राजस्थान की बोलियाँ
राजस्थानी भाषा का उद्भव –
● भारतीय आधुनिक भाषाओं की जननी अपभ्रंश मानी जाती है तथा राजस्थानी भाषा को अपभ्रंश की पहली संतान कहा जाता है।
● राजस्थानी भाषा की उत्पत्ति शौरसेनी प्राकृत के गुर्जरी अपभ्रंश से हुई।
● राजस्थानी भाषा के विकास में भारोपीय भाषा की आर्य भाषा महत्त्वपूर्ण है।

● 8वीं शताब्दी में उद्योतन सूरी द्वारा रचित ग्रंथ कुवलयमाला में वर्णित 18 देशी भाषाओं में ‘मरुवाणी’ को मरुदेश की भाषा के रूप में उल्लेख किया गया।
● अबुल फजल द्वारा रचित ग्रंथ आइन-ए-अकबरी तथा कवि कुशललाभ द्वारा रचित ग्रंथ पिंगल शिरोमणि में ‘मारवाड़ी’ शब्द का प्रयोग किया गया है।
● जॉर्ज थॉमस ने 1800 ई. में राजस्थान के लिए सर्वप्रथम ‘राजपूताना’ शब्द का प्रयोग किया।
● वर्ष 1829 कर्नल जेम्स टॉड द्वारा लिखित ‘दी एनल्स एण्ड एंटीक्वीटीज ऑफ राजस्थान’ में राजपूताना क्षेत्र के लिए राजस्थान, रायथान, रजवाड़ा शब्दों का उल्लेख हैं, इसमें सर्वप्रथम किसी क्षेत्र विशेष के लिए राजस्थान शब्द का प्रयोग किया गया।
● वर्ष 1912 में जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया’ में सर्वप्रथम राजस्थान की भाषा के लिए राजस्थानी नाम का प्रयोग किया गया।
● डॉ. जॉर्ज अब्राहम एवं पुरुषोत्तम मेनारिया ने राजस्थान भाषा की उत्पत्ति शौरसेनी प्राकृत के नागरी अपभ्रंश से होना बताई है।
● डॉ. एल.पी. टैस्सीटोरी ने अपनी पत्रिका ‘इंडियन ऐन्टीक्वेरी’ में राजस्थानी की उत्पत्ति एवं विकास पर प्रकाश डाला।
● उनके अनुसार इस भाषा का अस्तित्व 12वीं सदी के लगभग हो चुका था।
● डॉ. एल.पी. टैस्सीटोरी, माणिक्यलाल, मुंशी डॉ. मोतीलाल मेनारिया, कन्हैयालाल आदि ने राजस्थानी भाषा का विकास गुर्जरी अपभ्रंश से हुआ है।
● 17वीं सदी में राजस्थानी भाषा का विकास एक स्वतंत्र भाषा के रूप में होने लगा था तथा राजस्थानी भाषा के विकास को निम्नलिखित चरणों में स्पष्ट किया जाता है-
1. गुर्जरी अपभ्रंश – 11वीं से 13वीं सदी
2. प्राचीन राजस्थानी – 13वीं से 16वीं सदी
3. मध्य राजस्थानी – 16वीं सदी से 18वीं सदी
4. आधुनिक (अर्वाचीन) राजस्थानी – 18वीं सदी से अब तक
● 1700 से 1900 ई. के मध्य के काल को राजस्थानी भाषा का स्वर्णकाल माना जाता है।
● राजस्थान के विभिन्न अंचलों में अनेक प्रकार की भाषाएँ बोली जाती हैं परन्तु मुख्य रूप से राजस्थानी भाषा को दो रूपों से जाना जाता है-
1. पश्चिमी राजस्थानी
● पश्चिमी राजस्थानी भाषा की प्रतिनिधि चार बोलियाँ हैं –
मारवाड़ी, मेवाड़ी, वागड़ी व शेखावाटी
● इस भाषा के साहित्यिक रूप को ‘डिंगल’ कहा जाता है।
जैन तथा चारण साहित्य डिंगल भाषा में अधिक लिखे गए हैं।
● इसका विकास गुर्जरी अपभ्रंश से हुआ।
