– पादपों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होना पादप प्रवर्द्धन कहलाता है।
– किसी भी पादप में अपने समान स्वस्थ व निरोगी नवीन पौधों का निर्माण करने की क्षमता को, उस पादप की प्रसारण/प्रवर्द्धन के नाम से जाना जाता है।
पादप प्रवर्द्धन के प्रकार/तरीके/विधि:-

1. लैंगिक प्रवर्द्धन/बीज द्वारा प्रसारण:-
– पादप प्रवर्द्धन की इस विधि में बीज द्वारा पादपों की संख्या में वृद्धि/गुणन होता है। नर व मादा में मिलन होने पर बीज का निर्माण होता है। यह प्रक्रिया अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा होती है।
– निषेचन के समय मातृ गुणसूत्रों की संख्या आधी हो जाती है जो कि बाद में सामान्य हो जाती है और यही कारण है कि लैंगिक विधि से उत्पन्न पौधे मातृ पौधों के समान नहीं होते हैं।
लैंगिक विधि/बीज द्वारा प्रसारण के लाभ:-
1. यह प्रसारण/प्रवर्द्धन की सबसे सरल/आसान, सस्ती विधि है।
2. बीज द्वारा तैयार पौधे प्रतिकूल परिस्थितियों (जैविक/अजैविक तनाव) को अधिक सहन कर पाते हैं।
3. लैंगिक विधि से तैयार पौधे द्वारा फलन देरी से लेकिन दीर्घ समय तक फलन मिलता रहता है।
4. लैंगिक विधि से तैयार पौधों में विविधता सर्वाधिक पाई जाती है। जिसके कारण प्रजनन व नवीन किस्मों का विकास किया जाना संभव है अर्थात् नवीन किस्मों का विकास लैंगिक विधि से किया जाता है।
5. वानस्पतिक प्रवर्द्धन में कलिकायन, उपरोपण, Layering (दाब विधि) में प्रयुक्त मूलवृन्तों को लैंगिक विधि से ही तैयार किए जाते हैं।
6. कुछ फलदार पौधों का वानस्पतिक प्रवर्द्धन आर्थिक रूप से अधिक महँगा होने के कारण लैंगिक प्रवर्द्धन ही किया जाता है; जैसे- पपीता, फालसा, नारियल।
7. कुछ फलदार पौधों में बहुभ्रूणता पाई जाती है; जैसे – नीबू/आम (दक्षिणी भारत) व जामुन ऐसे पौधे मातृ पौधे के समान होते हैं।
लैंगिक प्रवर्द्धन की हानियाँ:-
1. इस विधि से तैयार पौधे मातृवृन्त के समान गुणों वाले नहीं होते हैं अर्थात् (TrueTo type) प्रकार के नहीं होते हैं।
2. लैंगिक प्रवर्द्धन से तैयार पौधे देरी से फलन देते हैं।
3. लैंगिक प्रवर्द्धन से तैयार पौधे लम्बाई व आकार में बड़े होते हैं जिसके कारण उद्यान के प्रबंधन में समस्या उत्पन्न होती है।
4. कुछ फलदार पौधों का लैंगिक प्रवर्द्धन किया जाना मुश्किल/महँगा होता है, जैसे- केला, अँगूर, अन्नानास।
2. वानस्पतिक प्रवर्द्धन/अलैंगिक प्रवर्द्धन
– अलैंगिक प्रवर्द्धन लैंगिक प्रवर्द्धन से स्वतंत्र होता है अर्थात् समसूत्री विभाजन होता है जिसमें गुणसूत्र दो मातृ कोशिकाओं में विभाजित हो जाते हैं। इसी कारण अलैंगिक प्रवर्द्धन से तैयार पौधे मातृ पौधे के समान गुणों वाले होते हैं।
अलैंगिक प्रवर्द्धन के लाभ:-
1. इस विधि से तैयार पौधे मातृ वृक्ष के समान गुणों वाले होते हैं अर्थात् (True to type) प्रकार के होते हैं।
