं जो कि उत्पत्ति में वियुक्तिजात (Schizogenous) होते हैं।

– आन्तरिक रूप से प्रत्येक कोशिका में एक केन्द्रीय बड़ी रिक्तिका तथा परिधीय कोशिका द्रव्य (केन्द्रक युक्त) होते हैं।

मृदुतक के रूपान्तरण (Modifications of parenchyma):-

– छड़ मृदुतक (Prosenchyma):- इसकी कोशिकाएँ लम्बी तथा नुकीले सिरे युक्त होती हैं। यह मूल की परिरंभ बनाती है। यह यांत्रिक सहारे सुरक्षा तथा संवहन में सहायक होती है।

– तारक मृदुतक (Stellate parenchyma):- इसकी कोशिकाएँ ताराकार शाखित तथा कम विकसित अन्तरकोशिकीय स्थान युक्त होती है। इस मृदुतक का मुख्य कार्य यांत्रिक सहारा प्रदान करना है। यह केले के पर्णाधार में पाई जाती है तथा स्तम्भ का कार्य करती है।

– वायु मृदुतक (Aerenchyma):- इसकी कोशिकाएँ गोलाकार जो बड़े वायुअवकाशों द्वारा आवरित होती हैं। एरेनकाइमा उत्पत्ति में लयजात (Lysigenous) होती है। प्रकाश संश्लेषण द्वारा निर्मित ऑक्सीजन इन अवकाशों में संगृहीत होती है जो श्वसन में सहायक है। यह वल्कुटीय (cortex region) क्षेत्र में पाई जाती है। यह जलोद्भिद पादपों को उत्प्लावकता (buoyancy) प्रदान करती है।

– हरित मृदुतक (Chlorenchyma):- इनमें हरितलवक (Chloroplasts) होते हैं।

– श्लेष्मा मृदुतक (Mucilage Parenchyma):- इसमें बड़ी रिक्तिका व श्लेष्म पाया जाता हैं; उदाहरण – मांसलोद्भिद मरुद्भिद पादपों में जैसे :- एलोय में कार्य – जल का संग्रहण।

– विचित्र कोशिकाएँ (Idioblast cells):- मृदुतक की कुछ कोशिकाएँ अपशिष्ट पदार्थों का संग्रहण करती हैं। इन्हें इडियोब्लॉस्ट कोशिकाएँ कहते हैं। ये तेल, टेनिन, कैल्सियम ऑक्जेलेट के क्रिस्टल आदि संगृहीत करती हैं।

मृदुतक के कार्य (Functions of parenchyma):-

– भोज्य पदार्थों व जल का संचय करना।

– जलोद्भिदों को उत्प्लावकता प्रदान करना तथा गैसीय विनियम करना।

– प्रोसेनकाइमा यांत्रिक सहारा व मजबूती प्रदान करता है।

– पादप शरीर की आकृति को बनाए रखती है।

– ये पादप की सभी जैविक क्रियाओं को सम्पन्न करती है।

(b) स्थूलकोणोतक (Collenchyma):-

– यह टर्म श्लाइडेन (schleiden) द्वारा दी गई।

– स्थूलकोणोतक रिफ्रैक्टाइल जीवित कोशिकाओं का बना एक सरल स्थायी ऊतक है जिनकी भित्तियों के विशिष्ट स्थानों में पेक्टोसेल्यूलोज के स्थूलन होते हैं। लिग्निन व अन्तरकोशिकीय स्थान अनुपस्थित होता है।

– कोशिकाएँ या तो समव्यासी कुछ दीर्घित होती हैं या अनुप्रस्थ काट में गोलाकार, अण्डाकार या कोणीय होती हैं।

– आन्तरिक रूप से प्रत्येक कोशिका में एक बड़ी केन्द्रीय रिक्तिका तथा परिधीय कोशिका द्रव्य व प्रायः हरित लवक होते हैं।

– यह सार्वत्रिक ऊतक नहीं है। यह शाकीय द्विबीजपत्रियों के तनों में या तो एक समान सतह के रूप में या चकते के रूप में पाए जाते हैं। स्थूलकोणोतक काष्ठीय पादप भागों में मूल के भागों में तथा एक बीजपत्रियों में अनुपस्थित होते हैं।

– स्थूलकोणोतक द्विबीजपत्री तनों की अधश्चर्म (Hypodermis) निर्मित करती हैं। पेक्टोसेल्यूलोज की जलरागी (Hydrophilic) प्रकृति के कारण स्थूलकोणोतक लचीले होते हैं। इस कारण द्विबीजपत्री तनों में लचीलापन पाया जाता है। इसकी भित्ति में विशिष्ट स्थानों पर अनुदैर्ध्य स्थूलन रखती है।

कार्य:-

– यह नवीन द्विबीजपत्री स्तम्भ, पर्णवन्त तथा पत्तियों को यांत्रिक सहारा प्रदान करती है। (प्रथम यांत्रिक ऊतक)

– स्थूलकोणोतक अंगों को प्रत्यास्थता भी प्रदान करती है तथा उनके वक्रण में सहायक होती है।

 उदाहरण – कुकुरबिटा स्तम्भ

(c) दृढ़ोतक (Sclerenchyma):-

– इस शब्द का प्रतिपादन मेटीनियस ने किया। दृढ़ोतक जीवद्रव्यरहित, मोटीभित्ति युक्त मृत कोशिकाओं का बना सरल यांत्रिक ऊतक है। कोशिका गुहाएँ संकरी होती हैं।

– भित्ति के स्थूलन सेल्यूलोज या लिग्निन या दोनों से निर्मित हो सकते हैं जिसमें कम या अधिक संख्या मे गर्त पाए जाते हैं। आकार, संरचना, उत्पत्ति और विकास में विभिन्नता के कारण इसे दो भागों में बाँटा गया है।

दृढ़ोतकीय रेशे (Sclerenchyma Fibres):-

– दृढ़ोतकीय रेशे अत्यधिक लम्बे (1-90 cm.), संकरे तर्कुरूपी मोटी भित्ति युक्त नुकीले सिरों वाली मृत कोशिकाएँ हैं।

– कोशिका भित्ति मोटी तथा लिग्निन युक्त होती है।

– रेशे समान्यतः अनुदैर्ध्य बण्डल के रूप में होते हैं जहाँ आसन्न रेशों के नुकीले सिरे परस्पर गूंथ कर यांत्रिक ऊतक बनाते हैं।

– आसन्न रेशों में सरल तिरछे गर्त होते हैं।

 उदाहरण – एकबीजपत्री स्तम्भ

– पादपों से प्राप्त व्यावसायिक रेशे सामान्यतः दृढ़ोतकीय रेशे होते हैं।

 उदाहरण – जूट, अलसी, हैम्प

स्क्लेराइड्स (Sclereids):-

– यह शब्द सिर्च (Tschierch-1885) ने दिया।

– ये गोलाकार, अण्डाकार या बेलनाकार होती हैं।

– ये अत्यधिक मोटी भित्ति युक्त व लिग्निकृत होती है। इसलिए कोशिका की गुहा लगभग लुप्त हो जाती है। ये पादप के कठोर भागों में पाई जाती हैं।

– उदाहरण– बादाम तथा नारियल की एण्डोकार्प (अन्तः भित्ति), चायपत्ती

– अमरूद तथा नाशपाती जैसे फलों की कुरकुरापन उनके गूद्दे में स्टोन कोशिकाओं की उपस्थिति के कारण होती है।

कार्य:-

– परिपक्व पादप अंगों में मुख्य यांत्रिक ऊतक दृढ़ोतक है।

– ये पादप में स्थिति तथा वितरण द्वारा पादप को विभिन्न दबावों तथा वातावरणीय बलों (जैसे हवा) के तनाव से बचाती है।

– सतही रेशे बीज व फल के वितरण में सहायक होते हैं।

2. जटिल ऊतक (Complex tissues):-

– जटिल ऊतक एक से अधिक प्रकार की कोशिकाओं से मिलकर बने होते हैं तथा एक इकाई के रूप में कार्य करते हैं। ये विषमांगी (Heterogenous) होते हैं।

– ये युग्मकोद्भिदों (Gametophytes) में अनुपस्थित होते हैं। जटिल ऊतक के दो प्रकार हैं-

(i) फ्लोएम या पोषवाह

(ii) जाइलम या दारू

फ्लोएम (Phloem):-

– ‘फ्लोएम’ शब्द कार्ल नागेली (Carl Nageli) द्वारा दिया गया। इसके लिए हैबरलैण्ड ने ‘लेप्टोम’ शब्द का प्रतिपादन किया।

– फ्लोएम को उत्पत्ति के आधार पर दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है-

(a)  प्राथमिक  

(b)  द्वितीयक फ्लोएम

– प्राथमिक फ्लोएम की उत्पत्ति प्राक् एधा (procambium) से होती है जबकि द्वितीयक फ्लोएम की उत्पत्ति संवहन एधा से (vascular cambium) होती है।

– विकास के आधार पर प्राथमिक फ्लोएम को प्रोटोफ्लोएम व मेटा फ्लोएम में विभक्त किया गया है।

– प्रोटोफ्लोएम में चालनी नलिकाएँ संकरी होती हैं जबकि मेटाफ्लोएम में चालनी नलिकाएँ बड़ी होती हैं।

– फ्लोएम का मुख्य कार्य भोज्य पदार्थों का संवहन, सामान्यतः पर्ण से अन्य पादप भागों में (source to sink) करना है। फ्लोएम, जाइलम की तुलना में कम समय तक सक्रिय रहता है। फ्लोएम चार प्रकार की कोशिकाओं द्वारा निर्मित होता है।

1. चालनी नलिका (Sieve tube):-

– चालनी तत्त्व की खोज थियोडोर हर्टिग (Theodor hartig) द्वारा की गई थी ये जीवित तथा पतली भित्ति युक्त होती हैं। एक परिपक्व चालनी नलिका केन्द्रक रहित होती है। इस प्रकार ये अकेन्द्रकीय जीवित कोशिकाएँ हैं। एन्जियोस्पर्म पादपों में ये तत्त्व उनके सिरों के द्वारा एक के ऊपर एक साथ व्यवस्थित होकर चालनी नलिका बनाते हैं।

– दो चालनी तत्त्वों की सिरीय भित्ति के बीच चालनी प्लेट (तिरछी अनुप्रस्थ छिद्रित भित्ति) उपस्थित होती है। यह छिद्रित होती है। पदार्थों का स्थानान्तरण इन छिद्रों से होता है प्रत्येक चालनी नलिका तत्त्व में केन्द्रीय रिक्तिका पाई जाती है। वृहद रिक्तिका के चारों ओर एक पतली परत के रूप में उपस्थित परिपक्व चालनी नलिका तत्त्व का कोशिका द्रव्य कोशिकाद्रव्यीय गति (Cyclosis) दर्शाता है। शरद ऋतु में पत्तियों के गिरने के दौरान इसके छिद्रों की त्रिज्या पर केलोस निक्षेपित होकर एक मोटा स्तर बनाता है। इसे केलोस पैड कहते हैं।

– एन्जियोस्पर्म में भोजन का संवहन सीधा तथा दक्ष होता है। चालनी तत्त्वों में विशेष प्रकार की P-प्रोटीन (P-फ्लोएम) होती है। P-प्रोटीन का कार्य घावों को सील करना है तथा यह भोजन के संवहन से भी सम्बन्धित है। चालनी नलिका में भोजन का परिवहन द्विदिशीय होता है।

 Parts of Phloem A. L.S. of Phloem Tissue, B. T.S. of Phloem Tissue, C. Sieve Tubes, D. L.S. of Sieve Plate

2. सहकोशिकाएँ (Companion cells):-

– चालनी नलिका तत्त्व तथा सहकोशिका साधारणतया: साथ-साथ उत्पन्न होते हैं। दोनों एक ही मातृ कोशिका से उत्पन्न होती हैं। इसलिए भगिनी कोशिकाएँ (Sister cells) कहलाती हैं।

– चालनी नलिका तत्त्व तथा सहकोशिका से साधारण छिद्रों द्वारा जुड़ी होती हैं जो इनकी अनुदैर्ध्य भित्तियों पर होते हैं। जो कि इनकी उभयनिष्ठ भित्ति होती है एक की मृत्यु होने पर दूसरी की भी मृत्यु हो जाती है। एन्जियोस्पर्मिक पादपों में (गाजर में एक से अधिक) एक सहकोशिका एक चालनी नलिका से पार्श्व रूप से कोशिकाद्रव्यी कनैक्शन्स द्वारा जुड़ी होती है जो कि प्लाज्मोडेस्मेटा कहलाते हैं।

– सहकोशिका बड़े केन्द्रक युक्त जीवित कोशिका है। यह केन्द्रक चालनी नलिका तत्त्व के कोशिका द्रव्य में क्रियाओं का नियंत्रण करता है। सहकोशिकाएँ चालनी नलिका तत्त्व में दाब प्रवणता को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। सहकोशिकाओं की उपस्थिति एन्जियोस्पर्म का अभिलाक्षणिक गुण है।

3. फ्लोएम मृदुतक (Phloem Parenchyma):-

– इसकी कोशिका जीवित तथा पतली भित्ति युक्त होती है। यह विभिन्न पदार्थों का संग्रहण करती है।

– उदाहरण – रेजिन, लेटेक्स, श्लेष्म आदि एकबीजपत्रियों के तने में फ्लोएम मृदुतक प्रायः अनुपस्थित होती है। फ्लोएम मृदुतक का मुख्य कार्य भोजन का अरीय दिशा में संवहन तथा संग्रहण है।

4. फ्लोएम रेशे (Phloem fibres):-

– ये मृत दृढ़ोतकीय रेशे हैं जो लिब्रिफार्म रेशे कहलाते हैं। ये रेशे प्राथमिक फ्लोएम में अनुपस्थित होते हैं। ये संवहनी तत्त्वों (चालनी कोशिकाओं तथा चालनी नलिका) को यांत्रिक सहारा प्रदान करते हैं। ये रस्सियाँ तथा मोटा कपड़ा बनाने में प्रयुक्त होते हैं। उदाहरण– जूट, अल्सी व हैम्प के रेशे।

जाइलम (Xylem):-

– जाइलम जल संवहनी ऊतक है। यह मुख्य रूप से मूल से पादप के शीर्ष तक जल तथा खनिजों के संवहन के लिए उत्तरदायी है तथा पादप काय को यांत्रिक सहारा प्रदान करता है।

– ‘जाइलम’ शब्द का प्रयोग कार्ल नागेली (Carl Nageli) ने किया। जाइलम के ‘हेड्रोम’ शब्द का प्रतिपादन हेबरलेण्ट ने किया। जल के संवहन के लिए जीवद्रव्य का मृत होना आवश्यक है।

– उत्पत्ति के आधार पर जाइलम प्राथमिक जाइलम तथा द्वितीयक जाइलम में विभाजित किया गया है।

– प्राथमिक जाइलम प्राक एधा (procambium) से उत्पन्न होता है।

– विकास के आधार पर प्राथमिक जाइलम दो भागों में बँटा होता है।

(a)  प्रोटोजाइलम (Protoxylem)

(b)  मेटाजाइलम (Metaxylem)

– मेटाजाइलम की तुलना में प्रोटो जाइलम की कोशिकाएँ छोटी होती हैं।

– द्वितीयक जाइलम की उत्पत्ति संवहन एधा से होती है।

– जाइलम चार प्रकार की कोशिकाओं से मिलकर बना होता है।

(a) वाहिनिकाएँ   

(b) वाहिकाएँ

(c) जाइलम रेशे   

(d) जाइलम मृदुतक

(a) वाहिनिकाएँ (Tracheids):-

– वाहिनिकाएँ एककोशिकीय, मृत लम्बी नुकीले सिरे युक्त, नलिकाकार होती है। ये सँकरी गुहा युक्त जाइलम के आद्यतम संवहनी तत्त्व हैं, हालाँकि वाहिनिकाओं की गुहा रेशों की तुलना में बड़ी होती है। अनुप्रस्थ पट की उपस्थिति के कारण वाहिनिकाओं में गुहा असतत होती है। वाहिनिकाएँ मृत तथा लिग्नीकृत कोशिकाएँ हैं। कोशिका भित्ति पर लिग्निन के निक्षेपण के कारण विभिन्न प्रकार के स्थूलन बनते हैं।