● प्रमुख ग्रंथ – अचलदास खींची री वचनिका, रुक्मणि हरण, ढोला मारू रा दूहा, संगत रासो, राव जैतसी रो छंद व राजरूपक आदि।
2. पूर्वी राजस्थानी
● पूर्वी राजस्थानी भाषा की प्रतिनिधि चार बोलियाँ हैं-
ढूँढाड़ी, हाड़ौती, मेवाती व अहीरवाटी
● इस भाषा के साहित्यिक रूप को ‘पिंगल’ कहा जाता है।
● भाट जाति के अधिकांश साहित्य पिंगल भाषा में लिखित हैं।
● इसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ।
● प्रमुख ग्रंथ – विजयपाल रासो, वंश भास्कर, खुमाण रासो, पृथ्वीराज रासो आदि।
● 21 फरवरी को ‘राजस्थानी भाषा’ दिवस तथा 14 सितम्बर को ‘हिन्दी दिवस’ मनाया जाता है।
● राजस्थान की राजभाषा हिंदी तथा मातृभाषा राजस्थानी है।
● राजस्थान के संबंध में एक लोकोक्ति प्रचलित है-
‘पाँच कोस पर पाणी बदले, सात कोस पर वाणी’
राजस्थानी भाषा का वर्गीकरण | |
जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन | डॉ. एल.पी. टैस्सीटोरी |
राजस्थानी भाषा के 5 प्रकार बताए- 1. उत्तर-पूर्वी राजस्थानी 2. मध्य-पूर्वी राजस्थानी 3. दक्षिणी-पूर्वी राजस्थानी 4. पश्चिमी-राजस्थानी 5. दक्षिणी-राजस्थानी | राजस्थानी भाषा के 2 प्रकार बताए- 1. पूर्वी राजस्थानी 2. पश्चिमी राजस्थानी |
राजस्थानी भाषा की प्रमुख बोलियाँ
A. मारवाड़ी बोली :-
● उत्पत्ति – 8वीं सदी में शौरसेनी प्राकृत के गुर्जरी अपभ्रंश से हुई।
● 8वीं शताब्दी में उद्योतन सूरी द्वारा रचित ग्रंथ कुवलयमाला में मारवाड़ी को मरुवाणी कहा गया।
● विशुद्ध मारवाड़ी – जोधपुर के आसपास के क्षेत्र में।
● पश्चिमी राजस्थान की प्रमुख बोली जो क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थानी बोलियों में प्रथम स्थान रखती है।
● अन्य क्षेत्र – जैसलमेर, पाली, नागौर, बाड़मेर, बीकानेर, जालोर, सिरोही।
● यह राजस्थान की सबसे प्राचीन व सर्वाधिक बोली जाने वाली बोली है।
● इस भाषा का साहित्यिक रूप डिंगल कहलाता हैं।
● प्राचीन जैन साहित्य और मीराबाई के पद इसी भाषा में रचित हैं।
● राजिया के सोरठे, वेलि क्रिसन रूकमणी री, ढोला-मरवण, मूमल आदि लोकप्रिय काव्य इसी बोली में हैं।
● प्रमुख उपबोलियाँ– मेवाड़ी, वागड़ी, शेखावाटी, गौड़वाड़ी, थली, नागौरी, देवड़ावाटी, खैराड़ी, बीकानेरी आदि।
1. मेवाड़ी बोली
● मेवाड़ क्षेत्र में उदयपुर, राजसमंद, भीलवाड़ा, चित्तौड़गढ़ जिलों में बोली जाती है।
● यह राजस्थान की दूसरी प्राचीन बोली तथा दूसरी महत्त्वपूर्ण बोली है।
● मोतीलाल मेनारिया ने मेवाड़ी को मारवाड़ी की ही उपबोली माना है।
● कुम्भा की कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति में मेवाड़ी भाषा का प्रयोग किया गया है।
● मेवाड़ी में ‘ए’ और ‘ओ’ की ध्वनी का विशेष प्रयोग होता है।