2. अलैंगिक प्रवर्द्धन से तैयार पौधे कम समय में जल्दी फलन देते हैं। (Precocious)
3. इस विधि से तैयार पौधे आकार में छोटे होते हैं अर्थात् उद्यान प्रबंधन आसानी से किया जा सकता है।
4. अलैंगिक प्रवर्द्धन से कम समय में अधिक पौधे तैयार किए जा सकते हैं।
5. वानस्पतिक प्रवर्द्धन/लैंगिक प्रवर्द्धन द्वारा नायाब पौधे (Nobale Plant) तैयार किए जा सकते हैं; जैसे – गुलाब के एक ही पौधे पर भिन्न-भिन्न रंग के पुष्पों का आना।
6. वानस्पतिक प्रवर्द्धन से अनुत्पादक पौधों को उत्पादक पौधों में बदला जा सकता है। (Top Working Method)
7. विभिन्न रोगों से ग्रसित या टूट-फूट वाले पौधों को वानस्पतिक प्रवर्द्धन द्वारा सुधारा जा सकता है।
अलैंगिक प्रवर्द्धन की हानियाँ:-
1. इस विधि में काम करने के लिए विशेषज्ञता चाहिए।
2. अलैंगिक विधि से तैयार पौधे कम समय तक फलन देते हैं।
3. अलैंगिक प्रवर्द्धन से विकसित पौधों में विविधता कम पाई जाती है। इसलिए प्रजनन व नई किस्मों का विकास संभव नहीं है।
वानस्पतिक प्रवर्द्धन के प्रकार:-
(1) कलम द्वारा प्रवर्द्धन (Cutting):-
– पादप का जड़/तना/शाखा आदि को कलम के रूप में तैयार करके उचित माध्यम में लगाकर एक नवीन पौधे का निर्माण करना कलम लगाना कहलाता है।
(i) जड़ कलम (Root cutting):-
– सेब, आडु, लीची व अमरूद में 0.5-1.0 सेमी. मोटी व 10-15 सेमी. लंबी जड़ लेकर उसे कलम के रूप में तैयार कर जमीन के समानांतर लगाया जाता है।
(ii) पत्ती कलम (Leaf Cutting):-
– कुछ पादपों की पत्तियाँ मोटी व मांसल होती हैं तथा उनके किनारों पर अपस्थानिक कलिकाएँ पाई जाती हैं जो कि उचित नमी व जमीन के संपर्क में आने पर एक नवीन पौधे का निर्माण कर देते हैं। जिसे पत्ती भ्रूण कहा जाता है। उदाहरण- ब्रायोफाइलम/पत्थरचट्टा/बिगनोनिया
(iii) तना या शाखीय कलम:-
– पौधे की शाखा की उम्र व गुणों के आधार पर निम्न प्रकार हैं-
(A) कठोर काष्ठ कलम (Hard Wood Cutting):-
– शाखा एक वर्ष पुरानी काम में ली जाती है जिसका रंग गहरा भूरा व कार्बोहाइड्रेट युक्त हो।
– शाखा की मोटाई लगभग 2.0 सेमी. या पेंसिल के आकार की होती है।
– शाखा की लंबाई 15-25 सेमी. (22.5 सेमी.) लंबी शाखा काम में ली जाती है।
– शाखा को मृदा में 45° कोण के साथ 2/3 भाग मृदा में व शेष भाग मृदा से बाहर।
– कठोर काष्ठ कलम से तैयार पौधा 60-70 दिन में लगाने योग्य हो जाता है।
– उदाहरण:- अंगूर, देशी गुलाब व अनार
(B) अर्द्ध कठोर काष्ठ कलम (Semi hard wood cutting):-
– शाखा 6-9 महीने पुरानी होनी चाहिए।
– शाखा की लंबाई व मोटाई कठोर काष्ठ कलम के समान होनी चाहिए।
– उदाहरण:- नाशपती, अनार, अंजीर व लैमन आदि
(C) मृदु काष्ठ कलम (Soft Wood Cutting)
– 6 माह पुरानी शाखा जो कि रस से भरपूर हो उसे काम में लेते हैं।।
– शाखा की लंबाई 5-10 सेमी मोटाई 1.0-1.5 सेमी रखी जाती है।