– प्रोटोजाइलम में लिग्निन के वलयाकार (annular) तथा सर्पिल (spiral) प्रकार के स्थूलन पाए जाते हैं। मेटा-जाइलम में लिग्निन के जालवत (Reticulate) तथा गर्तीय (Pitted) प्रकार के स्थूलन पाए जाते हैं।

– वाहिनिकाएँ अपने सिरों पर जुड़कर लम्बी पंक्तियाँ बनाती हैं ये पंक्तियाँ मूल से स्तम्भ के जरिये पर्णों तक विस्तारित होती है। सामान्यतः वाहिनिकाओं की सिरीय भित्ति पर परिवेशित गर्त (Bordered pits) होते हैं।

– सबसे अधिक परिवेशित गर्त जिम्नोस्पर्म पादपों की वाहिनिकाओं में पाए जाते हैं।

– लिग्निन का निक्षेपण अधिकतम गर्तीय प्रकार के स्थूलन में पाया जाता है। टेरिडोफाइट्स की वाहिनिकाओं में लम्बे या दीर्घित परिवेशित गर्त होते हैं। इस प्रकार के स्थूलन को सोपानवत् गर्त कहते हैं।

Xylem Tissue

(b) वाहिकाएँ (Vessels):-

– वाहिकाएँ बहुकोशिकीय होती हैं। वाहिका की आधारभूत संरचना वाहिनिकाओं के समान होती है। वाहिका की गुहा वाहिनिका की तुलना में चौड़ी होती है तथा सिरीय भित्ति छिद्रित होती है। (दो वाहिकीय तत्त्वों के बीच अनुप्रस्थ पट अनुपस्थित होता है यदि उपस्थित होते हैं, तो छिद्रित होते हैं) इस प्रकार वाहिकाएँ वाहिनिकाओं की तुलना में जल के परिवहन में अधिक दक्ष होती हैं। वाहिकाओं की पार्श्व भित्ति पर सरल गर्त होते हैं। भित्ति के स्थूलन वाहिनिकाओं के समान होते हैं।

(c) जाइलम रेशे (Xylem fibres):-

– ये जाइलम में पाए जाने वाले दृढ़ोतकीय रेशे हैं। ये लम्बे, संकरे तथा दोनों सिरों पर नुकीले होते हैं इनकी भित्तियाँ लिग्नीकृत होती हैं। ये यांत्रिक सहारा प्रदान करती हैं। ये द्वितीयक जाइलम में अधिक होते हैं। भित्तियाँ लिग्निकृत होती हैं। ये यांत्रिक सहारा प्रदान करती हैं। ये द्वितीयक जाइलम में अधिक होती हैं।

(d) जाइलम मृदुतक (Xylem Parenchyma):-

– ये पतली भित्ति युक्त जीवित कोशिकाएँ हैं। इसकी कोशिका भित्ति सेल्यूलोज की बनी होती है।

– यह स्टॉर्च, वसा तथा टेनिन संगृहीत करता है। जाइलम मृदुतक का कार्य जल का अरीय संवहन करना है।

ऊतक तंत्र:-

– विभज्योतक के एक भाग से उत्पन्न ऊतकों का समूह है जो पादपों में एक ही प्रकार की समान क्रियाएँ करते हैं तो ये ऊतक, ऊतक तंत्र बनाते हैं। इन ऊतकों में संरचनात्मक या आकारिकीय रूप से कोई समानता नहीं होती तथा वे उत्पत्ति में भी भिन्न हो सकते हैं।

– स्थिति तथा संरचना के आधार पर Sachs (1875) ने पादपों में तीन प्रकार के ऊतक तंत्र विभेदित किए।

– अधिचर्मीय ऊतक तंत्र (Epidermal tissue system)

– भरण ऊतक तंत्र (Ground tissue or Fundamental system)

– संवहन ऊतक तंत्र (Vascular or Fascicular system)

1.  अधिचर्मीय ऊतक तंत्र (Epidermal tissue system):-

– यह विभिन्न पादप अंगों का सबसे बाहरी सुरक्षात्मक आवरण बनाता है जो कि वातवारण के साथ सीधे सम्पर्क में रहता है। यह शीर्षस्थ विभज्योतक की सबसे बाहरी परत से उत्पन्न होता है।

(a) अधिचर्म (Epidermis)

(b) रंध्र (Stomata)

(c) उपत्वचा तथा मोम (Cuticle & wax)

(d) अधिचर्मीय उपांग (Epidermal Appendages)

(a) अधिचर्म (Epidermis):-

– यह अधिकांश पादप अंगों में एकस्तरीय होती है लेकिन कुछ पादपों में यह बहुस्तरीय होती है।

– उदाहरण – फाइकस, नीरियम, पैप्रोमिया। इसकी कोशिकाएँ जीवित तथा मृदुतकीय होती हैं। बाहरी स्पर्शरेखीय भित्तियाँ आन्तरिक भित्ति की तुलना में सामान्यतः अधिक मोटी होती हैं।

– प्रत्येक कोशिका में एक बड़ी केन्द्रीय रिक्तिका तथा परिधीय पतला कोशिका द्रव्य होता है। इनमें क्लारेप्लॉस्ट्स, एन्थोसायनिन, वर्णक, टेनिन एवं तेल तथा क्रिस्टल आदि हो सकते हैं।

– कुछ एकबीजपत्री पर्णों में कुछ ऊपरी अधिचर्मीय कोशिकाएँ बड़ी पतली-भित्ति और रिक्तिका युक्त हो जाती है जिन्हें “बुलीफॉर्म कोशिकाएँ” कहते हैं। ये जल की कमी होने पर पत्तियों के कुण्डलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।

– उदाहरण– घास, अधिपादपों की वायवीय मूलों में, बहुस्तरीय अधिचर्मीय कोशिकाएँ ‘वेलामेन में रूपान्तरित हो जाती है जो वायुमण्डल से नमी अवशोषित करती है।

(b) रंध्र (Stomata):-

– रंध्र अधिचर्म में सूक्ष्म छिद्र होते हैं। प्रत्येक रंध्र दो वृक्काकार आकृति की कोशिकाओं द्वारा घिरा होता है। जिन्हें द्वार कोशिकाएँ (guard cells) कहते हैं ग्रेमिनी कुल के सदस्यों में द्वार कोशिकाएँ डम्बलाकार आकृति की होती हैं।

– द्वार कोशिकाओं में क्लोरोप्लास्ट होते हैं। द्वार कोशिका की आन्तरिक भित्ति मोटी होती हैं। सामान्यतः यहाँ प्रत्येक रंध्र के नीचे एक गुहा होती है। इसे उपरन्ध्रीय गुहा कहते हैं, यहाँ द्वार कोशिकाओं के चारों ओर एपीडर्मिस में विभिन्न माप की अलग-अलग कोशिकाएँ होती हैं जिन्हें सहायक कोशिकाएँ (subsidiary cells) कहते हैं।

– मूलों, भूमिगत भागों तथा निमग्न जलोद्भिदों में रंध्र अनुपस्थित होते हैं।

– मरुद्भिदों में रंध्र खाँचों में धँसे हुए होते हैं इसके कारण वाष्पोत्सर्जन अत्यधिक कम हो जाता है। पाइनस, केपेरिस में रंध्र धँसे होते हैं।

– रंध्र की स्थिति के आधार पर पर्णों को विभिन्न प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है–

– अधिरंध्रीय (Epistomatal):- रंध्र ऊपरी सतह पर होते हैं। उदाहरण – कमल

– अधोरंध्रीय (Hypostomatal):- रंध्र निचली सतह पर होते हैं। उदाहरण – सेब

– उभयरंध्रीय (Amphistomatal):- रंध्र दोनों सतहों पर पाए जाते हैं। उदाहरण – मक्का

 अरंध्रीय (Astomatal):- रंध्र अनुपस्थित होते हैं उदाहरण– वेलिसनेरिया

– रंध्रों की संख्या 15-1000 m.m. होती है सामान्यतः यह 50-300 m.m. तक होती है। कुल पर्ण क्षेत्र का लगभग 1-2% रंध्रों द्वारा घिरा होता हैं।

– रंध्र का कार्य गैसीय विनिमय तथा वाष्पोत्सर्जन पर नियंत्रण करना है।

(c) उपचर्म (Cuticle) तथा मोम (Wax):-

– उपचर्म में क्यूटिन एक वसीय पदार्थ है। एक परत के रूप में एपीडर्मल कोशिकाओं की बाहरी सतह के ऊपर निक्षेपित हो जाती है। क्यूटिनीकृत भित्ति जल के लिए कम पारगम्य होती है। अपारगम्यता क्यूटिन की मोटाई पर निर्भर करती है। क्यूटिकल मरुद्भिदों में मोटी, समोद्भिदों में पतली तथा जलोद्भिदों के निमग्न भागों मे अनुपस्थित होती है। यह भूमिगत भागों में भी अनुपस्थित होती है।

– क्यूटिकल मोम द्वारा घिरी हो सकती है जिनका निक्षेपण कणिकाओं, छड़ों, पर्पटी या समांगी अर्ध तरल मांस के रूप में होता है। क्यूटिकल की सतह पर तेल, रेजिन, सिलिकॉन तथा लवण आदि भी निक्षेपित हो सकते हैं।

(d) अधिचर्मीय उपांग (Epidermal Appendages):-

(I) ट्राइकोम्स (Trichomes):- इनमें अनेक एक कोशिकीय तथा बहुकोशिकीय उपांग शामिल हैं जो अधिचर्मीय कोशिकाओं से उत्पन्न होते हैं। ट्राइकोम्स को निम्नलिखित प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है–

रोम (Hair):-

– ये एपीडर्मिस की दीर्घित अतिवृद्धियाँ हैं जो लगभग सभी पादप भागों में पाई जाती हैं।

– रोम एक कोशिकीय या बहुकोशिकीय कोशिका हो सकती है।

(i) मूल रोम (Root Hairs):- एक कोशिकीय मिट्टी से जल तथा खनिज लवणों के अवशोषण में भाग लेते हैं।

(ii) वायवीय रोम (Aerial hairs):- एक कोशिकीय या बहुकोशिकीय रोम स्थिर वायु को बंद रखते हैं तथा वाष्पोत्सर्जन की उच्च दर तथा तापक्रम में अचानक होने वाले परिवर्तनों के विरुद्ध पादप अंगों को सुरक्षा प्रदान करते हैं।

– उदाहरण– कपास के एक कोशिकीय एपीडर्मल रोम लिन्ट कहलाते हैं।

(ii) ग्रंथिल रोम (Glandular hairs):-

– ये वाष्पशील तेल उत्पादित करते हैं तथा पादप को गंध प्रदान करते हैं।

– उदाहरण – पुदीना, नीबू, कीटाहारी पादपों की ग्रंथियाँ।

(iv) दंशक रोम (Stinging Hairs):-

– खोखले रोम जिनमें सिलिका युक्त शीर्ष होता है तथा ये विष होते हैं जब जन्तु इनके विरुद्ध अपनी त्वचा को रगड़ते हैं तो यह विष जन्तुओं की त्वचा में चला जाता हैं।

– उदाहरण – अर्टिका डायोका।

शल्क (Scales):-

– इन्हें पेल्टेट ट्राइकोम्स भी कहते हैं प्रत्येक शल्क में एक छोटे वृन्त पर एक बहुकोशिकीय डिस्कनुमा शीर्ष होता है।

ब्लेडर या जल आशय (Bladders or Water Vesicles):-

– ये फूले हुए ब्लेडर के समान आशय है विशेषकर जल संग्रहण के लिए।

(II) इमर्जेन्स (Emergences):-

– बहुकोशिकीय एपीडर्मल अतिवृद्धि जिसमें कुछ आन्तरिक ऊतक भी होते हैं।

– उदाहरण– (Prickles) ये तीखी व नुकीली अतिवृद्धियाँ हैं। इनमें संवहनी ऊतक नहीं होते है तथा पादपों को अत्यधिक वाष्पोत्सर्जन तथा चरने वाले जन्तुओं से बचाते हैं। गुलाब में Prickles होते हैं।

भरण ऊतक तंत्र (Ground Tissue System):-

– यह भरण विभज्योतक (ground meristem) द्वारा या आंशिक रूप से प्लीरोम (रंभजन) तथा आंशिक रूप से पेरीब्लेम (वल्कुटजन) द्वारा बनता है।

– यह पादपों की मुख्य काय निर्मित करता है। यह मृदुतक, दृढ़ोतक, स्थूलकोणोतक तक ग्रंथिल तथा रबरक्षीर ऊतक का बना होता है तथा स्त्रावण के अनेक कार्य सम्पन्न करता है। इस कारण यह एक विषमांगी क्षेत्र है।

– यह ऊतक तंत्र मुख्य रूप से भरण विभज्योतक से उत्पन्न होता है।

– यह दो भागों में बँटा होता है।

1. बाह्यरंभीय भरण ऊतक

2. अन्तः रंभीय भरण ऊतक

1. बाह्यरंभीय भरण ऊतक (Extrastelar ground tissue):-

– इसमें केवल वल्कुटीय क्षेत्र शामिल है। कोर्टेक्स वह क्षेत्र है जो एपीडर्मिस तथा परिरम्भ (pericycle) के बीच स्थित होता है। इसमें निम्नलिखित ऊतक शामिल हैं–

(a) अधश्चर्म (Hypodermis):- द्विबीजपत्री तने में, एपीडर्मिस के नीचे एक या अधिक स्तरीय सतत या पैच के रूप में स्थूलकोणोतकीय, हरितऊतकीय (chlorenchymatous) या दृढ़ोतकीय (sclerenchymatous) ऊतक होते हैं जो कि अधश्चर्म कहलाती है। यह दृढ़ता व यांत्रिक सहारा प्रदान करती है।

(b)  सामान्य वल्कुट (General cortex):-

– इसकी कोशिकाएँ पतली भित्ति युक्त तथा मृदुतकीय होती हैं तथा गोल, बहुभुजीय या बेलनाकार हो सकती है। कोशिकाओं में स्पष्ट अन्तरकोशिकीय स्थान होते हैं। स्टार्च कण, तेल, टेनिन तथा विभिन्न प्रकार के क्रिस्टल कॉर्टिकल कोशिकाओं में पाए जाते हैं।

– जलोद्भिदों में सामान्य वल्कुट वायुतकीय (Aerenchymatous) होता है।

– यह क्षेत्र भोज्य पदार्थ संचित करता है तथा यांत्रिक सहारा प्रदान करता है।

(c) अन्तस्त्वचा (Endodermis):-

– कॉर्टेक्स (वल्कुट) की सबसे भीतरी परत अन्तस्त्वचा कहलाती है। इसकी कोशिकाएँ सघन रूप से व्यवस्थित होती हैं। अन्तस्त्वचीय कोशिकाएँ ढोलकाकार (barrel shaped) होती हैं तथा इनमें कैस्पेरियन पट्टियाँ होती हैं। कैस्पेरियन पट्टियाँ अन्तस्त्वचा का अभिलाक्षणिक लक्षण है। इन पट्टियों में सुबेरिन का निक्षेपण होता है। मूलों में, प्रोटोजाइलम (आदि दारू) के सम्मुख स्थित अन्तस्त्वचीय कोशिकाएँ पतली भित्ति युक्त हैं। ये मार्ग कोशिकाएँ या पथ कोशिकाएँ (Passage cells) कहलाती हैं। ये जल के कॉर्टेक्स से जाइलम तक परिवहन में सहायक होती हैं।

