पाला, लू एवं अफलन जैसी मौसम की विपरीत परिस्थितियाँ एवं इनका समाधान

पादपों की वृद्धि, विकास व उत्पादन को प्रभावित करने वाली दशाओं को प्रतिकूल परिस्थितियों के नाम से जाना जाता है।

 विशेषत: पाला, लू, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि।

 1. पाला, तुषार- उत्तरी भारत, राजस्थान में दिसंबर-जनवरी माह में तापमान 0°C तक रहता है। इस समय रात को पादपों पर बर्फ की परत जमा हो जाती है। जिसे पाला कहा जाता है।

– पाला से नुकसान – पाला से विशेषत: छोटे पौधे व चौड़ी पत्तेदार पौधों को अधिक नुकसान होता है।

 पाला से पपीता, केला, अँगूर अधिक प्रभावित फलदार पौधे हैं।

– कोशिकाओं का जल जम जाता है।

– इन कोशिकाओं में आयतन बाहरी वातावरण से ज्यादा होता है परिणामस्वरूप पादपों की कोशिकाएँ फट जाती हैं व पौधे नष्ट हो जाते हैं।

– पाला से बचाव – सिंचाई करके पाले की संभावना होने पर शाम के समय सिंचाई करें जिससे तापमान में 1-2°C की बढ़ोतरी हो जाती है परिणामस्वरूप फसल पाले से बच जाती हैं।

उपाय:-

 1. धुआँ करना

 2. गंधक का छिड़काव करके – पाले की संभावना पर खेत में H2SO4 का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। 1000 लीटर पानी में 1 लीटर H2SO4 डालकर घोल बनाएँ।

 3. टोटियाँ लगाना

 4. वायुरोधी वृक्ष पट्टी लगाना – वायुरोधी वृक्ष हमेशा उत्तरी-पश्चिमी दिशा में लगाया जाना चाहिए।

 5. हीटर चलाकर – विदेशों में काम लेते हैं।

 (i) गर्म हवाओं से बचाना – भारत में मैदानी क्षेत्रों व राजस्थान में मई-जून माह में गर्म व धूल भरी आँधी चलती है जिसे ‘लू’ कहा जाता है।

 बचाव – 1. सिंचाई करके 2. पौधे की कटाई-छँटाई

 (ii) फलदार पौधे को गर्म लू से बचाने के लिए पेड़ के तने पर चूने का लैप किया जाता है। (कैल्सियम ऑक्साइड CaO)

 2. अतिवृष्टि – आवश्यकता से ज्यादा वर्षा का होना।

 जल विकास की उचित व्यवस्था

 3. अनावृष्टि ̵ वर्षा का न होना।

– उद्यान में अफलन – उद्यान के फलवृक्षों में फलों का नहीं बनना या आंशिक रूप से बनना या बहुत कम संख्या में फूलों, फलों का बनना उद्यान के अफलन नाम से जानते हैं।

– फलोद्यान की अनुत्पादकता – फलोद्यान से अफलन की समस्या या अन्य किसी भी कारण से उद्यान की लागत अगर उद्यान की आय से ज्यादा होती है तो उसे फलोद्यान की अनुत्पादकता कहते हैं। फलोद्यान में अफलन के दो मुख्य कारण होते हैं ̵

 1. बाह्य कारक

 2. आंतरिक कारक

बाह्य कारक –

– अगर उद्यान किसी भी प्रकार की उद्यानिकी क्रियाओं, मौसमी कारकों से अगर उद्यान में अफलन की समस्या उत्पन्न होती है तो वह बाह्य कारक है जो निम्न हैं ̵

 1. पोषक तत्त्वों की प्रकृति – किसी भी उद्यान से अच्छा फलन लेने में पोषक तत्त्वों का अहम योगदान होता है। अगर किसी भी पोषक तत्त्व की कमी हो जाती है तो वह सीधे रूप से फलन को प्रभावित करता है; जैसे – अच्छे फलन हेतु कार्बोहाइड्रेट व नाइट्रोजन (C:N) का संतुलन बना रहना अतिआवश्यक है। अगर फलोद्यान में नाइट्रोजन की अधिकता होगी तो वानस्पतिक वृद्धि अधिक होगी।