– उदाहरण:- चमेली व कोलिएस आदि
(D) शाकीय कलम (Herbacious cutting):-
– इसमें पादप की शाखा का अग्र भाग जो कि मुलायम व हरा रंग का होता है इसकी पत्तियों युक्त 7-15 सेमी. लंबाई की कलम काम में लेते हैं।
– गुलदाऊदी (क्राइसेन्थीमम), कारनेशन व कोलिएस का प्रवर्द्धन इसी विधि से किया जाता है।
2. दाब कलम (Layring)
– इसमें शाखा को मातृ पौधे से बिना अलग किए कृत्रिम रूप से जड़ उत्पन्न की जाती है यह विधि दाब कलम कहलाती है।
(i) साधारण दाब विधि
– शाखा 1 वर्ष पुरानी होनी चाहिए, शाखा पर चीरा 2.5-3.0 सेमी. का लगाया जाता है तथा चीरे लगाए गए भाग को छाल हटाकर मृदा में दबा दिया जाता है। 2-3 माह में नए पादप का निर्माण होता है।
उदाहरण – अमरूद
(ii) शीर्ष दाब विधि (Tip layring)
– इस विधि में पादप की शाखा के शीर्ष भाग को मृदा में दबा दिया जाता है जिसमें शीर्ष भाग वृद्धि करता है तो वह कुछ मुड़ जाता है वहाँ से नवीन जड़ों का विकास होता है; उदाहरण – चमेली, ब्लैक बेरी व रास्प बेरी आदि।
(iii) सर्पाकार दाब विधि (Compound/Serpentine Layring)
– यह विधि साधारण लेयरिंग की तरह होती हे लेकिन इसमें पादप की शाखा को 2-3 स्थानों से 2.5 सेमी. की छाल उतारकर भूमि में दबा दी जाती है या शाखा की लम्बाई के आधार पर दबाया जाता है। जिससे जड़ों का विकास होकर नए पादप का विकास होता है।
– उदाहरण:- स्ट्रॉबेरी, मोगरा व चमेली आदि।
(iv) खाई दाब विधि (Trench layring)
– इस विधि में शाखाओं को ट्रैंच में दबाया जाता है।
– इस विधि द्वारा फलवृक्षों से पौधे तैयार किए जाते हैं जो लगभग 3 माह में तैयार हो जाता है।
– सेब, नाशपती व आडू में इस विधि द्वारा प्रवर्द्धन किया जाता है।
(v) टीला दाब विधि (Mound/Stool layring)
– जिन पौधों की शाखा कठोर होती उसमें काम लेते हैं। पादप के तने को मृदा से 2.5 cm ऊपर से काट दिया जाता है।
– काटे गए भाग पर कुछ समय बाद शाखाएँ फूटती हैं जिन पर चीरा लगाकर जड़ों को उगा दिया जाता है।
उदाहरण – अमरूद, सेब, नाशपती।
(vi) हवाई दाब/गुटी दाब लेयरिंग (Air layring)
– इस विधि को वायु दाब/मारकोटेज/पॉट लेयरिंग/चाइनीज लेयरिंग भी कहते हैं।
– जिस पादप के लिए इस विधि को काम में लिया जाता है उसमें चयनित शाखा पेंसिल की मोटाई के समान 9-12 माह पुरानी शाखा काम में लेते है।
– शाखा के आधार से 5-7 सेमी ऊपर 2.5-3.0 सेमी. चौड़ाई का वलय रूपी चीरा लगाकर छाल को पूर्ण रूप से हटा दिया जाता है। जिस पर स्पैगमन मांस घास लगाकर ऊपर सफेद थैली से ढँक कर बाँध दिया जाता है।
– इसके 3-4 माह बाद में नवीन जड़ों का विकास होता है शाखा को पादप से अलग कर पौध शाला व जुलाई-अगस्त माह में रोपित किया जाता है।
– जड़ें विकसित करने हेतु जड़ हॉर्मोन का प्रयोग किया जाता है।
– उदाहरण:- नीबूवर्गीय, अमरूद, लीची, अनार व आम आदि।
3. कलिकायन (Budding)