– जिम्नोस्पर्म तथा द्विबीजपत्रीय काष्ठीय तने में अन्तस्त्वचा नहीं पाई जाती है।

– एन्जियोस्पर्स के नवीन तने में, अन्तस्त्वचा में अत्यधिक स्टार्चकणों की उपस्थिति के कारण इसे स्टार्च परत के रूप में जाना जाता है।

– यहाँ अन्तस्त्वचा के अनेक कार्य हैं।

– यह संवहनी तथा असंवहनी क्षेत्रों के बीच जलरोधी जैकेट के रूप में कार्य करती है।

– यह स्टार्च संग्रहण करती है।

– यह सुरक्षात्मक परत के रूप में कार्य कर सकती है तथा मूल दाब को बनाए रखती है।

2. अन्तः रंभीय भरण ऊतक (Intrastelar ground tissue):-

– इसमें परिरम्भ, मज्जा किरणें तथा मज्जा शामिल हैं।

(a) परिरम्भ (Pericycle):-

– यह अन्तस्त्वचा तथा संवहन ऊतक के बीच पाई जाती है। यह एक स्तरीय या बहुस्तरीय होती हैं। कुछ में परिरम्भ बहुस्तरीय दृढ़ोतकीय कोशिकाओं (उदाहरण – कुकुरबिटा का तना) की बनी या दृढ़ोतकीय व मृदूतकीय कोशिकाओं की एकान्तरित पट्टियों (उदाहरण – सूर्यमुखी का तना) की बनी होती हैं। मूल में परिरम्भ एकस्तरीय तथा पतली भित्ति युक्त मृदूतकीय कोशिकाओं की बनी होती है। जो कि बाद में पार्श्व मूलें विकसित करती हैं।

– द्विबीजपत्री मूल में कॉर्क एधा (cork cambium) की उत्पत्ति परिरम्भ से होती है परिरम्भ से ही संवहनी एधा का एक भाग भी विकसित होता है।

(b) मज्जा किरणें (Medullary rays):-

– ये मज्जा के बाहर संवहन पूलों के बीच पाई जाती हैं।

– ये मृदूतकीय कोशिकाओं की बनी तथा मज्जा से बाहर परिधि की ओर होती है ये विलेयों के पार्श्व स्थानान्तरण का कार्य करती हैं।

(c) मज्जा (Pith):-

– द्विबीजपत्री तनों तथा मूलों के केन्द्रीय भाग में मज्जा स्थित होती है। इसे Medulla भी कहते हैं। यह सामान्यतः अन्तरकोशिकीय स्थानों युक्त बड़ी मृदूतकीय कोशिकाओं की बनी होती है (कभी कभी दृढ़ोतकीय)। मज्जा का मुख्य कार्य भोज्य पदार्थों तथा जल का संचय करना है।

संवहनी तंत्र (Vascular or Fascicular system):-

Types of Vascular Bundle

– कॉर्टेक्स द्वारा घिरे प्ररोह या मूल के केन्द्रीय सिलिण्डर को रंभ या स्टील (Stele) कहते हैं।

– ये ऊतक शीर्षस्थ विभज्योतक की प्राक एधा (Procambium) से उत्पन्न होते हैं।

– स्टील के भीतर संवहन पूलों के भिन्न-भिन्न समूह संवहन ऊतक बनाते हैं। प्रत्येक संवहन पूल जाइलम व फ्लोएम का बना जिसमें एधा उपस्थित या अनुपस्थित होती है। संवहन पूलों का मुख्य कार्य जल तथा खनिज लवणों का संवहन (कार्बनिक) विलेयों का स्थानान्तरण तथा पादप काय को यांत्रिक सहारा प्रदान करना है।

– जाइलम तथा फ्लोएम के आपेक्षिक स्थिति के आधार पर निम्नलिखित प्रकार के संवहन पूल मान्य किए गए हैं।

1. अरीय (Radial):-

– जब जाइलम तथा फ्लोएम अलग-अलग त्रिज्या पर एकान्तर क्रम में स्थित होते हैं तो संवहनपूल अरीय कहलाते हैं।

– उदाहरण – मूलें (Roots)

2. संयुक्त (Conjoint):- एक संवहन में जाइलम व फ्लोएम साथ होने पर उसे ‘संयुक्त’ कहते हैं। सामान्यतः जाइलम और फ्लोएम एक ही त्रिज्या पर स्थित होते हैं। ये तने में पाए जाते हैं। इनके दो प्रकार हैं–

(a) समपार्श्विक (Collateral):-

– इस प्रकार में, फ्लोएम बाहर की ओर तथा जाइलम भीतर की ओर होता है।

– उदाहरण – सूर्यमुखी

(b) समद्विपार्श्विक (Bicollateral):-

– इस प्रकार के संवहन पूल में फ्लोएम के दो समूह जाइलम के दोनों ओर एक-एक होते हैं।

– उदाहरण – कुकुरबिटा।

(c) संकेन्द्रीय (Concentric):-

– इसमें जाइलम या फ्लोएम में से कोई एक केन्द्र में स्थित होता है तथा दूसरा इसे घेरे रहता है। इसके भी दो प्रकार हैं–

जाइलम केन्द्री (Amphicribal or Hadrocentric):-

– इसमें जाइलम केन्द्र में होता है तथा चारों ओर से फ्लोएम द्वारा घिरा होता है। उदाहरण– फर्न।

फ्लोएम केन्द्री (Amphivasal or Leptocentric):-

– इसमें फ्लोएम को जाइलम चारों ओर पूर्ण रूप से घेरे रहता है।

– उदाहरण – ड्रेसीना, युक्का

– एधा (cambium) की उपस्थिति या अनुपस्थिति के आधार पर संवहन पूलों को दो श्रेणियों में बाँटा गया है–

खुले (Open):-

– जब जाइलम व फ्लोएम तत्त्व के बीच एधा होती है तो पूल को खुला कहा जाता है।

– उदाहरण– द्विबीजपत्री तना। इस एधा को अन्तः पूलीय एधा (Intrafascicular cambium) भी कहते हैं।

बंद (Closed):-

– जब यहाँ भीतर एधा अनुपस्थित होती है तो पूल को बंद कहा जाता है।

– उदाहरण – एक बीजपत्री तना।

द्वितीयक वृद्धि (Secondary Growth):-

– द्वितीयक पार्श्व विभज्योतक की सक्रियता द्वारा रंभीय (stelar) तथा बाह्यरंभीय (Extrastelar) क्षेत्रों में द्वितीयक ऊतकों के निर्माण के कारण पादप अंगों के घेरे (girth) में वृद्धि को द्वितीयक वृद्धि कहते हैं। सामान्यतः द्वितीयक वृद्धि जिम्नोस्पर्म व द्विबीजपत्री तने व मूल में होती है।

– एक बीजपत्रियों में एधा (cambium) की अनुपस्थिति के कारण द्वितीयक वृद्धि अनुपस्थित होती है अपवाद स्वरूप कुछ एकबीजपत्रियों में द्वितीयक वृद्धि देखी गई है। जैसे-ताड़, युक्का, ड्रेसीना, स्माइलेक्स (चोबचीनी), अगेव (हाथीचिंघाड़ा), नारियल आदि।

द्विबीजपत्री तने में द्वितीयक वृद्धि (Secondary growth in dicot stem):-

(i) अन्तः रंभीय द्वितीयक वृद्धि (Intra Stelar Secondary growth):-  बाह्यरंभीय क्षेत्र की तुलना में इस क्षेत्र में वृद्धि पहले होती है।

 संवहन एधा की वलय का निर्माण (Formation of ring of vascular cambium):-

– संवहन पूल के भीतर स्थित एधा को अन्तः पूलीय एधा (intrafascicular cambium) कहते हैं। यह प्राथमिक विभज्योतक का एक प्रकार है। अन्तः पूलीय एधा की रेखा में स्थित मज्जा किरणों की मृदूतकीय कोशिकाएँ सबसे पहले विभज्योतकी हो जाती हैं तथा नीचे एधा का निर्माण करती हैं जिसे अन्तरपूलीय एधा (interfascicular cambium) कहते हैं। जो कि द्वितीयक पार्श्व विभज्योतक है।

– अन्तः पूलीय एधा तथा अन्तरपूलीय एधा मिलकर संवहन एधा (Vascular combium) बनाती हैं। द्विबीजपत्री तने में संवहन पूल का कुछ भाग प्राथमिक तथा कुछ भाग द्वितीयक होता है। इस संवहन एधा की वलय में दो प्रकार की कोशिकाएँ पाई जाती हैं–

(i)  तर्कुरूपी आद्यक (Fusiform initials)

(ii)  रश्मि आद्यक (Ray initials)

– फ्यूजीफॉर्म इनीशियल लम्बी व नुकीले सिरों वाली होती है जबकि रे इनीशियल गोलाकार होती हैं। संवहन एधा में फ्यूजीफॉर्म इनीशियल की सक्रियता अधिक होती है।

संवहन एधा की सक्रियता (Activity of vascular cambium):-

(a) तर्कुरूपी आद्यक की सक्रियता (Activity of fusiform initials):-

– फ्यूजीफार्म इनीशियल में परिनत विभाजन होते हैं इसके परिणाम स्वरूप कुछ कोशिकाएँ परिधि की ओर बनती है तथा द्वितीयक फ्लोएम या Bast में विभेदित हो जाती है तथा कुछ कोशिकाएँ केन्द्रीय अक्ष की ओर बनती हैं ये कोशिकाएँ द्वितीयक जाइलम या काष्ठ में विभेदित हो जाती हैं। द्वितीयक फ्लोएम की तुलना में द्वितीयक जाइलम 8-10 गुना अधिक बनता है। द्वितीयक फ्लोएम के दबाव के कारण प्राथमिक फ्लोएम बाहर की ओर धकेल दिया जाता है तथा वह विघटित हो जाता है। द्वितीयक जाइलम के दबाव के कारण सभी प्राथमिक ऊतक; जैसे – प्राथमिक जाइलम, मज्जा आदि के तने केन्द्र में विघटित हो जाते हैं। इसके स्तम्भ का केन्द्रीय भाग काष्ठीय हो जाता है।

(b) रश्मि आद्यक की सक्रियता (Activity of Ray initials):-

– रे इनीशियल स्पर्शरेखीय विभाजन द्वारा विभाजित होती है तथा नई कोशिकाएँ जोड़ती हैं जो कि मृदूतकीय कोशिकाओं में विभेदित हो जाती है तथा द्वितीयक जाइलम व द्वितीयक फ्लोएम के बीच मज्जा किरणें (Medullary rays) बनाती हैं। ये मज्जा किरणें वलयों के अरीय संवहन को सम्पन्न करती हैं।

Various Stage of Secondary Growth in Dicot Stem:-

 वार्षिक वलय या वृद्धि वलय (Annuals ring or Growth rings):-

– एधा (cambium) की सक्रियता बसंत में अधिक होती है इसलिए अधिक जाइलम बनता है इसे बसंत काष्ठ (spring wood) कहते हैं। बसंत काष्ठ में मुख्यतः वाहिकाएँ होती हैं जिनमें गुहा चौड़ी, स्थूलन कम तथा रंग हल्का व घनत्व कम होता है। शरद (Autumn) में एधा अपेक्षाकृत कम सक्रिय या अक्रिय होती हैं। जाइलम कम बनता है। जाइलम में रेशे अधिक जाइलम में स्थूलन अधिक, गुहा संकरी तथा यह गहरे रंग का व अधिक घनत्व होता है, इसे शरद काष्ठ (Autumn wood) कहते हैं। बसंत काष्ठ को early wood तथा शरद काष्ठ को Late wood कहते हैं।

– काष्ठ को विभिन्न प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है–

1. जाइलम तत्त्व की प्रकृति के आधार पर, काष्ठ के दो प्रकार हैं–

(i) अन्तः काष्ठ (Heart wood)  

(ii) रस काष्ठ (sap wood)

– द्वितीयक वृद्धि के कुछ वर्ष बाद जाइलम का केन्द्रीय भाग गहरे रंग का जबकि परिधीय भाग हल्के रंग का हो जाता है। गहरे रंग के केन्द्रीय जाइलम (काष्ठ) को अन्तः काष्ठ तथा हल्के रंग के परिधीय जाइलम (काष्ठ) को रस काष्ठ कहते हैं अन्तः काष्ठ अक्रिय होती है क्योंकि उसके तत्त्व विभिन्न कार्बनिक पदार्थों; जैसे – तेल, गोंद, रेजिन, टेनिन, वाष्पशील तेल आदि के निक्षपेण के कारण निरुद्ध हो जाते हैं तथा संवहन का कार्य नहीं करते हैं।

– अन्तः काष्ठ अत्यधिक कठोर, नमी, कवक व जीवाणुओं के प्रतिकूल प्रभाव का प्रतिरोध करती है अन्तः काष्ठ को ड्यूरामेन जबकि रस काष्ठ को एल्बर्नम कहते हैं। रस काष्ठ द्वारा जल व खनिज लवणों का संवहन होता है।

2. वाहिकाओं की उपस्थिति या अनुपस्थिति के आधार पर काष्ठ को दो श्रेणियों में बाँटा गया है।

(a) छिद्रित काष्ठ (Porous wood):-

– जाइलम में वाहिकाएँ उपस्थित होती हैं इसे विषमजाइली काष्ठ (Heteroxylous wood) के नाम से जाना जाता है इसे वाहिकाओं की उपस्थिति के कारण कठोर काष्ठ (Hard wood) कहते हैं। वाहिकाओं के व्यवस्थित होने के आधार पर छिद्रित काष्ठ को दो समूहों में विभक्त किया गया है–

वलय छिद्रित काष्ठ (Ring porous wood):-

– इसमें वाहिकाएँ एक वलय के रूप में विन्यासित होती हैं। इस प्रकार की काष्ठ जल संवहन अधिक दक्षता से करती है।

– उदाहरण – शीशम (Dalbergia)

विसरित छिद्रित काष्ठ (Diffused porous wood):-

 इसमें वाहिकाएँ अनियमित रूप से वितरित होती हैं।

– उदाहरण – नीम (Azadirachta)

अछिद्रित काष्ठ (Non-porous wood):-

– जाइलम में वाहिकाएँ अनुपस्थित होती हैं इसे समजाइली काष्ठ ‘homoxylous wood’ के नाम से जाना जाता है।

– उदाहरण – जिम्नोस्पर्म। इसे वाहिकाओं की अनुपस्थिति मृतक की अधिकता के कारण नरम काष्ठ (soft wood) कहते हैं।

– मृदुतक की मात्रा के आधार पर काष्ठ को दो समूहों में वर्गीकृत किया गया है।

(i) विरलदारूक काष्ठ (Manoxylic wood):-

– इसमें जीवित मृदुतक अधिक होती हैं। यह नरम व ढीली काष्ठ है।

– उदाहरण – साइकस

(ii) घनदारूक काष्ठ (Pycnoxylic wood):-

– यह सघन काष्ठ है जिसमें जीवित मृदुतक कम मात्रा में होती है यह कठोर काष्ठ है।

– उदाहरण– पाइनस (जिम्नोस्पर्म), आम, बबूल (Acacia) सागवान (Tectona) शीशम, (Dalbergia)

– मृदुतक कोशिकाओं की गुब्बारे नुमा अन्तः वृद्धि जो वाहिकाओं व वाहिनिकाओं की भित्ति में स्थित गर्तों द्वारा इनकी गुहा में प्रवेश कर जाती है उन्हें टाइलोसिस कहते हैं। टाइलोसिस जल का संवहन निरोधित कर देते हैं। जिम्नोस्पर्म में टाइलोसिस के स्थान पर टाइलोसोइड्स बनते हैं।