– फलोद्यान में अच्छे फलन हेतु C:N अनुपात 3:2 होना चाहिए।

– फलोद्यान में फूलों के लिए फॉस्फोरस, सल्फर व बोरॉन भी महत्त्वपूर्ण पोषक तत्त्व हैं।

 2. मौसम संबंधी प्रवृत्ति – फलोद्यान में फूलों के निकलने से लेकर फलन तक विभिन्न प्रकार के मौसमी कारण जैसे फलों के बनते समय वर्षा का होना, आँधी-तूफान का आना, आदि कारणों से परागकण धुल जाते हैं, जिससे निषेचन संभव नहीं है विभिन्न मौसमी कारकों में – अनावृष्टि, अतिवृष्टि, आँधी तूफान, जलवायु कारक आदि।

 3. रोग व कीटों का प्रभाव – फलों में पुष्पन के समय रोग व कीटों का प्रभाव होने से पुष्पन में समस्या उत्पन्न होती है; जैसे- आम में आम का फुदका व बेर में छाछ्या रोग।

 4. सिंचाई – फलदार पौधों में पुष्पन के समय आवश्यक नमी होनी चाहिए। अगर पौधों में समय पर सिंचाई नहीं की जाए तो फलदार पौधों में पुष्पन व फलन की क्रिया बाधित होती है।

 5. फलदार पौधों में कटाई-छँटाई – फलदार पौधों में प्रूनिंग की क्रिया एक आवश्यक भाग है क्योंकि इसके माध्यम से पौधों की अनावश्यक वानस्पतिक वृद्धि को नियंत्रित किया जाता है जिससे पादपों में फलन हो सके, जैसे – बेर, अँगूर में प्रूनिंग एक आवश्यक कार्यवाही है।

 6. अनुपयुक्त भूमि – यह कारक फलोद्यान की योजना बनाते समय ध्यान रखा जाना चाहिए। अगर मृदा अनुपजाऊ, पथरीली व उचित जल निकास वाली नहीं है तो उन मृदाओं में फलदार पौधों में अफलन की समस्या उत्पन्न होती है।

आन्तरिक कारक –

– यह कारक पौधों की आंतरिक परिस्थितियों से संबंध रखता है।

 1. फलदार पौधों की विकासीय प्रवृत्ति

 2. आनुवंशिक प्रभाव

 3. कायिकीय विकार संबंधी प्रभाव

1. फलदार पौधों की विकासीय प्रवृत्ति–

– इस कारक में फलदार पौधों के पुष्प का विकास व फलों का विकास किस प्रकार होता है, वो शामिल हैं ̵

 A. अपूर्ण एवं एकलिंगी पुष्पों का बनना – फलदार पौधों में कई बार पूर्ण फूलों का विकास नहीं होता है तथा कुछ फलवृक्षों में एकलिंगी पुष्पों का विकास होता है।

– मोनेसियस (उभयलिंगाश्रयी) – कुछ फलदार पौधों में एक ही वृक्ष पर अलग-अलग जगहों पर नर व मादा पुष्पों का बनना मनोसियस कहलाता है।

 उदाहरण – कटहल, अखरोट, नारियल आदि।

– एकलिंगाश्रयी (डायोसियस) ̵ जब नर व मादा पुष्प भिन्न-भिन्न (अलग-अलग) वृक्षों पर पाए जाते हैं; जैसे – पपीता, खजूर।

– B. विषमवर्तिकात्व (हेटरोस्टेलिटी) – जब किसी फलदार पौधे का विकास ही विषमवर्तिकात्व हो तो ऐसे पौधों में वर्तिका परागकोष तंतु से अधिक बड़ी होती है। जिसमें निषेचन की प्रक्रिया बाधित होती है।

 उदाहरण – अनार, चीकू, लीची।

 C. जननांगों की भिन्नकाल परिपक्वता (डाइकोगेमी) – कुछ फलदार वृक्षों में उनके जननांगों में नर व मादा भाग भिन्न-भिन्न समय पर परिपक्व होते हैं।

– प्रोटोएण्ट्री – जब पुष्प में नर भाग पहले परिपक्व हो जाता है तो उसे प्रोटोएण्ड्री कहा जाता है।