– सांकुर (एकलिका) जो की कलिका के रूप होती है जिसको मूलवृंत के साथ मिलाकर एक नवीन पादप निर्माण किया जाता है। इस क्रिया को कलिकायन (बडिंग) कहा जाता है।
– कलिकायन में पादप के दो भाग होते है एक भाग सांकुर (Scion) तथा दूसरा मूलवृंत (Root stock)
– सांकुर पादप की वृद्धि, फल, फूल विभाग अर्थात् पादप उत्पादक भाग तथा दूसरा भाग मूलवृंत जिससे जड़ तंत्र विकसित होता है।
– कलिकायन में मूलवृंत 1 साल पुराना होना चाहिए।
– कलिका 4-6 माह पुरानी होनी चाहिए।
– कलिकायन में Scion व मूलवृंत के मिलान बिंदु को मैटूकस कहा जाता है तथा मिलान वाले भाग को बाँध दिया जाता है।
1. शील्ड कलिकायन (T-Budding)
2. पैबंद कलिकायन (Patch budding)
3. वलय कलिकायन (Ring budding)
4. चिप कलिकायन (Chip budding)
(i) शील्ड कलिकायन
– यह विधि उन फलदार पौधों में काम ली जाती है। जिनकी छाल मुलायम होती है मूलवृंत पर 20-25 सेमी. की ऊँचाई पर एक 2.5-3.0 सेमी. का चीरा लगाया जाता है तथा इसके समान्तर दूसरा खड़ा चीरा लगाया जाता है जिसमें मातृवृक्ष से मांसल कलिका को शील्ड आकार में निकालकर मूलवृंत में फँसाकर बाँध दिया जाता है तथा 25-30 दिनों में कलिका की फुटान शुरू हो जाती है।
– T कलिकायन में चीरा ‘T’ आकार का होने के कारण इसे T कलिकायन कहा जाता है।
– मूलवृंत पर उल्टा T आकार का चीरा लगाने पर उसको उल्टी ‘T’ कलिकायन कहा जाता है।
– H आकार का चीरा लगाने पर H कलिकायन कहा जाता है।
– उदाहरण – नीबू, संतरा, माल्टा, बेर, हाइब्रिड गुलाब, मौसम्बी, आडू, किन्नो व आलू बुखारा आदि।
(ii) पैबंद कलिकायन
– मूलवृंत पर 20-25 सेमी. की ऊँचाई पर 2.5 -3.0 सेमी. आकार का आयताकार/वर्गाकार कटान लगाया जाता है। जिस पर इसी आकृति का मातृवृक्ष पौधे से सांकुर (Scion) को लाकर मूलवृंत पर लगाया जाता है जो की एक माह में फुटान शुरू कर देता है।
– उदाहरण – आँवला व अखरोट
(iii) वलय कलिकायन
– कलिकायन की इस विधि को वलय/छल्ला व रिंग कलिकायन के नाम से भी जाना जाता है। इसमें मूलवृंत के 20-25 सेमी. ऊपर शीर्ष से नीचे की तरफ वलय आकार का कटान लगाकर छाल को हटा दिया जाता है इसी व्यास की कलिका (Scion) को मातृवृक्ष से अलग कर मूलवृंत पर लगाया जाता है।
उदाहरण – बेर, सिनकोना व शहतूत आदि।
(iv) चिप कलिकायन
– इस विधि में मूलवृंत पर 20-25 सेमी. की ऊँचाई पर 3.5-5 सेमी. का कटान लगाते हैं जो खाँचे की तरह होता है। इसमें मातृवृक्ष से कलिका लाकर लगाई जाती है।
उदाहरण – अंगूर
4. ग्राफ्टिंग (उपरोपण)
– उपरोपण द्वारा तैयार पौधा दो भागों से मिलकर बना होता है–
1. मूलवृंत – मूलवृंत 1-2 साल पुराना काम में लिया जाता है।
2. सांकुर – सांकुर शाख 4-6 माह पुरानी होनी चाहिए।
1. भेंट कलम (Inarching/Attached grafting)