– यदि किसी तने में अन्तः काष्ठ नष्ट हो जाती है तब इस प्रकार पादप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा (कोई भी जैविक क्रिया प्रभावित नहीं होती) लेकिन यदि रस काष्ठ नष्ट हो जाती है तब जल का संवहन निरोधित होने के कारण पादप की मृत्यु हो जाएगी। अन्तः काष्ठ तने को कठोरता प्रदान करती है अन्तः काष्ठ के अपशिष्ट पदार्थ प्रतिरक्षी (antiseptic) प्रकृति के होते हैं अन्तः काष्ठ में कीटों को प्रतिकर्षित करने की क्षमता होती है इसलिए यह दीमक के प्रति प्रतिरोधी होती है तथा वर्षा ऋतु में यह जल अन्तः चूषण नहीं करती इस प्रकार यह सबसे अच्छी गुणवत्ता की काष्ठ है यह फर्नीचर बनाने में प्रयुक्त की जाती है।

– काष्ठ का अध्ययन ‘जाइलोटोमी’ कहलाता है। यदि काष्ठ को वायु में मुक्त रूप से रखा जाता है तब रस काष्ठ का तेजी से अपघटन हो जाता है।

– यदि जाइलम निरोधित हो जाता है तब पहले प्ररोह की मृत्यु होगी। यदि फ्लोएम निरोधित होता है तब पहले मूल की मृत्यु होगी।

(ii) बाह्यरंभीय क्षेत्र में द्वितीयक वृद्धि (Secondary growth in extra stelar region):-

– यह कॉर्क एधा (cork cambium) की सक्रियता के कारण होती है। कॉर्क एधा को फेलोजन या बाह्य रंभीय एधा के नाम से भी जाना जाता है (कॉर्क एधा की कोशिकाएँ आयताकार होती है)।

– कॉर्क एधा सामान्यतः कॉर्टेक्स की बाहरी परत से उत्पन्न होती है क्योंकि वह विभज्योतकी हो जाती है। कॉर्क एधा एक स्तरीय वलय के रूप में बनती है। यह कॉर्टिकल क्षेत्र में द्वितीयक ऊतक बनाती है। यह परिनत रूप से विभाजित होकर कुछ कोशिकाएँ भीतर की ओर (कॉर्टेक्स) बनाती है वो कोशिकाएँ जो बाहर की ओर बनती है मध्यपटलिका में सुबेरिन के निक्षेपण के कारण मृत कोशिकाएँ होती हैं, इन कोशिकाओं को कॉर्क या फैलम कहते हैं। वो कोशिकाएँ जो भीतर की ओर बनती हैं, मृदुतक में विभेदित हो जाती हैं जिनमें क्लोरोप्लास्ट हो सकते हैं इन्हें द्वितीयक कॉर्टेक्स या फेलोडर्म कहते हैं।

– फेलोजेन, फैलम तथा फैलोडर्म को संयुक्त रूप से ‘पेरीडर्म’ कहते हैं।

– फेलोजन (cork cambium) + फैलम (cork) + फेलोडर्म (secondary cortex) = पेरीडर्म

– कॉर्क कैम्बियम की अधिकतम सक्रियता शरद ऋतु में होती है। कॉर्क कैम्बियम की वलय केवल एक वर्ष तक जीवित रहती है। प्रत्येक वर्ष पूर्व एधा के नीचे नई एधा बनती है। यह नई एधा द्वितीयक कॉर्टेक्स या फैलोडर्म से व्युत्पन्न होती है।

– सभी ऊतक जो कॉर्क एधा के बाहर स्थित होते हैं, संयुक्त रूप से राइटिडोम के नाम से जाने जाते हैं। राइटिडोम में कॉर्क तथा वे ऊतक शामिल हैं जो कॉर्क के दबाव के कारण मृत हो जाते हैं।

वातरन्ध्र (Lenticels):-

 वातरन्ध्र पादप की बाह्यसतह पर या तो छोटे बिन्दुओं में या अतिवृद्धि के क्षेत्र के रूप में होते हैं। फैलम की अधिकांश कोशिकाएँ मृत होती हैं लेकिन कुछ स्थानों पर जीवित कोशिकाएँ भी पाई जाती हैं।

– इन स्थानों में सुबेरिन का निक्षेपण नहीं होता है इन क्षेत्रों को वातरन्ध्र कहते हैं। वातरन्ध्र की बिखरी कोशिकाओं को comple-mentary cells or filling cells या पूरक कोशिकाएँ कहते हैं। वातरन्ध्र अधिकांशतः काष्ठीय वृक्षों, फलों में पाए जाते हैं लेकिन काष्ठीय आरोही पादपों एवं पत्तियों में अनुपस्थित होते हैं। यदि वातरन्ध्र निरोधित होते हैं तब ऑक्सीजन की कमी के कारण पहले मूल की मृत्यु होगी।

कार्य (Function):-

– वातरन्ध्र पादप तथा वायुमण्डल के बीच गैसों के विनिमय को सम्पन्न करते हैं वातरन्ध्रों के द्वारा वाष्पोत्सर्जन भी होता है जिसे वातरन्ध्रीय वाष्पोत्सर्जन (Lenticular transpiration) कहते हैं।

छाल (Bark):-

– संवहन एधा के बाहर निर्मित सभी ऊतक (फ्लोएम, परिरम्भ, कॉर्टेक्स तथा पेरीडर्म) को छाल कहते हैं। कॉर्क एधा के बाहर स्थित सभी ऊतक सामान्य बाह्य छाल (outer bark) और फ्लोएम, परिरम्भ तथा द्वितीयक कॉर्टेक्स को आन्तरिक छाल (inner bark) कहते हैं। कभी-कभी बाह्य छाल पेरिडर्म की संयुक्त मृत कोशिका स्तरों की बनी होती है। सबसे भीतरी कॉर्क एधा के बाहर निर्मित सभी मृत ऊतक राइटीडोम कहलाते हैं।

– छाल के निम्न प्रकार है

वलय छाल (Ring bark):-

 जब कॉर्क एधा एक वलय के रूप में निर्मित होती है तो बाह्य कॉर्क भी एक वलय के रूप में बनती है, इसे वलय छाल कहते हैं।

– उदाहरण – बिटुला युटिलिस (भोजपत्र), युकेलिप्टस।

शल्की छाल (Scaly bark):-

 यदि कॉर्क एधा छोटी पट्टियों में बनती है। छाल छोटे खण्डों में भी बनती है, इसे शल्की छाल कहते हैं।

– उदाहरण – अमरूद।

 चिकनी छाल (Smooth bark):- यदि कॉर्क एधा की सक्रियता कम होती है तो बनने वाली छाल चिकने प्रकार की होती है।

खुरदरी छाल (Rough bark):-

 जब कॉर्क एधा की सक्रियता अधिक होती है तो छाल खाँचदार होती है यह छाल खुरदरी छाल कहलाती है।

– उदाहरण – नीम।

– द्विबीजपत्री मूल में द्वितीयक वृद्धि (Secondary growth in dicot root):-

– एक द्विबीजपत्री मूल में द्वितीयक वृद्धि के दौरान फ्लोएम पूलों के नीचे के संयोजी ऊतक (Conjunctive tissue) विभज्योतकी हो जाते हैं तथा संवहन एधा (Vascular Cambium) की पृथक् वक्रिय पट्टियाँ बनाती है।

Secondary Growth in Dicot Root

 अब प्रोटोजाइलम के सम्मुख स्थित परिरम्भ की कोशिकाएँ भी विभज्योतकी होकर एधा की अतिरिक्त पट्टियाँ बनाती है। अब इन दोनों प्रकार की पट्टियों के संलयन से संवहन एधा की पूर्ण वलय बन जाती है। संवहन एधा की वलय की आकृति प्रारम्भ में लहरदार होती है लेकिन बाद में यह द्वितीयक जाइलम के दबाव के कारण गोलाकार हो जाती है।

– मूल की संवहन एधा की सक्रियता स्तम्भ की संवहन एधा की सक्रियता के समान होती है। संवहन एधा अन्दर की ओर द्वितीयक जाइलम तथा बाहर की ओर द्वितीयक फ्लोएम बनाती है संवहन एधा का भाग जो परिरम्भ द्वारा बनता है, मज्जा किरणों के निर्माण के लिए उत्तरदायी है। ये मृदुतक की बनी होती है इन मज्जा किरणों को प्राथमिक मज्जा किरणें (बहुस्तरीय) कहते हैं। शेष बची संवहन एधा से भी कुछ मज्जा किरणें बनती हैं जिन्हें द्वितीयक मज्जा किरणें (एक स्तरीय) कहते हैं। इस प्रकार मूल की द्वितीयक संरचनाओं में दो प्रकार की मज्जा किरणें पाई जाती हैं।

परिचय:-

 पुष्प पादप का जननीय भाग है, जो कि रूपान्तरित प्ररोह माना गया है।

– सभी पुष्पी पादप लैंगिक प्रजनन प्रदर्शित करते हैं। पुष्पक्रमों, पुष्पों तथा पुष्पी अंगों की संरचना की विविधता पर एक दृष्टि डालें तो वे अनुकूलन की एक व्यापक परिधि को दर्शाते हैं ताकि लैंगिक जनन का अंतिम उत्पाद, फल और बीज की रचना सुनिश्चित हो सके।

पुष्प-आवृतबीजियों का एक आकर्षक अंग:-

 प्राचीन काल से ही पुष्पों के साथ मानव का एक निकटस्थ संबंध रहा है। मानव के लिए पुष्प सौंदर्य विषयक, आभूषणात्मक, सामाजिक, तथा सांस्कृतिक महत्त्व की वस्तु रहा है।

– पुष्प में सामान्यतः चार चक्र होते है। उनमें से बाह्यदलपुंज तथा दलपुंज पुष्प के ऐच्छिक चक्र/अजननिक भाग है, जबकि पुमंग तथा जायांग पुष्प के अनिवार्य चक्र / जननिक भाग है।

पुंकेसर या लघुबीजाणु पर्ण (Stamen or microsporophyll):-

 पुंकेसर पुमंग का संरचनात्मक व क्रियात्मक भाग है। एक विशिष्ट (प्रारूपी) पुंकेसर दो भागों में विभक्त रहता है- इसमें लंबा एवं पतला डंठल तंतु (फिलामेंट) कहलाता है तथा अंतिम सिरा सामान्यतः द्विपालिक, ऊर्वर, संरचना परागकोश कहलाता है। तंतु का समीपस्थ छोर पुष्प के पुष्पासन या पुष्पदल से जुड़ा होता है, जबकि दूरस्थ छोर परागकोष से जुड़ा होता है। प्रत्येक परागकोष में दो पालियाँ होती है, जो परस्परयोजी (Connective) द्वारा जुड़ी होती है।

– एक परागकोष चार लघुबीजाणुधानियों (Microsporangia-Tetrasporangiate) का बना होता है तथा ऐसे परागकोष को द्विपालीय (bilobed) कहते है। उदा.- अधिकांश पादप। प्रत्येक पालि में दो थीका (Dithecous) होते हैं।

– मालवेसी के सदस्यों में परागकोष वृक्काकार होते है व दो लघुबीजाणुधानियों (Bisporangiate) के बने होते है। ऐसे परागकोष को एककोष्ठी या एकपालीय (Monothecous or monolobed) कहते हैं।

परागकोष का विकास (Development of Anther):-

 एक परागकोष एपिडर्मिस द्वारा आवरित विभज्योतकीय कोशिकाओं के समांगी संहति का बना होता है। हाइपोडर्मल आर्किस्पोरियल कोशिकाओं से परागकोष के चार किनारों पर चार पोलेन सैक विकसित हो जाते है प्रत्येक में यह कोशिकाएँ परिनत रूप से विभाजित होकर बाहर की ओर प्राथमिक भित्तीय कोशिका तथा भीतर की ओर प्राथमिक स्पोरोजीनस कोशिका बनाती है। अब बाहरी प्राथमिक भित्तीय कोशिकाएँ अपरिनत एवं परिनत विभाजन करके 3.5 स्तरीय परागकोष भित्ति बनाती है जबकि भीतरी प्राथमिक स्पोरोजीनस कोशिकाएँ आगे विभाजन करके परागमातृ कोशिकाएँ (Pollen mother cells) बनाती है।

परागकोष की संरचना:-

 इसमें परागकोष भित्ति एवं बीजाणुजन (स्पोरोजीनस) ऊतक शामिल होते है।

परागकोष भित्ति:

– यह निम्नलिखित भागों से बनी होती है-

A. एपिडर्मिस:-

– यह परागकोष की सबसे बाहरी परत होती है। यह पतली एकल परत के रूप में उपस्थित होती है। यह सुरक्षात्मक होती है।

B. एण्डोथीसियम:-

– यह एपिडर्मिस के भीतर स्थित होती है। एण्डोथीसियल कोशिकाओं में  सेल्यूलोज से निर्मित रेशेदार स्थूलन होते है। यह अरीय पट्टियों के रूप में प्रकट होती है तथा आन्तरिक स्पर्शरेखीय भित्ति पर उत्पन्न होती है। कुछ स्थानों पर रेशेदार स्थूलन अनुपस्थित होते है। ये स्थान स्टोमियम कहलाते है। स्टोमियम कोशिकाएँ आर्द्रताग्राही प्रकृति की होती है तथा परागकोष के स्फुटन (Dehiscence) में सहायक होती है।

C. मध्य स्तर:

– यह परागकोष का तीसरा भित्ति स्तर है। इनकी संख्या सामान्य 1-4 व कभी-कभी यह अनेक परतीय होती है।

D. टेपीटम:

– यह परागकोष की सबसे भीतरी परत है, जो स्पोरोजीनस ऊतक को घेरे रहती है। इसकी कोशिकाएँ बड़ी बहुकेन्द्रकीय तथा बहुगुणित होती है। टेपीटम के दो प्रकार है-

(i)  अमीबीय या पेरीप्लाज्मोडियल या invasive टेपीटम:

– यह कम समय तक जीवित रहती है। इसकी कोशिकाओं की अरीय भित्तियाँ फट जाती है तथा जीवद्रव्य लघुबीजाणु मातृ कोशिकाओं के बीच फैलकर परस्पर जुड़कर पेरीप्लाज्मोडियल या प्लाज्मोडियम बनाता है। उदा.- लिलि, टाइफा, एलिस्मा।

(ii)  स्रावी या ग्रंथिल या भित्तीय टेपीटम:

– यहाँ टेपीटल कोशिकाएँ सूक्ष्मबीजाणुओं के विकास के दौरान तक जीवित रहती हैं और अंत में वे विघटित हो जाती हैं।

– इस टेपीटम में प्रो-यूबिश्च काय बनती है जो कोशिका भित्ति तथा प्लाज्मा कला के बीच चली जाती है, जहाँ इसके चारों ओर स्पोरोपोलेनिन (वसीय पदार्थ) का निक्षेपण स्वयं के द्वारा होता है। अब इसे यूबिश्च काय (Ubisch body) कहते है। टेपीटम कोशिका भित्ति के फटने पर यूबिश्च काय परागकोष के लोक्यूलस में आ जाती है तथा एक्जाइन के निर्माण में भाग लेती है।

– टेपीटम में DNA घटकों की वृद्धि मुक्त केन्द्रकीय विभाजन, रेस्टीट्यूशन केन्द्रक निर्माण, अन्तःसूत्री विभाजन या पॉलीटेनी द्वारा होती है। टेपीटम पोषकों के परिवहन, स्पोरोपोलेनिन के निर्माण, पोलनकिट पदार्थों के परिवहन तथा संचित भोज्य पदार्थों के संचय से सम्बन्धित है, जो कि विकसित हो रहे परागकणों को पोषण प्रदान करते है।