● धावड़ी उदयपुर की एक बोली है।
2. वागड़ी
● डूँगरपुर तथा बाँसवाड़ा में बोली जाने वाली बोली है।
● इस बोली पर मेवाड़ी तथा गुजराती बोली का प्रभाव है।
● जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने इसे ‘भीली बोली’ कहा है।
3. खैराड़ी
● यह बोली ढूँढाड़ी, मेवाड़ी और हाड़ौती का मिश्रण है।
● प्रमुख क्षेत्र – शाहपुरा (भीलवाड़ा), बूँदी
● यह मीणाओं की प्रिय बोली है।
4. शेखावाटी
● सीकर, चूरू व झुंझुनूँ क्षेत्र में बोली जाती है।
● इस पर मारवाड़ी व ढूँढाड़ी का प्रभाव देखा जाता है।
5. गौडवाड़ी
● लूणी नदी के बालोतरा के बाद अपवाह तंत्र को गौड़वाड़ प्रदेश कहते हैं। इस क्षेत्र में बोली जाने वाली बोली गौड़वाडी है।
● यह मुख्यत: जालोर, पाली व सिरोही क्षेत्र में बोली जाती है।
● इसका प्रमुख केन्द्र बाली (पाली) हैं।
● नरपति नाल्ह द्वारा ‘बीसलदेव रासो’ नामक ग्रंथ इसी भाषा में रचित है।
6. देवड़ावाटी
● यह सिरोही के देवड़ा शासकों की बोली है।
● इसका प्रमुख क्षेत्र सिरोही है।
● उपनाम – सिरोही बोली।
7. थली बोली
● बीकानेर के आस-पास बोली जाती है।
8. ढ़ाटी बोली
● यह बाड़मेर क्षेत्र में बोली जाती है।
B. ढूँढाड़ी बोली :-
● ढूँढाड़ी बोली का सबसे प्राचीनतम प्रमाण 18 वीं सदी के ग्रन्थ ‘आठ देस गूजरी’ नामक ग्रन्थ में मिलता है।
● इसके उपनाम झाड़शाही बोली या जयपुरी बोली है।
● यह पूर्वी राजस्थान की प्रमुख बोली है।
● इसके प्रमुख क्षेत्र जयपुर, आमेर, दौसा, टोंक, किशनगढ़ आदि है।
● इस बोली पर ब्रज और गुजराती भाषा का प्रभाव हैं।
● संत दादू एवं उनके शिष्यों की रचनाएँ इसी भाषा में रची गई है।
● प्रमुख उपबोलियाँ– तोरावाटी, मालवी, राजावाटी, नागर चोल, काठेड़ी, चौरासी, हाड़ौती, अजमेरी, किशनगढ़ी।
1. तोरावाटी बोली
● कांतली नदी का अपवाह क्षेत्र तोरावाटी प्रदेश कहलाता है। इस प्रदेश में बोली जाने वाली बोली को तोरावाटी बोली कहते हैं।
● यह सीकर, झुंझुनूँ व जयपुर के उत्तरी भाग में बोली जाती है।
2. किशनगढ़ी
● किशनगढ़ के आस-पास के क्षेत्र में बोली जाती है।
3. अजमेरी
● अजमेर जिले के गाँवों में बोली जाती है।
4. राजावाटी
● सवाई माधोपुर व जयपुर के पूर्वी भाग में बोली जाती है।
5. काठेड़ी
● जयपुर के दक्षिण भाग व दौसा के सीमावर्ती क्षेत्र में प्रचलित है।
6. चौरासी
● जयपुर के दक्षिण-पश्चिम भाग व टोंक के पश्चिम भाग में प्रचलित है।
7. नागर चोल
● सवाई माधोपुर व टोंक जिले के दक्षिणी एवं पूर्वी भाग में बोली जाती है।
8. जगरौती बोली
● करौली क्षेत्र की प्रमुख बोली है।
9. हाड़ौती
● यह ढूँढाड़ी की उपबोली है।
● कोटा, बूँदी, बाराँ, झालावाड़ क्षेत्र में बोली जाती है।
● यह बोली वर्तनी की दृष्टि से सबसे कठिन मानी जाती है।