 उदाहरण – सीताफल, खजूर, अखरोट, नारियल।

– प्रोटोगायनी – जब पुष्प में मादा पहले परिपक्व हो जाए तो उसे प्रोटोगायनी कहा जाता है।

 उदाहरण – केला, अनार, अंजीर, चीकू।

 D. पराग की नपुंसकता (इनकोपोन्टेर) – कुछ पौधों के पराग जीवनक्षमय नहीं होते हैं, जिससे निषेचन की क्रिया संभव नहीं।

2. आनुवंशिक कारक–

– कई बार फलदार पौधे की आनुवंशिकी ऐसी होती है, जिससे कि पौधों में अफलन को बढ़ावा मिलता है।

 A. असंगतता (इनकम्पेटेबिलिटी) – फलवृक्षों के पुष्प में जननांग उपस्थित होते हैं, एवं नर व मादा भाग में निषेचन की क्रिया भी होती है लेकिन जननांगों में असंगति होने के कारण भ्रूण गिर जाता है, जिसे असंगतता कहते हैं।

 (i) स्पेरोफाइटिक असंगतता (SI) – आम, आँवला

 (ii) गेमेटोफाइटिक असंगतता (GI) – बेर, नाशपती, सेल

 B. स्वबंध्यता (Self Sterity) – इसके अन्तर्गत पुष्प में नर व मादा भाग (जननांग) उपस्थित होते हैं। लेकिन वे आपस में निषेचन की प्रक्रिया में भाग नहीं लेते हैं (निषेचन नहीं करते हैं)

 C. संकरीकरण (हाइब्रिडिरी) – गुणसूत्रों की संख्या में होने वाले विभाजन के कारण जो विकार हो।

3. कायिकीय विकार –

– फलदार पौधों में कायिकीय विकार का अर्थ उनमें किसी विशेष पोषक तत्त्वों की कमी। वातावरणीय कारकों के कारण उनमें अफलन की समस्या उत्पन्न हो जाती है। विशेषकर पौधों में अगर C:N अनुपात असंतुलित होता है, तो पुष्पन की प्रक्रिया पूर्ण नहीं हो पाती है। अत: C:N अनुपात संतुलित होना चाहिए।

अफलन की समस्या का नियंत्रण –

 1. पराग देने वाले फलवृक्षों को लगाना (पॉलीनाइजर्स) – फलोद्यान में अफलन के निराकरण हेतु कुछ ऐसे पादपों का रोपण किया जाए जो पराग ज्यादा उत्पन्न करते हैं; जैसे – आम, बेर, पपीता, के नर पौधे लगाना।

 2. छाल उतारक/वलय बनाना पौधों में कार्बोहाइट्रेट की मात्रा बढ़ाने के लिए पौधे के तने, शाखाओं पर वलय आकार की 1®1.5 सेमी. चौड़ी पट्टी उतारकर कार्बोहाइड्रेट को बढ़ाया जाता है।

 3. जड़ों की कटाई-छँटाई – कई बार फलवृक्षों की जड़ों की ज्यादा वृद्धि होने से अफलन की समस्या उत्पन्न हो जाती है इसलिए पेड़ के चारों तरफ 50-70 सेमी. चौड़ी खाई खोदकर अतिरिक्त जड़ों को हटाया जाता है व कुछ दिनों बाद पोषक तत्त्व डालकर गड्डों को भर देते हैं।

 4. परागण लाने व ले जाने वाले कीटों को बढ़ावा – तितली, भौरा, घरेलू मक्खी, मधु मक्खी।

 5. फलोद्यान का प्रबंध – सिंचाई, रोग-कीटों का नियंत्रण, उर्वरकों का प्रयोग।

 6. पादप नियंत्रकों का प्रयोग – कुछ पादप नियंत्रक फलदार पौधों में फूलों व फलों को झड़ने से रोकते हैं, जैसे – 2,4-D व NAA आम व बेर में 2,4D की 10-15PPM की मात्रा का प्रयोग करने पर फूलों व फलों को झड़ने से रोका जा सकता है।

– नीबू वर्गीय फलों में 2,4DPPM की 15PPM मात्रा फलों को झड़ने से रोकती है। (may to Sep)

– आम सितंबर-अक्टूबर माह में NAA की 250PPM मात्रा एकान्तरण फलन को नियंत्रित करने में मदद करती है।

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