बीजाणुजन (स्पोरोजीनस) ऊतक:

 लघुबीजाणुधानी के भीतर प्राथमिक बीजाणुजन कोशिकाओं से लघुबीजाणु मातृ कोशिकाएँ या पराग मातृ कोशिका (Microspore mother cell or Pollen mother cells) (2n) बनती है। लघुबीजाणुधानी का विकास सुबीजाणुधानिक (यूस्पोरेन्जिएट) प्रकार का होता है।

लघुबीजाणुजनन (Microsporogenesis):-

 लघुबीजाणुओं (परागकणों) के निर्माण व विभेदन की प्रक्रिया को लघुबीजाणुजनन कहते है।

– लघुबीजाणुधानी की गुहा में लघुबीजाणु मातृ कोशिकाओं में अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा पराग चतुष्कों (Pollen tetrads) का निर्माण होता है।

– चतुष्क पाँच प्रकार के होते है

(i)  चतुष्फलकीय चतुष्क (Tetrahedral Tetrad) उदा- द्विबीजपत्री (जैसे कैप्सेला)

(ii)  समद्विपार्श्व चतुष्क (Isobilateral Tetrad); उदा- एकबीजपत्री

(iii)  क्रासित चतुष्क (Decussate Tetrad); उदा- मेग्नोलिया

(iv)  T-आकार चतुष्क (T-shaped Tetrad); उदा- ब्यूटोमॉप्सिस

(v)  रेखीय चतुष्क (Linear Tetrad); उदा.- हेलोफिला

लघुबीजाणु (परागकण) की संरचना:

 परागकण सामान्यतः गोलाकार (गोलीय) होते हैं, जिनका व्यास लगभग 25.50 माइक्रोमीटर होता है।

– लघुबीजाणु की कोशिका भित्ति दो स्तरो की बनी होती है, बाहरी एक्जाइन तथा भीतरी इन्टाइन। इन्हें मिलाकर स्पोरोडर्म कहते हैं।

– बाहरी एक्जाइन स्पोरोपोलेनिन की बनी होती है, जो कि भौतिक व जैविक अपक्षय का प्रतिरोधी होता है। स्पोरोलेनिन वसीय पदार्थ है। इसलिए परागभित्ति जीवाश्मीय निक्षेपों में लम्बे समय तक संरक्षित रहती है। स्पोरोपोलेनिन सर्वाधिक ज्ञात प्रतिरोधक कार्बनिक सामग्री है। यह उच्चताप तथा सुदृढ़ अम्लों एवं क्षारों के सम्मुख टिक सकती है। अभी तक ऐसा कोई एंजाइम पता नहीं चला है, जो स्पोरोपोलेनिन को निम्नीकृत कर सके।

– एक्जाइन दो परतीय होती है, एक्टएक्जाइन (सेक्साइन) तथा एण्डएक्जाइन (नेक्साइन)। एक्टएक्जाइन टेक्टम, बेक्यूलेट स्तर तथा फुट स्तर में विभेदित होती है।

– बाहरी टेक्टम द्वारा परागकण की सतह पर डिजाइन विकसित होती है। टेक्टम में विशिष्ट पद्धति से स्थूलन होता है, जो कि परागकणों के संगत कुल या वंश की पहचान में प्रयुक्त किया जा सकता है।    

– एक्जाइन में अविश्चकाय तथा लघुबीजाणु कोशिकाद्रव्य भाग लेते है। अनेक कीटपरागित जातियों में परिपक्व परागकणों के बाहर लिपिड तथा केरोटिनॉइड्स द्वारा निर्मित चिपचिपी परत, पोलनकिट होती है। पोलनकिट कीट आकर्षक के रूप में कार्य करती है तथा पराग कणों को UV विकिरणों के दुष्प्रभाव से बचाती है। इन्टाइन सेल्यूलोज तथा पेक्टिन की बनी होती हैं।

 एक्जाइन तीन बिन्दुओं पर अत्यन्त पतली या अनुपस्थित होती है, जिन्हें अंकुरण छिद्र (Germ pores) कहते है। उदा. – द्विबीजपत्री में परागकण बाईकोलपेट (दो अंकुरण Germ Pore. छिद्र) एवं ट्राईकोलपेट (तीन अंकुरण छिद्र)। एकबीजपत्रियों में अंकुरण छिद्र के स्थान पर एक अंकुरण खाँच पायी जाती है तथा ये मोनोकोलपेट होते हैं।

– परागकणों के अध्ययन को परागकण विज्ञान (पेलिनोलोजी) कहते है।

– कभी-कभी एक लघुबीजाणु मातृ कोशिका से चार से अधिक परागकण निर्मित होते है इसे पोलीस्पोरी कहते है। उदा- कस्कुटा रिफ्लेक्स।

– नर युग्मकोद्भिद् का विकास (Development of male gametophyte):-

(i)  परागण पूर्व विकास:

– परागकण से नर युग्मकोद्भिद् का विकास लघुयुग्मकजनन (Microgametogenesis) कहलाता है। पराग कण का अंकुरण परागकोष से मुक्त होने से पूर्व ही प्रारम्भ हो जाता है, जिसे Precautious or insitu अंकुरण कहते हैं।

 लघुबीजाणु की कोशिका समसूत्री विभाजन द्वारा बड़ी ट्यूब कोशिका (Tube cell) तथा छोटी जनन कोशिका (Generative cell) बनाती हैं।

 अधिकांश आवृतबीजियों (60% से अधिक में) में परागण 2-कोशिकीय प्रावस्था (कुछ में ही 3-कोशिकीय प्रावस्था में उदा.- साइप्रस) में होता है।

– नर गेमीटोफाइट आंशिक रूप से विकसित परागकण होता है जो कि अगुणित (n) संरचना है।

(ii) परागण पश्च विकास (Post pollination development):-

– परागकणों के वर्तिकाग्र पर पहुँचने के बाद, परागकण अपने अंकुरण छिद्र द्वारा जल व पोषकों का अवशोषण करता है। अंकुरण छिद्र परागनली का समारम्भ करता है। एक्जाइन फट जाती है तथा कायिक कोशिका (Vegetative cell) परागनली के रूप में बाहर आ जाती है तथा परागनली इन्टाइन द्वारा आवरित होती है।

– परागकण या तो एकसाइफनी (Monosiphonous) (एक परागनली युक्त) सामान्य प्रकार या बहुसाइफनी (Polysiphonous), एक से अधिक परागनलियों युक्त होते हैं। जैसे- कुकुरबिटेसी तथा मालवेसी के सदस्य।

– परागनली को सबसे पहले G.B. अमिकि (1824) ने पोर्चुलाका ओलीरेसिया पादप में प्रेक्षित किया।

– परागनली की वृद्धि शीर्षस्थ होती है तथा इसका नियमन कार्बोहाइड्रेट्स, बोरॉन तथा कैल्शियम द्वारा तथा उद्दीपन जिब्बरेलिन व ऑक्जिन द्वारा होता है। परागनली की वृद्धि के लिए अनुकूलतम तापक्रम 20°-30°C है।

 जनरेटिव केन्द्रक समसूत्री विभाजन द्वारा दो नर युग्मक बनाता है। नर युग्मक अचल तथा अमीबीय होते है और आकार में कुछ असमान होते है।

– परागनली का कार्य स्पर्म को ले जाना है। परागनली में सबसे पहले ट्यूब केन्द्रक प्रवेश करता है, जो कि अवशेषी (Vestigeal) होता है तथा शीघ्र विघटित हो जाता है। ट्यूब केन्द्रक वर्तिका में परागनली के मार्ग को निर्देशित करता है।

अण्डप या गुरुबीजाणुपर्ण (Carpel or megasporophyll):-

– अण्डप एक रूपान्तरित पर्ण है। प्रत्येक अंडप अंडाशय, वर्तिका तथा वर्तिकाग्र का बना होता है अंडाशय में बीजांड (गुरुबीजाणुधानियाँ) होती है।

– बीजाण्ड या गुरुबीजाणुधानी की संरचना (Structure of ovule or megasporangium):-

– बीजाण्ड बीजाण्डासन की अतिवृद्धि है। प्रत्येक बीजाण्ड बीजाण्डासन से एक वृन्त द्वारा जुड़ा होता है, जिसे बीजाण्डवृन्त (Funicle) कहते है। बीजाण्डवृन्त बीजाण्ड के मुख्य काय से जिस बिन्दु पर जुड़ा होता है उसे नाभिका (Hilum) कहते है।

 कभी-कभी बीजाण्ड के काय के साथ बीजाण्डवृन्त की सम्पूर्ण लम्बाई में अनुदैर्ध्य उभार निर्मित होता है, जिसे ‘राफे’ कहते है।

– बीजाण्ड की मुख्य काय को बीजाण्डकाय (Nucellus) कहते है, जो मृदुतकीय ऊतक का बना होता हैं।

– बीजाण्ड काय के विकास के आधार पर, बीजाण्ड के दो प्रकार है-

(i)  तनु बीजाण्डकायी (Tenuinucellate):- बीजाण्ड काय कम विकसित उदा.:- गेमोपेटली।

(ii)  स्थूलबीजाण्डकायी (Crassinucellate):- बीजाण्डकाय सुविकसित होता है उदा.- पॉलीपेटली तथा एकबीजपत्री।

– शीर्ष को छोड़कर सम्पूर्ण बीजाण्ड एक या दो वलयाकार आवरणों द्वारा घिरा होता है, जिन्हें अध्यावरण (Integument) कहते हैं। शीर्ष पर स्थित छिद्र को बीजाण्डद्वार (Micropyle) कहते हैं। अध्यावरण की उत्पत्ति निभाग (Chalaza) से होती हैं।

– अध्यावरणों की संख्या के आधार पर बीजाण्ड के निम्नलिखित प्रकार है

(i)  एक अध्यावरणी:

– बीजाण्ड एक अध्यावरण द्वारा घिरा।

– उदा.- गेमोपेटली के सदस्य (कम्पोजिटी) तथा जिम्नोस्पर्म्स।

(ii)  द्विअध्यावरणी:

– बीजाण्ड दो अध्यावरणों युक्त।

– उदा.- पॉलीपेटली के सदस्य (पैपिलियोनेसी) तथा एकबीजपत्री।

(iii)  अध्यावरणरहित:

– बीजाण्ड अध्यावरण रहित होता है।

– उदा.- चन्दन (Sandal or Santalum), लोरेन्थस, ओलेक्स तथा लिरियोसोमा।

– अनेक पादपों में बीजाण्ड या बीजाण्डवृन्त के आधार से एरिल के रूप में तीसरा अध्यावरण विकसित हो जाता है।

– उदा.-ट्राइएन्थिमा, लीची, इंगा डल्सी। लीची तथा इंगा डल्सी में एरिल माँसल तथा खाने योग्य होता है।

गुरुबीजाणुजनन (Megasporogenesis):-

 बीजाण्डद्वारीय सिरे के ओर की कोई भी कोशिका अन्य कोशिकाओं से भिन्न हो जाती है। इसे आर्कीस्पोरियम (प्रसूतक) कहते है।

 भ्रूणकोष या मादा युग्मकोद्भिद् (Embryo sac or female gametophyte):-

– पी. माहेश्वरी ने भ्रूणकोष को तीन समूहों में वर्गीकृत किया।

1. एकबीजाणुक भ्रूणकोष (Monosporic embryo sac):-

– केवल एक गुरुबीजाणु भ्रूणकोष बनाता है।

– उदा:- पॉलीगोनम, ओइनोथीरा।

2. द्विबीजाणुक भ्रूणकोष (Bisporic embryo sac):-

– भ्रूणकोष के विकास में दो गुरुबीजाणु भाग लेते है।

– उदा:- एलियम एण्डीमिओन।

3.  चतुष्क बीजाणुक भ्रूणकोष (Tetrasporic embryosac):-

 सभी चारों गुरुबीजाणु भ्रूण कोष के विकास में भाग लेते है।

– उदा:- एडोक्सा, प्लम्बेगो, डूसा, फिटलेरिया, पेपरोमिया।

 मोनोस्पोरिक भ्रूणकोष का विकास (Development of Monosporic embryosac):-

– गुरुबीजाणु से भ्रूणकोष का विकास गुरुयुग्मकजनन (Megagametogenesis) कहलाता है।

– सामान्य प्रकार के भ्रूणकोष विकास का अध्ययन स्ट्रासबर्गर ने पोलीगोनम में किया। यह भ्रूणकोष एक गुरुबीजाणु से विकसित होता है यह निभागीय गुरुबीजाणु से विकसित होता है (बीजाण्डद्वार से चौथा)। क्रियाशील गुरुबीजाणु का केन्द्रक तीन समसूत्री विभाजनों द्वारा 8 केन्द्रक बनाता है।

– यहाँ पर यह ध्यान देना महत्त्वपूर्ण है कि ये सूत्री विभाजन सही अर्थों में मुक्त केंद्रकीय (Free nuclear) है, जिसमें केंद्रकीय विभाजन से तुरंत पश्चात ही कोशिका भित्ति की रचना नहीं होती है।

– 8-केंन्द्रीय चरण के पश्चात् कोशिका भित्ति की नींव पड़ती है, जो विशिष्ट (प्ररूपी) मादा युग्मकोद्भिद् या भ्रूणकोश के संगठन का रूप लेती है।

– आठ में से 6-केंद्रक, कोशिका भित्तियों से घिरी होती हैं और कोशिकाओं में संयोजित रहते हैं। शेष बचे दो केंद्रक ध्रुवीय केंद्रक कहलाते हैं, जो अंड उपकरण के नीचे बड़ी केंद्रीय कोशिका में स्थित होते हैं।

– इस प्रकार भ्रूणकोष 7- कोशिकीय, 8- केन्द्रकीय होता है।

 मानोस्पोरिक भ्रूणकोष की संरचना (Structure of Monosporic embryo sac):-

(i) निभागीय सिरे की तीन कोशिकाएँ युग्मकोद्भिद की प्रतिमुखी/ एन्टीपोडल (n) या प्रतिव्यासांत कोशिकाएँ बनाती है।

(ii)  बीजाण्डद्वारीय सिरे की तीन कोशिकाएँ अण्डउपकरण बनाती है। एक अण्डकोशिका (n) तथा दो सहायक कोशिकाएँ (synergids) – (n) प्रत्येक synergid में तन्तुरूपी उपकरण (Filiform apparatus) होता है, जो परागनली को बीजाण्डद्वार की ओर आकर्षित करने के लिए रासायनिक पदार्थ स्रावित करता है।

(iii)  केन्द्र में (प्रत्येक ध्रुव से एक) दो केन्द्रक ध्रुवीय केन्द्रक (Polar nuclei) (n) कहलाते है, जो निषेचन के ठीक पहले संयुक्त होकर द्विगुणित द्वितीयक केन्द्रक बनाते है।

परागण (Pollination):-

 एक पुष्प के परागकोष से परागकणों का उसी जाति के समान या भिन्न पुष्प के वर्तिकाग्र पर स्थानान्तरण को परागण कहते है। परागण के दो प्रकार हैं-

(A) स्वपरागण (Self Pollination or Autogamy)

(B) परपरागण (Cross Pollination or Allogamy)

स्वपरागण (Self-Pollination):-

– इसके दो प्रकार है-

(I)  ऑटोगैमी

(II)  गिटेनोगैमी

(I)  ऑटोगैमी (Autogamy):-

– एक पुष्प के परागकोष से परागकणों का उसी पुष्प के वर्तिकाग्र पर स्थानान्तरण को ऑटोगैमी कहते है।

ऑटोगैमी के लिए अनुकूलन:

(i)  द्विलिंगता (Bisexuality):-

– जब एक ही पुष्प में नर एवं मादा जननांग उपस्थित हो।

(ii)  समकालपक्वता (Homogamy):-

– द्विलिंगी पुष्प में नर तथा मादा जननीयभाग एक ही समय पर परिपक्व होते हैं। पुष्प खुले (chasmogamous) होते है। उदा.- कन्वोलवुलम, गार्डिनिया, केथेरेन्थस, मिराबिलिस, सूर्यमुखी (Fail-safe device)

(iii)  अनुन्मील्यता (Cleistogamy):-

– कुछ द्विलिंगी पुष्प बंद रहते है तथा कभी नहीं खुलते। ऐसे पुष्पों को अनुन्मील्य पुष्प कहते हैं।

– उदा.कोमेलाइना बेन्गालेन्सिस, मूँगफली, वायोला, ऑक्जेलिस।

– अनुन्मील्य पुष्प में परागकोश और वर्तिकाग्र एक दूसरे के निकट होते हैं। जब पुष्पकलिका में परागकोश फटता है तो परागकण वर्तिकाग्र के सम्पर्क में आकर परागण को प्रभावी करते हैं।

– इस प्रकार अनुन्मील्य पुष्प निस्संदेह ऑटोगैमस होते हैं क्योंकि यहाँ परपरागण की कोई सम्भावना नहीं होती है।

– अनुन्मील्य पुष्प परागणकारियों की अनुपस्थिति में भी सुनिश्चित बीज समूह उत्पन्न करते हैं।

Note:

– कोमेलाइना बेन्गालेन्सिस में दो प्रकार के पुष्प होते है।

(a)  उन्मील्य (Chasmogamous):- ये खुले वायवीय पुष्प है।

(b)  अनुन्मील्य (Cleistogamous):- ये भूमि के अन्दर स्थित बंद पुष्प है।

(II)  सजातपुष्पी परागण (गिटेनोगैमी):

– एक पादप के दो पुष्पों के बीच परागण होता है। (आनुवांशिक रूप से स्वपरागण तथा पारिस्थितिकीय रूप से परपरागण)

गुण (Merits):-

1. पुष्पों मे परागकों को आकर्षित करने वाले आकर्षक दल, सुगन्ध व मकरन्द की उपस्थिति आदि नहीं होती है।

2. पीढ़ी की शुद्धता को बनाये रखा जाता है।

3. परागकण व्यर्थ नहीं जाते हैं।

दोष (Demerits):-

1. नई तथा स्वस्थ किस्में निर्मित नहीं होती है।

2. इसके परिणामस्वरूप कमजोर संतति उत्पन्न होती है, जो कमजोर बीज तथा पादपों को उत्पन्न्न करती है।

परपरागण (Cross pollination or Allogamy):-

– इसके अन्तर्गत परागकोष के परागकणों का उसी जाति के अन्य पादप के पुष्प के वर्तिकाग्र पर स्थानान्तरण होता हैं या जीनोगेमी भिन्न पादपों के दो पुष्पों के बीच परागण होता है (आनुवंशिक रूप से तथा पारिस्थातिकीय रूप से परपरागण)।

परपरागण के लिए अनुकूलन:

(i)  एकलिंगता (Unisexuality or Dicliny):-

– यदि पुष्प एकलिंगी है, तो परपरागण अविकल्पी होता है।

– उदा:- पपीता, कुकुरबिटेसी के सदस्य।

– यह दो प्रकार का होता है।

(a) उभयलिंगाश्रयी (Monoecious):-

– जब नर व मादा पुष्प एक ही पादप पर उपस्थित हो उदा.- मक्का, अरण्डी।

(b) एकलिंगाश्रयी (Dioecious):-

– जब नर व मादा पुष्प अलग-अलग पादप पर उपस्थित हो। उदा.- पपीता, खजूर, शतावर।

(ii) भिन्नकालपक्वता (Dichogamy or Heterogamy):-

– द्विलिंगीपुष्प के परागकोष तथा वर्तिकाग्र भिन्न-भिन्न समय पर परिपक्व होते हैं। इसके दो प्रकार हैं-

(a) पुंपपूर्वता (Protandry):-

– परागकोष, वर्तिकाग्र से पहले परिपक्व; उदा. सुर्यमुखी, कपास, क्लेरोडेन्ड्रॉन, साल्विया।

(b)  स्त्रीपूर्वता (Protogyny):-

– वर्तिकाग्र परागकोष से पहले परिपक्व उदा. एरिस्टोलोकिया, मेग्नोलिया, ग्लोरियोसा।

(iii)  हर्कोगेमी (Herkogamy):-

– यह पुमंग तथा जायांग के बीच प्राकृतिक तथा भौतिक अवरोध है, जो स्वपरागण को रोकने में सहायक होता है। उदा.:- ऑर्किड्स, केलोट्रॉपिस केलोट्रोपिस में जायांग का वर्तिकाग्र पॉलिनियम (परागकोष) से जुड़कर गायनोस्टीजियम डिस्क (पुवर्तिकाग्रछत्र) बनाता है।

(iv)  विषमवर्तिकात्व (Heterostyly):-

– पुष्प द्विरूपी होते हैं। यह पुंकेसर तथा वर्तिका की लम्बाई में अन्तर के कारण उत्पन्न होती है उदा.:- प्रिमुला (Primrose), चमेली (Jasmine)।

(v) स्वबन्ध्यता (Self-sterility) or अनिषेच्यता (Incompatibility) या स्वअसामंजस्यः

– कार्यिकीय या आनुवंशिक कारणों से परागकण उसी पुष्प के वर्तिकाग्र पर अंकुरित नहीं हो पाते; उदा.- चाय, माल्वा, पिटूनिया, सोलेनम, निकोटियाना।

– भिन्न रूपों के पुष्पों वाली एक मात्र जाति है- प्रिमुला।

परपरागण के साधन (Agencies of cross pollination):-

– इन्हें दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है-

1. अजैविक

2. जैविक

1. अजैविक (Abiotic):-

– इसमें वायु, जल, गुरुत्व शामिल है।

(a) शुष्क तथा वायुपरागण (एनिमोफिली):

– हवा द्वारा होने वाला परागण। यह अदिशात्मक होता है। वायुपरागित पादपों के परागकण छोटे, हल्के व चिकने होते हैं। मादा पुष्पों में परागकणों का ग्रहण करने के लिए रोमदार या ब्रश सदृश्य वर्तिकाग्र होते है।

– वायुपरागित पुष्प छोटे, अस्पष्ट, लम्बे व मुक्तदोली पुंकेसरों युक्त तथा पुष्प में एक या कुछ बीजाण्ड होते है।

– उदा.- गन्ना, मक्का, बाँस, पाइनस, पपीता, घास, टाइफा, खजूर, नारियल, शहतूत, चीनोपोडियम इत्यादि।

(b) जलपरागण (हाइड्रोफिली):

– जल द्वारा परागण। यह दो प्रकार का होता है-

1. अधिजल परागण (एपिहाइड्रोफिली):

– परागण जल के बाहर होता है।

– उदा:- वैलिसनैरिया

– यह एक एकलिंगाश्रयी मूलीय निमग्न जलीय पादप है, जिसमें नर पुष्प होते है। मादा पुष्पों में लम्बा कुण्डलित पुष्पवृन्त होता है, जो इनकी परिपक्वता पर अकुण्डलित हो जाता है। मादा पुष्प जल की सतह पर तैरने लगते है। नर पुष्प भी जल की सतह पर तैरते है शीघ्र ही नर पुष्प मादा पुष्पों के सम्पर्क मे आते है। परागकोष पालियाँ फट जाती है, वर्तिकाग्र परागकणों को ग्रहण करता है तथा मादा पुष्प का पुष्प वृन्त पुनः कुण्डलित हो जाता है।

अधोजल परागण (हाइपोहाइड्रोफिली):

– परागण जल के भीतर होता है।

– उदा:- जोस्टेरा तथा सिरेटोफिलम।

– सभी जलीय पादप जल परागित नहीं होते है। कुछ वायु परागितपोटेमोजिटोन, माइरियोफिल्लम, जल लिलि या कीट परागित

– उदा:- एलिस्मा, कमल, वाटर हायसिन्थ।

2. जैविक:

– सजीवों द्वारा परागण, जब परागण जन्तुओं द्वारा होता है, उसे जन्तु परागण (Zoophily) कहते हैं।

(i) कीटपरागण (एन्टोमोफिली):

कीटों द्वारा परागण:

– 80% परागण कीटों (मुख्य पॉलीनेटर्स) द्वारा होता है। मधुमक्खियों द्वारा परागित पुष्प चमकदार रंग के (काले या नीले गहरे रंग के), सुगन्ध तथा मकरन्द युक्त होते हैं। कीटपरागित पुष्प कम मात्रा में पराग उत्पन्न करते है, जो पोलनकिट की उपस्थिति के कारण कांटेदार तथा चिपचिपी एक्जाइन युक्त होते हैं। इन पुष्पों के वर्तिकाग्र लम्बी, खुरदरी तथा चिपचिपी होती है। शलभपरागित पुष्प सुगंधयुक्त तथा श्वेत रंग के होते हैं।

उदा:-

(1)  सॉल्विया:- उत्तोलक विधि (Lever mechanism या turn pipe mechanism)

(2)  केलोट्रॉपिस ट्रांसलेटर विधि द्वारा

(3)  युक्का प्रोनुबा युक्कासेला कीट द्वारा

(4)  सेन्चुरिया- पिस्टन विधि द्वारा

(5)  एरिस्टोलाकिया- पिट फॉल विधि द्वारा

(6)  फाइकस:- ब्लास्टोफेगा (गाल वास्प) द्वारा Trap door mechanism.

(7) ओफ्रिस नामक ऑर्किड में कोल्पा आरिया द्वारा।

 ओफ्रिस ऑर्किड का पुष्प रंग, आकृत्ति तथा सुगन्ध में मादा वास्प कोल्पा ऑरिया से समानता दर्शाते हैं।

– यदि पुष्प स्वयं स्पष्ट नहीं होते तो अन्य भाग रंगीन होकर कीटों को आकर्षित करते हैं। जैसे बोगनवीलिया में सहपत्र, यूफोर्बिया पल्चिरिमा में पत्तियाँ, म्यूसेण्डा में एक बाह्यदल इत्यादि। क्लिमेटिस, गुलाब, मेग्नोलिया के पराग खाने योग्य होते है।

(ii) पक्षीपरागण (ऑर्निथोफिली):

– पक्षियों द्वारा परागण को ऑर्निथोफिली कहते हैं। पुष्प नलिकाकार या प्यालेनुमा या कलशाकार होते हैं। दल चमकदार गहरे रंग के (विशेषकर पीले रंग के) खाने योग्य मकरन्द युक्त होते हैं।

 उदा:-

(a)  इरिथ्रिना में कौए तथा गिलहरी द्वारा परागण।

(b) बिग्नोनिया हमिंग बर्ड द्वारा

(c)  स्ट्रिलिजिया सन बर्ड द्वारा। अन्य उदाहरण बोम्बेक्स सीबा (सिल्क कॉटन), कैलीस्टेमोन, ग्रिविलिया, अगेव, ब्यूटिया।

(iii) काइरोप्टेरोफिली:

– परागण चमगादड़ों (bats) द्वारा सम्पादित होता है। पुष्प हल्के रंग के, तीव्र सुगन्ध व प्रचुर मकरन्द युक्त होते है। उदा.एन्थोसिफेलस, किगेलिया पिन्नेटा (सॉसेज वृक्ष), एडेनसोनिया डिजिटेटा (Boabab वृक्ष)।

(iv) मेलेकोफिली: घोंघे द्वारा परागण उदा.- लेम्ना, एरिसीमा, क्राइजेन्थीमम।

(v) ऑफियोफिली:

– सर्प द्वारा परागण; उदा:- चन्दन, चम्पा (माइकेलिया)।

निषेचन (Fertilization):-

 नर व मादा युग्मकों के संलयन से द्विगुणित जाइगोट के निर्माण की प्रक्रिया को निषेचन कहते है। निषेचन की खोज स्ट्रॉसबर्गर (Strasburger) ने मोनोट्रॉपा पादप में की। सामान्यतः पराग कण से एक परागनली निकलती है। इसे मोनासाइफनी अवस्था कहते है। कुकुरबिटेसी तथा मालवेसी के सदस्यों में एक से अधिक (10-14) परागनलियाँ परागकण से उत्पन्न होती हैं। इसे ‘पोलीसाइफनी अवस्था’ कहते है।

पराग-स्त्रीकेसर अन्तर्क्रिया (Pollen-Pistil Interaction):-

1. परागण, वर्तिकाग्र पर सही प्रकार के परागकण के स्थानान्तरण की गारन्टी नहीं देता है। अक्सर गलत प्रकार के परागकण, या तो अन्य जाति से या उसी पादप के (यदि यह स्वअसंगत है) भी वर्तिकाग्र पर पहुँच जाते हैं।

2. जायांग में परागकण को पहचानने की क्षमता होती है, चाहे यह सही प्रकार का (संगत) या गलत प्रकार का (असंगत) हो।

3. परागकण को पहचानने के जायांग की योग्यता के पश्चात इसका स्वीकृत होना या निरस्त होना, परागकण एवं जायांग के बीच एक निरंतर रासायनिक संवाद के परिणामस्वरूप होता है।

4. संगत परागण के पश्चात होने वाली परागण पश्च घटनाओं की सूची नीचे दी गई है-

(i)  परागकण वर्तिकाग्र पर अंकुरित होकर एक जनन छिद्र से होकर एक परागनलिका उत्पन्न करता है। परागकण के घटक परागनलिका में चले जाते है।

(ii)  परागनलिका, वर्तिकाग्र एवं वर्तिका के ऊतकों से होते हुए वृद्धि करती है तथा अण्डाशय तक पहुँचती है। परागनलिका की वृद्धि रसायनुर्वती होती है।

(iii)  यदि परागकण दो कोशिका अवस्था में डाले जाते है तो वर्तिकाग्र में परागनलिका की वृद्धि के दौरान, इसकी जनन कोशिका विभाजित होती है तथा दो नरयुग्मक बनाती है।

(iv)  यदि परागकण तीन कोशिका अवस्था में डाले जाते है तो परागनलिका प्रारम्भ से ही दो नर युग्मकों को लेकर चलती है।

(v) बीजाण्ड में परागनली का प्रवेश (Entry of pollen tube in ovule):-

(a)  बीजाण्डद्वारी प्रवेश (Porogamy):- यह सबसे सामान्य प्रकार है, जिसमें पराग नली बीजाण्ड में बीजाण्डद्वार (Micropyle) से प्रवेश करती है।

(b)  निभागीय प्रवेश (Chalazogamy):- परागनली बीजाण्ड में निभागीय सिरे से प्रवेश करती है। E.g.: केजूराइना, अखरोट (जुगलेन्स रीजिया)।

(c)  अध्यावरणीय प्रवेश (Mesogamy):- परागनली बीजाण्ड में या तो अध्यावरणों से E.g.: कुकुरबिटा, पोपुलस या बीजाण्डवृन्त से प्रवेश करती हैं। E.g.: पिस्टेसिया

(d) एक्रोगेमी: कुछ पादपों में भ्रूणकोष परागनली के लिए बीजाण्ड के बीजाण्ड द्वार से बाहर आ जाता है E.g.: युट्रीकुलेरिया।

Note:-

– मीजोगेमी, केलेजोगेमी तथा एक्रोगेमी को संयुक्त रूप से एपेरोगेमी कहते हैं।

(vi)  भ्रूणकोश में परागनलिका का प्रवेश:

 बीजाण्ड में परागनलिका के प्रवेश स्थल पर निर्भर नहीं करते हुए नलिका स्वतः ही माइक्रोपाइल सिरे पर अर्थात विघटनशील सहायक कोशिका से भ्रूणकोश में प्रवेश करती है। हाल ही के अध्ययनों में दर्शाया गया है कि सिनर्जिड्स के माइक्रोपाइल भाग पर उपस्थित फिलिफॉर्म उपकरण परागनलिका के प्रवेश को निर्देशित करता है।

– वर्तिकाग्र पर परागों के जमाव से लेकर बीजाण्ड में परागनलिका के प्रवेश तक की ये सभी घटनाएँ सम्मिलित रूप से पराग-जायांग अन्तर्क्रिया कहलाती है। यह अन्तर्क्रिया एक गतिक प्रक्रम है।

(vii)  पात्रे  (In-vitro) पराग अंकुरण:-

– एक बूंद 10% शर्करा विलयन तथा बोरिक अम्ल, Ca, Mg एवं K लवणों युक्त एक काँच की स्लाइड पर परागकर्णी (उदा.: मटर, क्रोटेलेरिया, बालसम, विन्का) को छिड़ककर पराग अंकुरण का अध्ययन किया जा सकता है। 15-30 मिनट पश्चात परागनलिका को परागकणों से बाहर आते हुए देखा जायेगा। अतः प्रयोगशाला में परागकण के इस अंकुरण को हैंगिग ड्रोप विधि (Hanging drop method) कहा जाता है।

द्विनिषेचन (Double fertilization):-

 इसकी खोज एस. जी. नवाश्चिन (Sergei Gavrilovich Navashin) (1898) ने लिलियम तथा फ्रिटलेरिया पादपों में की तथा ग्यूगनॉर्ड  ने इसका समर्थन किया।

– परागनली अपने दोनो नर युग्मक कोष में मुक्त करती है। एक नर युग्मक (n) अण्डकोशिका (n) से संयुक्त होकर द्विगुणित जाइगोट (2n) बनाता है। इसे सत्यनिषेचन (True fertilization या syngamy) कहते हैं।

– दूसरा नर युग्मक द्विगुणित द्वितीयक केन्द्रक (2n) से संयुक्त होकर त्रिगुणित भ्रूणपोष केन्द्रक (3n) बनाता है। इसे त्रिक संलयन (Triple fusion) या कायिक निषेचन (Vegetative fertilization) कहते हैं।

– निलम्बक एककोशिकीय तथा आशयी होता है।

– घासों में दूसरा बीजपत्र अविकसित होता है तथा एपीब्लास्ट कहलाता है।

बीज (Seed):-

 निषेचित बीजाण्ड से बीज निर्मित होता है। बीज का अध्ययन ‘स्पर्मोलॉजी’ कहलाता है।

बीजों के प्रकार (Types of seeds):-

– भ्रूणपोष की उपस्थिति या अनुपस्थिति के आधार पर बीज के दो प्रकार है-

(1) अभ्रूणपोषी बीज (Non endospermic or exalbuminous seed):-

– भ्रूण के विकास के दौरान भ्रूणपोष का पूर्णतया उपभोग हो जाता है। इस प्रकार बीज अभ्रूणपोषी होते है।

– उदा.- द्विबीजपत्री – चना, मटर, मूँगफली, आम, सूर्यमुखी। बीज चोल का निर्माण अध्यावरणों द्वारा होता है। बाहरी अध्यावरण से टेस्टा तथा भीतरी अध्यावरण से टेगमेन बनता है। भोजन बीजपत्रों में संचित रहता है।

(2) भ्रूणपोषी बीज (Endospermic or Albuminous seed):-

– गेहूँ, मक्का, चावल, प्याज, अरण्डी, पाइनस में भ्रूण सम्पूर्ण भ्रूणपोष का उपभोग नहीं करता है। इस कारण यह परिपक्व बीज में भी पाया जाता है। ऐसे बीजों को भ्रूणपोषी बीज कहते है। इन बीजों में भोजन भ्रूणपोष में संगृहीत रहता है।

परिभ्रूणपोषीय बीज (Perispermic seeds):-

– निषेचन के बाद भ्रूण द्वारा भोजन के अवशोषण के कारण अधिकांशतः बीजाण्डकाय का उपभोग हो जाता है। बीज में शेष बचे बीजाण्डकाय को परिभ्रूणपोष (Perisperm) कहते है। इस प्रकार के बीजों को परिभ्रूणपोषी बीज कहते है।

– उदा:- पाइपर नाइग्रम (काली मिर्च), अरण्डी और पाइनस।

– एकबीजपत्री बीजों में मूलांकुर के चारों ओर झिल्लीदार आवरण को कोलियोराइजा (मूलांकुर चोल) कहते है तथा प्रांकुर के चारों ओर के आवरण को कोलियोप्टाइल (प्रांकुर चोल) कहते है। यह द्विबीजपत्री बीजों मे अनुपस्थित होता है।

 बीज अंकुरण के दो प्रकार है-

(i)  ऊपरभूमिक अंकुरण (Epigeal germination):-

– जब बीजपत्रधार (Hypocotyl) के दीर्घित हो जाने से बीज पत्र मिट्टी से बाहर निकल आते है।

– उदा:- अरण्डी, कपास इत्यादि।

(ii)  अधोभूमिक अंकुरण (Hypogeal germination):-

– जब बीजपत्रोपरिक (Epicotyl) दीर्घित होता है तो बीजपत्र मिट्टी में ही रह जाते है।

– उदा:- मटर, चना, मूँगफली, आम इत्यादि।

सजीवप्रजकता (Vivipary):-

– कभी-कभी जब फल पादप पर ही लगे होते है उसी समय फल के भीतर बीज अंकुरण प्रारम्भ कर देते हैं। इस प्रकार के अंकुरण को सजीव प्रजकता (Vivipary) कहते हैं।

– उदा.- राइजोफोरा तथा हेरीटिएरा।

फल:-

सत्य/आभासी फल:

– अधिकतर पादपों में, जब तक अंडाशय से फल विकसित होता है, उसके अन्य पुष्पीय अंश अपह्रासित एवं झड़ जाते हैं। हालाँकि, कुछेक प्रजातियों में, जैसे कि सेब, स्ट्राबेरी (रसभरी), काजू एवं नाशपाती आदि में फल की रचना में पुष्पासन भी महत्त्वपूर्ण भागीदारी निभाता है। इस प्रकार के फलों को (मिथ्या) आभासी फल कहते हैं।

– अधिकतर फल केवल अंडाशय से विकसित होते हैं और उन्हें यथार्थ या वास्तविक फल कहते हैं।

अनिषेकफलन:

– यद्यपि अधिकतर प्रजातियों में फल निषेचन का परिणाम होते हैं, परन्तु कुछ ऐसी प्रजातियाँ भी हैं जिनमें बिना निषेचन के फल विकसित होते हैं। ऐसे फलों को अनिषेकजनितफल कहते हैं। इसका एक उदाहरण केला है।

– इस प्रकार दो बार निषेचन होता है इसलिए इसे द्विनिषेचन कहते है। यह आवृत्तबीजी पादपों का विशिष्ट लक्षण है, जो पादपों के अन्य समूहों में नहीं होता है।

– द्विनिषेचन में पाँच केन्द्रक भाग लेते हैं।

द्विनिषेचन का महत्त्व:-

1. इसके द्वारा उर्वर बीजों का निर्माण होता है।

2. भ्रूण का विकास भ्रूणपोष के बिना नहीं हो सकता जो निषेचन के द्वारा बनता है।

3.  इसके पश्चात् अण्डाशय फल में परिवर्तित हो जाता है।

4. यह संतति में गुणसूत्रों की द्विगुणित संख्या को बनाये रखता है।

भ्रूणपोष (Endosperm):-

– यह निषेचन के बाद बनने वाला पोषक ऊतक है, जो कि आवृत्तबीजी में त्रिक संलयन से बनता है।

– यह परिवर्धित होते हुए भ्रूण को पोषण प्रदान करता है।

भ्रूणपोष के प्रकार:

– विकास के आधार पर भ्रूणपोष तीन प्रकार के होते हैं-

(i) केन्द्रकीय भ्रूणपोष (Nuclear endosperm):-

– प्राथमिक भ्रूणपोष केन्द्रक भित्ति निर्माण के बिना ही (मुक्त केन्द्रकीय विभाजन) विभाजित होता है। यह भ्रूणपोष का सबसे सामान्य प्रकार है।

– उदा.- कपास, मक्का, गेहूँ, सूर्यमुखी, केप्सेला, नारियल पानी। इस भ्रूणपोष में चूषकांग भी हो सकते है।

(ii)  कोशिकीय भ्रूणपोष (Cellular endosperm):-

– प्राथमिक भ्रूणपोष केन्द्रक विभाजित होता है तथा प्रत्येक विभाजन के बाद भित्ति निर्माण होता है। इस प्रकार कोशिकाय रचना बनती है।

– उदा:- पिटुनिया, युट्रीकुलेरिया, पेप्रोमिया।

(iii)  माध्यमिक भ्रूणपोष (Helobial endosperm):-

– यह केन्द्रकीय तथा कोशिकीय प्रकारों का मध्यवर्ती है।

– उदा:- हेलोबियल गण के सदस्य (एकबीजपत्री)।

भ्रूण (Embryo):-

 विश्राम के बाद जाइगोट (2n) भ्रूण में विकसित होता है। सबसे कम विश्राम काल कम्पोजिटी तथा ग्रेमिनी के सदस्यों में (4-10 घण्टे) तथा सबसे लम्बा विश्राम काल कोल्चिकम आटम्नेल (4-5 महीने) में होता है।

 भ्रूण के विकास का अध्ययन एम्ब्रियोजेनी कहलाता है।

 द्विबीजपत्रियों में भ्रूण का विकास (Embryonic development in dicots):-

– क्रूसीफेरी कुल के पादप शेफर्ड पर्स (कैप्सेला बर्सापैस्टोरिस) में सामान्य द्विबीजपत्री भ्रूण विकास का अध्ययन किया गया है, जो कि क्रूसीफर या ओनेगेड प्रकार का भ्रूणीय विकास कहलाता है।

– भ्रूण का विकास एण्डोस्कोपिक होता है जैसे कि शीर्ष भीतर नीचे की ओर होता है।

– जाइगोट में असमान अनुप्रस्थ विभाजन द्वारा एक आधारी कोशिका तथा एक शीर्षस्थ कोशिका में विभाजन हो जाता है। आधारीय कोशिका अनेक अनुप्रस्थ विभाजनों द्वारा विभाजित होकर 6-10 कोशिकी निलम्बक (Suspensor) बनाती है।

– निलंबक ऊपरी बड़ी कोशिका (बीजाण्डद्वार की तरफ) चूषकांग कहलाती है जबकि सबसे नीचे की कोशिका को अधःस्फीति (Hypophysis) कहते है। यह आगे मूलांकुर (Radicle) का निर्माण करती है।

– शीर्षस्थ कोशिका अनुदैर्ध्य विभाजन द्वारा विभाजित होती है तथा ग्लोब्यूलर भ्रूण बनता है। परिपक्व भ्रूण में, दो पार्श्व बीजपत्र एक शीर्षस्थ प्रांकुर तथा एक पश्च मूलाकुंर पाये जाते है।

 एकबीजपत्रियों में भ्रूण विकास (Embryonic development in monocots):-

– भ्रूणीय विकास का अध्ययन ल्यजुला फ्रोस्टेरी तथा सेजीटेरिया सेजिटोफोलिया में किया गया है।

– जाइगोट अनुप्रस्थ रूप से विभाजित होकर दो कोशिकाएँ बनाता है- एक शीर्षस्थ तथा दूसरी आधारी कोशिका।

– आधारी कोशिका बड़ी होकर निलम्बक बनाती है। यह भ्रूण के विकास में भाग नहीं लेती है, जबकि शीर्षस्थ कोशिका भ्रूण में विकसित होती है।

– शीर्षस्थ कोशिका अनुप्रस्थ भित्ति द्वारा विभाजित होकर दो कोशिकाएँ बनाती है। तीन कोशिकीय प्राक् भ्रूण की सिरीय कोशिका से एक बीज पत्र का निर्माण होता है, जिसे ‘स्कूटेलम’ के नाम से जाना जाता है।

– मध्य कोशिका, विभाजनों द्वारा भ्रूणीय अक्ष का निर्माण करती है।

बीज (Seed):-

– अनावृतबीजी पादपों व आवृतबीजी पादपों दोनों में बीज बनते हैं।

– आवृतबीजी पादपों में निषेचन के फलस्वरूप बीजाण्ड से बीज बनते हैं जो फलों में व्यवस्थित व सुरक्षित रहते हैं।

– बीज में एक बीजावरण तथा भ्रूण होता है। प्रत्येक भ्रूण में एक भ्रूणीय अक्ष तथा एक  अथवा दो बीजपत्र होते हैं। ध्रूवीय अक्ष (Axis) का ऊपरी सिरा प्राकुर (Plumule) निचला सिरा मूलांकुर (Radicle) कहलाता है।

– बीजाण्ड से बीज बनने के दौरान होने वाले परिवर्तन इस प्रकार हैं–

निषेचन से पूर्वनिषेचन के पश्चात्
बीजाण्ड (Ovule)बीज (Seed)
बाह्य अध्यावरणबाह्य बीजचोल (Testa)
अंतः अध्यावरणअंतः बीजचोल (Tegmen)
बीजाण्ड वृन्तनष्ट हो जाता है
बीजाण्डकायनष्ट हो जाता है या परिभ्रूणपोष (Perisperm) बनाता है।
अण्डकोशिकाभ्रूण (Embryo)

– बीजपत्रों की उपस्थिति के आधार पर बीज दो प्रकार के होते हैं–

(i)  द्विबीजपत्री (Dicotyledonous seed)

(ii)  एकबीजपत्री (Monocotyledonous seed)

 द्विबीजपत्री बीज की संरचना (Structure of Dicotyledonous seed):-

– सामान्यीकृत द्विबीजपत्री बीज के निम्नलिखित भाग होते हैं–

1.  बीजावरण (Seed coat):-

– बीजावरण की दो सतहें होती हैं, बाहरी सतह बीज का सबसे ऊपरी छिलका होता है जो कि विभिन्न रंगों का हो सकता है, उसे बाह्य बीजचोल (Testa) और भीतरी सतह जो कि श्वेत पतली बीजपत्रों (Cotyledones) को घेरे हुए, एक भ्रूणीय झिल्ली के रूप में होती है, उसे अंतः बीजचोल (Tegmen) कहते हैं।

– प्रत्येक बीज में एक छोटा छिद्र बीजाण्ड (Micropyle) होता है।

2.  भ्रूण (Embryo):-

 बीजावरण को हटाने पर भ्रूण की एक अक्ष और दो गूद्देदार बीजपत्र होते हैं। अक्ष (Axis) का एक सिरा प्रांकुर (Plumule) तथा दूसरा मूलांकुर (Radicle) कहलाता है। प्रांकुर वृद्धि कर प्ररोह (Shoot) तथा मूलांकुर वृद्धि कर जड़ (Root) बनाता है।

3.  भ्रूणपोष (Endosperm):-

– भ्रूणपोष एक भोजन संग्राहक ऊतक है  द्विनिषेचन के फलस्वरूप बनता है तथा कई बीजों में उपस्थित रहता है। चना मटर, सेम में भ्रूणपोष प्रारम्भिक अवस्था में पाया जाता है, लेकिन परिपक्व बीजों में यह उपभोगित हो जाता है।

 एकबीजपत्री बीज की संरचना (Structure of monocotyledonous seed):-

– मक्का का बीज एक बीजपत्री बीज है। जिसमें बीजावरण (Seed coat) व एक छोटी, सफेद, लम्बी अण्डाकार रचना होती है, जिसमें भ्रूण तक के दाने की अनुदैर्ध्य काट (Longitudinal स्थित होता है। एकबीजपत्री बीज के अनुदैर्ध्य काट में निम्नलिखित रचनाएँ देखने को मिलती हैं–