● कवि सूर्यमल्ल मीसण के सभी ग्रन्थों की रचना इसी भाषा में की गई।
● एम. केलॉग ने वर्ष 1875 में अपनी पुस्तक ‘हिन्दी ग्रामर’ में हाड़ौती शब्द सर्वप्रथम भाषा के रूप में प्रयोग किया गया।
● जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने हाड़ौती को बोली के रूप में मान्यता दी।
C. मेवाती बोली :-
● अलवर, भरतपुर, धौलपुर, करौली के पूर्वी क्षेत्र में बोली जाती है।
● इस पर ब्रजभाषा का प्रभाव देखा जाता है।
● मेव जाति के मुसलमानों द्वारा बोली जाती है।
● संत लालदासजी, चरणदासजी, सहजोबाई, (सहज प्रकाश, सोलह तिथि,) दयाबाई (दयाबोध, विनयमालिका) व डूँगरसिंह आदि की रचनाएँ इसी भाषा में रची गई है।
D. मालवी बोली :-
● यह मधुर व कर्णप्रिय बोली है।
● कोटा, झालावाड़, भैंसरोड़गढ़ (चित्तौड़गढ़) व प्रतापगढ़ के क्षेत्र में बोली जाती है।
● मालवा के राजपूतों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है।
● इस बोली पर गुजराती व मराठी भाषा का भी न्यूनाधिक प्रभाव देखा जाता है।
● मालवी की उपबोलियाँ –
1. निमाड़ी बोली
● दक्षिणी राजस्थान (डूँगरपुर और बाँसवाड़ा) और उत्तरी मालवा क्षेत्र में बोली जाती है।
● इसे ‘दक्षिण राजस्थानी बोली’ भी कहा जाता है।
2. रांगड़ी बोली
● मालवी और मारवाड़ी का मिश्रण रूप है।
● मालवा के राजपूतों की कर्कश बोली है।
E. अहीरवाटी या राठी बोली :-
● अहीर जाति द्वारा बोली जाने वाली बोली हैं।
● इसको राठी, हीरवाल या हीरवाटी बोली भी कहते हैं।
● अलवर के मुंडावर तथा बहरोड़ तहसील व जयपुर की कोटपुतली तहसील क्षेत्र में बोली जाती है।
● यह बोली हरियाणा की बांगरू और राजस्थानी की मेवाती बोली की मिश्रित बोली है।
● इसी भाषा में जोधराज का ‘हम्मीर रासो’, शंकरराव का ‘भीमविलास’ तथा अलीबख्शी ख्याल नामक नाट्य लिखे हुए हैं।
कवि सूर्यमल्ल मीसण
● जन्म – 1815 ई.
● जन्म स्थान – हरणा गाँव, बूँदी
● पिता – चंडीदान
● वह बूँदी के शासक महाराव रामसिंह-द्वितीय के दरबारी कवि थे।
● वह आधुनिक राजस्थानी काव्य या साहित्य के नवजागरण के पुरोधा या जनक कहलाते हैं।
प्रमुख ग्रन्थ –
● वंश भास्कर – गद्य शैली में लिखित इस ग्रंथ में बूँदी राज्य का इतिहास वर्णित है।
● वीर सतसई – इस ग्रंथ की रचना 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय की गई।
● इस ग्रंथ में देशी रजवाड़ों व देशवासियों को अंग्रेजों के खिलाफ बगावत करने की प्रेरणा दी।
● सूर्यमल्ल मीसण ने यह ग्रन्थ भारतीय जनमानस में जागृति लाने के लिए तथा राजस्थान के रणबांकुरों (क्रांतिकारी) से क्रांति का उल्लेख भी किया है।
● बलवंत विलास – यह एक चरित्र ग्रन्थ है। रतलाम के महाराजा बलवन्त सिंह के चरित्र का वर्णन किया गया है।