– इस विधि में मूलवृंत को मातृवक्ष की सांकुर शाख के पास लेकर जाते हैं, जहाँ सांकुर शाख को मातृ वृक्ष से बिना अलग किए मूलवृंत से मिलन करवाया जाता है, जिसमें मूलवृंत व सांकुर शाख में मिलन होने के बाद जब नया पादप का निर्माण हो जाता है तब सांकुर शाख को मातृ वृक्ष से अलग किया जाता है।
– इनार्चिंग दक्षिणी भारत में आम के प्रवर्द्धन की व्यावसायिक विधि है।
– उदाहरण:- आम, अमरूद व चीकू।
डिटेच्ड ग्राफ्टिंग:-
1. विनियर ग्राफ्टिंग-
– यह आम के प्रवर्द्धन की व्यावसायिक विधि है।
– यह प्रवर्द्धन की सरल विधि, सर्वाधिक अपनाई जाती है।
– ग्राफ्टिंग की इस विधि में मूलवृंत पर 20-25 सेमी. की ऊँचाई पर एक तिरछा कटान लगाकर छाल को हटाया जाता है तथा इसी आकार में सांकुर शाख तैयार की जाती है।
– यह आम के प्रवर्द्धन की व्यावसायिक विधि है तथा उत्तरी भारत में सर्वाधिक काम में ली जाती है।
2. स्टोन/एपिकोटाल ग्राफ्टिंग –
– यह आम में महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र तथा गुजरात के कुछ भाग में इसे अपनाया जाता है।
– इसमें मूलवृंत 15-20 दिन पुराना ताम्र रंग का होता है जो कि अभी-अभी (स्टोन) गुट्टी से निकला है को 10-15 सेमी. ऊँचाई से काटा जाता है तथा मूलवृंत पर खड़ा कटान लगाया जाता है जिसमें उचित किस्म का सांकुर लगाकर नवीन पादप निर्माण किया जाता है।
– सांकुर इसको In-Situ प्रवर्द्धन भी कहते हैं।
3. मृद काष्ठ उपरोपण –
– यह विधि आम में अपनाई जाती है। यह विधि स्टोन/एपोटाइल ग्राफ्टिंग की तरह होती है। लेकिन अंतर सिर्फ यह होता है कि इसमें गुठलियों को पहले ही उचित दूरी पर लगा दिया जाता है। जहाँ पादप पर सांकुर को लगाया जाता है। इसमें पादप जड़े नहीं हिलती है।
– In-situ (स्व-स्थाने) विधि भी कहा जाता है।
4. जीभी ग्राफ्टिंग –
– सेब, नाशपती व आडु के मूलवृंत पर जीभ के आकार का कटान बनाकर उपरोपण किया जाता है।
5. ब्रीज ग्राफ्टिंग –
– इस विधि में मूलवृंत जिनमें ऊपरी भाग स्वस्थ है परंतु कॉलर के पास का कुछ भाग क्षतिग्रस्त हो गया है को सुधारने के लिए प्रयोग करते हैं।
6. शीर्ष रोपण –
– पुराने व निम्न श्रेणी की किस्मों को सुधारने के लिए इस विधि का उपयेाग किया जाता है।
– यह बीजू पौधों व जीर्णोद्धार किए जा सकने वाले वृक्षों में अपनाई जाती है।
– उदाहरण:- आम, अमरूद, आँवला, नीबू वर्गीय फल व सेब आदि।
7. डबल ग्राफ्टिंग –
– जब मूलवृंत और सांकुर के बीच मध्यस्थ का प्रयोग किया जाता है तो इसे डबल ग्राफ्टिंग कहते हैं।
– इस उपरोपण का उपयोग विशेष उद्देश्यों की प्राप्ति; जैसे – मुख्य पौधे की वृद्धि नियंत्रण, जैविक व अजैविक तनाव को सहन करने की क्षमता बढ़ाने के लिए प्रयोग करते हैं।
5. दाब का प्राकृतिक रूपान्तरण
(i) ऊपरी भू-स्तारी (रनर्स) (ii) अन्त: भू-स्तारी (सकर्स)
(iii) भू-स्तारी (स्टोलन) (iv) भू-स्तारिका (ऑफशूट)
(i) ऊपरी भू-स्तारी (रनर्स)–
