मृदा क्षरण व मृदा संरक्षण के उपाय (Measures to prevent soil erosion and conserve soil)

मृदा क्षरण व मृदा संरक्षण के उपाय (Measures to prevent soil erosion and conserve soil)

मृदा क्षरण व मृदा संरक्षण के उपाय

मृदा क्षरण/अपरदन (Soil erosion)

· मृदा कणों का विभिन्न कारकों यथा जल, वायु, गुरुत्वाकर्षण बल आदि की सहायता से एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमन करना, मृदा क्षरण कहलाता है।

· मृदा क्षरण 2 प्रकार से होता है–

मृदा क्षरण

प्राकृतिक मृदा क्षरणकृत्रिम/त्वरित मृदा क्षरण
प्राकृतिक रूप से बिना किसी बाह्य हस्तक्षेप के लगातार व धीरे-धीरे होने वाला क्षरण, प्राकृतिक मृदा क्षरण कहलाता है।कृत्रिम क्षरण सबसे नुकसानदायक होता है।
प्राकृतिक क्षरण में मृदा विनाश व मृदा निर्माण में सामंजस्य होता है।कृत्रिम क्षरण विभिन्न मानव क्रियाओं, जैसे- वनों की कटाई, पशु चराई, अवैज्ञानिक ढंग से कृषि कार्य करने से कृत्रिम क्षरण होता है।
कोई विशेष हानि नहीं होती है।इसे मनुष्य द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है।

मृदा क्षरण के मुख्य कारक:-

जल द्वारा मृदा क्षरण:-

· जल द्वारा मृदा को अपने साथ बहाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना जल क्षरण कहलाता है।

· जल क्षरण के निम्नलिखित प्रकार हैं-

1.   बौछार क्षरण (Splash erosion):-

· जल द्वारा मृदा क्षरण की प्रारंभिक अवस्था है।

· वर्षा की बूँदें जब मृदा कणों पर गिरती है तो मृदा कण अपने स्थान से हट जाते हैं।

· वर्षा बूँदों का आकार, गहनता व त्वरितता इसे प्रभावित करने वाले मुख्य कारक हैं।

2.   परत क्षरण (Sheet erosion):-

· इसमें खेत की उपजाऊ मिट्‌टी की ऊपरी परत जल के साथ बह जाती है इसलिए यह सबसे हानिकारक क्षरण है।

· इस क्षरण को किसान की ‘रेंगती हुई मृत्यु’ भी कहते हैं।

· यह जल क्षरण की दूसरी अवस्था है जो कि आँखों से दिखाई नहीं देती है।

3.   रिल क्षरण (Rill erosion):-

· जब पानी ढाल की ओर बहता है तो छोटी-छोटी अंगुलीनुमा नालियाँ बन जाती हैं।

· इन नालियों को समय रहते विभिन्न कृषि क्रियाओं द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है।

· ढलानयुक्त व खाली भूमि में यह सर्वाधिक देखने को मिलता है।

4.   अवनालिका क्षरण (Gully erosion):-

· जब रिल नालियों को समय पर नियंत्रित नहीं किया जाता तो ये नालियाँ और अधिक गहरी व चौड़ी हो जाती हैं इस प्रकार होने वाले क्षरण अवनालिका क्षरण कहलाता है।

· यह रिल क्षरण की बढ़ती अवस्था है जिसे सामान्य कृषि क्रियाओं द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है।

· इसे नलीदार क्षरण या अधोमृदा क्षरण भी कहते हैं।

· यह मृदा क्षरण का भयंकर/विकराल रूप है।,

· चंबल नदी के क्षेत्र (कोटा) में यह देखने को मिलता है।

अवनालिका मृदा क्षरण

क्र.सं.अवनालिकागहराईचौड़ाईढलान
1.छोटी अवनालिका<3m<18m<8%
2.मध्यम अवनालिका3-9m18-25m8-15%
3.बड़ी अवनालिका>9m>25m>15%

नोट:-   जल क्षरण को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला कारक – वर्षा की तीव्रता

· खड्‌ड़ क्षरण (Revine erosion) :- नदियों के किनारे होने वाला क्षरण।

· जल क्षरण का बढ़ता हुआ क्रम – बौछार < परत < रिल < अवनालिका

वायु द्वारा मृदा क्षरण:-

· शुष्क व अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में वायु द्वारा मृदा कणों को मूल स्थान से स्थानांतरित करना, वायु क्षरण कहलाता है।

· राजस्थान में सर्वाधिक मृदा क्षरण वायु द्वारा होता है, क्योंकि यहाँ मार्च से जून तक तेज हवाएँ चलती हैं।

· वायु क्षरण के प्रकार निम्नलिखित हैं-

1.    निलंबन (Suspension):-

· जिन मृदा कणों का व्यास 0.1mm या इससे कम होता है। ये हवा के साथ हजारों किलोमीटर दूर तक स्थानांतरित हो जाते हैं।

· कुल वायु क्षरण में 3-4% क्षरण निलंबन द्वारा होता है।

2.   उच्छलन (Saltation):-

· जिन मृदा कणों का व्यास 0.1 से 0.5 mm के मध्य होता है। इन पर जब हवा का सीधा दबाव पड़ता है तो ये हवा के साथ धीरे-धीरे चलते हैं फिर गिर जाते हैं यह क्रिया बार-बार होती है इसे उच्छलन कहते हैं।

· कुल वायु क्षरण में 50-75% क्षरण उच्छलन द्वारा होता है।

3.   सतह सर्पण (Surface creep):-

· जिन मृदा कणों का व्यास 0.5mm से अधिक होता है। ये वायु के साथ नहीं उड़ सकते हैं तथा भूमि की सतह पर रेंगकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित हो जाते हैं।