● रामरंजाट व छंद मयूख
कन्हैयालाल सेठिया
● जन्म – सन् 1919
● स्थान – सुजानगढ़ (चूरू)
● राजस्थानी भाषा के प्रबल समर्थक व विद्वान।
प्रमुख ग्रन्थ
● पीथल-पाथल – कन्हैयालाल सेठिया ने पृथ्वीराज राठौड़ (पीथल) और महाराणा प्रताप (पाथल) के मध्य हुए संवाद पर ‘पीथल-पाथल’ नामक कविता लिखी।
● लीलटांस, धरती-धोरा री, मींझर, मायड़ रो हेलो, वनफूल
● 1 नवम्बर, 2008 को कलकत्ता में कन्हैयालाल सेठिया का निधन हो गया।
प्रमुख पुरस्कार-
1. पद्मश्री– 2004 में दिया गया।
2. राजस्थान रत्न – राजस्थान सरकार द्वारा 2012 में। (मरणोपरान्त)
3. ज्ञानपीठ पुरस्कार – राजस्थानी साहित्य, भाषा एवं संस्कृति अकादमी – बीकानेर द्वारा।
4. सूर्यमल्ल मीसण अवॉर्ड – राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी – बीकानेर द्वारा।
● कन्हैयालाल सेठिया पुरस्कार – कन्हैयालाल की स्मृति में प्रतिवर्ष कन्हैयालाल सेठिया फाउण्डेशन के द्वारा कविता के लिए प्रशस्ति पत्र तथा 1 लाख रुपये का नकद पुरस्कार दिया जाता है।
● लीलटांस के लिए 1976 में इन्हें केंद्रीय साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा पुरस्कृत किया गया।
● निर्ग्रन्थ के लिए इन्हें 1988 में मूर्तिदेवी पुरस्कार
● सबद के लिए 1987 में सूर्यमल्ल मीसण पुरस्कार
● सतवादी के लिए टांटिया पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
● सेठिया ने राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाने की दिशा में भी अथक प्रयास किया।
वियजदान देथा
● जन्म – 1926
● जन्म स्थान – बोरुंदा, जोधपुर
● बाताँ री फुलवारी – इस रचना के लिए देथाजी को राजस्थानी साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया है।
● गोरा हठ जा, माँ रो बदलो, तीडौराव, रूँख, उलझन, केंचूली, द डिलेमा, अलेखूँ हिटलर, सपनप्रिया आदि प्रसिद्ध हैं।
● उनकी रचना परिणति, दुविधा व चरणदास चोर पर फिल्में बन चुकी है।
● उन्होंने कोमल कोठारी के साथ मिलकर रूपायन संस्थान की स्थापना की।
● विजयदान देथा, कोमल कोठारी के साथ ‘रूपायन संस्थान’ के सह-संस्थापक थे। नवम्बर, 2013 में उनका निधन हो गया।
कवि दुरसा आढ़ा
● अकबर के दरबारी कवि थे किन्तु बाद में अकबर का दरबार छोड़कर सिरोही के शासक सुरताण देवड़ा के दरबार में चले गए।
● कवि दुरसा आढ़ा ने राजस्थान के राव चन्द्रसेन, महाराणा प्रताप और सुरताण देवड़ा के बारे में खूब लिखा, जिन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई अकबर से लड़ी।
● प्रमुख रचनाएँ- विरुद्ध छहतरी, किरतार बावनी व झूलणा राव अमरसिंह व गजसिंह रा
कवि बांकीदास
● यह आशिया शाखा के चारण थे और जोधपुर के महाराजा मानसिंह के चहेते एवं काव्य गुरु थे।
प्रमुख रचनाएँ-