1. बीजावरण (Seed coat):-

 यह बीज चारों ओर पीले रंग की पतली झिल्ली के रूप में होता है। वास्तव में बीजावरण व फलभित्ति पूर्णतः आपस में संयुक्त होते हैं।

2.  भ्रूणपोष (Endosperm):-

– भ्रूणपोष बीज का ऊपरी बड़ा व चपटा भाग है जो प्रायः पीले या सफेद रंग का होता है तथा इसमें भोज्य पदार्थ स्टार्च  के रूप में रहता है। भ्रूणपोष की सबसे बाहरी सतह प्रोटीन की बनी होती है इसे एल्यूरोन सतह (Aleurone layer) कहते हैं।

3.  भ्रूण (Embryo):-

 भ्रूणपोष के ठीक नीचे, खाँचे में भ्रूण (Embryo) स्थित होता है। इसमें एक बड़ा तथा ढालाकार बीजपत्र होता है जिसे वरूथिका (Scutellum) कहते हैं।

असंगजनन (Apomixis):-

– इस प्रक्रिया में भ्रूण का निर्माण तो होता है परन्तु युग्मक संलयन की प्रक्रिया नहीं पाई जाती। भ्रूण विज्ञानियों (Embryologists) के अनुसार कायिक प्रवर्धन (Vegetative propagation) एवं अनिषेक बीजता (Agamospermy) भी असंगजनन के अंतर्गत ही आते हैं। असंगजनन मुख्यतः दो प्रकार का होता है-

बीजाणुद्भिद असंगजनन (Sporophytic Apomixis):-

– इसे अपस्थानिक भ्रूणता (Adventive embryony) भी कहते हैं। इसमें बीजाण्ड में उपस्थित बीजाण्डकाय, अध्यावरण इत्यादि की कोई भी द्विगुणित कोशिका परिवर्धित होकर भ्रूण का निर्माण कर लेती है।

युग्मकोद्भिद असंगजनन (Gametophytic Apomixis):-

– इसमें भ्रूण का परिवर्धन अगुणित भ्रूणकोष की किसी कोशिका से होता है। भ्रूण का परिवर्धन अनिषेचित अण्ड कोशिका (Egg cell) से होने पर उसे अनिषेकजनन (Parthenogenesis) तथा भ्रूणकोष की किसी और कोशिका से होने पर उसे अपयुग्म (Apogamy) कहते हैं।

– प्रो. मोहश्वरी (Prof. Maheshwari) ने असंगजनन के तीन प्रकार बताए हैं–

(i) अनावर्ती (Non Recurrent Apomixis)

(ii) पुनरावर्ती (Recurrent Apomixis)

(iii)  अपस्थानिक भ्रूणता (Adventive Embryony)

(i) अनावर्ती असंगजनन (Non Recurrent Apomixis):-

– इसमें गुरुबीजाणु मातृ कोशिका सामान्य अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा चार गुरुबीजाणु बनाती है। इनमें से एक गुरुबीजाणु विकसित होकर अगुणित भ्रूणकोष का निर्माण करता है। यह दो प्रकार की होती है–

1. अगुणित अनिषेकजनन (Haploid Parthenogenesis):-

– अगुणित अनिषेचित (Unefertilized) अण्ड कोशिका से जब भ्रूण का विकास होता है तो उसे अगुणित अनिषेकजनन कहते हैं। इस प्रक्रिया का अध्ययन सर्वप्रथम जॉरजेन्सन (Jorgensen) ने किया था।

2. अगुणित अपयुग्मन (Haploid Apomixis):-

– जब भ्रूण का विकास अगुणित भ्रूणकोष की अन्य किसी कोशिका (अण्ड कोशिका के अतिरिक्त) से होता है तो उसे अगुणित अपयुग्मन कहते हैं।

(ii) पुनरावर्ती असंगजनन (Recurrent Apomixis):-

– इसमें भ्रूणकोष द्विगुणित होता है। यह दो प्रकार का होता है-

1. जनन अपबीजाणुता (Generative Apospory):-

– प्रसूतक (Archesporium) की द्विगुणित कोशिकाओं से यदि भ्रूणकोष का विकास हो तथा इस द्विगुणित भ्रूणकोष की कोशिकाओं से भ्रूण का विकास हो तो उसे जनन अपबीजाणुता कहते हैं।

2. कायिक अपबीजाणुता (Somatic Apospory):-

 यदि बीजाण्डकाय (Nucellus) अथवा अध्यावरण (Integuments) की द्विगुणित कोशिकाओं से भ्रूणकोष का विकास हो तथा इस द्विगुणित भ्रूणकोष की किसी कोशिका से भ्रूण का विकास हो तो उसे कायिक अपबीजाणुता कहते हैं।

(iii) अपस्थानिक भ्रूणता (Adventive Embryony):-

– भ्रूणकोष के बाहर, बीजाण्ड की कोई भी कोशिका जब भ्रूण का निर्माण करती है तो उसे अपस्थानिक भ्रूणता कहते हैं।

असंगजनन का महत्त्व (Importance of Apomixis):-

– असंगजनन की क्रिया में अर्द्धसूत्री विभाजन के अनुपस्थित होने से गुणसूत्र पृथक्करण एवं पुनर्संयोजन (Segregation and Recombination) नहीं होता है। अतः इस क्रिया द्वारा उत्पन्न पादप मातृ पादप के समान होते हैं।

– किसी फसली पादप (Crop plant) में इस प्रकार का जनन होने से उसके योग्य लक्षणों को काफी समय तक संरक्षित किया जा सकता है।

– इस प्रकार के जनन द्वारा संकर बीज उत्पादन को सरल बनाया जा सकता है क्योंकि F1 संतति के उत्पादन तथा पैतृक लाइनों को बढ़ाने व बनाए रखने के लिए उन्हें वियुक्त (Isolate) करने की आवश्यकता नहीं रहती है।

बहुभ्रूणता (Polyembryony):-

– सामान्यतः एक बीज में एक ही भ्रूण पाया जाता है परन्तु कभी-कभी कुछ बीजों में एक से अधिक भ्रूण पाए जाते हैं। बीज में एक से अधिक भ्रूणों की उपस्थिति को बहुभ्रूणता (Polyembryony) कहते हैं। सर्वप्रथम बहुभ्रूणता का अध्ययन ल्यूवेनहॉक (1791) ने संतरे में किया अनावृतबीजी पादपों में यह एक सामान्य लक्षण है, परन्तु आवृतबीजियों में केवल कुछ पादपों में बहुभ्रूणता पाई जाती है; उदाहरणः नींबू, तम्बाकू, एलियम, क्रोटेलेरिया इत्यादि। अधिकांशतः इनमें से एक ही भ्रूण परिपक्व हो पाता है जबकि शेष विकास की विभिन्न अवस्थाओं के दौरान नष्ट हो जाते हैं। कुछ पादपों (उदाहरण-पैडा) में बीज के अंकुरण के समय एक से अधिक परिपक्व भ्रूण पाए जाते हैं।

– आवृतबीजियों में बहुभ्रूणता निम्नलिखित कारणों से उत्पन्न हो सकती है–

(i)  प्राक् भ्रूण का विदलन

(ii)  भ्रूणकोष में अण्डकोशिका के अतिरिक्त किसी दूसरी कोशिका से भ्रूण का विकास

(iii)  बीजाण्ड में एक से अधिक भ्रूणकोषों का विकास।

(iv)  बीजाण्ड में बीजाणुद्भिद कोशिकाओं की सक्रियता।

– बहुभ्रूणों का बनना- बहुभ्रूण निम्नलिखित प्रकार से बनते हैं–

विदलन बहुभ्रूणता (Cleavage Polyembryony):-

– इसमें युग्मनज (Zygote) अथवा प्राक् भ्रूण (Proembryo) में विदलन होने से एक से अधिक भ्रूण उत्पन्न हो जाते हैं। यूलोफिया नामक ऑर्किड में विदलन बहुभ्रूणता तीन प्रकार से उत्पन्न होती है।

(i) युग्मनज कोशिका (Zygotic Cell):-

 में अनियमित विभाजनों द्वारा कोशिकाओं का एक पिण्ड बनता है। इस पिण्ड में निभाग की ओर स्थित कोशिकाएँ वृद्धि करके बहुत से भ्रूण बनाती हैं।

(ii) प्राय: भ्रूण से कलिकाएँ अथवा अतिवृद्धियाँ निकलती हैं जो भ्रूण बनाती है।

(iii) तन्तुमय भ्रूण (Filamentous Embryo):-

 शाखित हो जाता है तथा प्रत्येक शाखा भ्रूण का निर्माण करती है।

 अण्ड कोशिका के अतिरिक्त भ्रूणकोषों की अन्य कोशिकाओं से भ्रूण (Development of Embryo from Cell of Embryosac other than the Egg):-

– निषेचित (Fertilized) अथवा अनिषेचित (Unfertilized) सहायक कोशिकाओं से अतिरिक्त भ्रूण बनते हैं। निषेचित सहायक कोशिका से बनने वाले भ्रूण (उदाहरण – एरिस्टोलोकिया ब्रैक्टिएटा) तथा अनिषेचित कोशिका से बनने वाले भ्रूण अगणित (उदाहरण – आर्जिमोन मैक्सिकाना) होते हैं।

 बीजाण्ड में एक से अधिक भ्रूणकोषों का विकास (Development of more than one Embryosac in the ovule):-

– कुछ आवृतबीजी पादपों में बीजाण्ड में एक से अधिक भ्रूणकोष उत्पन्न हो जाते हैं। प्रत्येक भ्रूणकोष में उपस्थित अण्ड कोशिका निषेचन के पश्चात् भ्रूण का निर्माण करती है जिससे अनेक भ्रूण बन जाते हैं; उदाहरण – कैजुराइना मोन्टाना।

– बीजाण्ड में उपस्थित बीजाण्डकाय (Nucellus) अथवा अध्यावरण (Integuments) की बीजाणुद्भिद कोशिकाएँ सक्रिय होकर भ्रूण का निर्माण करती है। ये भ्रूण अपस्थानिक भ्रूण (Adventive embryo) कहलाता है। बहुभ्रूणता के प्रयोगात्मक अनुप्रयोग (Practical Application of Polyembryony) आधुनिक उद्यान विज्ञान (Horticulture) एवं पादप प्रजनन के क्षेत्र में बहुभ्रूणता काफी उपयोगी सिद्ध हुई है।

– इसके उपयोग निम्नलिखित हैं–

(i)  बीजाण्डकायी भ्रूण (Nucellar embryo) से विकसित पौधे के सभी लक्षण मादा जनक (Female parent) के समान होते हैं।

(ii)  बहुभ्रूणता से प्राप्त पौधे अधिक ओज (Vigour) से भरपूर होते हैं।

(iii) बीजाण्डकायी भ्रूण रोग रहित एवं स्वस्थ होते हैं अत: अपस्थानिक भ्रूणता द्वारा इनके रोगमुक्त क्लोन तैयार किए जा सकते हैं।

 मादा युग्मकोद्भिद या भ्रूण-कोष (Female Gametophyte or Embryo-sac):-

– गुरुबीजाणु अगुणित तथा मादा युग्मकोद्भिद की प्रथम कोशिका है। इसका परिवर्धन होने से भ्रूणकोष बनता है। सर्वप्रथम भ्रूणकोष की संरचना हॉफमीस्टर (Hafmeister, 1849) ने बताई थी। भ्रूणकोष तीन प्रकार के होते हैं–

(i)  एकबीजाणु (Monosporic) भ्रूणकोष:- इसके परिवर्धन में चार में से केवल एक गुरुबीजाणु ही भाग लेता है। कैप्सेला (Capsella) में इस प्रकार का भ्रूणकोष होता है।

(ii)  द्विबीजाणुज (Bisporic) भ्रूणकोष:- इसके परिवर्धन में दो गुरुबीजाणु केन्द्रक (Megaspore nuclei) भाग लेते हैं।

(iii)  चतुष्कबीजाणुज (Tetrasporic) भ्रूणकोष:- इसके परिवर्धन में चारों गुरुबीजाणु केन्द्रक भाग लेते हैं।

 एकबीजाणुज प्रकार के भ्रूणकोष (Monosporic types of Embryo-sac):-

– इसमें दो प्रकार के 8-केन्द्रकी व 4-केन्द्रकी प्रकार के भ्रूणकोष होते हैं। 8-केन्द्रकी (8-Nucleated) प्रकार का भ्रूणकोष 70% आवृतबीजीयों में पाया जाता है। अतः इसे सामान्य प्रकार का (Normal type) भ्रूणकोष कहते हैं। सर्वप्रथम स्ट्रॉसबर्गर (Strasburger, 1879) ने इस प्रकार के भ्रूणकोष का उल्लेख पॉलिगोनम डाइवेरीकेटम (Polygonum divaricatum) में किया था। इस कारण इसे पॉलिगोनम प्रकार (Polygonum type) कहते हैं। इसके परिवर्धन के दौरान सर्वप्रथम गुरुबीजाणु का आकार बढ़ जाता है, केन्द्रक का समसूत्री विभाजन होने से दो केन्द्रक बन जाते हैं तथा एक-एक केन्द्रक दोनों ध्रुवों पर आ जाते हैं (एक बीजाण्डद्वार की ओर तथा दूसरा निभाग की ओर) पुनः विभाजन होने से प्रत्येक ध्रुव पर दो-दो केन्द्रक बन जाते हैं और फिर विभाजन होने से प्रत्येक ध्रुव पर चार-चार केन्द्रक बन जाते हैं (कुल आठ केन्द्रक)। इस 8-केन्द्रक की स्थिति पर भ्रूणकोष का संगठन प्रारम्भ होता है। अब एक केन्द्रक बीजाण्ड द्वार ध्रुव (बीजाण्ड द्वार ध्रुव केन्द्रक = Micropylar polar nuclei) की ओर से तथा एक केन्द्रक निभाग (निभागीय ध्रुव केन्द्रक = Chalazal polar nuclei) की ओर से चलकर केन्द्र की ओर अग्रसर होते हैं और मध्य में आकर एक-दूसरे से संलयित होकर द्वितीयक केन्द्रक (Secondary nucleus or Definetive nucleus) बनाते हैं। बीजाण्डद्वार पर शेष तीन केन्द्रक अण्ड द्वार समुच्चय या उपकरण (Egg apparatus) बनाते हैं जिसमें दो सहायक कोशिकाएँ (Synergids = Helping cell or Nurse cell) व दोनों कोशिकाओं से घिरी एक बड़ी अण्ड कोशिका या मादा युग्मक (Egg cell or Female gamate) होती है। अण्ड समुच्चय की सहायक कोशिकाओं में ऊपर पार्श्व की ओर खाँच होती है।

अनिषेकफलन (Parthenocarpy):-

– कभी-कभी बिना निषेचन क्रिया के अण्डाशय का निर्माण फल में हो जाता है। इस प्रकार के फलों को अनिषेकफलनी फल (Parthenocarpic fruit) कहते हैं। नॉल (Noll) ने 1902 में अनिषेकफलन का नाम दिया था। इस प्रकार के फल बीजरहित होते हैं तथा यदि बीज हो भी तो वे जीवनक्षम (Non-viable) होते हैं । केला, संतरा, अंगूर व अन्नानास की कुछ किस्मों के अनिषेकफलनी फलों में जीवनक्षम बीज मिलते हैं। वर्तमान में ऑक्सिन व जिब्बरेलिन के घोल का जायांग पर छिड़काव कर अनिषेकफलनी फल तैयार किए जा रहे हैं।

1 thought on “Sexual reproduction in flowering plants पुष्पीय पौधों में लैंगिक जनन”

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