· सतह सर्पण द्वारा 5-25% वायु क्षरण होता है।

मृदा अपरदन को प्रभावित करने वाले कारक:-

· जलवायु

· भूमि की ढाल/स्थलाकृति

· अतिवृष्टि/अनावृष्टि

· अनियंत्रित पशुचारण

· मृदा गुण

· वनस्पति

· नदी बहाव

· अवैज्ञानिक कृषि

· झूमिंग कृषि

महत्त्वपूर्ण बिंदु:-

· जल व वायु दोनों के संयुक्त प्रभाव से होने वाला मृदा क्षरण वेव क्षरण/तरंग क्षरण (Wave erosion) कहलाता है।

· मृदा क्षरण ‘खेत का टीबी रोग’ कहलाता है।

· भारत में सर्वाधिक मृदा क्षरण जल द्वारा होता है।

· राजस्थान में जल द्वारा क्षरण कोटा, बूँदी, बाराँ, झालावाड़ एवं सवाईमाधोपुर में होता है।

· राजस्थान में सर्वाधिक मृदा क्षरण वायु द्वारा होता है।

· मृदा अपरदन की दर 12 टन प्रति हेक्टेयर/वर्ष से अधिक नहीं होनी चाहिए, जबकि भारत में यह दर 16 टन/हेक्टेयर/वर्ष है।

मृदा संरक्षण (Soil conservation)

· मृदा संरक्षण का संबंध उन विधियों से हैं जिनसे मृदा के अपने मूल स्थान से स्थानांतरण को रोका जा सके।

· मृदा संरक्षण के जनक – H.H. बेनेट

· भारतीय मृदा एवं जल संरक्षण अनुसंधान संस्थान – देहरादून (उत्तराखंड)

 · मृदा क्षरण को रोकने की विधियाँ निम्नलिखित हैं-

1. शस्य विधियाँ:- यह विधियाँ उन क्षेत्रों में अपनाई जाती हैं जहाँ भूमि का ढाल 2% से कम हो।

2. यांत्रिक विधियाँ:- जहाँ भूमि की ढलान 2% से अधिक हो।

1. शस्य विधियाँ (Agronomic measures):-

· समोच्च खेती (Contour farming):- ढाल के विपरीत खेती करना कंटूर फार्मिंग कहलाता है।

· समोच्च भू-परिष्करण:- भू-परिष्करण क्रियाएँ ढाल के विपरीत एवं समोच्च रेखा के समांतर करना।

वायुरोधी वृक्ष व पटि्टयाँ:-

(a)  वायु रोधी वृक्ष (Shelter belt):- खेत के उत्तर-पश्चिम दिशा में बड़े आकार के फैलने वाले वृक्ष; जैसे- नीम, शहतूत, आम, जामुन, शीशम आदि को लगाते हैं जिससे मृदा क्षरण को रोका जा सके।

(b)   वायु रोधी पट्टिका (Wind  breaker):- कोई भी भौतिक संरचना जो वायु अपरदन को रोकने में सक्षम हो, वायुरोधी पटि्टका के रूप में प्रयोग की जाती है।

· फसल चक्र – घासों व मृदा क्षरण को कम करने वाली फसलों को फसल चक्र में शामिल करना चाहिए।

· स्ट्रीप क्रोपिंग – मक्का, ज्वार, बाजरा, (अपरदन बढ़ाने वाला) एवं मूँग, मोठ, चवला (अपरदन घटाने वाला)

· मृदा क्षरण अवरोधी फसलों की बुआई करें।

· दलहनी फसलें – मूँग, मोठ, ग्वार आदि।

· पल्वार (Mulching) – मृदा सतह को ढककर मृदा क्षरण से सुरक्षित करते हैं।

उदाहरण:- घास, पत्तियाँ, फसलों के अवशेष व प्लास्टिक मल्च आदि।

· काली मृदा में वर्टीकल मल्चिंग का प्रयोग करते हैं।

· मृदा में हरी खाद व गोबर की खाद मिलाकर कण समूह का आकार बढ़ाया जाता है।

· ले फार्मिंग – फसलों की खेती के साथ घास की खेती करना।

· वृक्षारोपण करना।

2. यांत्रिक विधियाँ (Mechanical measures):-

· क्यारी/थाला बनाना:- कंटूर के समांतर थालों का निर्माण करने के लिए बेसिन लिस्टर का प्रयोग किया जाता है।

· अधो भूमि की गहरी जुताई :- अधो भूमि की जुताई करने के लिए सब-सोइलर (Sub soiler) की सहायता ली जाती है।

· कंटूर टेरेस बनाना:- अधिक ढालू भूमि को खेती योग्य बनाने के लिए खेत में टेरेस बनाए जाते हैं। ये टेरेस जल शोषण को बढ़ाते हैं। पानी के बहाव को सीधे ढाल की ओर जाने से रोकते हैं।

· कंटूर खाई बनाना:- 60cm चौड़ी व 30cm गहरी खाई बनाई जाती है।

· गहरी काली मृदा में Broad bed and furrow system काम में लेते हैं।

· मुख्यत: भारत में कंटूर बडिंग व ग्रेडेड बडिंग काम में लेते हैं।

विभिन्न यांत्रिक विधियाँ व ढाल प्रतिशत

क्र.सं.विधियाँढाल (%)
1.ग्रेडेड बडिंग2-10%
2.जिंग टेरेसिंग3-10%
3.कंटूर बडिंग6%
4.बेंच टेरेसिंग16-33%

3. रासायनिक विधियाँ:-

· जल शक्ति रसायन को मृदा की जल धारण क्षमता बढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाता है।

· बिटुमीन क्ले

· पॉलीविनायल एल्कॉहल (PVC)

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