1. बांकीदास री ख्यात
2. भूरजाल भूषण
3. नीति मंजरी
4. कुकवि बत्तीसी
5. दातार बावनी
6. मानजसोमण्डन
7. सूर छत्तीसी
8. सीह छत्तीसी
● यह राजस्थान के प्रथम कवि थे, जिन्होंने सर्वप्रथम अंग्रेजों के विरुद्ध चेतावनी के गीत लिखे।
शंकरदान सामौर
● जन्म – बोबासर गाँव, (चूरू)
● वह ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ मुखर होकर आवाज उठाने वाले आधुनिक काल के कवियों में अग्रणी थे।
रचनाएँ
● सगती सुजस, भागीरथी महिमा, वखतरो बायरो, देसदर्पण,साकेत सतर्क।
मेघराज मुकुल
● जन्म – राजगढ़ (चूरू)
● प्रमुख रचनाएँ
● सैनाणी – इसमें सलूम्बर के चूंडावत सरदार रतनसिंह द्वारा मेवाड़ शासक राजसिंह के सैनिक अभियान में जाते समय अपनी नई-नवेली दुल्हन हाड़ी रानी सहल कंवर से निशानी माँगने पर, उसने अपना सिर काटकर दे दिया था, इस बात का वर्णन है।
● कोडमरे, आण री बात, दुर्गावती, चँवरी, सैनाणी री जागी जोत, किरत्या
पंडित झाबरमल्ल शर्मा
● जन्म – 1945
● जन्म स्थान – जसरापुर, खेतड़ी (झुंझुनूँ)
● उन्हें पत्रकारिता के भीष्म पितामह कहते हैं।
● कलकत्ता से ‘ज्ञानोदय’ और ‘मारवाड़ी बन्धु’ का सम्पादन किया।
● 1909 ई. में इनके द्वारा ‘भारत’ साप्ताहिक का संपादन किया गया।
सत्यप्रकाश जोशी
● रचनाएँ- दीवा काँपै क्यू, लस्कर नाथामै, मारू,ऊँजली, राधा, बोल भारमली।
चन्द्र सिंह ‘बिरकाली’
● जन्म – बिरकाली गाँव (हनुमानगढ़)
● रचनाएँ – बादळी और लू
● ‘बादळी’ – यह रचना आधुनिक राजस्थानी भाषा की प्रथम काव्याकृति है।
मणि मधुकर
● जन्म – 1942
● स्थान – राजगढ़ (चूरू)
● कविताएँ – सोजती गेट, आलिजा आज्यो घराँ और पगफैरो
रांगेय राघव
● जन्म – वर्ष 1923
● स्थान – आगरा (उत्तर प्रदेश)
● रचनाएँ – घरौंदा, कब तक पुकारूँ, मुर्दों का टीला, विवाद मठ, तूफानों के बीच, प्रतिदान, चीवर, आखिरी आवाज, रामानुज, विरुढ़क स्वर्ण भूमि का यात्री प्राचीन भारतीय परम्परा का इतिहास है।
श्रीलाल नथमल जोशी
● स्थान – बीकानेर
● रचनाएँ – आभै पटकी – स्वतन्त्रता काल का प्रथम उपन्यास है।
● धोरां रो धोरी, एक बीनणी दो बींद, शरणागत, मेहंदी, कनीर और गुलाब
कहानियाँ
● भाड़ेती, पारण्योडी कंवारी, मोलायाड़ी लाडी
पुरस्कार
● पद्म श्री 2006 में
● राजस्थान रत्न (प्रथम राजस्थान रत्न पुरस्कार)
लक्ष्मी कुमारी चूंडावत
● जन्म – 24 जून, 1916
● मेवाड़ रियासत के देवगढ़ ठिकाने (वर्तमान राजसमंद जिले में स्थित)
● रचनाएँ – देवनारायण बगड़ावत की महागाथा, राजस्थान के रीति रिवाज, कै रे चकवा वात, मँझली रात, शांति के लिए संघर्ष, डूँगजी-जवाहरजी री बातां, लेनिन री जीवनी, मूमल, हिंदुकुश के उस पार
पुरस्कार
● पद्मश्री पुरस्कार