– भूमि के ऊपर से तने से शाखा निकलती है तथा भूमि के समांतर चलती है जहाँ भी मिट्टी के संपर्क में आती है वहाँ जड़ें निकल जाती है; जैसे – स्ट्रॉबेरी
(ii) अन्त: भूस्तारी –
– जब किसी पौधे में मृदा के अन्दर उपस्थित तने की कलिका से नए पादप का विकास होता है तो सकर्स कहा जाता है।
– कलिकायन में जुड़ाव बिंदु से विकसित नहीं कलिका को भी सकर्स कहा जाता है।
– उदाहरण – केला, अन्नानास, खजूर व बाँस आदि।
(iii) भू स्तारी
– यह भी एक विशेष तना जो की मृदा के समांतर वृद्धि करता है तथा इसके अंतिम शीरे पर जड़ें निकलकर नया पौधा बनता है जो मृदा के संपर्क में आने पर नए पादप को जन्म देती है।
– उदाहरण – दूबघास व पुदीना
(iv) भू-स्तारिका (ऑफशूट)
– इसके अन्तर्गत पादप के तने के आधार से एक नवीन शाखा विकास हाता है जिसे ऑफशुट कहा जाता है। सकर्स व ऑफशूट में मुख्य अंतर सकर्स में शाखा का निर्माण जमीन के आन्तरिक सतह से जबकि ऑफशूट में मृदा की सतह या तने के आधार से नए पादप का विकास होता है।
– उदाहरण:- खजूर
रूपातंरण एवं विभाजन
(i) कंद (Tuber)
(ii) शल्कंद (Blub)
(iii) प्रकंद (Rhizome)
(iv) घनकंद (Chorme)
(i) कंद
– भूमिगत तना जिसमें खाद्यान्न/भोजन का संग्रहण होने से तना फूल जाता है। तने पर आँखे पाई जाती हैं जो कि गाँठों को प्रेषित करती हैं इन आँखों को काटकर दूसरी जगह लगाने पर नए पादप का निर्माण होता है।
– उदाहरण – आलू, रतालू व कसावा आदि।
(ii) शल्कंद
– प्याज एक तरह से रूपांतरित पत्तियों का संग्रह होता है जिसमें पत्तियाँ आपस में एक जगह मिलकर शल्कंद का निर्माण करती हैं।
– उदाहरण – प्याज व लहसुन
– प्याज व लहसुन में वायवीय भाग पर छोटी-छोटी कंद दिखाई देती है जिन्हें पत्रकंद कहते हैं।
– अपस्थानिक जड़ों से पौधे का निर्माण होता है, जो कि मृदा के संपर्क में आने पर होता है।
(iii) प्रकंद
– विशेष प्रकार का भूमिगत तना जिस पर पर्व एवं पर्व संधियाँ पाई जाती हैं।
– इसमें भूमिगत तना क्षैतिज रूप से वृद्धि करता है जिनसे नए पादप का विकास होता है।
– उदाहरण – अदरक, हल्दी व केला आदि।
(iv) घनकंद
– विशेष प्रकार की तने की संरचना जो की सूखी पत्तियों के समान ढँका रहता है जिसमें पर्वसंधियाँ होती हैं। जिनसे पादप का निर्माण होता है। यह फूली हुई संरचना है।
उदाहरण – ग्लेडियोलस, केसर व फ्रीसिया आदि।
6. ऊतक संवर्द्धन
– यह पादप प्रवर्द्धन की नवीनतम विधि है।
– इसमें पौधे के किसी सूक्ष्म भाग; जैसे – तना, पत्ती, जड़, पराग व भ्रूण आदि को कृत्रिम माध्यम में प्रत्यारोपित कर नए पौधे तैयार किए जाते हैं।
– ऊतक संवर्द्धन में एक कोशिका से पूरा पौधा बनने की क्षमता होती है।
– केला, अनार, खजूर व स्ट्रॉबेरी आदि पौधे ऊतक संवर्द्धन द्वारा तैयार किए जाते हैं।
– केले में विषाणु रहित पौधे इस विधि द्वारा तैयार किए जा सकते हैं।
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