● ‘फ्रॉम पर्दा टू द पीपल’ नामक पुस्तक फ्रांसेस टैफ्ट ने लिखी, जिसमें लक्ष्मी कुमारी चूंडावत की जीवनी लिखी।
पृथ्वीराज राठौड़
● यह बीकानेर शासक राव कल्याणमल के पुत्र तथा महाराजा रायसिंह के भाई थे।
● 1570 ई. में पृथ्वीराज राठौड़ अकबर की सेवा में आगरा चले गए तथा यह अकबर के दरबारी कवि बन गए।
● अकबर ने पृथ्वीराज राठौड़ को गागरोन दुर्ग जागीर में दिया था।
● कन्हैयालाल सेठिया ने पृथ्वीराज राठौड़ और महाराणा प्रताप के मध्य हुए संवाद पर ‘पीथल-पाथल’ नामक कविताएँ लिखी, जिसमें ‘पाथल’ महाराणा प्रताप तथा ‘पीथल’ के नाम से पृथ्वीराज राठौड़ को संबोधित किया।
● डॉ. एल. पी. टैस्सीटोरी ने पृथ्वीराज राठौड़ को डिंगल का हैरोंस कहा।
● प्रमुख ग्रन्थ –
1. वेलि क्रिसन रुकमणि री –
● इस ग्रंथ की रचना गागरोन दुर्ग में की गई ।
● इस ग्रंथ में श्रीकृष्ण एवं रुक्मिणी के विवाह का वर्णन मिलता है। दुरसा आढ़ा ने इस ग्रंथ को 5वाँ वेद, 19वाँ पुराण तथा 109वाँ उपनिषद् की उपमा दी है।
2. दसम भागवत रा दूहा
3. गंगा लहरी
4. कल्ला जी रायमलोत री कुंडलियाँ
5. दशरथ रावत
महाकवि बिहारी
● उनका जन्म कच्छवाहा के प्राचीन केंद्र ग्वालियर के गोविंदपुरा नामक स्थान पर केशवराय चौबे के यहाँ हुआ।
● यह जयपुर के शासक मिर्जा राजा जयसिंह के दरबारी कवि थे।
● उन्होंने गागर में सागर भरने वाली ‘बिहारी सतसई’ की रचना की।
● यह ब्रजभाषा में 713 दोहों से रचित शृंगार रस की उत्कृष्ट कृति है।
सवाई प्रतापसिंह (जयपुर)
● काव्य गुरु – गणपति भारती
● ये ‘ब्रजनिधि’ नाम से कविताएँ लिखते थे तथा इनकी कविताएँ ‘ब्रजनिधि ग्रन्थावली’ में संगृहीत है।
पुण्डरीक विट्ठल
● सवाई प्रतापसिंह के दरबारी कवि थे।
● उन्होंने ब्रजकला निधि, राग चंद्रसेन और नर्तक निर्णय आदि संगीत ग्रंथों की रचना की।
महाराजा सावंतसिंह (नागरीदास) (किशनगढ़)
● भगवान कृष्ण के भक्त थे।
● उन्होंने ‘नागर समुच्चय’ के नाम से कविताएँ लिखी।
महाराव बुद्धसिंह (बूँदी)
● उन्होंने कृष्ण भक्ति पर ‘नेहतरंग’ नामक ग्रन्थ की रचना की।
महाराजा अनूपसिंह (बीकानेर)
● बीकानेर महाराजा कर्णसिंह के पुत्र, जिन्होंने अनूप संस्कृत पुस्तकालय की स्थापना की।
● प्रमुख रचनाएँ – अनूप विवेक, अनूप रत्नावली, काम प्रबोध, अनूपोदय आदि हैं।
● महाराजा जोरावरसिंह (बीकानेर) ने वैद्यकसार ग्रंथ की रचना की।
महाराजा जसवन्तसिंह प्रथम (जोधपुर)
● उन्होंने रीति और अलंकार से युक्त ‘भाषा भूषण’ नामक ग्रन्थ की रचना की।
● अन्य प्रमुख रचनाएँ
● आनंद विलास, सिद्धांत बोध, नायिका भेद, अनुभव प्रकाश, चन्द्र प्रबोध।
महाराजा मानसिंह (जोधपुर)
● उन्होंने जोधपुर में पुस्तक प्रकाश नामक पुस्तकालय की स्थापना की।
● प्रमुख रचनाएँ नाथ पुराण, नाथ स्रोत, तेजमंजरी, पंचावली, जलंधर चरित्र मान विचार।